शंकर जी का मोहिनी स्त्री के रूप पर मोहित होना
वाणी नं. 88 से 101:-
गरीब, ब्रह्मादिक से मोहिया, मोहे शेष गनेस। संकर की ताड़ी लगी, अडिग समाधि हमेस।।88।।
गरीब, गण गंध्रप ज्ञानी गुनी, अजब नबेला नेह। क्या महिमा कहुं नाम की, मिट गये सकल संदेह।।89।।
गरीब, सुंन विदेसी बसि रह्या, हमरे नयनों मंझ। अलख पलक में खलक है, सतगुरु सबद समंझ।।90।।
गरीब, सुंन विदेसी बसि रह्या, हमरे हिरदै मांहि। चन्द सूर ऊगे नहीं, निसि बासर तहां नाहिं।।91।।
गरीब, सुंन विदेसी बसि रह्या, हमरे त्रिकुटी तीर। शंख पद्म छबि चांदनी, बानी कोकिल कीर।।92।।
गरीब, सुंन विदेसी रमि रह्या, सहंस कमलदल बाग। सोहं ध्यान समाधि धुनि, तरतीजन बैराग।।93।।
गरीब, सुमिरन तब ही जानिये, जब रोम रोम धुन होइ। कुंज कमल में बैठ कर, माला फेरे सोइ।।94।।
गरीब, सुरति सुमरनी हाथ लै, निरति मिले निरबान। ररंकार रमता लखै, असलि बंदगी ध्यान।।95।।
गरीब, अष्ट कमल दल सून्य है, बाहिर भीतर सून्य। रोम रोम में सून्य है, जहां काल की धुंन।।96।।
गरीब, तुमही सोहं सुरति हौ, तुमही मन और पौन। इनमें दूसर कौन है, आवै जाय सो कौन।।97।।
गरीब, इनमें दूसर करम है, बंधी अविद्या गांठ। पांच पचीसौ लै गई, अपने अपने बांट।।98।।
गरीब, नामबिना सूना नगर, पर्या सकल में सोर। लूटन लूटी बंदगी, होगया हंसा भोर।।99।।
गरीब, अगम निगमकूं खोजिलै, बुद्धि बिबेक बिचार। उदय अस्त का राज दै, तो बिना नाम बेगार।।100।।
गरीब, ऐसा कौन अभागिया, करें भजनकूं भंग। लोहे सें कंचन भया, पारस के सतसंग।।101।।
सुमिरन का अंग (88-93)
सरलार्थ:– इन्हीं काल प्रेरित आत्माओं (देवियों) ने ब्रह्मादिक (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) को भी मोहित कर लिया यानि अपने जाल में फँसा रखा है। शेष नाग भी नागिनी ने मोह रखा है। गणेश जी भी स्त्राी के संग में रहे। गणेश जी के दो पुत्र थे। एक का नाम शुभम्=शुभ, दूसरे लाभम्=लाभ था। शंकर (शिव जी) की अडिग (विचलित न होने वाली) समाधि (आंतरिक ध्यान) लगी थी जो हमेशा (सदा) ध्यान में रहते हैं। उनको भी मोहिनी अप्सरा ने मोहित करके डगमग कर दिया था।
शंकर जी का मोहिनी स्त्री के रूप पर मोहित होना
जिस समय दक्ष की बेटी यानि उमा (शंकर जी की पत्नी) ने श्री रामचन्द्र जी की बनवास में सीता रूप बनाकर परीक्षा ली थी। श्री शिव जी ऐसा न करने को कहकर घर से बाहर चले गए थे। सीता जी का अपहरण होने के पश्चात् श्रीराम जी अपनी पत्नी के वियोग में विलाप कर रहे थे तो उनको सामान्य मानव जानकर उमा जी ने शंकर भगवान की उस बात पर विश्वास नहीं हुआ कि ये विष्णु जी ही पृथ्वी पर लीला कर रहे हैं। जब उमा जी सीता जी का रूप बनाकर श्री राम जी के पास गई तो वे बोले, हे दक्ष पुत्री माया! भगवान शंकर को कहाँ छोड़ आई। इस बात को श्री राम जी के मुख से सुनकर उमा जी लज्जित हुई और अपने निवास पर आई। शंकर जी की आत्मा में प्रेरणा हुई कि उमा ने परीक्षा ली है। शंकर जी ने विश्वास के साथ कहा कि परीक्षा ले आई। उमा जी ने कुछ संकोच करके भय के साथ कहा कि परीक्षा नहीं ली अविनाशी। शंकर जी ने सती जी को हृदय से त्याग दिया था। पत्नी वाला कर्म भी बंद कर दिया। बोलना भी कम कर दिया तो सती जी अपने घर राजा दक्ष के पास चली गई।
राजा दक्ष ने उसका आदर नहीं किया क्योंकि उसने शिव जी के साथ विवाह पिता की इच्छा के विरूद्ध किया था। राजा दक्ष ने हवन कर रखा था। हवन कुण्ड में छलाँग लगाकर सती जी ने प्राणान्त कर दिया था। शंकर जी को पता चला तो अपनी ससुराल आए। राजा दक्ष का सिर काटा, फिर उस पर बकरे का सिर लगाया। अपनी पत्नी के कंकाल को उठाकर दस हजार वर्ष तक उमा-उमा करते हुए पागलों की तरह फिरते रहे। एक दिन भगवान विष्णु जी ने सुदर्शन चक्र से उस कंकाल को टुकड़े-टुकड़े कर दिया। उसके बावन टुकड़े हुए। जहाँ-जहाँ भी गिरे, वहाँ-वहाँ यादगार रूप में मंदिर बनवाए गए जो बावन द्वारे कहे जाते हैं। जहाँ पर धड़ गिरा, वहाँ पर वैष्णव देवी मंदिर बना। जहाँ पर आँखें गिरी, वहाँ पर नैना देवी मंदिर बना। जहाँ पर जीभ गिरी, वहाँ पर ज्वाला जी का मंदिर बना तथा पर्वत से अग्नि की लपट निकलने लगी। तब शंकर जी सचेत हुए तथा अपनी दुर्गति का कारण कामदेव (sex) को माना। कामदेव वश हो जाए तो न स्त्री की आवश्यकता हो और न ऐसी परेशानी हो। यह विचार करके हजारों वर्ष काम (sex) का दमन करने के उद्देश्य से तप किया। एक दिन कामदेव उनके निकट आया और शंकर जी की दृष्टि से भस्म हो गया। शंकर जी को अपनी सफलता पर असीम प्रसन्नता हुई। जो भी देव उनके पास आता था तो उससे कहते थे कि मैंने कामदेव को भस्म कर दिया है यानि काम विषय पर विजय प्राप्त कर ली है। मैं कभी भी किसी सुंदरी से प्रभावित नहीं हो सकता। अन्य जो विवाह किए हुए हैं, वे ऊपर से सुखी नजर आते हैं, अंदर से महादुःखी रहते हैं। उनको सदा अपनी पत्नी की रखवाली, समय पर घर पर न आने से डाँटें खाना आदि-आदि परेशानियां सदा बनी रहती हैं। मैंने यह दुःख निकट से देखा है। अब न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी।
काल ब्रह्म को चिंता बनी कि यदि सब इस प्रकार स्त्री से घृणा करेंगे तो संसार का अंत हो जाएगा। मेरे आहार के लिए एक लाख मानव कहाँ से आएंगे? इस उद्देश्य से नारद जी को प्रेरित किया। एक दिन नारद मुनि जी आए। उनके सामने भी शिव जी ने अपनी कामदेव पर विजय की कथा सुनाई। नारद जी ने भगवान विष्णु को यथावत सुनाई। श्री विष्णु जी को काल ब्रह्म ने प्रेरणा की। भाई की परीक्षा करनी चाहिए कि ये कितने खरे हैं। काल ब्रह्म की प्रेरणा से एक दिन शिव जी विष्णु जी के घर के आँगन में आकर बैठ गए। सामने बहुत बड़ा फलदार वृक्षों का बाग था। भिन्न-भिन्न प्रकार के फूल खिले थे। बसंत जैसा मौसम था। श्री विष्णु जी, शिव जी के पास बैठ गए। कुशलमंगल जाना। फिर विष्णु जी ने पूछा, सुना है कि आपने काम पर विजय प्राप्ति कर ली है। शिव जी बोले, हाँ, मैंने कामदेव का नाश कर दिया है। कुछ देर बाद शिव जी के मन में पे्ररणा हुई कि भगवान मैंने सुना है कि सागर मंथन के समय आप जी ने मोहिनी रूप बनाकर राक्षसों को आकर्षित किया था। आप उस रूप में कैसे लग रहे थे? मैं देखना चाहता हूँ। पहले तो बहुत बार विष्णु जी ने मना किया, परंतु शिव जी के हठ के सामने स्वीकार किया और कहा कि कभी फिर आना। आज मुझे किसी आवश्यक कार्य से कहीं जाना है। यह कहकर विष्णु जी अपने महल में चले गए। शिव जी ने कहा कि जब तक आप वह रूप नहीं दिखाओगे, मैं भी जाने वाला नहीं हूँ। कुछ ही समय के बाद शिव जी की दृष्टि बाग के एक दूर वाले कोने में एक अपसरा पर पड़ी जो सुन्दरता का सूर्य थी। इधर-उधर देखकर शिव जी उसकी ओर चले पड़े, ज्यों-ज्यों निकट गए तो वह सुंदरी अधिक सुंदर लगने लगी और वह अर्धनग्न वस्त्र पहने थी। कभी गुप्तांग वस्त्र से ढ़क जाता तो कभी हवा के झोंके से आधा हट जाता। सुंदरी ऐसे भाव दिखा रही थी कि जैसे उसको कोई नहीं देख रहा। जब शिव जी को निकट देखा तो शर्मसार होकर तेज चाल से चल पड़ी। शिव जी ने भी गति बढ़ा दी। बड़े परिश्रम के पश्चात् तथा घने वृक्षों के बीच मोहिनी का हाथ पकड़ पाए। तब तक शिव जी का शुक्रपात हो चुका था। उसी समय सुंदरी वाला स्वरूप श्री विष्णु रूप बन गया था। भगवान विष्णु जी शिव जी की दशा देखकर मुस्काए तथा कहा कि ऐसे उन राक्षसों से अमृत छीनकर लाया था। वे राक्षस ऐसे मोहित हुए थे जैसे मेरा छोटा भाई कामजीत अब काम पराजित हो गया। शिव जी ने उसके पश्चात् हिमालय राजा की बेटी पार्वती से अंतिम बार विवाह किया। पार्वती वाली आत्मा वही है जो सती जी थी। पार्वती रूप में अमरनाथ स्थान पर अमर मंत्र शिव जी से प्राप्त करके शिव जी की आयु तक अमर हुई है।
इस प्रकार वाणी में कहा है कि शंकर जी की समाधि तो अडिग (न डिगने वाली) थी जैसा पौराणिक मानते हैं। वह भी मोहे गए। माया के वश हो गए। (88)
गंधर्व (एक मानव जाति जो गंधर्व गोत्र की है) तथा गण (देवों के नौकर जैसे शिव के गण, गणेश तो है ही गणों का ईश) तथा ज्ञानी मुनि यानि विद्वान कहे जाने वाले ऋषि जी भी (अजब नवेला नेहे) सुंदर युवा स्त्रियों से (अजब) गजब का (अनोखा) प्यार करते हैं। संत गरीबदास जी कह रहे हैं कि उस निज नाम की क्या महिमा करूं जिससे सब संदेह यानि शंकाएँ समाप्त हो गई हैं अर्थात् सतलोक में जाने के पश्चात् जन्म-मरण तथा विकारों से पूर्ण रूप से पीछा छुट सकता है। सतलोक प्राप्ति (मोक्ष की प्राप्ति) निज नाम से होती है। वह निज नाम (सार नाम) मेरे गुरूदेव जी ने मुझे दे दिया। उस निज नाम की क्या महिमा करूं जिसने मेरा कल्याण कर दिया। (89)
जो सुन्न विदेशी यानि आकाश में सुन्न में निवास करने वाला प्रदेशी हमारी आँखों में बसा है यानि आँखों का तारा है। उस अलख यानि अव्यक्त (जो दिखाई नहीं देता) की पलक (आँखों के ऊपर उगे बालों को पलक कहते हैं जो सेलियों के नीचे होती हैं) में खलक (संसार) है यानि उस परमेश्वर को भी संसार के सब जीव उतने ही प्यारे हैं, वह भी खलक को अपनी पलकों पर रखता है। सतगुरू के शब्द यानि मोक्ष करने वाले नाम को समझ और अपना कल्याण करा। (90)
परमेश्वर जो सुन्न में रहने वाला परदेशी है। वह हमारे हृदय में बसा है यानि हम अपने परमेश्वर से बहुत प्यार करते हैं। जिस स्थान पर (सतलोक में) परमेश्वर रहते हैं। वह स्वप्रकाशित है। जैसे हीरा स्वप्रकाशित होता है। वहाँ पर प्रकाश करने के लिए सूर्य की आवश्यकता नहीं है। वहाँ पर दिन-रात (निश=रात्रि, वासर=दिन) नहीं होते। (91)
वही प्रदेशी सतपुरूष त्रिकुटी में अन्य रूप में रहता है। उस शरीर की शोभा शंख पदमों की रोशनी जितनी है। सतलोक में परमेश्वर के एक रोम (शरीर के बाल) की छवि करोड़ सूर्यों तथा करोड़ चन्द्रमाओं जितनी है। पदम की रोशनी तो एक चन्द्रमा जैसी ही होती है। यानि त्रिकुटी पर सतपुरूष कम तेज वाले शरीर में विद्यमान है। (त्रिकुटी तीर का अर्थ है त्रिकुटी के किनारे। यहाँ तीर का अर्थ किनारा है जैसे यमुना के तीर कृष्ण बंसी बजाई रे) उस परमेश्वर जी ने कोकिल कीर (कोयल पक्षी) जैसी मधुर वाणी बोल-बोलकर ज्ञान बताया था। (92)
उस परमेश्वर की सत्ता यानि अधिपत्य संहस्र कमल (हजार पंखुड़ी वाले कमल) पर भी है क्योंकि वह कुल का मालिक (वासुदेव) है। संहस्र कमल बाग का भावार्थ है कि जहाँ हजार ज्योतियों का बाग-सा लगा है। उस स्थान का मालिक वास्तव में सतपुरूष (अविगत राम) ही है। जैसे चक्रवर्ती सम्राट के आधीन सर्व राजा तथा उनके सुंदर नगर व निवास भी आते हैं। वे उसी के माने जाते हैं। उस परमेश्वर को प्राप्त करने वाले नामों में एक सोहं नाम भी है। अन्य मंत्र (नाम) भी हैं जिनको तरतीजन यानि क्रमवार (बारी-बारी, एक के बाद दूसरा ऐसे तरतीवार) दिया जाता है। सोहं नाम के जाप में ध्यान लगना ही संतों की समाधि है। इसी में धुन (लगन) लगाते हैं। इसको सहज समाधि कहते हैं। (93)