अविनाशी प्रभु तो गीता ज्ञान दाता से अन्य है

अध्याय 2 के श्लोक 17 का भावार्थ है कि गीता ज्ञान दाता काल भगवान ने ऊपर के श्लोकों में कहा है कि अर्जुन! हम सब (मैं और तू तथा सर्व प्राणी) जन्म-मरण में हैं। श्लोक 17 में कहा है कि वास्तव में अविनाशी तो उसी परमेश्वर (पूर्ण ब्रह्म) को ही जान जिससे यह सर्व ब्रह्मण्ड व्याप्त (व्यवस्थित) हैं। उस अविनाशी (सतपुरुष) का कोई नाश नहीं कर सकता। उसी की शक्ति प्रत्येक जीव में और कण-2 में विद्यमान है। जैसे सूर्य दूर स्थान पर होते हुए भी उसका प्रकाश व उष्णता पृथ्वी पर प्रभाव बनाए हुए है। जैसे सौर ऊर्जा के संयन्त्रा को शक्ति दूरस्थ सूर्य से प्राप्त होती है। उस संयन्त्र से जुड़े सर्व, पंखें, व प्रकाश करने वाले बल्ब आदि कार्य करते रहते हैं। इसी प्रकार पूर्ण परमात्मा सत्यलोक में दूर विराजमान होकर सर्व प्राणियों के आत्मा रूपी संयन्त्रा को शक्ति प्रदान कर रहा है। उसी की शक्ति से सर्व प्राणी व भूगोल गति कर रहे हैं। जिन शास्त्रविरूद्ध साधकों को परमात्मा का लाभ प्राप्त नहीं हो रहा उनके अन्तकरण पर पाप कर्मों के बादल छाए होते हैं। सतगुरू शरण में आने के पश्चात् सत्य साधना (शास्त्र विधि अनुसार) करने से वे पाप कर्मों के बादल समाप्त हो जाते हैं। जिस कारण से पूर्ण सन्त की शरण में रह कर मर्यादावत् साधना करने से परमात्मा से मिलने वाली शक्ति प्रारम्भ हो जाती है। कबीर परमेश्वर के शिष्य गरीबदास जी ने कहा है:-

जैसे सूरज के आगे बदरा ऐसे कर्म छया रे। प्रेम की पवन करे चित मन्जन झल्के तेज नया रे।। सरलार्थ:-- जैसे सूर्य के सामने बादल होते है ऐसे पाप कर्मों की छाया जीव व परमात्मा के मध्य हो जाती है। पूर्ण सन्त की शरण में शास्त्रविधि अनुसार साधना करने से, प्रभु की भक्ति रूपी मन्जन से प्रभु प्रेम रूपी हवा चलने से पाप कर्म रूपी बादल हट कर भक्त के चेहरे पर नई चमक दिखाई देती है। अर्थात् परमात्मा से मिलने वाला लाभ प्रारम्भ हो जाता है। यही प्रमाण गीता अध्याय 18 श्लोक 61 में है कि पूर्ण परमात्मा प्रत्येक प्राणी को उसके कर्मों के अनुसार यन्त्र (मशीन) की तरह भ्रमण करवाता है तथा जैसे पानी के भरे मटकों में सूर्य प्रत्येक में दिखाई देता है, ऐसे परमात्मा जीव के हृदय में दिखाई देता है। गीता अध्याय 18 श्लोक 46 में भी यही प्रमाण है। लिखा है कि जिस परमेश्वर से सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति हुई है और जिससे यह समस्त जगत व्याप्त है, उस परमेश्वर की अपने वास्तविक कर्मों द्वारा पूजा करके मानव (स्त्राी-पुरूष) परम सिद्धि को प्राप्त हो जाता है।(18:46)

अध्याय 2 के श्लोक 18-20 का अनुवाद है कि यह पंच भौतिक शरीर नाशवान है। अविनाशी परमात्मा नाश रहित, प्रमाण रहित अर्थात् सामान्य साधक नहीं समझ सकता, जीवात्मा के साथ नित्य रहने वाला कहा गया है। जैसे उपरोक्त उदाहरण में सूर्य, सौर ऊर्जा संयन्त्र से अभेद रहता है उसी की शक्ति से ऊर्जा ग्रहण हो रही है। जिसे वैज्ञानिक ही जानते हैं। साधारण व्यक्ति नहीं समझ सकता की ये सर्व पंखे आदि कैसे कार्य कर रहे हैं। गीता जी के अध्याय 13 के श्लोक 21-22-23 में और गीता जी के अध्याय 15 के श्लोक 8 में , इसलिए हे भरतवंशी अर्जुन! युद्ध कर।

अध्याय 13 के श्लोक 21 का अनुवाद: परमात्मा अपनी सर्वव्यापकता से प्रकृति अर्थात् दुर्गा में भी विद्यमान है इसलिए प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुणों अर्थात् रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिव को भी गति उसी से मिलती है जिस कारण जीवात्मा को कर्मानुसार भोग भोगवाने के कारण भोगता है और इन गुणों का संग ही इस जीवात्मा के अच्छी-बुरी योनियों में जन्म लेने का कारण है। जैसे सौर ऊर्जा का प्रयोग कोई पशु काटने की मशीन चलाने में प्रयोग करता है कोई जूस (रस) निकालने की मशीन चलाने में प्रयोग करता है। यह सर्व कार्य सौर ऊर्जा से ही होता है। इसी प्रकार परमात्मा की शक्ति युक्त साधक उसका जैसा प्रयोग करता है व श्रेय परमात्मा के गुण अर्थात् शक्ति को ही जाता है।

अध्याय 13 के श्लोक 22 का अनुवाद: इस देह में स्थित यह (परः पुरूषः) अन्य परमेश्वर यानि सतपुरुष वास्तव में परमात्मा ही है वही साक्षी होने से उपद्रष्टा और यथार्थ सन्मति देने वाला होनेसे अनुमन्ता, सबका धारण-पोषण करनेवाला होने से भर्ता, यज्ञों यानि धार्मिक अनुष्ठानों में भोग लगाने से भोक्ता ब्रह्म व परब्रह्म आदि का भी स्वामी होने से महेश्वर और परमात्मा ऐसा कहा गया है। अध्याय 13 के श्लोक 23 का अनुवाद: इस प्रकार सतपुरुष को, काल भगवानको और गुणोंके सहित मायाको जो तत्वसे जानता है वह सब प्रकारसे कर्तव्य कर्म करता हुआ भी फिर नहीं जन्मता। अध्याय 15 के श्लोक 8 का अनुवाद: हवा गन्धको ले जाती है क्योंकि गंध की वायु मालिक है, ऐसे परमात्मा भी सूक्ष्म शरीर युक्त जीवात्मा जिस पुराने शरीरको त्याग कर और जिस नए शरीरको प्राप्त होता है, ले जाता है।

भावार्थ:- परमात्मा की निराकार शक्ति आत्मा के साथ ऐसे जानों जैसे मोबाइल फोन रेंज से ही कार्य करता है। टाॅवर एक स्थान पर होते हुए भी अपनी रेंज से अपने क्षेत्रा वाले मोबाईल फोन के साथ अभेद है। इसको वही समझ सकता है जिसके पास मोबाईल फोन है। इसी प्रकार परमात्मा अपने निज स्थान सत्यलोक में रहता है या जहाँ भी आता जाता है अपनी निराकार शक्ति की रेंज को उसी तरह प्रत्येक ब्रह्मण्ड के प्रत्येक प्राणी व स्थान अर्थात् जड़ व चेतन पर फैलाए रहता है, जैसे सूर्य दूर स्थान पर रहते हुए भी अपना प्रकाश व अदृश्य उष्णता (गर्मी) को अपने पहुँच वाले क्षेत्रा पर कण-कण में फैलाए रहता है। इसी प्रकार परमात्मा के शरीर से निकल रहा प्रकाश व अदृश्य शक्ति सर्व जड़ व चेतन को व्यवस्थित किए हुए है। यही प्रमाण गीता अध्याय 18 श्लोक 61 में है कि पूर्ण परमात्मा प्रत्येक प्राणी को यन्त्रा (मशीन) की तरह चलाता है। जैसे भिन्न-2 मटकों में सूर्य प्रत्येक में दिखाई देता है। ऐसे परमात्मा प्रत्येक प्राणी के हृदय में दिखाई देता है। परन्तु वास्तव में वह बहुत दूर स्थित होता है। इस प्रकार सर्व को व्यवस्थित किए है।

अध्याय 2 के श्लोक 19 से 21 तक का भाव है कि सर्वव्यापक पूर्ण परमात्मा आत्मा के साथ ऐसे रहता है जैसे वायु में कहीं-2 गन्ध होती है। वायु का और गंध का कभी न अलग होने वाला सम्बन्ध है। परंतु गंध का स्थानान्तरण होता है तब वायु साथ ही रहती है। इसी प्रकार वायु तो परमात्मा जानो और गंध को आत्मा समझो। जैसे सुगंध अच्छी आत्मा तथा दुर्गंध दुष्ट आत्मा जानो। फिर भी परमात्मा उन्हें कर्मों के अनुसार नए शरीरों में ले जाता है और फिर भी साथ होता है। जैसे सूर्य प्रत्येक प्राणी को अपने साथ ही नजर आता है। दूर रहते हुए भी सूर्य के निराकार प्रभाव उष्णता से प्रत्येक प्राणी प्रभावित रहता है। इसी प्रकार परमेश्वर सत्यलोक में विराजमान होकर सर्व प्राणियों को ऐसे व्यवस्थित रखता है। ठीक इसी प्रकार यह अध्याय 2 के श्लोक 17 से 21, 22-23 व 24-25 का भिन्न-2 भाव से अर्थ समझना है।

अध्याय 2 श्लोक 22-23 में जीवात्मा की स्थिति बताई है।

अध्याय 2 के श्लोक 22 का अनुवाद: जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नये वस्त्रों को ग्रहण करता है। वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नये शरीरों को प्राप्त होता है।

अध्याय 2 के श्लोक 23 का अनुवाद: इस जीवात्मा को शस्त्र नहीं काट सकते, इसको आग नहीं जला सकती, इसको जल नहीं गला सकता और वायु नहीं सूखा सकती। ईश्वरीय गुणों (शक्ति) से युक्त होते हुए भी आत्मा का अस्तित्व भिन्न बहुत न्यून है।

24-25 में फिर उस सर्वव्यापक परमात्मा की महिमा कही है।

विशेष विवेचन:- गीता अध्याय 2 श्लोक 24-25 के अनुवाद में एस्कोन वालों सहित अन्य सबने गलत अनुवाद किया है। इन दोनों श्लोकों में परमात्मा का वर्णन है। श्लोक 24 में ‘‘सर्वगतः’’ शब्द है जिसका अर्थ तो ‘‘सर्वव्यापी’’ सभी अनुवादकों ने ठीक किया है, परंतु आत्मा को सर्वव्यापी बताया है। इसी एक शब्द से भावार्थ बदल जाता है। आत्मा सर्वव्यापी नहीं है। परमात्मा सर्वव्यापी है। अधिक स्पष्ट जानकारी गीता अध्याय 13 के श्लोक 22 में पढ़ने को मिलेगी। बुद्धिमान को संकेत ही बहुत होता है।

अध्याय 2 के श्लोक 24 का अनुवाद: यह अच्छेद्य है यह परमात्मा अदाह्य अक्लेद्य और निःसंदेह अशोष्य है तथा यह परमात्मा नित्य सर्वव्यापी अचल स्थिर रहने वाला और सनातन है।

अध्याय 2 के श्लोक 25 का अनुवाद: यह परमात्मा गुप्त है परन्तु तेजोमय सूक्ष्म शरीर सहित है यह अचिन्त्य है और यह विकाररहित कहा जाता है। इससे हे अर्जुन! इस परमात्मा को जो आत्मा के साथ अभेद रूप से रहता है, जिससे आत्मा विनाश रहित है। इस प्रकार से जानकर तू शोक करने के योग्य नहीं है अर्थात तुझे शोक करना उचित नहीं है क्योंकि परमात्मा का साथ होने से आत्मा मरती नहीं है। गीता अध्याय 7 श्लोक 25 में गीता ज्ञान दाता काल ब्रह्म ने कहा है कि मैं अपनी योग माया से छुपा रहता हूँ। सब के सामने प्रकट नहीं होता मुझ अव्यक्त (छुपे हुए) को यह अज्ञानी प्राणी कृष्ण रूप में व्यक्ति आया मानते हैं। गीता अध्याय 8 श्लोक 20 में कहा है कि उस अव्यक्त से भी परे जो आदि अव्यक्त पूर्ण परमात्मा है वह सर्व प्राणियों के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता।

गीता अध्याय 2 श्लोक 12 से 25 तक का भाव

अध्याय 2 श्लोक 12 से 25 तक का भाव है कि अर्जुन सर्व प्राणी (मैं तथा तू) जन्म-मरण में हैं परंतु अविनाशी तो उसे जान जिससे सम्पूर्ण जगत व्याप्त है इस अविनाशी (पूर्ण ब्रह्म) का विनाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है। वह परमात्मा इस जीवात्मा के साथ ऐसे रहता है जैसे वायु में गंध है। वायु गंध का मालिक है। अच्छी आत्मा (सुगंध) तथा दुष्ट आत्मा (दुर्गन्ध) होती है। परंतु शुद्ध वायु निर्लेप है और दोनों यानि परमात्मा तथा आत्मा व वायु तथा गंध का अभेद सम्बन्ध है। इसी प्रकार जीवात्मा परमात्मा के गुणों वाली ही है। फिर भी कर्म-भोग भोगती है। जैसे व्यक्ति पुराने वस्त्र त्याग कर नए वस्त्र पहन लेता है, इसी प्रकार जीवात्मा कर्मानुसार स्वर्ग-नरक, चैरासी लाख जूनियों में सुख व कष्ट पाती है परंतु परमात्मा को कष्ट नहीं है। जीवात्मा दुःखी व सुखी अवश्य होती है। यहाँ पर यह बात याद रखना जरूरी है कि गीता जी के अध्याय 13 के श्लोक 22-23 में तथा गीता जी के अध्याय 15 के श्लोक 8 में प्रमाण है कि पूर्ण परमात्मा का अंश जीवात्मा है। इसी के साथ सतपुरुष का अभेद सम्बन्ध है। जीवात्मा अपने कर्मों के अनुसार फल भोगती है। दुःख-सुख को महसूस करती है परंतु परमात्मा (सतपुरुष) इससे परे है, निर्लेप है। इसलिए प्रिय पाठको यह भेद समझना जरूरी है। अमर-अछेद्य तो जीवात्मा भी है परंतु कर्मों के वश है तथा परमात्मा लिप्त नहीं है तथा समर्थ है। यह गहरा भेद समझ कर गीता जी के निर्मल ज्ञान का पूर्ण लाभ उठा पाओगे।

अध्याय 2 के श्लोक 26 से 30 में कहा है कि जीव आत्मा शरीर न रहने पर भी नहीं मरती है। चूंकि परमात्मा इसके साथ अदृश्य रूप से रहता है। जिस प्रकार पुराने कपड़े उतार कर नए पहन ले ऐसे ही यह शरीर समझ। जीव आत्मा को न काटा जा सकता है, न जलाया जा सकता है, न जल में डूबोया जा सकता है, न वायु सुखा सकती है, यह अमर है। यह परमात्मा जो जीवात्मा के साथ उपद्रष्टा रूप में रहता है जो निर्विकार है। यदि जीवात्मा को नित्य मरने-जन्मने वाली भी मानें तो भी दुःखी नहीं होना चाहिए। चूंकि पुराने वस्त्र त्याग कर नए पहन लिए इसलिए शोक मत कर। जिसका जन्म हुआ है वह अवश्य मरेगा तथा जो मरेगा उसका जन्म अवश्य है। भगवान कह रहा है तू तथा मैं तथा ये सर्व प्राणी पहले भी थे तथा आगे भी होंगे। फिर क्यों चिंता करें?

विशेष विवेचन व तर्क-वितर्क:- गीता अध्याय 13 श्लोक 22 को एस्कोन वालों ने श्लोक 23 बनाया है। इस श्लोक 22 (23) का अनुवाद एस्कोन वालों ने कुछ ठीक किया है जो इस प्रकार है:-

शब्दार्थ:- (उपदृष्टा) साक्षी, (अनुमन्ता) अनुमति देने वाला, (च) भी, (भर्ता) स्वामी, (भोक्ता) परम भोक्ता, (महेश्वरः) महा ईश्वर, (परम-आत्मा) परमात्मा, (इति) भी, (च) तथा, (अपि) निःसंदेह, (उक्तः) कहा गया है, (देहे) शरीर में, (अस्मिन्) अस, (पुरूषः) भोक्ता, (पराः) दिव्य। अनुवाद:- तो भी इस शरीर में एक अन्य दिव्य भोक्ता है जो ईश्वर है, परम स्वामी है और साक्षी तथा अनुमति देने वाले के रूप में विद्यमान है और जो परमात्मा कहलाता है।

गीता प्रेस गोरखपुर से मुद्रित तथा प्रकाशित, श्री जयदयाल गोयन्दका द्वारा अनुवादित गीता पदच्छेद अन्वय साधारण भाषा टीका सहित में व अन्य सब अनुवादकों ने गलत अर्थ किया है जो इस प्रकार है:- इस देह में स्थित यह आत्मा वास्तव में (परः) परमात्मा ही है। साक्षी होने से उपद्रष्टा और यथार्थ सम्मति देने वाला होने से अनुमन्ता सबका धारण-पोषण करने वाला होने से भर्ता, जीव रूप से भोक्ता (महेश्वरः) ब्रह्मादि का भी स्वामी होने से महेश्वर और (परमात्मा) शुद्ध सच्चिदानंद घन होने से परमात्मा ऐसे कहा गया है।

तर्क:- इस अनुवाद में जीवात्मा को परमात्मा कहा है तथा ब्रह्मादि यानि ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव का भी स्वामी होने से महेश्वर कहा है जो अज्ञान के अतिरिक्त कुछ नहीं है। इसका यथार्थ सारांश इसी पुस्तक में गीता अध्याय 13 के दिव्य सारांश में पढ़ें।

विशेष विवेचन:- गीता ज्ञान दाता ने अर्जुन को युद्ध करने के लिए प्रेरित करते हुए आगे फिर कहा कि:-

गीता अध्याय 2 श्लोक 26:- यदि तू इस आत्मा को सदा मरने वाला व जन्म लेने वाला मानता है तो भी शोक करने योग्य नहीं है।

श्लोक 27:- क्योंकि तेरी मान्यता के अनुसार जन्मे हुए की मृत्यु और मरे हुए का जन्म निश्चित है। इस बिना उपाय वाले विषय में तू शोक करने के योग्य नहीं है

श्लोक 28:- ये सर्व प्राणी जन्म से पहले भी प्रकट थे, मरने के बाद भी प्रकट होंगे, बीच में भी हैं। ऐसे में भी क्या शोक करना?

श्लोक 29:- इस श्लोक में कहा है कि कोई महापुरूष ही इस आत्मा के विज्ञान को जानने की कोशिश करता है।

श्लोक 30:- हे भारतवंशी अर्जुन! यह आत्मा परमात्मा के सानिध्य में इस शरीर में है। इसलिए यह अवध्य यानि इसका वध नहीं किया जा सकता। इसलिए सर्व प्राणियों यानि सामने उपस्थित सैनिकों तथा कुल के व्यक्तियों, रिश्तेदारों के मरने पर तू शोक करने के योग्य नहीं है।

इन श्लोकों की काल ब्रह्म की प्रेरणा पर विचार करते हैं। युद्ध में अभिमन्यु की मौत के समय सर्व पाण्डव विलाप करने लगे। सुभद्रा रोई। श्री कृष्ण भी महादुःखी हुए। द्रोणाचार्य तो विद्वान थे, गुरू थे। वे भी अपने पुत्रा अश्वथामा के मरने का समाचार सुनकर कलेजा पकड़कर बैठ गए, युद्ध नहीं कर सके। फिर अर्जुन कौन-से खेत की मूली था जो स्वजनों की मौत पर दुःखी न हो। यह सब काल ब्रह्म की चाल थी। उकसाकर अर्जुन को युद्ध के लिए तैयार किया। परंतु ‘‘जाको लागे वो तन जाने।’’ पढ़ें कथा:-

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