महाप्रलय का वर्णन

महाप्रलय तीन प्रकार की होती है

एक तो काल (ज्योति निरंजन) करता है। महाकल्प के अंत में जिस समय ब्रह्मा जी की मृत्यु होती है {ब्रह्मा की रात्रि एक हजार चतुर्युग की होती है तथा इतना ही दिन होता है। तीस दिन-रात्रि का एक महीना, 12 महीनों का एक वर्ष, सौ वर्ष का एक ब्रह्मा का जीवन। यह एक महाकल्प कहलाता है}

दूसरी महा प्रलय:- सात ब्रह्मा जी की मृत्यु के बाद एक विष्णु जी की मृत्यु होती है, सात विष्णु जी की मृत्यु के उपरान्त एक शिव की मृत्यु होती है। इसे दिव्य महाकल्प कहते हैं उसमें ब्रह्मा, विष्णु, शिव सहित इनके लोकों के प्राणी तथा स्वर्ग लोक, पाताल लोक, मृत्यु लोक आदि में अन्य रचना तथा उनके प्राणी नष्ट हो जाते हैं। उस समय केवल ब्रह्मलोक बचता है जिसमें यह काल भगवान (ज्योति निरंजन) तथा दुर्गा तीन रूपों महाब्रह्मा-महासावित्री, महाविष्णु-महालक्ष्मी और महाशंकर-महादेवी (पार्वती) के रूप, में तीन लोक बना कर रहता है। इसी ब्रह्मलोक में एक महास्वर्ग बना है, उसमें चैथी मुक्ति प्राप्त प्राणी रहते हैं। {मार्कण्डेय, रूमी ऋषि जैसी आत्मा जो चैथी मुक्ति प्राप्त हैं जिन्हें ब्रह्म लीन कहा जाता है वे यहाँ के तीनों लोकों के साधकांे की दिव्य दृष्टि की क्षमता (रेंज) से बाहर होते हैं। स्वर्ग, मृत्यु व पाताल लोकों के ऋषि उन्हें देख नहीं पाते। इसलिए ब्रह्म लीन मान लेते हैं। परन्तु वे ब्रह्मलोक में बने महास्वर्ग में चले जाते हैं।} फिर दिव्य महाकल्प के आरम्भ में काल (ज्योति निरंजन) भगवान ब्रह्म लोक से नीचे की सृष्टि फिर से रचता है। काल भगवान अपनी प्रकृति (माया-आदि भवानी) महासावित्री, महालक्ष्मी व महादेवी (गौरी)के साथ रति कर्म से अपने तीन पुत्रों (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु, तमगुण शिव) को उत्पन्न करता है। यह काल भगवान उन्हें अपनी शक्ति से अचेत अवस्था में कर देता है। फिर तीनों को भिन्न-2 स्थानों पर जैसे ब्रह्मा जी को कमल के फूल पर, विष्णु जी को समुद्र में शेष नाग की शैय्या पर, शिव जी को कैलाश पर्वत पर रखता है। तीनों को बारी-बारी सचेत कर देता है। उन्हें प्रकृति (दुर्गा) के माध्यम से सागर मंथन का आदेश होता है। तब यह महामाया (मूल प्रकृति/शेराँवाली) अपने तीन रूप बना कर सागर में छुप जाती है। तीन लड़कियों (जवान देवियों) के रूप में प्रकट हो जाती है। तीनों बच्चे (ब्रह्मा, विष्णु, शिव) इन्हीं तीनों देवियों से विवाह करते हैं। अपने तीनों पुत्रों को तीन विभाग - उत्पत्ति का कार्य ब्रह्मा जी को व स्थिति (पालन-पोषण) का कार्य विष्णु जी को तथा संहार (मारने) का कार्य शिव जी को देता है जिससे काल (ब्रह्म) की सृष्टि फिर से शुरु हो जाती है। जिसका वर्णन पवित्र पुराणों में भी है जैसे शिव महापुराण, ब्रह्म महापुराण, विष्णु महापुराण, महाभारत, सुख सागर, देवी भागवद् महापुराण में विस्तृत वर्णन किया गया है और गीता जी के चैदहवें अध्याय के श्लोक 3 से 5 में संक्षिप्त रूप से कहा गया है।

तीसरी महाप्रलय:- एक ब्रह्मण्ड में 70000 वार त्रिलोकिय शिव (काल के तमोगुण पुत्र) की मृत्यु हो जाती है तब एक ब्रह्मण्ड की प्रलय होती है तथा ब्रह्मलोक में तीन स्थानों पर रहने वाला काल (महाशिव) अपना महाशिव वाला शरीर भी त्याग देता है। इस प्रकार यह एक ब्रह्मण्ड की प्रलय अर्थात् तीसरी महाप्रलय हुई तथा उस समय एक ब्रह्मलोकिय शिव (काल) की मृत्यु हुई तथा 70000 (सतर हजार) त्रिलोकिय शिव (काल के पुत्र) की मृत्यु हुई अर्थात् एक ब्रह्मण्ड में बने ब्रह्म लोक सहित सर्व लोकों के प्राणी विनाश में आते हैं। इस समय को परब्रह्म अर्थात् अक्षर पुरूष का एक युग कहते हैं। इस प्रकार गीता अध्याय 8 श्लोक 16 का भावार्थ समझना चाहिए।

‘‘इस प्रकार तीन दिव्य महाप्रलय होती हैं’’:-

प्रथम दिव्य महाप्रलय

जब सौ (100) ब्रह्मलोकिय शिव (काल-ब्रह्म) की मृत्यु हो जाती है तब चारों महाब्रह्मण्डों में बने 20 ब्रह्मण्डों के प्राणियों का विनाश हो जाता है।

तब चारों महाब्रह्मण्डों के शुभ कर्मी प्राणियों (हंसात्माओं) को इक्कीसवें ब्रह्मण्ड में बने नकली सत्यलोक आदि लोकों में रख देता है तथा उसी लोक में निर्मित अन्य चार गुप्त स्थानों पर अन्य प्राणियों को अचेत करके डाल देता है तथा तब उसी नकली सत्यलोक से प्राणियों को खाकर अपनी भूख मिटाता है तथा जो प्रतिदिन खाए प्राणियों को उसी इक्कीसवें ब्रह्मण्ड में बने चार गुप्त मुकामों में अचेत करके डालता रहता है तथा वहाँ पर भी ज्योति निरंजन अपने तीन रूप (महाब्रह्मा, महाविष्णु तथा महाशिव) धारण कर लेता है तथा वहाँ पर बने शिव रूप में अपनी जन्म-मृत्यु की लीला करता रहता है, जिससे समय निश्चित रखता है तथा सौ बार मृत्यु को प्राप्त होता है, जिस कारण परब्रह्म के सौ युग का समय इक्कीसवें ब्रह्मण्ड में पूरा हो जाता है। तत् पश्चात् चारों महाब्रह्मण्डों के अन्दर सृष्टि रचना का कार्य प्रारम्भ करता है। {जिस एक सृष्टि में सौ ब्रह्मलोकिय शिव (काल) की आयु अर्थात् परब्रह्म के सौ युग तक सृष्टि रहती है तथा इतनी ही समय प्रलय रहती है अर्थात् परब्रह्म के दो सौ युग (क्योंकि परब्रह्म के एक युग में एक ब्रह्मलोकिय शिव अर्थात् काल की मृत्यु होती है) में एक दिव्य महाप्रलय जो काल द्वारा की जाती है का क्रम पूरा होता है} यह काल अर्थात् ब्रह्म प्रथम अव्यक्त कहलाता है (गीता अध्याय 7 श्लोक 24-25 में)। दूसरा अव्यक्त परब्रह्म तथा इससे भी परे दूसरा सनातन अव्यक्त जो पूर्ण ब्रह्म है, गीता अध्याय 8 श्लोक 20 का भाव समझें।

दूसरी दिव्य महाप्रलय

इस महाप्रलय के पाँच बार हो जाने के पश्चात् द्वितीय दिव्य महाप्रलय होती है। दूसरी दिव्य महाप्रलय परब्रह्म (अविगत पुरुष/अक्षर पुरुष) करता है। उसमें काल अर्थात् ब्रह्म (क्षर पुरूष) सहित सर्व 21 ब्रह्मण्डों का विनाश हो जाता है। जिसमें तीनों लोक (स्वर्गलोक-मृत्युलोक-पाताल लोक), ब्रह्मा, विष्णु, शिव व काल (ज्योति निरंजन-ओंकार निरंजन) तथा इनके लोकों (ब्रह्म लोक) अर्थात् सर्व अन्य 21 ब्रह्मण्डों के प्राणी नष्ट हो जाते हैं।

विशेष:- सात त्रिलोकिय ब्रह्मा की मृत्यु के बाद एक त्रिलोकिय विष्णु जी की मृत्यु होती है तथा सात विष्णु की मृत्यु के बाद एक त्रिलोकिय शिव की मृत्यु होती है। 70000 (सतर हजार) त्रिलोकिय शिव की मृत्यु के बाद एक ब्रह्मलोकिय शिव अर्थात् काल (ब्रह्म) की मृत्यु परब्रह्म के एक युग के बाद होती है। ऐसे एक हजार युग का परब्रह्म (अक्षर पुरूष) का एक दिन तथा इतनी ही रात्रि होती है। तब प्रकृति (दुर्गा) सहित काल (ज्योति निरंजन) अर्थात् ब्रह्म तथा इसके इक्कीस ब्रह्मण्डों के प्राणी विनाश में आते हैं। तब परब्रह्म (दूसरे अव्यक्त) का एक हजार युग का दिन समाप्त होता है। इतनी ही रात्रि व्यतीत होने के उपरान्त ब्रह्म को फिर पूर्ण ब्रह्म प्रकट करता है। गीता अ. 8 श्लोक 17 का भाव ऐसे समझें। परन्तु ब्रह्मण्डों व महाब्रह्मण्डों व इनमें बने लोकों की सीमा (गोलाकार दिवार समझो) समाप्त नहीं होती। फिर इतने ही समय के बाद यह काल तथा माया (प्रकृति देवी) को पूर्ण ब्रह्म (सत्यपुरूष) अपने द्वारा पूर्व निर्धारित सृष्टि कर्म के आधार पर पुनः उत्पन्न करता है तथा सर्व प्राणी जो काल के कैदी (बन्दी) हैं, को उनके कर्माधार पर शरीरों में सृष्टि कर्म नियम से रचता है तथा लगता है कि परब्रह्म रच रहा है {यहाँ पर गीता अ. 15 का श्लोक 17 याद रखना चाहिए जिसमें कहा है कि उत्तम प्रभु तो कोई और ही है जो वास्तव में अविनाशी ईश्वर है। जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सर्व का धारण-पोषण करता है तथा गीता अ. 18 के श्लोक 61 में कहा है कि अन्तर्यामी ईश्वर सर्व प्राणियों को यन्त्रा (मशीन) के सदृश कर्माधार पर घुमाता है तथा प्रत्येक प्राणी के हृदय में स्थित है।

गीता के पाठकों को फिर भ्रम होगा कि गीता अ. 15 के श्लोक 15 में काल (ब्रह्म) कहता है कि मैं सर्व प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ तथा सर्व ज्ञान अपोहन व वेदों को प्रदान करने वाला हूँ।

हृदय कमल में काल भगवान महापार्वती (दुर्गा) सहित महाशिव रूप में रहता है तथा पूर्ण परमात्मा भी जीवात्मा के साथ अभेद रूप से रहता है जेसे वायु रहती है गंध के साथ। दोनों का अभेद सम्बन्ध है परन्तु कुछ गुणों का अन्तर है। गीता अ. 2 के श्लोक 17 से 21 में भी विस्तृत विवरण है। इस प्रकार पूर्ण ब्रह्म भी प्रत्येक प्राणी के हृदय में जीवात्मा के साथ रहता है जैसे सूर्य दूर स्थान पर होते हुए भी उसकी ऊष्णता व प्रकाश का प्रभाव प्रत्येक प्राणी से अभेद है तथा जीवात्मा का स्थान भी हृदय ही है।

विशेष:- एक महाब्रह्माण्ड (जो पाँच ब्रह्माण्डों का समूह है) का विनाश परब्रह्म के 100 वर्षों के उपरान्त होता है। इतने ही वर्षों तक एक महाब्रह्मण्ड में प्रलय रहती है।

काल अर्थात् ब्रह्म (ज्योति निरंजन) को तो ऐसा जानों जैसे गर्मियों के मौसम में राजस्थान-हरियाणा आदि क्षेत्रों में वायु का एक स्तम्भ जैसा (मिट्टी युक्त वायु) आसमान में बहुत ऊँचे तक दिखाई देता है तथा चक्र लगाता हुआ चलता है। जो अस्थाई होता है। परन्तु गंध तो वायु के साथ अभेद रूप में है। इसी प्रकार जीवात्मा तथा परमात्मा का सुक्ष्म सम्बन्ध समझे। ऐसे ही सर्व प्रलय तथा महाप्रलय के क्रम को पूर्ण परमात्मा (सत्यपुरूष, कविर्देव) से ही होना निश्चित समझे। एक हजार युग जो परब्रह्म की रात्रि है उसके समाप्त होने पर काल (ज्योति निरंजन) सृष्टि फिर से सत्यपुरूष कविर्देव की शब्द शक्ति से बनाए समय के विद्यान अनुसार प्रारम्भ होती है। अक्षर पुरुष(परब्रह्म) पूर्ण ब्रह्म (सतपुरूष) के आदेश से काल (ज्योति निरंजन) व माया (प्रकृति अर्थात् दुर्गा) को सर्व प्राणियों सहित काल के इक्कीस ब्रह्मण्ड में भेज देता है तथा पूर्ण ब्रह्म के बनाए विद्यान अनुसार सर्व ब्रह्मण्डों में अन्य रचना प्रभु कबीर जी की कृपा से हो जाती है। माया (प्रकृति) तथा काल (ज्योति निरंजन) के सूक्ष्म शरीर पर नूरी शरीर भी पूर्ण परमात्मा ही रचता है तथा शेष उत्पत्ति ब्रह्म(काल) अपनी पत्नी दुर्गा (प्रकृति) के संयोग से करता है। शेष स्थान निरंजन पाँच तत्त्व के आधार से रचता है। फिर काल (ज्योति निरंजन अर्थात् ब्रह्म) की सृष्टि प्रारम्भ होती है। इस प्रकार यह परब्रह्म दूसरा अव्यक्त कहलाता है।}

तीसरी दिव्य महा प्रलय

जैसा कि पूर्वोक्त विवरण में पढ़ा कि सत्तर हजार काल (ब्रह्म) के शिव रूपी पुत्रों की मृत्यु के पश्चात् एक ब्रह्म (महाशिव) की मृत्यु होती है वह समय परब्रह्म का एक युग होता है। इसी के विषय में गीता अध्याय 2 श्लोक 12, अध्याय 4 श्लोक 5 तथा 9 में, अध्याय 10 श्लोक 2 में गीता ज्ञान दाता प्रभु कह रहा है कि मेरी भी जन्म मृत्यु होती है। बहुत से जन्म हो चुके हैं। जिनको देवता लोग (ब्रह्मा,विष्णु तथा शिव सहित) व महर्षि जन भी नहीं जानते क्योंकि वे सर्व मुझ से ही उत्पन्न हुए हैं। गीता अध्याय 4 श्लोक 9 में कहा है कि मेरे जन्म और कर्म दिव्य हैं। परब्रह्म के एक युग में काल भगवान सदाशिव वाला शरीर त्यागता है तथा पुनः अन्य ब्रह्मण्ड में अन्य तीन रूपों में विराजमान हो जाता है। यह लीला स्वयं करता है। परब्रह्म का एक दिन एक हजार युग का होता है इतनी ही रात्रि होती है। तीस दिन-रात का एक महीना, बारह महीनों का एक वर्ष तथा सौ वर्ष की परब्रह्म (द्वितीय अव्यक्त) की आयु होती है। उस समय परब्रह्म की मृत्यु होती है। यह तीसरी दिव्य महाप्रलय कहलाती है। तीसरी दिव्य महा प्रलय में सर्व ब्रह्मण्ड तथा अण्ड जिसमें ब्रह्म (काल) के इक्कीस ब्रह्मण्ड तथा परब्रह्म के सात शंख ब्रह्मण्ड व अन्य असंख्यों ब्रह्मण्ड नाश में आवेंगे। धूंधूकार का शंख बजेगा। सर्व अण्ड व ब्रह्मण्ड नाश में आवेंगे परंतु वह तीसरी दिव्य महा प्रलय बहुत समय प्रयन्त होगी। वह तीसरी (दिव्य) महा प्रलय सतपुरुष का पुत्र अचिंत अपने पिता पूर्ण ब्रह्म (सतपुरूष) की आज्ञा से सृष्टि कर्म नियम से जो पूर्णब्रह्म ने निर्धारित किया हुआ है करेगा और फिर सृष्टि रचना होगी। परंतु सतलोक में गए हंस दोबारा जन्म-मरण में नहीं आऐंगे। इस प्रकार न तो अक्षर पुरुष (परब्रह्म) अमर है, न काल निरंजन (ब्रह्म) अमर है, न ब्रह्मा (रजगुण), विष्णु (सतगुण), शिव (तमगुण) अमर हैं। फिर इनके पूजारी (उपासक) कैसे पूर्ण मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं? अर्थात् कभी नहीं। इसलिए पूर्णब्रह्म की साधना करनी चाहिए जिसकी उपासना से जीव सतलोक (अमरलोक) में चला जाता है। फिर वह कभी नहीं मरता, पूर्ण मुक्त हो जाता है। वह पूर्ण ब्रह्म (कविर्देव) तीसरा सनातन अव्यक्त है। जो गीता अ. 8 के श्लोक 20,21 में वर्णन है।

‘‘अमर करुं सतलोक पठाऊं, तातैं बन्दी छोड़ कहांउ‘‘

उसी पूर्ण परमात्मा का प्रमाण गीता जी के अध्याय 2 के श्लोक 17 में, अध्याय 3 के श्लोक 14,15 में, अध्याय 7 के श्लोक 13 और 19 में, अध्याय 8 के श्लोक 3, 4, 8, 9, 10, 20, 21, 22 में, अध्याय 13 श्लोक 12 से 17 तथा 22 से 24, 27, 28, 30-31 व 34 तथा अध्याय 4 श्लोक 31-32, अध्याय 6 श्लोक 7, 19-20, 25 से 27 में तथा अध्याय 18 श्लोक 46, 61, 62 में भी विशेष रूप से प्रमाण दिया गया है कि उस पूर्ण परमात्मा की शरण में जा कर जीव फिर कभी जन्म मरण में नहीं आता है।

{विशेष:- यह काल कला समझने के लिए यह विवरण ध्यान रखें कि त्रिलोक में एक शिव जी है। जो इस काल का पुत्र है जो 7 त्रिलोकिय विष्णु जी की मृत्यु तथा 49 त्रिलोकिय ब्रह्मा जी की मृत्यु के उपरान्त मृत्यु को प्राप्त होता है। ऐसे ही काल भगवान एक ब्रह्मण्ड में बने ब्रह्मलोक में महाशिव रूप में भी रहता है। परमेश्वर द्वारा बनाए समय के विद्यान अनुसार सृष्टि क्रम का समय बनाए रखने के लिए यह ब्रह्मलोक वाला महाशिव (काल) भी मृत्यु को प्राप्त होता है। जब त्रिलोकिय 70000 (सतर हजार) ब्रह्म काल के पुत्र शिव मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं तब एक ब्रह्मलोकिय शिव (ब्रह्म/क्षर पुरुष) पूर्ण परमात्मा द्वारा बनाए समय के विद्यान अनुसार परवश हुआ मरता तथा जन्मता है। यह ब्रह्मलोकिय शिव (ब्रह्म/काल) की मृत्यु का समय परब्रह्म (अक्षर पुरूष) का एक युग होता है। इसीलिए गीता जी के अ. 2 के श्लोक 12, गीता अ. 4 श्लोक 5, गीता अ. 10 श्लोक 2 में कहा है कि मेरे तथा तेरे बहुत जन्म हो चुके हैं। मैं जानता हूँ तू नहीं जानता। मेरे जन्म अलौकिक (अद्भुत) होते हैं।}

अद्भुत उदाहरण:- आदरणीय गरीबदास साहेब जी सन् 1717 (संवत् 1774) में श्री बलराम जी के घर पर माता रानी जी के गर्भ से जन्म लेकर 61 वर्ष तक शरीर में गांव छुड़ानी जिला झज्जर में रहे तथा सन् 1778 (विक्रमी संवत् 1835) में शरीर त्याग गए। आज भी उनकी स्मृति में एक यादगार बनी है जहाँ पर शरीर को जमीन में सादर दबाया गया था। जिसको छतरी साहेब के नाम से जाना जाता है। छः महीने के उपरान्त वैसा ही शरीर धारण करके आदरणीय गरीबदास साहेब जी 35 वर्ष तक अपने पूर्व शरीर के शिष्य श्री भक्त भूमड़ सैनी जी के पास शहर सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) में रह कर शरीर त्याग गए। वहाँ भी आज उनकी स्मृति में यादगार बनी है। स्थान है:- चिलकाना रोड़ से कलसिया रोड़ निकलता है, कलसिया रोड़ पर आधा किलोमीटर चल कर बाएँ तरफ यह अद्वितीय पवित्र यादगार विद्यमान है तथा उस पर एक शिलालेख भी लिखा है, जो प्रत्यक्ष साक्षी है। उसी के साथ में बाबा लालदास जी का बाड़ा भी बना है।

ज्ञान सागर के पृष्ठ 57 से 70 तक तीन युगों में प्रकट होने का प्रकरण है जो पूर्ण रूप से गलत उलट-पटांग करके लिखा है जिसका कोई सिर-पैर नहीं है। यथार्थ ज्ञान पढ़ें कबीर चरित्र बोध के सारांश में इसी पुस्तक के पृष्ठ 473 से 516 तक।

ज्ञान सागर के पृष्ठ 71 से आगे कलयुग में कबीर नाम से प्रकट होने का प्रकरण है। राजा बीर सिंह बघेल, बिजली खान पठान तथा राजा सिकंदर को शरण में लेने का अपुष्ट और पूर्ण रूप से गलत है। पृष्ठ 72 पर नीरू को नूरी लिखा है। कलयुग में प्रकट होने का वास्तविक ज्ञान आप जी कबीर चरित्र बोध के सारांश में पढ़ें।

अन्य प्रकरण बीर सिंह को शरण में लेने का पूर्ण विवरण कबीर सागर के आठवें अध्याय में लिखा है। ज्ञान सागर अध्याय की कोई आवश्यकता नहीं थी। यह काल प्रेरित व्यक्तियों का कारनामा है। 40 अध्याय बनाए हैं। कबीर सागर में ये कुल 9 या 10 अध्याय हैं जिनको बार-बार घटा-बढ़ाकर व्यर्थ का ग्रन्थ विस्तार किया है। अधिकतर अध्यायों में वही प्रकरण बार-बार लिखा है।

प्रमाण:- परमेश्वर कबीर जी के कलयुग में प्रकाट्य को कई अध्यायों में लिखा है। वह भी अपुष्ट (अधूरा) तथा कुछ बनावटी लिखा है।

  1. कंवारी गाय (बछिया) का दूध पीना:-
    ‘‘ज्ञान सागर‘‘ पृष्ठ 74, फिर ‘‘कबीर चरित्र बोध‘‘ पृष्ठ 1794 से 1796, ‘‘स्वसमवेद बोध‘‘ पृष्ठ 134

  2. कबीर जी के नाम से 12 पंथों का चलना:-
    ‘‘कबीर बानी‘‘ पृष्ठ 134, 136, 137, ‘‘कबीर चरित्र बोध‘‘ पृष्ठ 1870, 1835, स्वसमवेद बोध पृष्ठ 155 पर लिखे हैं।

  3. कबीर परमेश्वर द्वारा चार गुरू निर्धारित करना:-
    ‘‘अम्बुसागर‘‘ पृष्ठ 63, ‘‘कबीर चरित्र बोध‘‘ पृष्ठ 1863 से 1866, ‘‘ज्ञान बोध‘‘ 35, अनुराग सागर पृष्ठ 104, 105, 113

विवेचन:- कबीर सागर के अध्याय ‘‘ज्ञान बोध‘‘ के पृष्ठ 35 पर लिखा है कि कबीर जी ने बताया है, हे धर्मदास! चारों युगों में एक-एक आत्मा को मैंने गुरू पद प्रदान किया है। भावार्थ है कि परमेश्वर जी प्रत्येक युग में प्रकट होते हैं और एक-एक अच्छी आत्मा को मिलते हैं। उनको अपना परिचय कराते हैं जैसे धर्मदास जी को करवाया है।

सतजुग शिष्य सहते जी कहाये। द्वापर चतुर्भुज नाम सुनाये।।
त्रोता शिष्य वकेजी भाई। कलयुग में धर्मदास गुसाईंं।।

यह प्रकरण सही है। यही प्रमाण ‘‘अनुराग सागर‘‘ पृष्ठ 104, 105 तथा 113 पर भी है। उसमें भी धर्मदास जी को चैथा गुरू लिखा है। हनुमान बोध पृष्ठ 132 पर पंक्ति नं. 10 में लिखा है कि हनुमान को समझाकर त्रोतायुग में ही चतुर्भुज को मिला, फिर मिलावट करके वाणी बनाई है। पंक्ति नं. 12 में लिखा है कि चतुर्भुज को दरभंगा में गुरू पद दिया। त्रोता का वर्णन है, कलयुग से जोड़ने की कुचेष्टा की है, मिलावट है और जो ‘‘कबीर चरित्र बोध‘‘ पृष्ठ 1863.1866 तथा ‘‘अम्बु सागर‘‘ पृष्ठ 63 पर कहा है कि:-

चार गुरू हैं जग कड़िहारा। सुकृत अंश आदि अधिकारा।।
वंके जी, चतुर्भुज और सहते जी। सुकृति जग में चैथे भेजी।।
जग में नाम होंहि धर्मदासु। जीवन ले राखे सुख वासु।।

भावार्थ:- इस उल्लेख में स्पष्ट है कि श्री धर्मदास जी को ‘‘सुकृति‘‘ कहा है जो चैथे नम्बर पर भेजा है यानि पहले तीन पुण्यात्माओं को गुरूवाई मिल चुकी थी। तब चैथे सुकृति (धर्मदास जी) को परमेश्वर कबीर जी ने गुरूवाई सौंपी है। यह विवरण ‘‘ज्ञान बोध‘‘ पृष्ठ 35 तथा ‘‘अनुराग सागर‘‘ पृष्ठ 104, 105, 113 वाले से मेल करता है जो ‘‘कबीर चरित्र बोध‘‘ पृष्ठ 1862-1863 पर कबीर पंथी दामाखेड़ा वालों ने मनघड़न्त कथा बनाई है कि कलयुग में कबीर जी ने चार जनों को गुरू पद सौंपा है। पहले धर्मदास जी हैं और शेष तीन अभी आए नहीं हैं। 2. चतुर्भुज 3. वंके जी 4. सहत जी। यह भी लिखा है कि अभी तक केवल धर्मदास जी ही प्रकट हैं, अन्य आने शेष हैं। यह प्रकरण गद्य भाग में कहानी की तरह मनघड़न्त बनाकर लिखा है जबकि पृष्ठ 1864 (कबीर चरित्र बोध) पर ‘‘चारों गुरूओं की प्रशंसा-उर्दू सेर‘‘ लिखा है जो मनघड़न्त है। उसी के आधार से मनमुखी कथा बनाई है। इस प्रकार कबीर जी के वास्तविक साहित्य की बुरी दशा हुई है। फिर भी सच्चाई प्रत्यक्ष दिखाई देती है।

यह पृष्ठ 1865 -1866 पर धर्मदास जी की आने वाली संतान से जो गुरू पद प्राप्त करेंगे, उनके आगे साहब लिखा है। यदि ये सेर कबीर साहेब जी ने कहे होते तो साहब कभी नहीं लगाते। सुदर्शन साहब, कमलनाम साहब, धीरजनाम साहब, फिर लिखा है कि चैदहवीं गद्दी वाला करूनाम साहब होगा जबकि वर्तमान में गद्दी पर चैदहवें गुरू श्री प्रकाश मुनि नाम साहब बैठे हैं।

15वें का कोई नाम नहीं, 16वां उदित नाम साहब लिखा है। पाठकों को सहज में ज्ञान हो जाएगा कि सत्य क्या है?

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