चौरासी लाख प्रकार के जीवों से मानव देह उत्तम है
गीता अध्याय 13 श्लोक 22 में भी गीता ज्ञान दाता ने अपने से अन्य परमात्मा का प्रत्यक्ष प्रमाण बताया है। गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित गीता में इस श्लोक का अर्थ बिल्कुल गलत किया है।
पेश है गीता अध्याय 13 श्लोक 22 की फोटोकाॅपी:-
यथार्थ अनुवाद:- जैसे पूर्व के श्लोकों में वर्णन आया है कि परमात्मा प्रत्येक जीव के साथ ऐसे रहता है, जैसे सूर्य प्रत्येक घड़े के जल में स्थित दिखाई देता है। उस जल को अपनी उष्णता दे रहा है। इसी प्रकार परमात्मा प्रत्येक जीव के हृदय कमल में ऐसे विद्यमान है जैसे सौर ऊर्जा सयन्त्रा जहाँ भी लगा है तो वह सूर्य से उष्णता प्राप्त करके ऊर्जा संग्रह करता है। इसी प्रकार प्रत्येक जीव के साथ परमात्मा रहता है। इसलिए इस श्लोक (गीता अध्याय 13 श्लोक 22) में कहा है कि वह परमात्मा सब प्रभुओं का भी स्वामी होने से “महेश्वर”, सब का धारण-पोषण करने से “भर्ता”, सत्यलोक में बैठा प्रत्येक प्राणी की प्रत्येक गतिविधि को देखने वाला होने से “उपदृष्टा”, जीव परमात्मा की शक्ति से सर्व कार्य करता है। जीव परमात्मा का अंश है। (रामायण में भी कहा है, ईश्वर अंश जीव अविनाशी) जिस कारण से जीव जो कुछ भी अपने किए कर्म का सुख, दुःख भोगता है तो अपने अंश के सुख-दुःख का परमात्मा को भी अहसास होता है। सूक्ष्म वेद में लिखा है:-
“कबीर कह मेरे जीव को दुःख ना दिजो कोय।
भक्त दुःखाऐ मैं दुःखी मेरा आपा भी दुःखी होय।।‘‘
गीता अध्याय 17 श्लोक 5-6 में भी कहा है कि जो शास्त्राविरूद्ध घोर तप को तपते हैं। वे परमात्मा को क्रश करने वाले (घोर कष्ट देने वाले) अज्ञानी घोर नरक में गिरते हैं यानि परमात्मा भी दुःख को महसूस करता है।
इसलिए “भोक्ता” कहलाता है। प्रत्येक प्राणी को गुप्त रूप से उचित राय देता है, जिस कारण से परमात्मा “अनुमन्ता” कहलाता है। (परमात्मा शब्द का संधि विच्छेद = परम+आत्मा = श्रेष्ठ आत्मा = परमात्मा।) यदि कोई दुःख का भोग भी देता है, सुख का भोग भी देता है। जैसे कर्म करेगा जीव वैसे अवश्य भोगेगा तो वह “परमात्मा” नहीं कहा जा सकता, वह श्रेष्ठ आत्मा नहीं होता। जैसे इस काल (ब्रह्म के) लोक में विधान है कि जैसा कर्म करोगे, वैसा फल आपको भगवान अवश्य देगा। तो यह प्रभु (स्वामी)तो है, परन्तु ‘‘परम आत्मा’’ नहीं है। इस मानव शरीर में (परः) दूसरा (पुरूषः) परमात्मा जो जीव के साथ अभिन्न रूप से रहता है, जैसे सूर्य प्रत्येक को अपनी ऊर्जा देता है, उसी प्रकार यह दूसरा परमात्मा उपरोक्त महिमा वाला है। जैसे सौर ऊर्जा से जो बल्ब जगता है, उसमें सूर्य होता है यानि सूर्य की ऊर्जा कार्य करती है। इसी प्रकार पूर्ण परमात्मा की भूमिका समझें।
गीता अध्याय 13 श्लोक 23 में भी अन्य (पुरूषम्) परमात्मा बताया है। कहा है कि जो सन्त उपरोक्त प्रकार से (पुरूषम्) परमात्मा, प्रकृति, तथा गुणों सहित जानता है, वह सन्त-साधक सब प्रकार से परमात्मा में लीन (वर्तमान) रहता हुआ पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होता अर्थात् उसका पूर्ण मोक्ष हो जाता है।
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गीता अध्याय 13 श्लोक 24 भी अन्य परमात्मा का वर्णन है जो गीता ज्ञान दाता से अन्य है। कहा है कि जो परमात्मा सूर्य के सदृश जीवात्मा के साथ अभेद रूप से रहता है। उसको साधक ध्यान द्वारा दिव्य दृष्टि से हृदय में देखते हैं जैसे बिजली को टैस्टर द्वारा देख लेते हैं, अन्य साधक ज्ञान सुनकर विश्वास करके परमात्मा का स्वरूप स्वीकार कर लेते हैं। अन्य भक्तजन (कर्मयोगेन) परमात्मा के कर्मों अर्थात् लीलाओं को देखकर परमात्मा का अस्तित्व जान लेते हैं। जैसे संसार में लगभग 7 अरब जनसँख्या है। किसी का भी चेहरा (face) एक-दूसरे से नहीं मिलता। (कवि ने कहा है:- कई अरब बनाए बन्दे आँख, नाक, हाथ लगाए, एक-दूसरे के नाल कोई भी रलदे नहीं रलाए) इससे भी सिद्ध होता है कि कोई सर्वज्ञ शक्ति है, उसे “परमात्मा” कहा जाता है। कुछ भक्तजन परमात्मा के इस प्रकार के कार्य देखकर परमात्मा को मानते हैं।
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गीता अध्याय 13 श्लोक 25 में कहा है कि जो शिक्षित नहीं और जो न ध्यान करते हैं, न ज्ञान को समझ पाते हैं और न वे परमात्मा की संरचना से परमात्मा को समझ पाते हैं। वे अन्य शिक्षित, विद्वान व्यक्तियों से परमात्मा की महिमा सुनकर मान लेते हैं कि जब यह शिक्षित और ज्ञानी व्यक्ति कह रहा है तो परमात्मा है। फिर वे उपासना करने लग जाते हैं। वे उसे सुनने के कारण परमात्मा के अस्तित्व को मानकर उपासना करने के कारण इस मृतलोक (मृत्यु संसार) से पार हो जाते हैं।
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गीता अध्याय 13 श्लोक 26 में तो इतना ही कहा है कि सर्व प्राणी क्षेत्र अर्थात् दुर्गा के शरीर तथा क्षेत्रज्ञ अर्थात् गीता ज्ञान दाता क्षर ब्रह्म के संयोग से उत्पन्न होते हैं। ध्यान रहे गीता ज्ञान दाता ने गीता के इसी अध्याय 13 के श्लोक 1 में कहा है कि “क्षेत्र” तो शरीर को कहते हैं तथा जो शरीर के विषय में जानता है, उसे “क्षेत्रज्ञ” कहते हैं। गीता अध्याय 13 श्लोक 2 में कहा है कि क्षेत्रज्ञ मुझे जान यानि गीता ज्ञान दाता क्षेत्रज्ञ हुआ। इस काल लेाक (इक्कीस ब्रह्माण्डों के क्षेत्र में) में जितने प्राणी उत्पन्न होते हैं, वे दुर्गा जी तथा काल भगवान के संयोग से होते हैं अर्थात् नर-मादा से काल प्रेरणा से काल सृष्टि उत्पन्न होती है।
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गीता अध्याय 13 श्लोक 27 में अन्य परमेश्वर स्पष्ट है जो गीता ज्ञान दाता से अन्य है। (भिन्न है):- जैसे पूर्व के श्लोकों में प्रमाण सहित बताया गया है कि परमेश्वर प्रत्येक प्राणी के शरीर में हृदय में एैसे बैठा दिखाई देता है जैसे सूर्य जल से भरे घड़ों में दिखाई देता है। इसी प्रकार इस श्लोक 27 में कहा है कि परमेश्वर हृदय में बैठा है। जब प्राणी का शरीर नष्ट हो जाता है तो भी परमेश्वर नष्ट नहीं होता। जैसे कोई घड़ा फूट गया, उसका जल पृथ्वी पर बिखर गया और पृथ्वी में समा गया तो भी सूर्य तो यथावत् है। इसलिए परमेश्वर अविनाशी है जो सन्त परमात्मा को इस दृष्टिकोण से देखता है, वह सही जानता है, वह तत्वज्ञानी सन्त है।
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इस श्लोक (गीता अध्याय 13 श्लोक 27) में परमेश्वर शब्द लिखा है। जिससे भी गीता ज्ञान दाता से अन्य परमात्मा का बोध होता है। आओ जानें:-
“परमेश्वर” का सन्दिछेद = परम+ईश्वर
व्याख्या:- “ईश” का अर्थ है स्वामी, प्रभु, मालिक। “वर” का अर्थ है श्रेष्ठ, पति
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ईश् तो गीता ज्ञान दाता “क्षर पुरूष” अर्थात् क्षर ब्रह्म है जो केवल इक्कीस ब्रह्माण्डों का प्रभु है।
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ईश्वर = ईश् अर्थात् क्षर पुरूष से श्रेष्ठ प्रभु। वह केवल 7 शंख ब्रह्माण्डों का प्रभु है। इसे अक्षर पुरूष तथा परब्रह्म भी कहा जाता है।
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परमेश्वर = ईश्वर अर्थात् अक्षर पुरूष से परम अर्थात् श्रेष्ठ है, जो असँख्य ब्रह्माण्डों का प्रभु है, उसे परम अक्षर ब्रह्म भी कहा जाता है। (गीता अध्याय 8 श्लोक 3 में प्रमाण है) गीता अध्याय 15 श्लोक 16-17 में तीन पुरूषों का वर्णन है। क्षर पुरूष - यह गीता ज्ञान दाता ईश् है तथा अक्षर पुरूष = यह ईश्वर है तथा गीता अध्याय 15 श्लेाक 17 में कहा है कि (उत्तम पुरूषः) पुरूषोत्तम अर्थात् वास्तव में सर्व श्रेष्ठ प्रभु तो ऊपर के श्लोक (गीता अध्याय 15 श्लोक 16) में कहे दोनों (क्षर पुरूष तथा अक्षर पुरूष) से भिन्न है, उसी को वास्तव में “परमात्मा” कहा जाता है। वही तीनों लोकों (क्षर पुरूष के 21 ब्रह्माण्डों का क्षेत्र काल लोक कहा जाता है तथा अक्षर पुरूष के 7 शंख ब्रह्माण्डों के क्षेत्र को परब्रह्म का लोक कहा जाता है और ऊपर चार लोकों (सत्यलोक, अलख लोक, अगम लोक तथा अकह लोक) का क्षेत्र अमर लोक परमेश्वर का लोक कहा जाता है। इस प्रकार तीन लोकों का यहाँ पर वर्णन है। इन तीनों लोकों में प्रवेश करके सब का धारण-पोषण करता है। वह वास्तव में अविनाशी परमेश्वर है। गीता अध्याय 13 श्लोक 27 में “परमेश्वर” शब्द है जो गीता ज्ञान दाता से भिन्न सर्व शक्तिमान, सर्व का पालन कर्ता का बोधक है।
गीता अध्याय 13 श्लोक 28 में भी गीता ज्ञान दाता से अन्य प्रभु का प्रमाण है। इस श्लोक में “ईश्वर” शब्द परमेश्वर का बोधक है, जैसे ईश् का अर्थ स्वामी, वर का अर्थ श्रेष्ठ। वास्तव में सब का “ईश” स्वामी तो परम अक्षर ब्रह्म है। वही श्रेष्ठ ईश है, इसलिए “ईश्वर” शब्द प्रकरणवश पूर्ण परमात्मा का बोधक है। यदि अन्य “ईश” नकली स्वामी नहीं होते तो ईश्वर तथा परमेश्वर शब्दों की आवश्यकता नहीं होती। इसलिए इस श्लोक में “ईश्वर” शब्द सत्य पुरूष का बोध जानें।
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गीता अध्याय 13 श्लोक 28 का भावार्थ है कि गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि जो साधक सब प्रकार से परमेश्वर को समभाव में देखता हुआ (आत्मानम्) अपनी आत्मा को (आत्मना) अपनी अज्ञान आत्मा द्वारा नष्ट नहीं करता अर्थात् वह परमात्मा को सही समझकर उसकी साधना करके (ततः) उससे (पराम् = परा) दूसरी (गतिम्) गति अर्थात् मोक्ष को (याति) प्राप्त होता है अर्थात् वह साधक गीता ज्ञान दाता वाली परमगति (जो गीता अध्याय 8 श्लोक 13 में कही है) से अन्य गति (जो गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में कही है, उसे) को प्राप्त होता है।
गीता अध्याय 13 श्लोक 30 में स्पष्ट है कि गीता ज्ञान दाता ने अपने से अन्य परमात्मा की महिमा बताई है। इस श्लोक में भी गीता अध्याय 18 श्लोक 66 वाला ’’एक‘‘ शब्द है जिसका अर्थ ’’उस एक परमात्मा‘‘ किया है। इसलिए गीता अध्याय 18 श्लोक 66 में ’’एकम् शरणं व्रज‘‘ कहा है, उसका अर्थ भी ’’उस एक परमात्मा की शरण में जा‘‘ सही अर्थ है। कहा है कि जो सन्त सर्व प्रणियों की स्थिति भिन्न-भिन्न होते हुए भी एक परमात्मा सर्वशक्तिमान के अन्तर्गत मानता है तो वह समझो ‘‘सच्चिदानन्द घन ब्रह्म‘‘ अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म को प्राप्त हो गया है, वह सत्य भक्ति करके उस परमेश्वर को प्राप्त हो जाता है।
पेश है गीता अध्याय 13 श्लोक 30 की फोटोकाॅपी:-
गीता अध्याय 13 श्लोक 31 में भी गीता ज्ञान दाता ने अपने से अन्य “परमात्मा” के विषय में कहा है। इस श्लोक में “परमात्मा” शब्द है जिसकी स्पष्ट परिभाषा गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में बताई है। कहा है कि जो उत्तम पुरूष अर्थात् सर्वश्रेष्ठ प्रभु है। वह तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है। वह वास्तव अविनाशी परमेश्वर है। उसी को “परमात्मा” कहा जाता है। वह क्षर पुरूष तथा अक्षर पुरूष से अन्य है।
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इस श्लोक (गीता अध्याय 13 श्लोक 31) में भी यही स्पष्ट किया है कि वह परमात्मा अनादि होने से, निर्गुण होने से प्रत्येक प्राणी के शरीर में (सूर्य जैसे घड़े में) स्थित होने पर भी न तो कुछ करता है क्योंकि सब कार्य परमात्मा की शाक्ति करती है, (जैसे घड़े के जल में सूर्य दिखाई देता है उससे जल गर्म हो रहा है। वह सूर्य करता नहीं दिखाई देता, उसकी उष्णता कर रही है। सूर्य कुछ नहीं करता दिखता) और न परमात्मा उस शरीर में लिप्त होता है, जैसे सूर्य घड़े के जल में लिप्त नहीं होता।
- गीता अध्याय 13 श्लोक 32 में भी यही प्रमाण है।
- गीता अध्याय 13 श्लोक 33 में आत्मा और शरीर की स्थिति बताई है।
- गीता अध्याय 13 श्लोक 34 में गीता ज्ञान दाता ने अपने से अन्य परमेश्वर की जानकारी दी है। कहा है कि इस प्रकार क्षेत्र (शरीर) तथा क्षेत्रज्ञ (गीता ज्ञान दाता) के भेद को तथा कर्म करते-करते भक्ति करके काल की प्रकृति अर्थात् काल जाल से मुक्त जो साधक ज्ञान नेत्रों द्वारा जानकर तत्वदर्शी सन्त की खोज करके सत्य शास्त्रानुकूल साधना करके तत्वज्ञान को समझकर उस परम् अर्थात् दूसरे परमब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं।
उपरोक्त विवरण से स्पष्ट हुआ कि गीता ज्ञान दाता से अन्य पूर्ण परमात्मा है जिसकी भक्ति की साधना करके साधक उस पूर्ण मोक्ष को प्राप्त हो जाता है जो गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में वर्णित है कि तत्वज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् परमेश्वर के उस परमपद को खोजना चाहिए जहाँ जाने के पश्चात् साधक फिर लौटकर संसार में कभी नहीं आता।
पेश है गीता अध्याय 13 श्लोक 34 की फोटोकाॅपी:-
सारांश:- पूर्वोक्त प्रमाणों से तथा इस गीता अध्याय 13 के उपरोक्त प्रमाणों से स्पष्ट हुआ कि गीता ज्ञान दाता से अन्य परम अक्षर ब्रह्म अर्थात् पूर्ण परमात्मा है। जिसकी शरण में जाने के लिए गीता ज्ञान दाता ने गीता अध्याय 2 श्लोक 17 में तथा गीता अध्याय 18 श्लोक 46, 61, 62, 66 में कहा है। वही पूर्ण मोक्षदायक है, वही पूजा करने योग्य है, वही सबका रचनहार है, वही सबका पालनहार, धारण करने वाला सर्व सुखदायक है। उसको “परमात्मा” कहा जाता है।
पेश है गीता अध्याय 2 श्लोक 17 की फोटोकाॅपी:-
पेश है गीता अध्याय 18 श्लोक 46, 61-62 तथा 66 की फोटोकाॅपियाँ:-
(गीता अध्याय 18 श्लोक 46 की फोटोकाॅपी)
(गीता अध्याय 18 श्लोक 61 की फोटोकाॅपी)
(गीता अध्याय 18 श्लोक 62 की फोटोकाॅपी)
(गीता अध्याय 18 श्लोक 66 की फोटोकाॅपी)
पेश है गीता अध्याय 18 श्लोक 66 का यथार्थ अनुवाद:-
अन्य अनुवादकों ने इस श्लोक का सरलार्थ गलत किया है। ‘’व्रज‘’ शब्द का अर्थ ’जाना‘ है, उन्होंने ’आना‘ किया है।
पेश है यथार्थ अनुवाद गीता अध्याय 18 श्लोक 66 का:-
अध्याय 18 का श्लोक 66
सर्वधर्मान्, परित्यज्य, माम्, एकम्, शरणम्, व्रज,
अहम्, त्वा, सर्वपापेभ्यः, मोक्षयिष्यामि, मा, शुचः।।66।।
यथार्थ अनुवाद: गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में जिस परमेश्वर की शरण में जाने को कहा है इस श्लोक 66 में भी उसी के विषय में कहा है कि मेरे स्तर की (सर्वधर्मान्) सम्पूर्ण धार्मिक पूजाओं को (माम्) मुझ में (परित्यज्य) त्यागकर तू केवल (एकम्) एक उस अद्वितीय अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म की (शरणम्) शरण में (व्रज) जा। (अहम्) मैं (त्वा) तुझे (सर्वपापेभ्यः) सम्पूर्ण पापों से (मोक्षयिष्यामि) छुड़वा दूँगा तू (मा,शुचः) शोक मत कर। (66)
विशेष:- अन्य गीता अनुवाद कर्ताओं ने ‘‘व्रज्’’ शब्द का अर्थ आना किया है जो अनुचित है ‘‘व्रज्’’ शब्द का अर्थ जाना, चला जाना आदि होता है। गीता अध्याय 13 श्लोक 30 में भी ’’एकम्‘‘ का अर्थ इस प्रकार किया है ’’जिस समय साधक प्राणियों के पृथक-पृथक भाव को (एकस्थम्) एक परमात्मा में स्थित तथा उस परमात्मा से ही सम्पूर्ण भूतों का विस्तार देखता है। उसी क्षण सच्चिदानंद घन ब्रह्म यानि परमेश्वर को प्राप्त हो जाता है‘‘ यानि वह उस परमेश्वर को जानकर उसकी पूजा करके मोक्ष प्राप्त करता है।
भावार्थ:- गीता अध्याय 18 श्लोक 63 का भावार्थ है कि गीता ज्ञान दाता ब्रह्म कह रहा है कि हे अर्जुन! यह गीता वाला अति गोपनीय ज्ञान मैंने तुझे कह दिया। फिर अध्याय 18 श्लोक 64 में गीता ज्ञानदाता एक और सम्पूर्ण गोपनीयों से भी गोपनीय वचन कहता है कि वह परमेश्वर जिसके विषय में अध्याय 18 श्लोक 62 में कहा है वह परमेश्वर मेरा (गीता ज्ञान दाता का) ईष्ट देव अर्थात् पूज्य देव है यही प्रमाण अध्याय 15 श्लोक 4 में भी कहा है कि मैं भी उस परमेश्वर की शरण हूँ। इससे सिद्ध है कि गीता ज्ञान दाता प्रभु से कोई अन्य सर्वश्रेष्ठ परमेश्वर है वही पूजा के योग्य है। यही प्रमाण अध्याय 15 श्लोक 17 में भी है गीता ज्ञान दाता प्रभु कहता है कि अध्याय 15 श्लोक 16 में वर्णित क्षर पुरूष (ब्रह्म) तथा अक्षर पुरूष (परब्रह्म) से भी श्रेष्ठ परमेश्वर तो उपरोक्त दोनों से अन्य ही है वही वास्तव में परमात्मा कहलाता है। वह वास्तव में अविनाशी है। उसी की शरण में जाने के लिए कहा है।
प्रश्न 45:- (धर्मदास जी का):- गीता अध्याय 4 श्लोक 6 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि मैं अजन्मा और अविनाशी रुप होते हुए भी समस्त प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी अपनी योग माया से प्रकट होता हूँ। इस में श्री कृष्ण जी अपने आप को समस्त प्राणियों का अविनाशी ईश्वर कह रहे हैं, अपने को अजन्मा भी कहा है।
उत्तर:- (जिन्दा परमेश्वर जी का): हे धर्मदास जी! गीता का ज्ञान काल ब्रह्म ने श्री कृष्ण जी के शरीर में प्रवेश करके कहा है। श्री कृष्ण जी की कोई भूमिका नहीं है। गीता ज्ञान देने वाला काल ब्रह्म है। गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि जितने प्राणी मेरे 21 ब्रह्माण्डों में मेरे अन्तर्गत हैं। मैं उनका श्रेष्ठ प्रभु (ईश्वर) हूँ। यही प्रमाण गीता अध्याय 15 श्लोक 18 में भी है कि गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि मैं लोक वेद (सुनी-सुनाई बातें) के आधार से अपने 21 ब्रह्माण्डों वाले लोक में पुरुषोत्तम प्रसिद्ध हूँ क्योंकि मैं शरीरधारी प्राणियों से तथा अविनाशी जीवात्मा से भी श्रेष्ठ हूँ जो मेरे अन्तर्गत मेरे इक्कीश ब्रह्माण्डों में हैं। वास्तव में पुरुषोत्तम तो कोई अन्य ही है जिसका वर्णन गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में बताया गया है।
गीता के अध्याय 4 श्लोक 6 में यह कहा है कि मैं (अजः) अजन्मा अर्थात् मैं तुम्हारी तरह जन्म नहीं लेता, मैं लीला से प्रकट होता हूँ। जैसे गीता अध्याय 10 में विराट रुप दिखाया था, फिर अध्याय 10 श्लोक 2 में स्पष्ट किया है कि मेरी उत्पत्ति होती है। गीता अध्याय 4 श्लोक 6 में कहा है कि (अव्ययात्मा) मेरी आत्मा अमर है। फिर कहा है कि (आत्ममायया) अपनी लीला से (सम्भवामि) उत्पन्न होता हूँ। यहाँ पर उत्पन्न होने की बात है क्योंकि यह काल ब्रह्म, अक्षर पुरुष के एक युग के उपरान्त मरता है। फिर उस समय एक ब्रह्माण्ड का विनाश हो जाता है (देखें प्रश्न 9 का उत्तर) फिर दूसरे ब्रह्माण्ड में सर्व जीवात्माएं चली जाती हैं। काल ब्रह्म की आत्मा भी चली जाती है। वहाँ इसको पुनः युवा शरीर प्राप्त होता है। इसी प्रकार देवी दुर्गा की मृत्यु होती है। फिर काल ब्रह्म के साथ ही इसको भी युवा शरीर प्राप्त होता है। यह परम अक्षर ब्रह्म (सत्य पुरूष) का विधान है। तो फिर उस नए ब्रह्माण्ड में दोनों पति-पत्नी रुप में नए रजगुण युक्त ब्रह्मा, सतगुण युक्त विष्णु तथा तमगुण युक्त शिव को उत्पन्न करते हैं। फिर उस ब्रह्माण्ड में सृष्टि क्रम प्रारम्भ होता है। इस प्रकार इस काल ब्रह्म की मृत्यु तथा लीला से जन्म होता है। गीता अध्याय 4 श्लोक 9 में भी स्पष्ट है जिसमें गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि मेरे जन्म तर्था कर्म अलौकिक हैं। वास्तव में यह नाशवान है। आत्मा सर्व प्राणियों की भी अमर है। हे धर्मदास! आपके महामण्डलेश्वरों आचार्यों तथा शंकराचार्यों को अध्यात्मिक ज्ञान बिल्कुल नहीं है। इसलिए अनमोल ग्रन्थों को ठीक से न समझकर लोकवेद (दन्तकथा) सुनाते हैं। आप देखें इस गीता अध्याय 4 श्लोक 5 में स्वयं कह रहा है कि हे अर्जुन! तेरे और मेरे बहुत जन्म हो चुके हैं। उन सबको मैं जानता हूँ, तू नहीं जानता। इसका अभिप्राय ऊपर स्पष्ट कर दिया है। सम्भवात् का अर्थ उत्पन्न होना है।
प्रमाण:- यजुर्वेद अध्याय 40 मन्त्रा 10 में भी कहा है कि कोई तो परमात्मा को (सम्भवात्) जन्म लेने वाला राम व कृष्ण की तरह मानता है, कोई (असम्भवात्) उत्पन्न न होने वाला निराकार मानता है अर्थात् तत्वदर्शी सन्त जो सत्यज्ञान बताते हैं, उनसे सुनो। वे बताएंगे कि परमात्मा उत्पन्न होता है या नहीं। वास्तव में परमात्मा स्वयंभू है। वह कभी नहीं जन्मा है और न जन्मेगा। मृत्यु का तो प्रश्न ही नहीं। दूसरी ओर गीता ज्ञान दाता स्वयं कह रहा है कि मैं जन्मता और मरता हूँ, अविनाशी नहीं हूँ। अविनाशी तो ‘‘परम अक्षर ब्रह्म’’ है।
पेश है गीता अध्याय 15 श्लोक 18 की फोटोकाॅपी:-
पढे़ं गीता अध्याय 15 श्लोक 18 का यथार्थ अनुवाद:-
अध्याय 15 का श्लोक 18
यस्मात्, क्षरम्, अतीतः, अहम्, अक्षरात्, अपि, च, उत्तमः,
अतः, अस्मि, लोके, वेदे, च, प्रथितः, पुरुषोत्तमः।।18।।
अनुवाद: (यस्मात्) क्योंकि (अहम्) मैं मेरे काल लोक के इक्कीस ब्रह्मण्डों के क्षेत्र में मेरे आधीन (क्षरम्) नाशवान स्थूल शरीर में विराजमान प्राणियों से तो सर्वथा (अतीतः) श्रेष्ठ हूँ (च) और (अक्षरात्) अविनाशी जीवात्मा से (अपि) भी (उत्तमः) उत्तम हूँ (च) और (अतः) इसलिए (लोके वेदे) लोक वेद में अर्थात् कहे सुने ज्ञान के आधार से वेद में (पुरुषोत्तमः) श्रेष्ठ भगवान (प्रथितः) प्रसिद्ध (अस्मि) हूँ पवित्र गीता बोलने वाला ब्रह्म-क्षर पुरुष कह रहा है कि मैं तो लोक वेद में अर्थात् सुने-सुनाए ज्ञान के आधार पर केवल मेरे इक्कीस ब्रह्मण्ड़ों में ही श्रेष्ठ प्रभु प्रसिद्ध हूँ। वास्तव में पुरूषोत्तम यानि पूर्ण परमात्मा तो कोई और ही है। जिसका विवरण इसी अध्याय के श्लोक 17 में पूर्ण रूप से दिया है। (18)
कबीर परमात्मा ने उदाहरणार्थ कहा है:-
पीछे लागा जाऊं था लोक वेद के साथ, रस्ते में सतगुरू मिले दीपक दीन्हा हाथ।
भावार्थ है:-- कबीर प्रभु ने कहा है कि जब तक साधक को पूर्ण सन्त नहीं मिलता तब तक लोक वेद अर्थात् कहे सुने ज्ञान के आधार से साधना करता है उस आधार से कोई विष्णु जी को पूर्ण प्रभु परमात्मा कहता है कि क्षर पुरूष अर्थात् ब्रह्म को पूर्ण ब्रह्म कहता है। परन्तु तत्वज्ञान से पता चलता है कि पूर्ण परमात्मा तो कबीर जी है।
प्रश्न 50:- (जिन्दा बाबा परमेश्वर जी का): आप जी ने कहा है कि हम शुद्र को निकट भी नहीं बैठने देते, शुद्ध रहते हैं। इससे भक्ति में क्या हानि होती है?
उत्तर:- (धर्मदास जी का):- शुद्र के छू लेने से भक्त अपवित्र हो जाता है, परमात्मा रुष्ट हो जाता है, आत्मग्लानि हो जाती है। मैं ऊँची जाति के वैश्य हूँ।