कथनी और करनी में अंतर
प्रश्न 46 (धर्मदास जी का):- हे जिन्दा! यह तो सत्य ही है कि शुद्र से दूरी बनाए रखने से
भक्त की पवित्रता बनी रहती है। क्या आप नहीं मानते?
उत्तर (बाबा जिन्दा का):- यह शिक्षा किसने दी? धर्मदास जी ने कहा हमारे धर्मगुरु बताते हैं, आचार्य, शंकराचार्य तथा ब्राह्मण बताते हैं। परमेश्वर कबीर जी ने धर्मदास को बताया (उस समय तक धर्मदास जी को ज्ञान नहीं था कि आपसे वार्ता करने वाला ही कबीर जुलाहा है) कि कबीर जुलाहा एक बार स्वामी रामानन्द पंडित जी के साथ तोताद्रिक नामक स्थान पर सत्संग-भण्डारे में गया। वह स्वामी रामानन्द जी का शिष्य है। सत्संग में मुख्य पण्डित आचार्यों ने सत्संग में बताया कि भगवान राम ने शुद्र भीलनी के झूठे बेर खाए। भगवान तो समदृशी थे। वे तो प्रेम से प्रसन्न होते हैं। भक्त को ऊँचे-नीचे का अन्तर नहीं देखना चाहिए, श्रद्धा देखी जाती है। लक्ष्मण ने सबरी को शुद्र जानकर ग्लानि करके बेर नहीं खाये, फैंक दिए, बाद में वे बेर संजीवन बूटी बने। रावण के साथ युद्ध में लक्ष्मण मुर्छित हो गया। तब हनुमान जी द्रोणागिरी पर्वत को उठाकर लाए जिस पर संजीवन बूटी उन झूठे बेरों से उगी थी। उस बूटी को खाने से लक्ष्मण सचेत हुआ, जीवन रक्षा हुई। शबरी की भगवान के प्रति ऐसी श्रद्धा थी।। किसी की श्रद्धा को ठेस नहीं पहुँचानी चाहिए। सत्संग के तुरन्त बाद लंगर (भोजन-भण्डारा) शुरु हुआ। पण्डितों ने पहले ही योजना बना रखी थी कि स्वामी रामानन्द ब्राह्मण के साथ शुद्र जुलाहा कबीर आया है। वह स्वामी रामानन्द का शिष्य है।
रामानन्द जी के साथ खाना खाएगा। हम ब्राह्मणों का अपमान होगा। इसलिए दो स्थानों पर लंगर शुरु कर दिया। जो पण्डितों के लिए भण्डार था। उसमें खाना खाने के लिए एक शर्त रखी कि जो पण्डितांे वाले भण्डारे में खाना खाएगा, उसको वेदों के चार मन्त्र सुनाने होंगे। जो मन्त्र नहीं सुना पाएगा, वह सामान्य भण्डारे में भोजन खाएगा। उनको पता था कि कबीर जुलाहा काशी वाला तो अशिक्षित है। उसको वेद मन्त्र कहाँ से याद हो सकते हैं? सब पण्डित जी चार-चार वेद मन्त्र सुना-सुनाकर पण्डितों वाले भोजन-भण्डारे में प्रवेश कर रहे थे। पंक्ति लगी थी। उसी पंक्ति में कबीर जुलाहा (धाणक) भी खड़ा था। वेद मन्त्र सुनाने की कबीर जी की बारी आई। थोड़ी दूरी पर एक भैंसा (झोटा) घास चर रहा था। कबीर जी ने भैंसे को पुकारा। कहा कि हे भैंसे पंडित! कृपया यहाँ आइएगा। भैंसा दौड़ा-दौड़ा आया। कबीर जी के पास आकर खड़ा हो गया। कबीर जी ने भैंसे की कमर पर हाथ रखा और कहा कि हे विद्वान भैंसे! वेद के चार मन्त्र सुना। भैंसे ने (1) यजुर्वेद अध्याय 5 का मन्त्र 32 सुनाया जिसका भावार्थ भी बताया कि जो परम शान्तिदायक (उसिग असि), जो पाप नाश कर सकता है (अंघारि), जो बन्धनों का शत्रु अर्थात् बन्दी छोड़ है = बम्भारी, वह ‘‘कविरसि’’ कबीर है। स्वज्र्योति = स्वयं प्रकाशित अर्थात् तेजोमय शरीर वाला ‘‘ऋतधामा’’ = सत्यलोक वाला अर्थात् वह सत्यलोक में निवास करता है। ‘‘सम्राटसि’’ = सब भगवानों का भी भगवान अर्थात् सर्व शक्तिमान समा्रट यानि महाराजा है। वह (कविर्देव) कबीर परमेश्वर है।
प्रमाण:- यजुर्वेद अध्याय 5 मंत्र 32:-
विशेष:- इस यजुर्वेद के अध्याय 5 मंत्र 32 में बताया है कि जो परमेश्वर (उशिक् असि) परम शांतिदायक है, वह (अंघारिः) पाप का शत्रु यानि पाप काटने वाला (बम्भारिः) बंधनों का शत्रु यानि बंदी छोड़ (कविरसि) कविर्देव है। कबीर परमेश्वर है जो सम्राट के समान सिंहासन पर विराजमान है। (पवमानः नभः असि) आकाश की तरह निर्लेप निर्मल है। स्वप्रकाशित (ऋतधामा) सत्यलोक में रहने वाला है। वह परम अक्षर ब्रह्म कबीर है।
(2) ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 86 मन्त्र 26 सुनाया। जिसका भावार्थ है कि परमात्मा ऊपर के लोक से गति (प्रस्थान) करके आता है, नेक आत्माओं को मिलता है। भक्ति करने वालों के संकट समाप्त करता है। वह कर्विदेव (कबीर परमेश्वर) है।
(प्रमाण ऋग्वेद मण्डल नं. 9 सुक्त 86 मन्त्र 26-27)
विवेचन:- यह फोटोकापी ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 86 मन्त्र 26 की है जो आर्यसमाज के आचार्यों व महर्षि दयानन्द के चेलों द्वारा अनुवादित है जिसमें स्पष्ट है कि यज्ञ करने वाले अर्थात् धार्मिक अनुष्ठान करने वाले यजमानों अर्थात् भक्तों के लिए परमात्मा, सब रास्तों को सुगम करता हुआ अर्थात् जीवन रूपी सफर के मार्ग को दुःखों रहित करके सुगम बनाता हुआ। उनके विघ्नों अर्थात् संकटों का मर्दन करता है अर्थात् समाप्त करता है। भक्तों को पवित्र अर्थात् पाप रहित, विकार रहित करता है। जैसा की अगले मन्त्र 27 में कहा है कि ’’जो परमात्मा द्यूलोक अर्थात् सत्यलोक के तीसरे पृष्ठ पर विराजमान है, वहाँ पर परमात्मा के शरीर का प्रकाश बहुत अधिक है।‘‘
उदाहरण के लिए परमात्मा के एक रोम (शरीर के बाल) का प्रकाश करोड़ सूर्य तथा इतने ही चन्द्रमाओं के मिले-जुले प्रकाश से भी अधिक है। यदि वह परमात्मा उसी प्रकाश युक्त शरीर से पृथ्वी पर प्रकट हो जाए तो हमारी चर्म दृष्टि उन्हें देख नहीं सकती। जैसे उल्लु पक्षी दिन में सूर्य के प्रकाश के कारण कुछ भी नहीं देख पाता है। यही दशा मनुष्यों की हो जाए। इसलिए वह परमात्मा अपने रूप अर्थात् शरीर के प्रकाश को सरल करता हुआ उस स्थान से जहाँ परमात्मा ऊपर रहता है, वहाँ से गति करके बिजली के समान क्रीड़ा अर्थात् लीला करता हुआ चलकर आता है, श्रेष्ठ पुरूषों को मिलता है। यह भी स्पष्ट है कि आप कविः अर्थात् कविर्देव हैं। हम उन्हें कबीर साहेब कहते हैं।
विवेचन:- यह फोटोकापी ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 86 के मन्त्र 27 की है। इसमें स्पष्ट है कि ’’परमात्मा द्यूलोक अर्थात् अमर लोक के तीसरे पृष्ठ अर्थात् भाग पर विराजमान है। सत्यलोक अर्थात् शाश्वत् स्थान के तीन भाग हैं। एक भाग में वन-पहाड़-झरने, बाग-बगीचे आदि हैं। यह बाह्य भाग है अर्थात् बाहरी भाग है। (जैसे भारत की राजधानी दिल्ली भी तीन भागों में बँटी है। बाहरी दिल्ली जिसमें गाँव खेत-खलिहान और नहरें हैं, दूसरा बाजार बना है। तीसरा संसद भवन तथा कार्यालय हैं।)
इसके पश्चात् द्यूलोक में बस्तियाँ हैं। सपरिवार मोक्ष प्राप्त हंसात्माऐं रहती हैं। (पृथ्वी पर जैसे भक्त को भक्तात्मा कहते हैं, इसी प्रकार सत्यलोक में हंसात्मा कहलाते हैं।) (3) तीसरे भाग में सर्वोपरि परमात्मा का सिंहासन है। उसके आस-पास केवल नर आत्माऐं रहती हैं, वहाँ स्त्राी-पुरूष का जोड़ा नहीं है। वे यदि अपना परिवार चाहते हैं तो शब्द (वचन) से केवल पुत्र उत्पन्न कर लेते हैं। इस प्रकार शाश्वत् स्थान अर्थात् सत्यलोक तीन भागों में परमात्मा ने बाँट रखा है। वहाँ यानि सत्यलोक में प्रत्येक स्थान पर रहने वालों में वृद्धावस्था नहीं है, वहाँ मृत्यु नहीं है।
इसीलिए गीता अध्याय 7 श्लोक 29 में कहा है कि जो जरा अर्थात् वृद्ध अवस्था तथा मरण अर्थात् मृत्यु से छूटने का प्रयत्न करते हैं, वे तत् ब्रह्म अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म को जानते हैं।
सत्यलोक में सत्यपुरूष रहता है, वहाँ पर जरा-मरण नहीं है, बच्चे युवा होकर सदा युवा रहते हैं। (3) ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 96 मन्त्र 17 सुनाया जिसका भावार्थ है कि (‘‘कविः‘‘ = कविर) कबीर परमात्मा स्वयं पृथ्वी पर प्रकट होकर तत्वज्ञान प्रचार करता है। कविर्वाणी (कबीर वाणी) कहलाती है। सत्य आध्यात्मिक ज्ञान (तत्वज्ञान) को कबीर परमात्मा लोकोक्तियों, दोहों, शब्दों, चैपाइयों व कविताओं के रुप में पदों में कबीर वाणी द्वारा बोलकर सुनाता है।
(प्रमाण ऋग्वेद मण्डल नं. 9 सुक्त 96 मन्त्र 16 से 17)
ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 96 के मंत्र 16 में कहा है कि हे परमात्मन्! आप अपने श्रेष्ठ गुप्त नाम का ज्ञान कराऐं। उस नाम को मंत्र 17 में बताया है कि वह कविः यानि कविर्देव है।
मंत्र 17 की केवल हिन्दी:- (शिशुम् जज्ञानम् हर्यन्तम्) परमेश्वर जान-बूझकर तत्वज्ञान बताने के उद्देश्य से शिशु रूप में प्रकट होता है, उनके ज्ञान को सुनकर (मरूतो गणेन) भक्तों का बहुत बड़ा समूह उस परमात्मा का अनुयाई बन जाता है। (मृजन्ति शुम्यन्ति वहिन्) वह ज्ञान बुद्धिजीवी लोगों को समझ आता है, वे उस परमेश्वर की स्तुति भक्ति तत्वज्ञान के आधार से करते हैं, वह भक्ति (वहिन्) शीघ्र लाभ देने वाली होती है। वह परमात्मा अपने तत्वज्ञान को (काव्येना) कवित्व से अर्थात् कवियों की तरह दोहों, शब्दों, लोकोक्तियों, चैपाईयों द्वारा (कविर् गीर्भिः) कविर् वाणी द्वारा अर्थात् कबीर वाणी द्वारा (पवित्रम् अतिरेभन्) शुद्ध ज्ञान को उच्चे स्वर में गर्ज-गर्जकर बोलते हैं। वह (कविः) कवि की तरह आचरण करने वाला कविर्देव (सन्त्) सन्त रूप में प्रकट (सोम) अमर परमात्मा होता है।(ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 96 मन्त्र 17)
विशेष:- इस मन्त्र के मूल पाठ में दो बार ’’कविः’’ शब्द है, आर्य समाज के अनुवादकर्ताओं ने एक (कविः) का अर्थ ही नहीं किया है।
(4) ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 94 मन्त्र 1 भी सुनाया। जिसका भावार्थ है कि परमात्मा कवियों की तरह आचरण करता हुआ पृथ्वी पर एक स्थान से दूसरे स्थान जाता है। भैंसा फिर बोलता है कि भोले पंडितो जो मेरे पास इस पंक्ति में जो मेरे ऊपर हाथ रखे खड़ा है, यह वही परमात्मा कबीर है जिसे लोग ‘‘कवि’’ कहकर पुकारते हैं। इन्हीं की कृपा से मैं आज मनुष्यों की तरह वेद मन्त्र सुना रहा हूँ।
कबीर परमेश्वर जी ने कहा है कि भैंसा पंडित आप पंडितो वाले लंगर में प्रवेश करके भोजन ग्रहण करें। मैं तो शुद्र हूँ, अशिक्षित हूँ। इसलिए आम जनता के लिए लगे लंगर मैं भोजन करने जाता हूँ।
उसी समय सर्व पंडित जो भैंसे को वेदमन्त्र बोलते देखकर एकत्रित हो गए थे। कबीर जी के चरणों में गिर गए तथा अपनी भूल की क्षमा याचना की। परमेश्वर कबीर जी ने कहा:-
करनी तज कथनी कथैं, अज्ञानी दिन रात।
कुकर ज्यों भौंकत फिरें सुनी सुनाई बात।।
सत्संग में तो कह रहे थे कि भगवान रामचन्द्र जी ने शुद्र जाति की शबरी (भीलनी) के झूठे बेर रुचि-रुचि खाए, कोई छुआछूत नहीं की और स्वयं को तुम परमात्मा से भी उत्तम मानते हो। कहते हो, करते नहीं। एक-दूसरे से सुनी-सुनाई बात कुत्ते की तरह भौंकते रहते हो। सर्व उपस्थित पंडितों सहित हजारों की सँख्या में कबीर जुलाहे के शिष्य बने, दीक्षा ली। शास्त्रविरुद्ध भक्ति त्यागकर, शास्त्राविधि अनुसार भक्ति शुरु की, आत्म कल्याण कराया।
(प्रमाण ऋग्वेद मण्डल नं. 9 सुक्त 94 मन्त्र 1)
विवेचन:- ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 94 मन्त्र 1 का अनुवाद भी आर्यसमाज के विद्वानों द्वारा किया गया है। पुस्तक विस्तार को ध्यान में रखते हुए उन्हीं के अनुवाद से अपना मत सिद्ध करते हैं। जैसे पूर्व में लिखे वेदमन्त्रों में बताया गया है कि परमात्मा अपने मुख कमल से वाणी उच्चारण करके तत्वज्ञान बोलता है, लोकोक्तियों के माध्यम से, कवित्व से दोहों, शब्दों, साखियों, चैपाईयों के द्वारा वाणी बोलने से प्रसिद्ध कवियों में से भी एक कवि की उपाधि प्राप्त करता है। उसका नाम कविर्देव अर्थात् कबीर साहेब है।
इस ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 94 मन्त्र 1 में भी यही स्पष्ट है कि जो सर्वशक्तिमान परमेश्वर है, वह (कवियन् व्रजम् न) कवियों की तरह आचरण करता हुआ पृथ्वी पर विचरण करता है। हे धर्मदास! यही बात आप कह रहे हो कि हम शुद्र को पास भी नहीं बैठने देते। धर्मदास बहुत शर्मसार हुआ। परन्तु परमात्मा की शिक्षा को अपने ऊपर व्यंग्य समझकर खीझ गया तथा कहा कि हे जिन्दा! आप की जली-भूनी बातें अच्छी नहीं लगती। आप को बोलने की सभ्यता नहीं है। कहते हो कि कुत्ते की तरह सुनी-सुनाई बातंे तुम सब भौंकते फिरते हो। यह कहकर धर्मदास जी ने मुँह बना लिया। नाराजगी जाहिर की। परमात्मा जिन्दा रुप में अन्तध्र्यान हो गए। चैथी बार अन्र्तधान हो गए तो धर्मदास का जीना मुश्किल हो गया। पछाड़ खा-खा कर रोने लगा। उस दिन फिर वृंदावन में धर्मदास से परमात्मा की वार्ता हुई थी। (इस प्रकार परमेश्वर कबीर जी कुल मिलाकर छः बार अन्तध्र्यान हुए, तब धर्मदास की अक्ल ठिकाने आई) वृन्दावन मथुरा से चलकर धर्मदास रोता हुआ अपने गांव बांधवगढ़ की ओर वापिस चल पड़ा। धर्मदास जी ने छः महीनों का कार्यक्रम तीर्थों पर भ्रमण का बना रखा था। वह 15 दिन में ही वापिस घर आ गया। गरीब दास जी ने अपनी अमृतवाणी में कहा है:-
तहां वहां रोवत है धर्मनी नागर, कहां गए मेरे सुख के सागर।
अति वियोग हुआ हम सेती, जैसे निर्धन की लुट जाय खेती।
हम तो जाने तुम देह स्वरुपा, हमरी बुद्धि अन्ध गहर कूपा।
कल्प करे और मन में रोवै, दशों दिशा कूं वो मघ जोहै।
बेग मिलो करहूं अपघाता, मैं ना जीवूं सुनो विधाता।
जब धर्मदास जी बाँधवगढ़ पहुँचा, उस समय बहुत रो रहा था। घर में प्रवेश करके मुँह के बल गिरकर फूट-फूटकर रोने लगा। उसकी पत्नी का नाम आमिनी देवी था। अपने पति को रोते देखकर तथा समय से पूर्व वापिस लौटा देखकर मन-मन में विचार किया कि लगता है भक्तजी को किसी ने लूट लिया है। धन न रहने के कारण वापिस लौट आया है। धर्मदास जी के पास बैठकर अपने हाथों आँसंू पौंछती हुई बोली - क्यों कच्चा मन कर रहे हो। कोई बात नहीं, किसी ने आपकी यात्र का धन लूट लिया। आपके पास धन की कमी थोड़े है और ले जाना। अपनी तीर्थ यात्र पूरी करके आना। मैं मना थोड़े करुँगी। कुछ देर बाद दृढ़ मन करके धर्मदास जी ने कहा कि आमिनी देवी यदि रुपये पैसे वाला धन लुट गया होता तो मैं और ले जाता। मेरा ऐसा धन लुट गया है जो शायद अब नहीं मिलेगा। वह मैंने अपने हाथों अपनी मूर्खता से गँवाया है। जिन्दा महात्मा से हुई सर्वज्ञान चर्चा तथा जिन्दा बाबा से सुनी सृष्टि रचना आमिनी देवी को सुनाया। सर्वज्ञान प्रमाणों सहित देखकर आमिनी ने कहा कि सेठ जी आप तो निपुण व्यापारी थे, कभी घाटे का सौदा नहीं करते थे। इतना प्रमाणित ज्ञान फिर भी आप नहीं माने, साधु को तो नाराज होना ही था। कितनी बार आप को मिले- बच्चे की तरह समझाया, आपने उस दाता को क्यों ठुकराया? धर्मदास ने कहा आमिनी! जीवन में पहली बार हानि का सौदा किया है। यह हानि अब पूर्ति नहीं हो पावेगी। वह धन नहीं मिला तो मैं जीवित नहीं रह पाऊँगा।