धर्मदास जी की अन्य संतों से ज्ञान चर्चा

प्रश्न 38:- (धर्मदास जी का) धर्मदास जी ने मन में विचार किया कि यह कैसे हो सकता है कि हिन्दू धर्म के किसी सन्त, गुरु, महर्षि को सत्य अध्यात्म ज्ञान नहीं? यह कहकर धर्मदास जी के मन में आया कि किसी महामण्डलेश्वर से ज्ञान सुनना चाहिए। एक रमते फकीर के पास क्या मिलेगा? यह बात मन में सोच ही रहा था कि परमेश्वर जिन्दा जी ने धर्मदास जी के मन का दोष जानकर कहा कि आप अपने महामण्डलेश्वरों से ज्ञान प्राप्त करलो। यह कहकर परमेश्वर तीसरी बार अन्तध्र्यान हो गए। धर्मदास जी ठगे से रह गए और अपने मन के दोष को जिन्दा महात्मा के मुखकमल से सुनकर बहुत शर्मसार हुए। जब प्रभु अन्तध्र्यान हो गए तो बहुत व्याकुल हो गया। परन्तु धर्मदास जी को आशा थी कि हमारे महामण्डलेश्वरों के पास तत्वज्ञान अवश्य मिलेगा। यदि जिन्दा बाबा (मुसलमान) के ज्ञान को तत्वज्ञान मानकर साधना स्वीकार करना तो ऐसा लग रहा है जैसे धर्म परिवर्तन करना हो। यह समाज में निन्दा का कारण बनेगा। इसलिए अपने हिन्दू महात्माओं से तत्वज्ञान जानकर श्रेष्ठ शास्त्रानुकूल भक्ति करनी ही उचित रहेगी। इस बार धर्मदास जी को जिन्दा बाबा का अचानक चला जाना खटका नहीं क्योंकि उसकी गलतफहमी थी कि हिन्दू इतना बड़ा तथा पुरातन धर्म है, क्या कोई भी तत्वदर्शी सन्त नहीं मिलेगा? धर्मदास जी एक वैष्णव महामण्डलेश्वर श्री ज्ञानानंद जी के आश्रम में गया। उस समय श्री ज्ञानानन्द जी का बहुत बोलबाला था। वह स्वामी रामानन्द जी काशी वाले का शिष्य था। परन्तु उस समय स्वामी रामानन्द जी तो परमेश्वर कबीर जी का शिष्य/गुरु बन चुका था। वह अपने ज्ञान को अज्ञान मान चुका था। स्वामी रामानन्द जी ने अपने सर्वऋषि शिष्यों से बोल दिया था कि मेरे द्वारा बताया ज्ञान व्यर्थ है और यह साधना शास्त्रविरुद्ध है। आप सब परमेश्वर कबीर जी से दीक्षा ले लें। परन्तु जाति का अभिमान, शिष्यों में प्रतिष्ठा, ज्ञान के स्थान पर अज्ञान का भण्डार जीव को सत्य स्वीकार नहीं करने देता।

कबीर, राज तजना सहज है, सहज त्रिया का नेह।
मान बड़ाई ईष्र्या, दुर्लभ तजना येह।।

धर्मदास जी ने श्री ज्ञानानंद जी से प्रश्न किया कि हे स्वामी जी! क्या भगवान विष्णु से भी ऊपर कोई प्रभु है? श्री ज्ञानानन्द जी ने उत्तर दिया कि श्री विष्णु स्वयं परम ब्रह्म परमात्मा है। इनसे ऊपर कौन हो सकता है? श्री कृष्ण जी भी श्री विष्णु जी स्वयं ही थे। उन्होंने ही श्रीमद्भगवत गीता का ज्ञान दिया। आप को किसने भ्रमित कर दिया? धर्मदास जी ने पूछा कि गीता अध्याय 8 श्लोक 1 में अर्जुन ने पूछा कि तत् ब्रह्म क्या है? गीता अध्याय 8 श्लोक 3 में भगवान ने कहा है कि वह ‘‘परम अक्षर ब्रह्म’’ है। यह तो भगवान कृष्ण से अन्य प्रभु हुआ। ज्ञानानन्द स्वामी बोला, लगता है कि तेरे को उस काशी वाले जुलाहे का जादू चढ़ा हुआ है। चल-चल अपना काम कर। भगवान कृष्ण से अन्य कोई प्रभु नहीं है। धर्मदास जी को पता चल गया कि इसके पास वह ज्ञान नहीं है जो जिन्दा बाबा ने प्रमाणों सहित बताया है। धर्मदास निराश होकर वहाँ से चल दिया। धर्मदास जी को यह नहीं पता था कि काशी वाला जुलाहा वह बाबा जिन्दा ही है। फिर धर्मदास को पता चला कि एक मोहनगिरी नाम के महामण्डलेश्वर हैं, उनके पास जाकर भगवान की चर्चा करनी शुरु की। पहले एक रुपया दक्षिणा चढ़ाई जिस कारण से मोहनगिरी ने उनको निकट बैठाया और बताया कि भगवान शिव सर्व सृष्टि के रचने वाले हैं। इनसे बढ़कर संसार में कोई प्रभु नहीं है। ‘‘ओम् नमः शिवाय’’ मन्त्र का जाप करो। धर्मदास जी प्रणाम करके चल पड़े। सोचा इनका कितना अच्छा नाम है, ज्ञान धेल्ले (एक पैसे) का नहीं। धर्मदास जी से किसी ने बताया कि एक बहुत बड़ा तपस्वी है। कई वर्षों से खड़ा तप कर रहा है। धर्मदास जी वहाँ गए, वह नाथ पंथ से जुड़ा था। भगवान शिव को समर्थ परमात्मा बताता था। तप करके हठयोग से परमात्मा की प्राप्ति मान रहा था। धर्मदास जी ने विवेक किया कि यदि इतनी घोर कठिन तपस्या से परमात्मा मिलेगा तो हमारे वश से बाहर की बात है। वहाँ से भी आगे चला। पता चला कि एक बहुत बड़ा विद्वान महात्मा काशी विद्यापीठ से पढ़कर आया है। वेदों का पूर्ण विद्वान है। धर्मदास जी ने उस महात्मा से पूछा परमात्मा कैसा है? उत्तर मिला-निराकार है। उस निराकार परमात्मा का कोई नाम है? धर्मदास ने पूछा। उत्तर विद्वान का:- उसका नाम ब्रह्म है। क्या परमात्मा को देखा जा सकता है, धर्मदास जी ने प्रश्न किया? उत्तर मिला परमात्मा निराकार है, उसको कैसे देख सकते हैं। केवल परमात्मा का प्रकाश देखा जा सकता है।

प्रश्नः- क्या श्री कृष्ण या विष्णु परमात्मा हैं? उत्तर था कि ये तो सर्गुण देवता हैं, परमात्मा

निर्गुण है।

गीता और वेद के ज्ञान में क्या अन्तर है? धर्मदास ने प्रश्न किया। ब्राह्मण का उत्तर था कि गीता चारों वेदों का सारांश है। धर्मदास जी ने पूछा कि भक्ति मन्त्र कौन सा है? उत्तर ब्राह्मण का था कि गायत्री मन्त्र का जाप करो = ओम् भूर्भवस्वः तत् सवितुः वरेणियम भृगोदेवस्य धीमहि, धीयो यो नः प्रचोदयात्’’ धर्मदास जी को जिन्दा बाबा ने बताया था कि इस मन्त्र से मोक्ष सम्भव नहीं क्योंकि गीता तथा वेदों में केवल ॐ (ओम्) नाम का जाप करना लिखा है। धर्मदास जी फिर आगे चला तो पता चला कि सन्त गुफा में रहता है। कई-कई दिन तक गुफा से नहीं निकलता है। उसके पास जाकर प्रश्न किया कि भगवान कैसे मिलता है? उत्तर मिला कि इन्द्रियों पर संयम रखो, इसी से परमात्मा मिल जाता है। नाम जाप से कुछ नहीं होता। खाण्ड (चीनी) कहने से मुँह मीठा नहीं होता। धर्मदास जी को सन्तोष नहीं हुआ। सब सन्तों से ज्ञान चर्चा करके धर्मदास जी को बहुत पश्चाताप् हुआ कि मेरे को उस जिन्दा बाबा पर विश्वास नहीं हुआ कि उसने कहा था किसी भी सन्त महामण्डलेश्वर के पास यथार्थ अध्यात्म ज्ञान नहीं है। किसी भी सन्त महात्मा का ज्ञान शास्त्र प्रमाणित नहीं है। कोई शास्त्र का आधार नहीं है, तब धर्मदास रोने लगा। अपनी अज्ञानता पर पश्चाताप करने लगा कि मैं कैसा कलमुँहा हूँ। मैनें ऊटपटांग यानि व्यर्थ के प्रश्न-उत्तर करके संत को खो दिया। मैं बुरी किस्मत वाला हूँ। मुझे उस परमात्मास्वरुप जिन्दा महात्मा पर विश्वास नहीं आया। अब वह अन्तर्यामी मुझे नहीं मिलेगा क्योंकि मैंने कई बार उनका अपमान कर दिया। अब क्या करुँ, न जीने को मन करता है, आत्महत्या पाप है। बुरी तरह रोने लगा। पछाड़ खाकर अचेत हो गया।

प्रश्न नं. 38 का उत्तर:- परमात्मा जिन्दा महात्मा के रुप में एक वृक्ष के नीचे बैठ गए। धर्मदास जी सचेत हुआ और हृदय से पुकार की कि हे जिन्दा! एक बार दर्शन दे दो। मैं टूट चुका हूँ। किसी के पास ज्ञान नहीं है। आप की सर्व बातें सत्य हैं। परमात्मा! एक बार मुझ अज्ञानी महामूर्ख को क्षमा करो। आप जिन्दा बाबा ही नहीं परमात्मा हो। आप महाविद्वान हो। आपके ज्ञान का कोई सामना करने वाला नहीं है। मैं जिन्दगी में कभी आप पर अविश्वास नहीं करुँगा। ऐसे विचार कर आगे चला तो देखा एक वृक्ष के नीचे एक साधु बैठा है, कुछ व्यक्ति उसके पास बैठे हैं। धर्मदास जी ने सोचा कि मैं तो उन महामण्डलेश्वरों से मिलकर आया हूँ। जिनके पास कई सैंकड़ों भक्त दर्शनार्थ बैठे रहते हैं। इस छोटे साधु से क्या मिलना? परन्तु अपने आप मन में आया कि कुछ देर विश्राम करना है, यहीं कर लेता हूँ। फिर सोचा कि प्रश्न करता हूँ। पूछाः- हे महात्मा! जी परमात्मा कैसा है? साधु ने उत्तर दिया कि मैं ही परमात्मा हूँ। धर्मदास जी चुप हो गए, सोचा यह तो मजाक कर रहा है। यह तो सन्त भी नहीं है। धीरे-धीरे सर्व व्यक्ति चले गए। जब धर्मदास जी चलने लगे परमात्मा बोले कि हे महात्मा! क्या आपके मण्डलेश्वरों ने नहीं बताया कि परमात्मा कैसा है? धर्मदास जी ने आश्चर्य से देखा कि इस साधु को कैसे पता लगा कि मैं कहाँ-कहाँ भटका हूँ? उसी समय परमात्मा ने वही जिन्दा बाबा वाला रुप बना लिया। धर्मदास जी चरणों में गिरकर बिलख-बिलखकर रोने लगा तथा कहा कि हे भगवन! किसी के पास ज्ञान नहीं है। मुझ पापी अवगुण हारे को क्षमा करो महाराज! मैंने बड़ी भारी भूल की है। आपने सृष्टि रचना का ज्ञान जो बताया है, उसके सामने सर्व सन्त का ज्ञान ऐसा है जैसे सूरज के सामने दीपक, सब ऊवा-बाई बकते हैं। परमेश्वर ने धर्मदास जी से कहा कि आपने जिन वेदों के पूर्ण विद्वान से प्रश्न किया था कि ‘‘परमात्मा कैसा है? उत्तर मिला कि परमात्मा निराकार है। आपने प्रश्न किया था कि क्या परमात्मा देखा जा सकता है? उस अज्ञानी का उत्तर था कि ‘‘जब परमात्मा निराकार है तो उसे देखने का प्रश्न ही नहीं है। परमात्मा का प्रकाश देखा जा सकता है।‘‘

विचार करो धर्मदास! यह विचार तो ऐसे व्यक्ति के हैं जैसे किसी नेत्रहीन से कोई प्रश्न करे कि सूर्य कैसा है? उत्तर मिला कि सूर्य निराकार है। फिर प्रश्न किया कि क्या सूर्य को देखा जा सकता है? उत्तर मिले कि सूर्य को नहीं देखा जा सकता, सूर्य का प्रकाश देखा जाता है। उस नेत्रहीन से पूछें कि सूर्य बिना प्रकाश किसका देखा जा सकता है? इसी प्रकार अध्यात्म ज्ञान नेत्रहीन अर्थात् पूर्ण अज्ञानी सन्त ऐसी व्याख्या किया करते हैं कि परमात्मा तो निराकार है, उसका प्रकाश कैसे देखा जा सकता है? परमात्मा का ही तो प्रकाश होगा। धर्मदास जी ने कहा कि हे महात्मा जी! यह विचार तो मेरे दिमाग में भी नहीं आया। आप जी के दिव्य तर्क से मेरी आँखें खुल गई। जितने भी महामण्डलेश्वर मिले हैं, वे सर्व महाअज्ञानी मिले हैं। हे जिन्दा महात्मा जी! यदि मैं आपके ज्ञान को सुनने के पश्चात् यदि इन मूर्खों से नहीं मिलता तो मेरा भ्रम निवारण कभी नहीं होता, चाहे आप जी कितने ही प्रमाण दिखाते और बताते।

प्रश्न 39 (धर्मदास):- हे जिन्दा! आप नाराज न होना। मेरे मन में एक शंका है कि क्या

भगवान विष्णु जी की भक्ति अच्छी नहीं?

उत्तर (जिन्दा महात्मा जी का):- हे धर्मदास! श्रीमद् भगवत् गीता अध्याय 2 श्लोक 46 में प्रमाण है कि गीता ज्ञान दाता ने कहा हे अर्जुन! बहुत बड़े जलाश्य (झील) की प्राप्ति के पश्चात् छोटे जलाश्य में व्यक्ति का कितना प्रयोजन रह जाता है। इसी प्रकार पूर्ण ज्ञान और पूर्ण परमात्मा की भक्ति विधि व होने वाले लाभ का ज्ञान होने के पश्चात् अन्य ज्ञानों तथा छोटे भगवानों में उतनी ही आस्था रह जाती है जितनी बड़े जलाश्य की प्राप्ति के पश्चात् छोटे जलाश्य में रह जाती है। छोटे जलाश्य का जल अच्छा है, परन्तु पर्याप्त नहीं है। यदि एक वर्ष वर्षा न हो तो छोटे जलाश्य का जल सूख जाता है तथा उस पर आश्रित व्यक्ति भी जल के अभाव से कष्ट उठाते हैं, त्राहि-त्राहि मच जाती है। परन्तु बड़े जलाश्य (झील) का जल यदि 10 वर्ष भी वर्षा न हो तो भी समाप्त नहीं होता। जिस व्यक्ति को वह बड़ा जलाश्य मिल जाएगा तो वह तुरन्त छोटे जलाश्य (जोहड़ = तालाब) को छोड़कर बड़े जलाश्य के किनारे जा बसेगा। जिस समय गीता ज्ञान सुनाया गया, उस समय सर्व व्यक्ति तालाबों के जल पर ही आश्रित थे। इसलिए यह उदाहरण दिया था, इसी प्रकार श्री विष्णु सतगुण की भक्ति भले ही आप अच्छी मानते हैं, परन्तु पूर्ण मोक्षदायक नहीं है। श्री विष्णु जी भी नाशवान हैं। इनका भी जन्म-मृत्यु होता है। फिर साधक अमर कैसे हो सकता है? इसलिए पूर्ण मोक्ष अर्थात् अमर होने के लिए अमर परमात्मा की ही भक्ति करनी पड़ेगी।

पेश है गीता अध्याय 2 श्लोक 46 की फोटोकाॅपी:-

Gita Adhyay 2 Shlok 46

प्रश्न 40:- हे जिन्दा महात्मा जी! मैंने आप के ऊपर अविश्वास किया। मैं महापापी हूँ, मुझे

क्षमा करना।

उत्तर (जिन्दा बाबा जी का):- हे धर्मदास! मैंने ही आप के मन में यह प्रेरणा की थी। यदि आप उन अपने धर्मगुरुओं की तलाशी न लेते तो आप कभी मेरी बातों पर विश्वास नहीं करते। रह-रहकर तेरे मन को यही बात कचोटती रहती कि ऐसा नहीं हो सकता कि हिन्दू धर्म के किसी महर्षि मण्डलेश्वर व सन्त-महन्त को तत्वज्ञान नहीं। अब आप मेरी बातों पर विश्वास करोगे। विचार करो धर्मदास! जब गीता ज्ञान दाता गीता अध्याय 4 श्लोक 32 व 34 में कहता है कि जो ज्ञान परम अक्षर ब्रह्म (परमेश्वर) अपने मुख से सुनाता है, वह तत्वज्ञान है। (गीता अध्याय 4 श्लोक 32) उस ज्ञान को तू तत्वदर्शी सन्तों के पास जाकर समझ। (गीता अध्याय 4 श्लोक 34) इससे सिद्ध हुआ कि गीता ज्ञान देने वाले परमात्मा को ही तत्वज्ञान नहीं तो गीता पाठकों व इन प्रभु के उपासकों को ज्ञान कैसे हो सकता है?

पेश है गीता अध्याय 4 श्लोक 32 की फोटोकाॅपी:-

Gita Adhyay 4 Shlok 32

पेश है गीता अध्याय 4 श्लोक 34 की फोटोकाॅपी:-

Gita Adhyay 4 Shlok 34

यह फोटोकाॅपी गीता अध्याय 4 श्लोक 32 की है जो गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित है।

  • इसमें ‘ब्रह्मणः’ का अर्थ वेद की (मुखे) का अर्थ वाणी किया है जो गलत है।
  • ’ब्रह्मणः‘ का अर्थ इसी अनुवादक ने गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में सच्चिदानंद घन ब्रह्म किया है।
  • यहाँ भी सच्चिदानंद घन किया जाना चाहिए। फिर सही अनुवाद बन जाता है।

गीता अध्याय 2 श्लोक 53 में कहा कि हे अर्जुन! भिन्न-भिन्न प्रकार से भ्रमित करने वाले वचनों से हटकर तेरी बुद्धि एक तत्वज्ञान पर स्थिर हो जाएगी, तब तो तू योग (भक्ति) को प्राप्त होगा। भावार्थ है कि तब तू भक्त बनेगा। इसलिए मैंने धर्मदास तेरे को उन सन्तों-मण्डलेश्वरों के पास जाने के लिए प्रेरित किया था। अब तू योग को प्राप्त होगा। भक्त बन सकेगा।

पेश है गीता अध्याय 2 श्लोक 53 की फोटोकाॅपी:-

Gita Adhyay 2 Shlok 53

प्रश्न 41 (धर्मदास जी का):- क्या पूर्ण मोक्ष के लिए भगवान विष्णु जी तथा भगवान शंकर

जी की पूजा को छोड़ना पड़ेगा?

उत्तर (जिन्दा बाबा जी का):- इन प्रभुओं को नहीं छोड़ना, इनकी पूजा छोड़नी होगी।

प्रश्न 42 (धर्मदास जी का):- हे जिन्दा! मैं समझा नहीं। इन विष्णु और शंकर प्रभुओं को नहीं छोड़ना और पूजा छोड़नी पड़ेगी। मेरी संकीर्ण बुद्धि है। मैं महाअज्ञानी प्राणी हूँ। कृप्या विस्तार से बताने की कृपा करें।

उत्तर:- (जिन्दा महात्मा जी का): हे धर्मदास जी! आप इनकी साधना शास्त्रविधि त्यागकर मनमाना आचरण कर रहे हो। जिससे आपजी को लाभ नहीं मिल रहा। इन देवताओं से लाभ लेने के साधना के मन्त्र मेरे पास हैं। जैसे भैंसा है, उसको भैंसा-भैंसा करते रहो, वह आपकी ओर नहीं देखेगा। उसका एक विशेष मन्त्र हुर्र-हुर्र है। उसको सुनते ही वह तुरंत प्रभावित होता है और आवाज लगाने वाले की ओर खींचा चला आता है। इसी प्रकार इन सर्व आदरणीय देवताओं के निज मन्त्र हैं। जिनसे वे पूर्ण लाभ तथा तुरंत लाभ देते हैं। प्रिय पाठको! वही मन्त्र मेरे पास (संत रामपाल दास) के पास हैं जो परमेश्वर जी ने गुरू जी के माध्यम से मुझे दिए हैं, आओ और प्राप्त करो।

जैसा कि आपको बताया था (प्रश्न नं. 33 के उत्तर में वर्णन किया था) कि यह संसार एक वृक्ष जानो। परम अक्षर पुरुष इसकी जड़ें मानो, अक्षर पुरुष तना जानो, क्षर पुरुष मोटी डार तथा तीनों देवता (रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी तथा तमगुण शिवजी) इस संसार रुपी वृक्ष की शाखाऐं जानों और पात रुप संसार।

यदि आप कहीं से आम का पौधा लेकर आए हो तो गढ्ढ़ा खोदकर उसकी जड़ों को उस गढ्ढ़े में मिट्टी में दबाओगे और जड़ों की सिंचाई करोगे। तब वह आम का पेड़ बनेगा और उस वृक्ष की शाखाओं को फल लगेंगे। इसलिए वृक्ष की शाखाओं को तोड़ा नहीं जा सकता। परन्तु इनको जड़ के स्थान पर गढ्ढ़े में मिट्टी में दबाकर इनकी सिंचाई नहीं की जाती। ठीक इसी प्रकार संसार रुपी वृक्ष की जड़ अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म को इष्ट रुप में प्रतिष्ठित करके पूजा करने से शास्त्रानुकूल साधना होती है जो परम लाभ देने वाली होती है। इस प्रकार किए गए भक्ति कर्मों का फल यही तीनों देवता (संसार वृक्ष की शाखाऐं) ही कर्मानुसार प्रदान करते हैं। इसलिए इनकी पूजा छोड़नी होती है। लेकिन इनको छोड़ा (तोड़ा) नहीं जा सकता। यही प्रमाण श्रीमद्भगवत् गीता अध्याय 3 श्लोक 8 से 15 तक में भी है। कहा है कि:-

हे अर्जुन! तू शास्त्रविहित कर्म कर अर्थात् शास्त्रों में जैसे भक्ति करने को कहा है, वैसा भक्ति कार्य कर। यदि घर त्यागकर जंगलों में चला गया अर्थात् तू कर्म सन्यासी हो गया या एक स्थान पर बैठकर हठपूर्वक साधना करने लगेगा तो तेरा शरीर पोषण का निर्वाह भी नहीं होगा। इसलिए कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करते-करते भक्ति कर्म करना श्रेष्ठ है। (गीता अध्याय 3 श्लोक 8)

पेश है गीता अध्याय 3 श्लोक 8 की फोटोकाॅपी:-

Gita Adhyay 3 Shlok 8

जो साधक शास्त्रविधि त्यागकर मनमाना आचरण करते हैं अर्थात् शास्त्रानुकूल भक्ति कर्मों के अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा हुआ मनुष्य समुदाय कर्मों के बन्धन में बंधकर जन्म-मरण के चक्र में सदा रहता है। इसलिए हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! शास्त्रविरुद्ध भक्ति कर्म जो कर रहा है, उससे आसक्ति रहित होकर शास्त्रानुकूल भक्ति कर्म कर। (गीता अध्याय 3 श्लोक 9)

पेश है गीता अध्याय 3 श्लोक 9 की फोटोकाॅपी:-

Gita Adhyay 3 Shlok 9

संसार की रचना करके प्रजापति (कुल के मालिक) ने सर्व प्रथम मनुष्यों की रचना करके साथ-साथ यज्ञों अर्थात् धार्मिक अनुष्ठानों की जानकारी का ज्ञान देते हुए इनसे कहा था कि तुम लोग इस तरह बताए शास्त्रानुकूल कर्मों द्वारा वृद्धि को प्राप्त होओ। इस प्रकार शास्त्रानुकूल की गई भक्ति तुम लोगों को इच्छित भोग प्राप्त कराने वाली हो। (गीता अध्याय 3 श्लोक 10)

पेश है गीता अध्याय 3 श्लोक 10 की फोटोकाॅपी:-

Gita Adhyay 3 Shlok 10

इस प्रकार शास्त्रानुकूल भक्ति द्वारा अर्थात् संसार रुपी वृक्ष की जड़ों (मूल अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म) की सिंचाई अर्थात् पूजा करके देवताओं अर्थात् संसार रुपी वृक्ष की तीनों गुण रुपी शाखाओं (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिवजी) को उन्नत करो। वे देवता (संसार वृक्ष की शाखा तीनों देवता) आपको कर्मानुसार फल देकर उन्नत करें। इस प्रकार एक-दूसरे से उन्नत करके परम कल्याण अर्थात् पूर्ण मोक्ष को प्राप्त हो जाओगे। (गीता अध्याय 3 श्लोक 11)

पेश है गीता अध्याय 3 श्लोक 11 की फोटोकाॅपी:-

Gita Adhyay 3 Shlok 11

शास्त्रविधि अनुसार किए गए भक्ति कर्मों अर्थात् यज्ञों द्वारा बढ़ाए हुए देवता अर्थात् संसार रुपी वृक्ष की जड़ अर्थात् मूल मालिक (परम अक्षर ब्रह्म) को इष्ट रुप में प्रतिष्ठित करके भक्ति कर्म से बढ़ी हुई शाखाएं (तीनों देवता) तुम लोगों को बिना माँगे ही कर्मानुसार इच्छित भोग निश्चय ही देते रहेंगे। जैसे आम के पौधे की जड़ की सिंचाई करने से पेड़ बनकर शाखाएं उन्नत हो गई। फिर उन शाखाओं को अपने आप फल लगेंगे। झड़-झड़कर गिरेंगे, व्यक्ति को जो कर्मानुसार धन प्राप्त होता है, वह उपरोक्त विधि से होता है। यदि कोई व्यक्ति उन देवताओं (शाखाओं) द्वारा दिए धन में से पुनः दान-पुण्य नहीं करता अर्थात् जो पुनः शास्त्रानुकूल साधना नहीं करता, केवल अपना ही पेट भरता है, स्वयं ही भोगता रहता है। वह तो परमात्मा का चोर ही है। (गीता अध्याय 3 श्लोक 12)

पेश है गीता अध्याय 3 श्लोक 12 की फोटोकाॅपी:-

Gita Adhyay 3 Shlok 12

शास्त्रानुकूल भक्ति की विधि में सर्वप्रथम परमात्मा को भोग लगाया जाता है। भण्डारा करना होता है। पहले परम अक्षर ब्रह्म को इष्ट रुप में पूजकर भोग लगाकर शेष भोजन को भक्तों में बाँटा जाता है। उस बचे हुए अन्न को सत्संग में उपस्थित अच्छी आत्माएं ही खाती हैं क्योंकि पुण्यात्माएं ही परमात्मा के लिए समय निकालकर धार्मिक अनुष्ठानों में शामिल होते हैं। इसलिए कहा है कि उस यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले सन्तजन सब पापों से मुक्त हो जाते हैं। जो पापी लोग होते हैं, जो तत्वदर्शी सन्त के सत्संग में नहीं जाते, उनको ज्ञान नहीं होता। वे पापात्मा अपना शरीर पोषण करने के लिए ही भोजन पकाते हैं, वे तो पाप को ही खाते हैं क्योंकि भोजन खाने से पहले हम भक्त-सन्त सब परम अक्षर ब्रह्म को भोग लगाते हैं। जिस से सारा भोजन पवित्र प्रसाद बन जाता है, जो ऐसा नहीं करते, वे परमात्मा के चोर हैं। भगवान को भोग न लगा हुआ भोजन पाप का भोजन होता है। इसलिए कहा है जो धर्म-कर्म शास्त्रानुकूल नहीं करते, वे पाप के भागी होते हैं। (गीता अध्याय 3 श्लोक 13)

पेश है गीता अध्याय 3 श्लोक 13 की फोटोकाॅपी:-

Gita Adhyay 3 Shlok 13

सम्पूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं। अन्न वर्षा से होता है। वर्षा यज्ञ अर्थात् शास्त्रानुकूल धार्मिक अनुष्ठान से होती है। यज्ञ अर्थात् धार्मिक अनुष्ठान शास्त्रानुकूल कर्मों से होते हैं। (गीता अध्याय 3 श्लोक 14)

कर्म तो ब्रह्म अर्थात् क्षर पुरुष से उत्पन्न हुए हैं क्योंकि जहाँ सर्व प्राणी सनातन परम धाम में रहते थे। वहाँ पर बिना कर्म किए सर्व सुख व पदार्थ उपलब्ध थे। यहाँ के सर्व प्राणी अपनी गलती से क्षर पुरुष के साथ आ गए। अब सबको कर्म का फल ही प्राप्त होता है। कर्म करके ही निर्वाह होता है। इसलिए कहा है कि कर्म को ब्रह्म (क्षर पुरुष) से उत्पन्न जान और ब्रह्म को अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न जान।

पेश है गीता अध्याय 3 श्लोक 14-15 की फोटोकाॅपी:-

Gita Adhyay 3 Shlok 14, 15

यही प्रमाण अथर्ववेद काण्ड नं. 4 अनुवाक 1 मंत्र 3 में भी है ‘‘ब्रह्म ब्रह्मणः उज्जभार’’ यानि (ब्रह्मणः) सच्चिदानंद घन ब्रह्म = परम अक्षर पुरूष ने (ब्रह्म) ब्रह्म को (उज्जभार) उत्पन्न किया। (अधिक जानकारी के लिए पढ़ें सृष्टि रचना इसी पुस्तक के पृष्ठ नं. 389 पर।)

पेश है अथर्ववेद काण्ड नं. 4 अनुवाक नं. 1 मंत्र नं. 3 की फोटोकाॅपी:-

Atharvaveda, Kaand 4, Anuvak 1, Mantra 3

यह फोटोकाॅपी अथर्ववेद काण्ड 4 अनुवाक 1 मंत्र 3 की है। इसमें स्पष्ट किया है कि (ब्रह्मणः) सचिदानंद घन ब्रह्म (परम अक्षर ब्रह्म) ने ब्रह्म को उत्पन्न किया। यही प्रमाण गीता अध्याय 3 श्लोक 15 में है। इस फोटोकाॅपी में अनुवाद गलत किया है। ‘‘ब्रह्म’’ का अर्थ वेद किया है। ब्रह्म को ब्रह्म ही लिखा जाए। उज्जभार का अर्थ उत्पन्न करना (प्रकट करना) है। वेद के अनुवादक ने अडं़गा कर रखा है देवानाम का। इस मंत्र का यथार्थ अनुवाद इस प्रकार है:-

अथर्ववेद काण्ड नं. 4 अनुवाक नं. 1 मंत्र नं. 3:-

प्र यो जज्ञे विद्वानस्य बन्धुर्विश्वा देवानां जनिमा विवक्ति।
ब्रह्म ब्रह्मण उज्जभार मध्यान्नीचैरुच्चैः स्वधा अभि प्र तस्थौ।3।।

प्र यः जज्ञे विद्वानस्य बन्धुः विश्वा देवानाम् जनिमा विवक्ति ब्रह्मः ब्रह्मणः उज्जभार मध्यात् निचैः उच्चैः स्वधा अभिः प्रतस्थौ

अनुवाद:- (प्र) सर्व प्रथम (देवानाम्) देवताओं व ब्रह्माण्डों की (जज्ञे) उत्पति के ज्ञान को (विद्वानस्य) जिज्ञासु भक्त का (यः) जो (बन्धुः) वास्तविक साथी अर्थात् पूर्ण परमात्मा ही अपने निज सेवक को (जनिमा) अपने द्वारा सृजन किए हुए को (विवक्ति) स्वयं ही ठीक-ठीक विस्त्तार पूर्वक बताता है कि (ब्रह्मणः) पूर्ण परमात्मा ने (मध्यात्) अपने मध्य से अर्थात् शब्द शक्ति से (ब्रह्मः) ब्रह्म-क्षर पुरूष अर्थात् काल को (उज्जभार) उत्पन्न करके (विश्वा) सारे संसार को अर्थात् सर्व लोकों को (उच्चैः) ऊपर सत्यलोक आदि (निचैः) नीचे परब्रह्म व ब्रह्म के सर्व ब्रह्माण्ड (स्वधा) अपनी धारण करने वाली (अभिः) आकर्षण शक्ति से (प्र तस्थौ) दोनों को अच्छी प्रकार स्थित किया।

भावार्थ:- पूर्ण परमात्मा अपने द्वारा रची सृष्टि का ज्ञान तथा सर्व आत्माओं की उत्पत्ति का ज्ञान अपने निजी दास को स्वयं ही सही बताता है कि पूर्ण परमात्मा ने अपने मध्य अर्थात् अपने शरीर से अपनी शब्द शक्ति के द्वारा ब्रह्म (क्षर पुरुष/काल) की उत्पत्ति की तथा सर्व ब्रह्माण्डों को ऊपर सतलोक, अलख लोक, अगम लोक, अनामी लोक आदि तथा नीचे परब्रह्म के सात संख ब्रह्माण्ड तथा ब्रह्म के 21 ब्रह्माण्डों को अपनी धारण करने वाली आकर्षण शक्ति से ठहराया हुआ है। जैसे पूर्ण परमात्मा कबीर परमेश्वर (कविर्देव) ने अपने निजी सेवक अर्थात् सखा श्री धर्मदास जी, आदरणीय गरीबदास जी आदि को अपने द्वारा रची सृष्टि का ज्ञान स्वयं ही बताया। उपरोक्त वेद मंत्र भी यही समर्थन कर रहा है।

नोट: गीता अध्याय 3 के इस श्लोक नं. 14 में ‘‘अक्षर’’ शब्द का अर्थ अविनाशी परमात्मा ठीक है। परन्तु जहाँ क्षर पुरुष, अक्षर पुरुष तथा परम अक्षर पुरुष का वर्णन है, वहाँ अक्षर पुरुष व क्षर पुरुष दोनों नाशवान कहे हैं। वहाँ पर अक्षर का अर्थ वही ठीक है। गीता अध्याय 15 श्लोक 16-17 में वर्णन है, यहाँ ‘अक्षर’ का अर्थ अविनाशी परमात्मा है क्योंकि सृष्टि रचना से स्पष्ट होता है कि ब्रह्म की उत्पत्ति सत्यपुरुष (अविनाशी परमात्मा) ने की थी। इससे सिद्ध हुआ कि (सर्वगतम् ब्रह्म) अर्थात् जिस परमात्मा की पहुँच सर्व ब्रह्माण्डों में है, जो सर्व का मालिक है, वह परमात्मा सदा ही यज्ञों अर्थात् धार्मिक अनुष्ठानों में प्रतिष्ठित है। भावार्थ है कि परम अक्षर ब्रह्म को इष्टदेव रुप में प्रतिष्ठित करके धार्मिक अनुष्ठान अर्थात् यज्ञ करने से शास्त्रविधि अनुसार कर्म करने से साधक को भक्ति लाभ मिलता है, जिससे मोक्ष प्राप्त होता है। देखें उल्टा रोपा गया संसार रुपी पौधे का चित्र इसी पुस्तक के पृष्ठ 261 पर।

देखें यह चित्र पृष्ठ 261 पर, इसमें पौधे की शाखाओं को गढ्ढे़ में जमीन में लगाकर दिखाया गया है कि जो तीनों देवों (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु, तमगुण शिव) में से किसी की भी पूजा करता है, वह शास्त्रविधि त्यागकर मनमाना आचरण कर रहा है जो गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में अनुचित तथा व्यर्थ बताया है। जिसने सर्वगतम् ब्रह्म अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म की पूजा नहीं की, उसको इष्ट रुप में नहीं पूजा, जिस कारण से उस साधक की साधना व्यर्थ है। शाखाओं को सींचने से पौधा नष्ट हो जाता है। अन्य देवताओं की पूजा करना गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15, 20-23 तथा गीता अध्याय 9 श्लोक 23-24 में मना किया हुआ है।

‘‘देखें यह चित्र’’ इसी पुस्तक के पृष्ठ 261 पर सीधा लगाया गया पौधा जो शास्त्रविधि अनुसार साधना है, यही मोक्षदायक है। यही प्रमाण गीता ग्रन्थ में है।

इसलिए हे धर्मदास! श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी तथा श्री शिवजी को नहीं छोड़ना है। इनकी पूजा इष्ट रुप में करते हो, वह छोड़नी है। तभी भक्त का पूर्ण मोक्ष सम्भव है।

Incorrect Worship
Correct Worship

प्रश्न 43:- (धर्मदास जी का) हे जिन्दा! आप जी ने तीनों देवताओं (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिवजी) की भक्ति करने वालों की दशा तो श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15, 20 से 23 तथा अध्याय 9 श्लोक 23-24 में प्रत्यक्ष प्रमाणित कर दिया कि तीनों गुणों (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिव) की भक्ति करने वाले राक्षस स्वभाव को धारण किए हुए मनुष्यों में नीच, दूषित कर्म करने वाले मूर्ख मुझ (गीता ज्ञान दाता ब्रह्म) को भी नहीं भजते। अन्य देवताओं की भक्ति पूजा करने वालों का सुख समय (स्वर्ग समय) क्षणिक होता है। स्वर्ग की प्राप्ति करके शीघ्र ही पृथ्वी पर जन्म धारण करते हैं। हे महात्मा जी! कृपया कोई संसार में हुए बर्ताव से ऐसा प्रकरण सुनाइए जिससे आप जी की बताई बातों की सत्यता का प्रमाण मिले। तीनों देवताओं के पुजारी ऐसा बर्ताव करते हैं।

उत्तर:- (जिन्दा जगदीश का):-

पहले पढ़ें गीता अध्याय 7 श्लोक 12-15 तथा 20-23 का यथार्थ अनुवाद:-

अध्याय 7 का श्लोक 12

ये, च, एव, सात्त्विकाः, भावाः, राजसाः, तामसाः, च, ये,
मत्तः, एव, इति, तान्, विद्धि, न, तु, अहम्, तेषु, ते, मयि।।12।।

अनुवाद: (च) और (एव) भी (ये) जो (सात्त्विकाः) सत्वगुण विष्णु जी से स्थिति (भावाः) भाव हैं और (ये) जो (राजसाः) रजोगुण ब्रह्मा जी से उत्पत्ति (च) तथा (तामसाः) तमोगुण शिव से संहार हैं (तान्) उन सबको तू (मत्तः,एव) मेरे द्वारा सुनियोजित नियमानुसार ही होने वाले हैं (इति) ऐसा (विद्धि) जान (तु) परंतु वास्तव में (तेषु) उनमें (अहम्) मैं और (ते) वे (मयि) मुझमें (न) नहीं हैं।(12)

केवल हिन्दी: और भी जो सत्वगुण विष्णु जी से स्थिति भाव हैं और जो रजोगुण ब्रह्मा जी से उत्पत्ति तथा तमोगुण शिव से संहार हैं उन सबको तू मेरे द्वारा सुनियोजित नियमानुसार ही होने वाले हैं ऐसा जान (तु) परंतु वास्तव में उनमें मैं और वे मुझमें नहीं हैं। (12)

अध्याय 7 का श्लोक 13

त्रिभिः, गुणमयैः, भावैः, एभिः, सर्वम्, इदम्, जगत्,
मोहितम्, न अभिजानाति, माम्, एभ्यः, परम्, अव्ययम्।।13।।

अनुवाद: (एभिः) इन (गुणमयैः) गुणों के कार्यरूप सात्विक श्री विष्णु जी के प्रभाव से, राजस श्री ब्रह्मा जी के प्रभाव से और तामस श्री शिवजी के प्रभाव से (त्रिभिः) तीनों प्रकार के (भावैः) भावों से (इदम्) यह (सर्वम्) सारा (जगत्) संसार - प्राणी समुदाय (माम्) मुझ काल के ही जाल में (मोहितम्) मोहित हो रहा है अर्थात् फंसा है (एभ्यः) इसलिए (परम् अव्ययम्) पूर्ण अविनाशी को (न) नहीं (अभिजानाति) जानता।(13)

केवल हिन्दी: इन गुणों के कार्य रूप सात्विक श्री विष्णु जी के प्रभाव से, राजस श्री ब्रह्मा जी के प्रभाव से और तामस श्री शिवजी के प्रभाव से तीनों प्रकार के भावों से यह सारा संसार - प्राणी समुदाय मुझ काल के ही जाल में मोहित हो रहा है अर्थात् फँसा है इसलिए पूर्ण अविनाशी को नहीं जानता।(13) {परमेश्वर कबीर बन्दी छोड़ जी की महिमा सन्त गरीबदास जी ने कही है तथा काल का जाल समझाया है:- गरीब, ब्रह्मा विष्णु महेश, माया और धर्मराया(काल) कहिए। इन पाँचों मिल प्रपंच बनाया वाणी हमरी लहिए।।}

अध्याय 7 का श्लोक 14

दैवी, हि, एषा, गुणमयी, मम, माया, दुरत्यया, माम्,
एव, ये, प्रपद्यन्ते, मायाम्, एताम्,तरन्ति,ते।।14।।

अनुवाद: (हि) क्योंकि (एषा) यह (दैवी) अलौकिक अर्थात् अति अद्भुत (गुणमयी) रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिव रूपी त्रिगुणमयी (मम) मेरी, (माया) माया (दुरत्यया) बड़ी दुस्तर है परंतु (ये) जो पुरुष केवल (माम्) मुझको (एव) ही निरंन्तर (प्रपद्यन्ते) भजते हैं (ते) वे (एताम्) इस (मायाम्) रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिव रूपी माया का (तरन्ति) उल्लंघन कर जाते हैं अर्थात् तीनों गुणों रजगुण ब्रह्माजी, सतगुण विष्णु जी, तमगुण शिवजी से ऊपर उठ कर काल ब्रह्म की साधना में लग जाते हैं।(14)

केवल हिन्दी: क्योंकि यह अलौकिक अर्थात् अति अद्भुत त्रिगुणमयी मेरी माया बड़ी दुस्तर है परंतु जो पुरुष केवल, मुझको ही निरंन्तर भजते हैं वे इस माया का उल्लंघन कर जाते हैं अर्थात् तीनों गुणों रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी, तमगुण शिव जी से ऊपर उठ जाते हैं।(14)

अध्याय 7 का श्लोक 15

न, माम्, दुष्कृतिनः, मूढाः, प्रपद्यन्ते, नराधमाः,
मायया, अपहृतज्ञानाः, आसुरम्, भावम्, आश्रिताः।।15।।

अनुवाद: (मायया) रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु, तमगुण शिव जी रूपी त्रिगुणमई माया की साधना से होने वाला क्षणिक लाभ पर ही आश्रित हैं अन्य साधना नहीं करना चाहते अर्थात् इसी त्रिगुणमई माया के द्वारा (अपहृतज्ञानाः) जिनका ज्ञान हरा जा चुका है जो मेरी अर्थात् ब्रह्म साधना भी नहीं करते, इन्हीं तीनों देवताओं तक सीमित रहते हैं ऐसे (आसुरम् भावम्) आसुर स्वभाव को (आश्रिताः) धारण किये हुए (नराधमाः) मनुष्यों में नीच (दुष्कृतिनः) दूषित कर्म करने वाले (मूढाः) मूर्ख (माम्) मुझको (न) नहीं (प्रपद्यन्ते) भजते अर्थात् वे तीनों गुणों (रजगुण-ब्रह्मा, सतगुण-विष्णु, तमगुण-शिव) की साधना ही करते रहते हैं।(15)

केवल हिन्दी: माया के द्वारा अर्थात् रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु, तमगुण शिव जी रूपी त्रिगुणमई माया की साधना से होने वाला क्षणिक लाभ पर ही आश्रित हैं जिनका ज्ञान हरा जा चुका है जो मेरी अर्थात् ब्रह्म साधना भी नहीं करते, इन्हीं तीनों देवताओं तक सीमित रहते हैं। ऐसे आसुर स्वभाव को धारण किये हुए मनुष्यों में नीच, दूषित कर्म करने वाले मूर्ख मुझको भी नहीं भजते अर्थात् वे तीनों गुणों (रजगुण-ब्रह्मा, सतगुण-विष्णु, तमगुण-शिव) की साधना ही करते रहते हैं।(15)

भावार्थ - गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15 का भावार्थ है कि जो साधक स्वभाव वश तीनों गुणों रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी, तमगुण शिव जी तक की साधना से मिलने वाले लाभ पर ही आश्रित रहकर इन्हीं तीनों प्रभुओं की भक्ति से जिन का ज्ञान हरा जा चुका है वे राक्षस स्वभाव को धारण किए हुए मनुष्यों में नीच, शास्त्र विधि विरुद्ध भक्ति रूपी दुष्कर्म करने वाले मूर्ख मुझ ब्रह्म को भी नहीं भजते गीता अध्याय 7 श्लोक 20 से 23 का भी इन्हीं से लगातार सम्बन्ध है।

अध्याय 7 का श्लोक 20

कामैः, तैः, तैः, हृतज्ञानाः, प्रपद्यन्ते, अन्यदेवताः,
तम्, तम् नियमम्, आस्थाय, प्रकृत्या, नियताः, स्वया।।20।।

अनुवाद: (तैः,तैः) उन-उन (कामैः) भोगों की कामना द्वारा (हृतज्ञानाः) जिनका ज्ञान हरा जा चुका है वे लोग (स्वया) अपने (प्रकृत्या) स्वभाव से (नियताः) प्रेरित होकर (तम्-तम्) उस उस अज्ञान रूप अंधकार वाले (नियमम्) नियम के (आस्थाय) आश्रय से (अन्यदेवताः) अन्य देवताओं को (प्रपद्यन्ते) भजते हैं अर्थात् पूजते हैं।(20)

केवल हिन्दी: उन-उन भोगों की कामना द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है वे लोग अपने स्वभाव से प्रेरित होकर उस उस अज्ञान रूप अंधकार वाले नियम के आश्रय से अन्य देवताओं को भजते हैं अर्थात् पूजते हैं। (20)

अध्याय 7 का श्लोक 21

यः, यः, याम्, याम्, तनुम्, भक्तः, श्रद्धया, अर्चितुम्, इच्छति,
तस्य, तस्य अचलाम्, श्रद्धाम्, ताम्, एव, विदधामि, अहम्।।21।।

अनुवाद: (यः, यः) जो-जो (भक्तः) भक्त (याम्, याम्) जिस-जिस (तनुम्) देवता के स्वरूप को (श्रद्धया) श्रद्धा से (अर्चितुम्) पूजना (इच्छति) चाहता है, (तस्य) उस (तस्य) उस भक्त की (श्रद्धाम्) श्रद्धा को (अहम्) मैं (ताम्, एव) उसी देवता के प्रति (अचलाम्) स्थिर (विदधामि) करता हूँ। (21)

केवल हिन्दी: जो-जो भक्त जिस-जिस देवता के स्वरूप को श्रद्धा से पूजना चाहता है, उस उस भक्त की श्रद्धा को मैं उसी देवता के प्रति स्थिर करता हूँ। (21)

अध्याय 7 का श्लोक 22

सः, तया, श्रद्धया, युक्तः, तस्य, आराधनम्, ईहते,
लभते, च, ततः, कामान्, मया, एव, विहितान्, हि, तान्।।22।।

अनुवाद: (सः) वह भक्त (तया) उस (श्रद्धया) श्रद्धा से (युक्तः) युक्त होकर (तस्य) उस देवता का (आराधनम्) पूजन (ईहते) करता है (च) और (हि) क्योंकि (ततः) उस देवता से (मया) मेरे द्वारा (एव) ही (विहितान्) विधान किये हुए (तान्) उन (कामान्) इच्छित भोगों को (लभते) प्राप्त करता है।(22)

केवल हिन्दी अनुवाद: वह भक्त उस श्रद्धा से युक्त होकर उस देवता का पूजन करता है और क्योंकि उस देवता से मेरे द्वारा ही विधान किये हुए उन इच्छित भोगों को प्राप्त करता है। (22)

अध्याय 7 का श्लोक 23

अन्तवत्, तु, फलम्, तेषाम्, तत्, भवति, अल्पमेधसाम्,
देवान्, देवयजः, यान्ति, मद्भक्ताः, यान्ति, माम्, अपि।।23।।

अनुवाद: (तु) परंतु (तेषाम्) उन (अल्पमेधसाम्) अल्प बुद्धि वालों का (तत्) वह (फलम्) फल (अन्तवत्) नाशवान् (भवति) होता है (देवयजः) देवताओं को पूजने वाले (देवान्) देवताओं को (यान्ति) प्राप्त होते हैं और (मद्भक्ताः) मतावलम्बी (अपि) भी (माम्) मुझको (यान्ति) प्राप्त होते हैं।(23)

केवल हिन्दी: परंतु उन अल्प बुद्धिवालों का वह फल नाशवान होता है देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते है। और मतावलम्बी अर्थात् मेरे द्वारा बताए भक्ति मार्ग से भी मुझको प्राप्त होते हैं। (23)

भावार्थ:- गीता अध्याय 7 श्लोक 20 से 23 तक का भावार्थ है कि जो गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15 में कहा है कि तीनों गुण(रजगुण श्री ब्रह्मा जी, सतगुण श्री विष्णु जी, तम् गुण श्री शिव जी) रूपी माया द्वारा जिन का ज्ञान हरा जा चुका है अर्थात् जो तीनों देवताओं की साधना करते हैं वे राक्षस स्वभाव को धारण किए हुए, मनुष्यों में नीच, दुष्कर्म करने वाले मूर्ख, मुझ ब्रह्म की पूजा नहीं करते। इसी के सम्बन्ध में गीता अध्याय 7 श्लोक 20 से 23 में कहा है कि जिनका ज्ञान उपरोक्त तीनों देवताओं द्वारा हरा जा चुका है वे अपने स्वभाव वश उन्हीं देवताओं की पूजा मनोंकामना पूर्ण करने के उद्देश्य से करते हैं अर्थात् गीता ज्ञान दाता कह रहा है कि मेरे से अन्य देवताओं की पूजा करते है। जो भक्त जिस देवता की पूजा करता है उसकी श्रद्धा मैं ही, उस देवता के प्रतिदृढ़ करता हूँ। उस देवताओं के पुजारी को भी मेरे द्वारा उस देवता को दी गई शक्ति से ही प्राप्त होता है। परन्तु उन मंद बुद्धि वालों अर्थात् मूर्खों का वह फल नाशवान है। देवताओं के पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं। मेरे भक्त मुझे प्राप्त होते हैं। भावार्थ है कि जो ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव की पूजा या अन्य किसी देव की पूजा करते हैं उन देवताओं की पूजा का फल नाशवान है अर्थात् वह पूजा व्यर्थ है।

हिरण्यकशिपु के वध, रावण, भस्मासुर का वध तथा हरिद्वार में तीनों देवताओं के पुजारियों का युद्ध का वर्णन इसी पुस्तक के पृष्ठ 189 पर है।

प्रश्न 44 (धर्मदास जी का):- हे जिन्दा! मैंने एक महामण्डलेश्वर से प्रश्न किया था कि गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में भगवान कृष्ण जी ने किस परमेश्वर की शरण में जाने के लिए कहा है? उस मण्डलेश्वर ने उत्तर दिया था कि भगवान श्री कृष्ण से अतिरिक्त कोई भगवान ही नहीं। कृष्ण जी ही स्वयं पूर्ण परमात्मा हैं, वे अपनी ही शरण आने के लिए कह रहे हैं, बस कहने का फेर है। हे जिन्दा जी! कृप्या मुझ अज्ञानी का भ्रम निवारण करें।

उत्तर: (जिन्दा बाबा परमेश्वर का):- हे धर्मदास!

ये माला डाल हुए हैं मुक्ता। षटदल उवा-बाई बकता।

आपके सर्व मण्डलेश्वर तथा शंकराचार्य अट-बट करके भोली जनता को भ्रमित कर रहे हैं। कह रहे हैं कि गीता ज्ञान दाता गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में अर्जुन को अपनी शरण में आने को कहता है, यह बिल्कुल गलत है क्योंकि गीता अध्याय 2 श्लोक 7 में अर्जुन ने कहा कि ‘हे कृष्ण! अब मेरी बुद्धि ठीक से काम नहीं कर रही है। मैं आप का शिष्य हूँ, आपकी शरण में हूँ। जो मेरे हित में हो, वह ज्ञान मुझे दीजिए। हे धर्मदास! अर्जुन तो पहले ही श्री कृष्ण की शरण में था। इसलिए गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में गीता ज्ञान दाता ने अपने से अन्य ‘परम अक्षर ब्रह्म’ की शरण में जाने के लिए कहा है। गीता अध्याय 4 श्लोक 3 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि हे अर्जुन तू मेरा भक्त है। इसलिए यह गीता शास्त्र सुनाया है।

गीता ज्ञान दाता ने गीता अध्याय 12 में अपनी जानकारी दी है तथा अध्याय 13 में अपने से अन्य पूर्ण परमात्मा का अन्य प्रमाण गीता अध्याय 13 श्लोक 11 से 28, 30, 31, 34 में भी है।

श्री मद्भगवत गीता अध्याय 13 श्लोक 1 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि शरीर को क्षेत्र कहते हैं जो इस क्षेत्र अर्थात् शरीर को जानता है, उसे “क्षेत्रज्ञ” कहा जाता है। (गीता अध्याय 13 श्लोक 1)

पेश है गीता अध्याय 13 श्लोक 1 की फोटोकाॅपी:-

Gita Adhyay 13 Shlok 1

गीता अध्याय 13 श्लोक 2 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि:- मैं क्षेत्रज्ञ हूँ। क्षेत्र तथा क्षेत्रज्ञ दोनों को जानना ही तत्वज्ञान कहा जाता है, ऐसा मेरा मत है। गीता अध्याय 13 श्लोक 10 में कहा है कि मेरी भक्ति अव्यभिचारिणी होनी चाहिए। जैसे अन्य देवताओं की साधना तो गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15 तथा 20 से 23 में तथा अध्याय 9 श्लोक 23-24 में व्यर्थ कही हैं। केवल ब्रह्म की भक्ति करें। उसके विषय में यहाँ कहा है कि अन्य देवता में आसक्त न हों। भावार्थ है कि भक्ति व मुक्ति के लिए ज्ञान समझें, वक्ता बनने के लिए नहीं। इसके अतिरिक्त वक्ता बनने के लिए ज्ञान सुनना अज्ञान है। पतिव्रता स्त्री की तरह केवल मुझमें आस्था रखकर भक्ति करें। अन्य मनुष्यों में बैठकर बातें बनाने का स्वभाव नहीं होना चाहिए। एकान्त स्थान में रहकर भक्ति करें।

पेश है गीता अध्याय 13 श्लोक 2 की फोटोकाॅपी:-

Gita Adhyay 13 Shlok 2

गीता अध्याय 13 श्लोक 11 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि अध्यात्म ज्ञान में रूचि रखकर तत्व ज्ञान के लिए सद्ग्रन्थों को देखना तत्वज्ञान है, वह ज्ञान है तथा तत्वज्ञान की अपेक्षा कथा कहानियाँ सुनाना, सुनना, शास्त्रविधि विरूद्ध भक्ति करना यह सब अज्ञान है। तत्वज्ञान के लिए परमात्मा को जानना ही ज्ञान है।

पेश है गीता अध्याय 13 श्लोक 11 की फोटोकाॅपी:-

Gita Adhyay 13 Shlok 11

गीता अध्याय 13 श्लोक 12 में गीता ज्ञान दाता ने अपने से “परम ब्रह्म” यानि श्रेष्ठ परमात्मा का ज्ञान कराया है। कहा है कि जो परमात्मा (ज्ञेयम्) जानने योग्य है, जिसको जानकर (अमृतम् अश्नुते) अमरत्व प्राप्त होता है अर्थात् पूर्ण मोक्ष का अमृत जैसा आनन्द भोगने को मिलता है। उसको भली-भाँति कहूँगा। (तत्) वह दूसरा (ब्रह्म) परमात्मा यानि परम अक्षर ब्रह्म न तो सत् कहा जाता है और न असत् अर्थात् गीता ज्ञान दाता ने अध्याय 4 श्लोक 32, 34 में कहा है कि जो तत्वज्ञान है, उसमें परमात्मा का पूर्ण ज्ञान है, वह तत्वज्ञान परमात्मा अपने मुख कमल से स्वयं उच्चारण करके बोलता है। उस तत्वज्ञान को तत्वदर्शी सन्त जानते हैं, उनको दण्डवत् प्रणाम करने से, नम्रतापूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्म तत्व को भली-भाँति जानने वाले तत्वदर्शी सन्त तुझे तत्वज्ञान का उपदेश करेंगे। इससे सिद्ध हुआ कि गीता ज्ञान दाता को परमात्मा का पूर्ण ज्ञान नहीं है। इसलिए कह रहा है कि वह दूसरा परमात्मा जो गीता ज्ञान दाता से भिन्न है। वह न सत् है, न ही असत्। यहाँ पर पर$ब्रह्म का अर्थ सात संख ब्रह्माण्ड वाले परब्रह्म अर्थात् गीता अध्याय 15 श्लोक 16 वाले अक्षर पुरूष से नहीं है क्योंकि काल लोक (जो 21 ब्रह्माण्डों का क्षेत्र है) में अक्षर पुरूष जिसे परब्रह्म कहा है, की विशेष भूमिका नहीं है। यहाँ काल लोक में काल तथा दयाल की भूमिका है। इसलिए यहाँ (पर माने दूसरा और ब्रह्म माने परमात्मा) ब्रह्म से अन्य परमात्मा (पूर्ण ब्रह्म) का वर्णन है।

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Gita Adhyay 13 Shlok 12

भावार्थ:- गीता अध्याय 13 श्लोक 12 में गीता ज्ञान दाता कह रहा है कि जो मेरे से दूसरा ब्रह्म अर्थात् प्रभु है वह अनादि वाला है। अनादि का अर्थ है जिसका कभी आदि अर्थात् शुरूवात न हो, कभी जन्म न हुआ हो। गीता ज्ञान दाता क्षर पुरूष है, इसे “ब्रह्म” तथा काल व काल ब्रह्म भी कहा जाता है। इसने गीता अध्याय 2 श्लोक 12, गीता अध्याय 4 श्लोक 5, 9, गीता अध्याय 10 श्लोक 2 में स्वयं स्वीकारा है कि हे अर्जुन! तेरे और मेरे बहुत जन्म हो चुके हैं, तू नहीं जानता, मैं जानता हूँ। इससे सिद्ध हुआ कि गीता ज्ञानदाता अनादि वाला “ब्रह्म” अर्थात् प्रभु नहीं है। इससे यह सिद्ध हुआ कि गीता ज्ञानदाता ने अध्याय 13 के श्लोक 12 में अपने से अन्य अविनाशी परमात्मा की महिमा कही है। (अध्याय 13 श्लोक 12)

गीता ज्ञान दाता ब्रह्म है, यह एक हजार (संहस्र) हाथ-पैर वाला है। इसका संहस्र कमल है अर्थात् हजार पँखुड़ियों वाला कमल है। गीता अध्याय 11 श्लोक 46 में अर्जुन ने कहा है कि हे संहस्राबाहु! (हजार हाथों वाले) आप चतुर्भुज रूप में आइए। इससे सिद्ध हुआ कि गीता ज्ञान दाता केवल हजार भुजाओं वाला है। इसलिए गीता अध्याय 13 श्लोक 13 में गीता ज्ञान दाता ने अपने से अन्य सब और हाथ-पैर वाले, सब और नेत्र सिर और मुख वाले और सब और कान वाले परमात्मा की महिमा कही है। कहा है कि वह परमात्मा संसार में सबको व्याप्त करके अर्थात् अपनी शक्ति से सब रोके हुए स्वयं सत्यलोक (शाश्वत स्थानम् तिष्ठति) में बैठा है। स्पष्ट हुआ कि गीता ज्ञान दाता से अन्य समर्थ परमात्मा है, वही सब संसार का संचालन, पालन करता है। (गीता अध्याय 13 श्लोक 13)

पेश है गीता अध्याय 13 श्लोक 13 की फोटोकाॅपी:-

Gita Adhyay 13 Shlok 13

गीता के अध्याय 13 श्लोक 14 श्लोक में भी स्पष्ट है कि गीता ज्ञान दाता ने अपने से अन्य परमात्मा का ज्ञान कराया है। कहा है:- सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयों को जानने वाला अर्थात् अन्तर्यामी है। सब इन्द्रियों से रहित है अर्थात् परमात्मा की इन्द्रियाँ हम मानव तथा अन्य प्राणियों जैसी विकारग्रस्त नहीं है। वह परमात्मा आसक्ति रहित है। {वह इस काल लोक (इक्कीस ब्रह्माण्डों) की किसी वस्तु-पदार्थ में आसक्ति नहीं रखता क्योंकि उस परमेश्वर का सत्यलोक इस काल के क्षेत्र से असख्यों गुणा उत्तम है। इसलिए वह परमात्मा आसक्ति रहित कहा है।} वही सबका धारण-पोषण करने वाला है। यही प्रमाण गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में भी है। कहा है कि ’’पुरूषोत्तम तो श्लोक 16 में बताए क्षर पुरूष तथा अक्षर पुरूष से अन्य ही है जो परमात्मा कहा जाता है। जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सब का धारण-पोषण करता है। वास्तव में अविनाशी परमेश्वर है।‘‘ वह परमात्मा निर्गुण है, परंतु सगुण होकर ही अपना महत्व दिखाता है। उदाहरण के लिए:- जैसे आम का पेड़ आम के बीज (गुठली) में निर्गुण अवस्था में होता है। उस बीज को जब बीजा जाता है, तब वह पौधा फिर पेड़ रूप में सगुण होकर अपना महत्व प्रकट करता है। परन्तु परमात्मा सत्यलोक में सगुण रूप में बैठा है। परमात्मा ने अपने वचन शक्ति से सर्व सृष्टि रचकर विधान बनाकर छोड़ दिया। उस परमात्मा के विधान अनुसार सर्व प्राणी तथा नक्षत्र बनते-बिगड़ते रहते हैं, जीव कर्मानुसार जन्मते-मरते रहते हैं। परमात्मा को कोई टैंशन नहीं, परन्तु जब परमात्मा पृथ्वी पर प्रकट होता है, उस समय सर्व गुणों को भोगता है। जैसे आम के वृक्ष को तो निर्गुण से सर्गुण होने में बहुत समय लगता है। परन्तु परमात्मा के लिए समय सीमा नहीं है। वे तो क्षण में निर्गुण, अगले क्षण में सर्गुण हो सकते हैं। जैसे क्षण में सत्यलोक चले जाते हैं तो हमारे लिए निर्गुण हो गए। हम उनके गुणों का लाभ प्राप्त नहीं कर सकते। क्षण में पृथ्वी पर प्रकट हो जाते हैं तो वे सगुण हो गए। हमारे को आशीर्वाद देकर अपने गुणों का लाभ देते हैं। इस प्रकार निर्गुण-सगुण कहा है। इससे भी सिद्ध हुआ कि गीता ज्ञान दाता से अन्य कोई सबका धारण-पोषण करने वाला परमात्मा है।

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Gita Adhyay 13 Shlok 14

गीता अध्याय 13 श्लोक 15-16 में भी यही प्रमाण है। गीता ज्ञानदाता ने कहा है कि जैसे सूर्य दूर स्थान पर स्थित होते हुए भी यहाँ पृथ्वी पर अपना प्रभाव बनाए है। उसी प्रकार परमात्मा सत्यलोक में स्थित होकर भी सर्व ब्रह्माण्डों पर अपनी शक्ति का प्रभाव बनाए हुए है। सर्व चर-अचर भूतों (प्राणियों तथा तत्वों) के बाहर-भीतर है। इसी प्रकार सूक्ष्म होने से हम उसको चर्मदृष्टि से देख नहीं पाते। इसलिए अविज्ञय अर्थात् हमारे ज्ञान से परे है तथा वही परमात्मा हमारे समीप में तथा दूर भी वही स्थित है। परमात्मा तो दूर सत्यलोक (शाश्वत स्थान) में है, उसकी शक्ति का प्रभाव प्रत्येक के साथ है। (गीता अध्याय 13 श्लोक 15)

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Gita Adhyay 13 Shlok 15

जैसे सूर्य दूर स्थित है, परन्तु पृथ्वी के ऊपर प्रत्येक प्राणी को अपने साथ दिखाई देता है। जैसे एक स्थान पर कई घड़े जल के भरे रखे हैं तो सूर्य प्रत्येक में दिखाई देता है, टुकड़ों में नहीं दिखता। इसी प्रकार परमात्मा प्रत्येक प्राणी को देखता है तथा साधक को दिव्य दृष्टि से दिखाई देता है। परमात्मा सूर्य के समान स्वप्रकाशित तथा ऐसे ही एक स्थान पर स्थित है। गीता अध्याय 8 श्लोक 3, 8-10 में भी यही प्रमाण है। वह परमात्मा जानने योग्य है। भावार्थ है कि गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि मेरे से अन्य परमात्मा का ज्ञान होना चाहिए, वह जानने योग्य है। वही परमात्मा अपने विधानानुसार सर्व का धारण-पोषण, उत्पत्ति तथा मृत्यु करता है। वास्तव में “ब्रह्मा” (सब का उत्पत्तिकर्ता) वही है। वास्तव में विष्णु (सबका धारण-पोषण करने वाला) वही है, वास्तव में शंकर (संहार करने वाला) वही है। अन्य ब्रह्मा, विष्णु तथा शंकर तो केवल एक ब्रह्माण्ड के कर्ता-धरता हैं। परन्तु वह परमात्मा तो सर्व ब्रह्माण्डों का ब्रह्मा, विष्णु तथा शंकर रूप में अकेला ही है। जैसे भारत वर्ष में केन्द्र का भी गृहमंत्री होता है तथा राज्यों में भी गृहमंत्री होते हैं। देश के प्रधानमंत्री जी अपने पास अन्य विभाग भी रख लेते हैं। उस समय प्रधानमंत्री जी गृहमंत्री आदि-आदि भी होते हैं और प्रधानमंत्री भी होते हैं।

इससे सिद्ध हुआ कि गीता ज्ञान दाता ने अपने से अन्य समर्थ परमात्मा की महिमा बताई है। गीता ज्ञान दाता से अन्य कोई पूर्ण परमात्मा है। (गीता अध्याय 13 श्लोक 16)

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Gita Adhyay 13 Shlok 16

गीता अध्याय 13 श्लोक 17 में गीता ज्ञान दाता ने अपने से अन्य परमात्मा की महिमा कही है जो इस प्रकार है:-

वह दूसरा परमात्मा (परम् ब्रह्म) यानि काल ब्रह्म से दूसरा परम अक्षर ब्रह्म सब ज्योतियों की भी ज्योति है अर्थात् सर्व प्रकाश स्रोत है, उसी अन्य समर्थ परमात्मा की शक्ति से सब प्रकाशमान हैं। और उस परमात्मा का प्रकाश सर्व से अधिक है। वह परमात्मा माया से अति परे कहा जाता है। वास्तव में निरंजन वही है। जो गीता ज्ञान दाता है, यह माया सहित “ज्योति निरंजन” कहा जाता है। वह परमात्मा ज्ञान का भण्डार है, वह जानने योग्य है, वह (ज्ञानगम्यम्) तत्व ज्ञान द्वारा प्राप्त होने योग्य है।

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Gita Adhyay 13 Shlok 17

इस गीता अध्याय 13 श्लोक 17 में मूल पाठ में “ज्ञानम् ज्ञेयम् ज्ञान गम्यम्” लिखा है जिसका भावार्थ है कि (ज्ञानम्) जो ज्ञान परमात्मा स्वयं पृथ्वी पर प्रकट होकर तत्वज्ञान अपने मुख कमल से बोलता है। इसलिए वह ज्ञान रूप है अर्थात् ज्ञान का भण्डार है। वह परमात्मा (ज्ञेयम् ज्ञानग्यम्) उसी तत्वज्ञान से जानने योग्य तथा उसी तत्वज्ञान से प्राप्त करने योग्य है। वह परमात्मा सर्व प्राणियों के हृदय में स्थित है। जैसे सूर्य दूर स्थान पर होते हुए भी प्रत्येक घड़े के जल में दिखाई देता है। वास्तव में वह उन घड़ों में नहीं हैं। परंतु घड़ों के ऊपर अपना प्रभाव रखता है, उष्णता देता है। सूक्ष्म वेद में कहा है कि:-

ब्रह्मा विष्णु शिव राई झूमकरा। नहीं सब बाजी के खम्ब सुनों राई झूमकरा।
वह सर्व ठाम सब ठौर है राई झूमकरा। सकल लोक भरपूर सुनो राई झूमकरा।।

यही प्रमाण गीता अध्याय 18 श्लोक 61 में भी है कहा है कि हे अर्जुन! शरीर रूप यन्त्र में आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियों को अन्तर्यामी परमेश्वर अपनी माया अर्थात् अपनी शक्ति से उनके कर्मानुसार भ्रमण कराता है अर्थात् संस्कारों के अनुसार अच्छी-बुरी योनियों में घूमाता है। वही सर्व शक्तिमान परमात्मा सर्व प्राणियों के हृदय में स्थित है अर्थात् विराजमान है। इसी प्रकार परमेश्वर की महिमा गीता अध्याय 13 श्लोक 17 में कही है। इससे सिद्ध हुआ कि गीता ज्ञान दाता ने अपने से अन्य पूर्ण परमात्मा की महिमा कही है। (गीता अध्याय 13 श्लोक 17)

गीता अध्याय 13 श्लोक 18 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि इस प्रकार क्षेत्र अर्थात् शरीर, (ज्ञानम्) तत्व ज्ञान और ज्ञेयम् अर्थात् जानने योग्य परमात्मा की महिमा मैंने संक्षेप में कही है। मेरा भक्त पहले मुझे ही सर्वेस्वा जानकर मुझ पर आश्रित था। वह इस (विज्ञाय) तत्वज्ञान के आधार से मेरे भाव अर्थात् मेरी शक्ति से परिचित होकर तथा उस समर्थ की शक्ति से परिचित होकर (उप पद्यते) उसके उपरान्त भक्ति करके उसी भाव को प्राप्त होता है। (गीता अध्याय 13 श्लोक 18)

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Gita Adhyay 13 Shlok 18

इसी प्रकार गीता अध्याय 13 श्लोक 19 में गीता ज्ञान दाता ने अपने से अन्य पुरूष अर्थात् परमात्मा की महिमा कही है। कहा है कि प्रकृति और पुरूष दोनों ही अनादि हैं। यहाँ पर प्रकृति से तात्पर्य सत्यलोक की प्रकृति से है। जिसको पराशक्ति, परानन्दनी, महान प्रकृति कहा जाता है। पुरूष का अर्थ पूर्ण परमात्मा है, ये दोनों अनादि हैं। इस प्रकृति का भावार्थ दुर्गा स्त्री रूप की तरह स्त्री रूप प्रकृति से नहीं है। जैसे सूर्य है तो उसकी प्रकृति उष्णता भी साथ ही है। इसी प्रकार सत्यपुरूष तथा उसकी प्रकृति अर्थात् शक्ति दोनों अनादि हैं।

इस प्रकार विकार तथा तीनों गुण जिस से उत्पन्न हुए हैं, वह अन्य प्रकृति है, उससे उत्पन्न हुए हैं, ऐसा जान। गीता अध्याय 7 श्लोक 4-5 में दो प्रकृति कही हैं, एक जड़ और दूसरी चेतन दुर्गा देवी। यहाँ पर दूसरी प्रकृति दुर्गा कही है। (गीता अध्याय 13 श्लोक 19)

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Gita Adhyay 13 Shlok 19

गीता अध्याय 13 श्लोक 20 में भी अन्य (पुरूषः) परमात्मा का वर्णन है। गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित गीता के इस श्लोक के अनुवाद में “पुरूषः” का अर्थ जीवात्मा किया जो गलत है। वास्तव में यहाँ पुरूष का अर्थ परमात्मा है।

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Gita Adhyay 13 Shlok 20

पढे़ं यथार्थ अनुवाद गीता अध्याय 13 श्लोक 20 का:-

अध्याय 13 का श्लोक 20

कार्यकरणकर्तृत्वे, हेतुः, प्रकृतिः, उच्यते। पुरुषः सुखदुःखानाम्, भोक्तृत्वे, हेतुः, उच्यते।।20।।

अनुवाद: (कार्यकरणकर्तृत्वे) कार्य और करण को उत्पन्न करने में (हेतुः) हेतु (प्रकृतिः) प्रकृति (उच्यते) कही जाती है और (पुरुषः) सतपुरुष (सुखदुःखानाम्) सुख-दुःखों के (भोक्तृत्वे) जीवात्मा को भोग भोगवाने के कारण भोगने में (हेतुः) हेतु (उच्यते) कहा जाता है। गीता अध्याय 18 श्लोक 61 में कहा है कि परमेश्वर सर्व प्राणियों को यन्त्र की तरह कर्मानुसार भ्रमण कराता हुआ सर्व प्राणियों के हृदय में स्थित है। गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में कहा है कि पूर्ण परमात्मा तो गीता ज्ञान दाता से अन्य है। वही अविनाशी परमात्मा तीनों लोकों में प्रवेश करके सर्व का धारण पोषण करता है।(20)

गीता अध्याय 13 श्लोक 21 में भी अन्य (पुरूषः) पूर्ण परमात्मा का वर्णन है। इसके अनुवाद में गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित में “पुरूषः” का अर्थ पुरूष ही किया है, यह ठीक है। पुरूषः का अर्थ परमात्मा होता है। प्रकरणवश पुरूषः का अर्थ मनुष्य भी किया जाता है क्योंकि परमात्मा ने मनुष्य को अपने स्वरूप के अनुरूप बनाया है।

इसलिए कहा जाता है कि:-

नर नारायण रूप है, तू ना समझ देहि।

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Gita Adhyay 13 Shlok 21

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