परमेश्वर कबीर जी द्वारा ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव को शरण में लेना

कबीर परमेश्वर जी ने कहा हे धर्मदास! मैं काल ब्रह्म के इक्कीसवें ब्रह्मण्ड से चलकर नीचे वाले ब्रह्मण्ड में आया। सर्व प्रथम ब्रह्मा के पास आया। मैंने विचार किया कि यदि ब्रह्मा मेरे ज्ञान से पूर्ण परिचित हो जाएगा तो यह एक ब्रह्मण्ड के सर्व विद्वानों को सही दिशा प्रदान कर देगा। इसकी महिमा से सर्व विद्वान प्रभावित हैं कि ब्रह्मा जी महाविद्वान तथा वेदों के प्रकांड ज्ञाता माने जाते हैं। मैंने ब्रह्मा से ज्ञान चर्चा की ब्रह्मा भी सर्व प्रमाणों को वेदों में देखकर चकित रह गया तथा मेरा शिष्य हुआ। ब्रह्मा को मैंने अपना नाम अग्नि ऋषि बताया। ब्रह्मा ने कहा हे अग्नि देव आप का ज्ञान अद्वितीय है। प्रथम मन्त्र प्राप्त किया। ब्रह्मा तथा सावित्री को मैंने ओम् मन्त्र दिया। यह देखने के लिए कि यह कितना विश्वास करता है? फिर दूसरा मन्त्र (सत्यनाम) दूंगा। इसके पश्चात् मैं श्री विष्णु के पास विष्णु लोक गया उससे भी ज्ञान चर्चा की तथा विष्णु भी मेरा शिष्य हुआ। उसको तथा लक्ष्मी को हरियं मन्त्र प्रथम मन्त्र रूप में दिया गया। यह देखने के लिए कि यह काल ब्रह्म के द्वारा डगमग तो नहीं हो जाएगा? इसके पश्चात् शिव शंकर के पास शंकर लोक में गया उसको तथा पार्वती को सोहं नाम दिया। यह देखने के लिए कहीं ये भी काल ब्रह्म द्वारा फिर तो भ्रमित नहीं कर दिए जाऐंगे। उसके पश्चात् अन्य ऋषियों मनु आदि से ज्ञान चर्चा की परन्तु मनु आदि ऋषियों ने काल प्रभाव के कारण मेरे ज्ञान पर विश्वास नहीं किया। मेरे को उल्टा ज्ञान देने वाला ‘‘वामदेव’’ उर्फ नाम से पुकारने लगे जबकि पृथ्वी पर मेरा नाम सत्ययुग में ‘‘सत्यसुकृत’’ था।

कुछ दिनों पश्चात् मैं फिर से ब्रह्मा के पास गया। ब्रह्मा से ज्ञान चर्चा करनी चाही तो ब्रह्मा जी ने अरूचि दिखाई। क्योंकि जब काल ब्रह्म ने देखा कि मेरे ज्येष्ठ पुत्र ब्रह्मा को तत्वज्ञान से परिचित किया जा रहा है। उसने सोचा यदि मेरा पुत्र तत्वज्ञान से परिचित हो गया तो मेरे से घृणा करेगा तथा जीव उत्पत्ति नहीं हो पाएगी। मेरा उदर कैसे भरेगा? क्योंकि काल ब्रह्म को एक लाख मानव शरीरधारी जीवों को प्रतिदिन खाने का शाप लगा है। इसलिए काल ब्रह्म ने अपने ज्येष्ठ पुत्र ब्रह्मा की बुद्धि को परिवर्तित कर दिया। ब्रह्मा के मन में विचार भर दिए कि काल ब्रह्म (ज्योति निरंजन) ही पूज्य है। वह निराकार है। इससे भिन्न कोई अन्य परमात्मा नहीं हैं। जो तुझे ज्ञान दिया जा रहा है वह मिथ्या है। यह अग्नि ऋषि जो तेरे पास आया था वह अज्ञानी है। इसकी बातों में नहीं आना है। हे धर्मदास! ब्रह्मा ने काल ब्रह्म के प्रभाव से प्रभावित होकर मेरे ज्ञान को ग्रहण नहीं किया तथा कहा हे ऋषिवर! जो ज्ञान आप बता रहे हो यह अप्रमाणित है। इसलिए विश्वास के योग्य नहीं है। वेदों में केवल एक परमात्मा की पूजा का विधान है। उसका केवल एक ओं (ॐ) ही जाप करने का है। मुझे पूर्ण ज्ञान है मुझे आप का ज्ञान अस्वीकार्य है।

हे धर्मदास! मैंने बहुत कोशिश की ब्रह्मा को समझाने की तथा बताया कि वेद ज्ञान दाता ब्रह्म किसी अन्य पूर्ण ब्रह्म के विषय में कह रहा है। उसकी प्राप्ति के लिए तथा उसके विषय में तत्व से जानने के लिए किसी तत्वदर्शी सन्त (धीराणाम्) की खोज करो फिर उनसे वह तत्वज्ञान सुनों।

प्रमाणः- यजुर्वेद अध्याय 40 मन्त्र 10 व 13 में स्पष्ट वर्णन है तथा गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में भी स्पष्ट कहा है। प्रमाणों को देख कर भी काल ब्रह्म के अति प्रभाव के कारण ब्रह्मा ने मेरे विचारों में रूचि नहीं ली। मैंने जान लिया कि ब्रह्मा को काल ने भ्रमित कर दिया है। इसलिए विष्णु जी ने भी अरूचि की तो मैं वहाँ से शिव शंकर के पास गया। यही स्थिति शिव की देख कर मैं नीचे पृथ्वी लोक में आया।

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