मीरा बाई की कथा

पारख के अंग की वाणी नं. 60:-

गरीब, मीरां बाई पद मिली, सतगुरु पीर कबीर। देह छतां ल्यौ लीन है, पाया नहीं शरीर।।60।।

मीरा बाई पहले श्री कृष्ण जी की पूजा करती थी। एक दिन संत रविदास जी तथा परमात्मा कबीर जी का सत्संग सुना तो पता चला कि श्री कृष्ण जी नाशवान हैं। समर्थ अविनाशी परमात्मा अन्य है। संत रविदास जी को गुरू बनाया। फिर अंत में कबीर जी को गुरू बनाया। तब मीरा बाई जी का सत्य भक्ति बीज का बोया गया।

मीरा बाई की कथा

मीरा बाई का जन्म राजपूत जाति में हुआ था। महिलाओं को घर से बाहर जाने पर प्रतिबंध था, परंतु मीराबाई ने किसी की प्रवाह नहीं की। फिर उसका विवाह राजा से हो गया। राणा जी धार्मिक विचार के थे। उसने मीरा को मंदिरों में जाने से नहीं रोका, अपितु लोक चर्चा से बचने के लिए मीरा जी के साथ तीन-चार महिला नौकरानी भेजने लगा। जिस कारण से सब ठीक चलता रहा। कुछ वर्ष पश्चात् मीरा जी के पति की मृत्यु हो गई। देवर राजगद्दी पर बैठ गया। उसने कुल के लोगों के कहने से मीरा को मंदिर में जाने से मना किया, परंतु मीराबाई जी नहीं मानी। जिस कारण से राजा ने मीरा को मारने का षड़यंत्र रचा। विचार किया कि ऐसी युक्ति बनाई जाए कि यह भी मर जाए और बदनामी भी न हो। राजा ने विचार किया कि इसे कैसे मारें? राजा ने कहा कि सपेरे एक ऐसा सर्प ला दे कि डिब्बे को खोलते ही खोलने वाले को डंक मारे और व्यक्ति मर जाए। ऐसा ही किया गया। राणा जी ने अपने लड़के का जन्मदिन मनाया। उसमें रिश्तेदार तथा अन्य गणमान्य व्यक्ति आमंत्रित किये। राजा ने मीरा जी की बांदी (नौकरानी) से कहा कि ले यह बेशकीमती हार है। मेरे बेटे का जन्मदिन है। दूर-दूर से रिश्तेदार आये हैं। मीरा को कह दे कि सुंदर कपड़े पहनकर इस हार को गले में पहन ले, नहीं तो रिश्तेदार कहेंगे कि अपनी भाभी जी को अच्छी तरह नहीं रखता। मेरी इज्जत-बेइज्जती का सवाल है। बांदी ने उस आभूषण के डिब्बे को मीराबाई को दे दिया और राजा का आदेश सुना दिया। उस आभूषण के डिब्बे में विषैला काले-सफेद रंग का सर्प था। मीरा ने बांदी के सामने ही उस डिब्बे को खोला। उसमें हीरे-मोतियों से बना हार था। मीराबाई ने विचार किया कि यदि मैं हार नहीं पहनूंगी तो व्यर्थ का झगड़ा होगा। मेरे लिए तो यह मिट्टी है। यह विचार करके मीरा जी ने वह हार गले में डाल लिया। राजा का उद्देश्य था कि आज सर्प डंक से मीरा की मृत्यु हो जाएगी तो सबको विश्वास हो जाएगा कि राजा का कोई हाथ नहीं है। हमारे सामने सर्प डसने से मीरा की मृत्यु हुई है। कुछ समय उपरांत राजा मंत्रियों सहित तथा कुछ रिश्तेदारों सहित मीरा के महल में गया तो मीरा बाई जी के गले में सुंदर मंहगा हार देखकर राणा बौखला गया और बोला, बदचलन! यह हार किस यार से लाई है? मीरा बाई जी के आँखों में आँसू थे। बोली कि आपने ही तो बांदी के द्वारा भिजवाया था, वही तो है। बांदी को बुलाया तथा पूछा कि वह डिब्बा कहाँ है? बांदी ने पलंग के नीचे से निकालकर दिखाया। यह रहा राजा जी जो आपने भेजा था। राजा वापिस आ गया। राजा ने सोचा कि अब की बार इसको विष मैं अपने सामने पिलाऊँगा, नहीं पीएगी तो सिर काट दूँगा।

मीराबाई को विष से मारने की व्यर्थ कोशिश

एक सपेरे से कहा कि भयंकर विष ला दे जिसे जीभ पर रखते ही व्यक्ति मर जाए। ऐसा विष लाया गया। राजा ने मीरा से कहा कि यह विष पी ले अन्यथा तेरी गर्दन काट दी जाएगी। मीरा ने सोचा कि गर्दन काटने में तो पीड़ा होगी, विष पी लेती हूँ। मीरा ने विष का प्याला परमात्मा को याद करके पी लिया। लेकिन उन्हें कुछ नहीं हुआ। सपेरा बुलाया और उससे कहा कि यह नकली विष लाया है। सपेरे ने कहा कि वह प्याला कहाँ है? उसे प्याला दिया गया। सपेरे ने उस प्याले में दूध डालकर एक कुत्ते को वहीं पिला दिया। कुत्ता दूसरी बार जीभ भी नहीं लगा पाया था, मर गया।

राजा ने देख लिया कि यह किसी तरह मरने वाली नहीं है। तब उसको मंदिर में जाने से नहीं रोका। उसके साथ कई नौकरानी तथा पुरूष रक्षक भी भेजने लगा कि लोग यह नहीं कहेंगे कि आवारागर्दी में जाती है।

मीरा को सतगुरू शरण मिली

जिस श्री कृष्ण जी के मंदिर में मीराबाई पूजा करने जाती थी, उसके मार्ग में एक छोटा बगीचा था। उसमें कुछ घनी छाया वाले वृक्ष भी थे। उस बगीचे में परमेश्वर कबीर जी तथा संत रविदास जी सत्संग कर रहे थे। सुबह के लगभग 10 बजे का समय था। मीरा जी ने देखा कि यहाँ परमात्मा की चर्चा या कथा चल रही है। कुछ देर सुनकर चलते हैं। परमेश्वर कबीर जी ने सत्संग में संक्षिप्त सृष्टि रचना का ज्ञान सुनाया। कहा कि श्री कृष्ण जी यानि श्री विष्णु जी से ऊपर अन्य सर्वशक्तिमान परमात्मा है। जन्म-मरण समाप्त नहीं हुआ तो भक्ति करना न करना समान है। जन्म-मरण तो श्री कृष्ण जी (श्री विष्णु) का भी समाप्त नहीं है। उसके पुजारियों का कैसे होगा। जैसे हिन्दू संतजन कहते हैं कि गीता का ज्ञान श्री कृष्ण अर्थात् श्री विष्णु जी ने अर्जुन को बताया। गीता ज्ञानदाता गीता अध्याय 2 श्लोक 12, अध्याय 4 श्लोक 5, अध्याय 10 श्लोक 2 में स्पष्ट कर रहा है कि हे अर्जुन! तेरे और मेरे बहुत जन्म हो चुके हैं। तू नहीं जानता, मैं जानता हूँ। इससे स्वसिद्ध है कि श्री कृष्ण जी का भी जन्म-मरण समाप्त नहीं है। यह अविनाशी नहीं है। इसीलिए गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में गीता बोलने वाले ने कहा है कि हे भारत! तू सर्वभाव से उस परमेश्वर की शरण में जा। उस परमेश्वर की कृपा से ही तू सनातन परम धाम को तथा परम शांति को प्राप्त होगा।

परमेश्वर कबीर जी के मुख कमल से ये वचन सुनकर परमात्मा के लिए भटक रही आत्मा को नई रोशनी मिली। सत्संग के उपरांत मीराबाई जी ने प्रश्न किया कि हे महात्मा जी! आपकी आज्ञा हो तो शंका का समाधान करवाऊँ। कबीर जी ने कहा कि प्रश्न करो बहन जी! प्रश्न:- हे महात्मा जी! आज तक मैंने किसी से नहीं सुना कि श्री कृष्ण जी से ऊपर भी कोई परमात्मा है। आज आपके मुख से सुनकर मैं दोराहे पर खड़ी हो गई हूँ। मैं मानती हूँ कि संत झूठ नहीं बोलते। परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि आपके धार्मिक अज्ञानी गुरूओं का दोष है जिन्हें स्वयं ज्ञान नहीं कि आपके सद्ग्रन्थ क्या ज्ञान बताते हैं? देवी पुराण के तीसरे स्कंद में श्री विष्णु जी स्वयं स्वीकारते हैं कि मैं (विष्णु), ब्रह्मा तथा शंकर नाशवान हैं। हमारा आविर्भाव (जन्म) तथा तिरोभाव (मृत्यु) होता रहता है। (लेख समाप्त)

मीराबाई बोली कि हे महाराज जी! भगवान श्री कृष्ण मुझे साक्षात दर्शन देते हैं। मैं उनसे संवाद करती हूँ। कबीर जी ने कहा कि हे मीराबाई जी! आप एक काम करो। भगवान श्री कृष्ण जी से ही पूछ लेना कि आपसे ऊपर भी कोई मालिक है। वे देवता हैं, कभी झूठ नहीं बोलेंगे। मीराबाई को लगा कि वह पागल हो जाएगी यदि कृष्ण जी से भी ऊपर कोई परमात्मा है तो। रात्रि में मीरा जी ने भगवान श्री कृष्ण जी का आह्वान किया। त्रिलोकी नाथ प्रकट हुए। मीरा ने अपनी शंका-समाधान के लिए निवेदन किया कि हे प्रभु! क्या आपसे ऊपर भी कोई परमात्मा है? एक संत ने सत्संग में बताया है। श्री कृष्ण जी ने कहा कि मीरा! परमात्मा तो है, परंतु वह किसी को दर्शन नहीं देता। हमने बहुत समाधि व साधना करके देख ली है। मीराबाई जी ने सत्संग में परमात्मा कबीर जी से यह भी सुना था कि उस पूर्ण परमात्मा को मैं प्रत्यक्ष दिखाऊँगा। सत्य साधना करके उसके पास सतलोक में भेज दूँगा। मीराबाई ने श्री कृष्ण जी से फिर प्रश्न किया कि क्या आप जीव का जन्म-मरण समाप्त कर सकते हो? श्री कृष्ण जी ने कहा कि असंभव। कबीर जी ने कहा था कि मेरे पास ऐसा भक्ति मंत्र है जिससे जन्म-मरण सदा के लिए समाप्त हो जाता है। वह परमधाम प्राप्त होता है जिसके विषय में गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है कि तत्त्वज्ञान तथा तत्त्वदर्शी संत की प्राप्ति के पश्चात् परमात्मा के उस परमधाम की खोज करनी चाहिए जहाँ जाने के पश्चात् साधक फिर लौटकर संसार में कभी नहीं आते। उसी एक परमात्मा की भक्ति करो। मीराबाई ने कहा कि हे भगवान कृष्ण जी! संत जी कह रहे थे कि मैं जन्म-मरण समाप्त कर देता हूँ। अब मैं क्या करूँ। मुझे तो पूर्ण मोक्ष की चाह है। श्री कृष्ण जी बोले कि मीरा! आप उस संत की शरण ग्रहण करके अपना कल्याण कराओ। मुझे जितना ज्ञान था, वह बता दिया। मीरा अगले दिन मंदिर नहीं गई। सीधी संत जी के पास अपनी नौकरानियों के साथ जाकर दीक्षा लेने की इच्छा व्यक्त की तथा श्री कृष्ण जी से हुई वार्ता भी संत कबीर जी से साझा की। उस समय छूआछात चरम पर थी। ठाकुर लोग अपने को सर्वोत्तम मानते थे। परमात्मा मान-बड़ाई वाले प्राणी को कभी नहीं मिलता। मीराबाई की परीक्षा के लिए कबीर जी ने संत रविदास जी से कहा कि आप मीरा राठौर को प्रथम मंत्रा दे दो। यह मेरा आपको आदेश है। संत रविदास जी ने आज्ञा का पालन किया। संत कबीर परमात्मा जी ने मीरा से कहा कि बहन जी! वो बैठे संत जी, उनके पास जाकर दीक्षा ले लें। बहन मीरा जी तुरंत रविदास जी के पास गई और बोली, संत जी! दीक्षा देकर कल्याण करो। संत रविदास जी ने बताया कि बहन जी! मैं चमार जाति से हूँ। आप ठाकुरों की बेटी हो। आपके समाज के लोग आपको बुरा-भला कहेंगे। जाति से बाहर कर देंगे। आप विचार कर लें। मीराबाई अधिकारी आत्मा थी। परमात्मा के लिए मर-मिटने के लिए सदा तत्पर रहती थी। बोली, संत जी! आप मेरे पिता, मैं आपकी बेटी। मुझे दीक्षा दो। भाड़ में पड़ो समाज। कल को कुतिया बनूंगी, तब यह ठाकुर समाज मेरा क्या बचाव करेगा? सत्संग में बड़े गुरू जी (कबीर जी) ने बताया है कि:-

कबीर, कुल करनी के कारणे, हंसा गया बिगोय। तब कुल क्या कर लेगा, जब चार पाओं का होय।।

शब्दार्थ:- कबीर परमेश्वर जी सतर्क कर रहे हैं कि हे भक्त (स्त्राी/पुरूष)! जो कुल परिवार व संसार की शर्म के कारण भक्ति नहीं करते, कहते हैं कि घर-परिवार वाले व संसार के व्यक्ति मजाक करेंगे कि नाम दीक्षा लेकर दण्डवत् प्रणाम करते हो। अन्य देवी-देवताओं की पूजा नहीं करते हो। श्राद्ध-पिण्डदान नहीं करते हो। तुम्हें शर्म आनी चाहिए। उन्होंने अपना मानव जीवन नष्ट कर लिया। भक्ति न करने से जब चार पैर के पशु यानि गधे, कुत्ते, सूअर, बैल आदि बनोगे, तब ये कुल व संसार के व्यक्ति क्या बचाव करेंगे। भक्ति ने बचाव करना था, वह की नहीं। इसलिए भक्ति करो।

संत रविदास जी उठकर संत कबीर जी के पास गए और सब बात बताई। परमात्मा बोले कि देर ना कर, ले आत्मा को अपने पाले में। उसी समय संत रविदास जी ने बहन मीरा को प्रथम मंत्रा केवल पाँच नाम दिए। {ये पाँच नाम शरीर में बने कमलों को खोलने वाले हैं। राधास्वामी पंथ वाले नहीं हैं तथा न दामाखेड़ा वाले गद्दी से दिए जाने वाले हैं। उनसे भिन्न मोक्ष में सहयोगी मंत्रा हैं।} मीराबाई को बताया कि यह इनकी पूजा नहीं है, इनकी साधना है। इनके लोक में रहने के लिए, खाने-पीने के लिए जो भक्ति धन चाहिए है, वह इन मंत्रों से ही मिलता है। यहाँ का ऋण उतर जाता है। फिर मोक्ष के अधिकारी होते हैं। परमात्मा कबीर जी तथा संत रविदास जी वहाँ एक महीना रूके। मीराबाई पहले तो दिन में घर से बाहर जाती थी, फिर रात्रि में भी सत्संग में जाने लगी क्योंकि सत्संग दिन में कम तथा रात्रि में अधिक होता था। कोई दिन में समय निकाल लेता, कोई रात्रि में। मीरा के देवर राणा जी मीरा को रात्रि में घर से बाहर जाता देखकर जल-भुन गए, परंतु मीरा को रोकना तूफान को रोकने के समान था। इसलिए राणा जी ने अपनी मौसी जी यानि मीरा की माता जी को बुलाया और मीरा को समझाने के लिए कहा। कहा कि इसने हमारी इज्जत का नाश कर दिया। बेटी माता की बात मान लेती है। मीरा की माता ने मीरा को समझाया। मीरा ने उसका तुरंत उत्तर दिया:-

शब्द

सतसंग में जाना मीरां छोड़ दे ए, आए म्हारी लोग करैं तकरार।
सतसंग में जाना मेरा ना छूटै री, चाहे जलकै मरो संसार।।टेक।।
थारे सतसंग के राहे मैं ऐ, आहे वहाँ पै रहते हैं काले नाग, कोए-कोए नाग तनै डस लेवै।
जब गुरु म्हारे मेहर करैं री, आरी वै तो सर्प गंडेवे बन जावैं।।1।।
थारे सतसंग के राहे में ऐ, आहे वहाँ पै रहते हैं बबरी शेर, कोए-कोए शेर तनै खा लेवै।
जब गुरुआं की मेहर फिरै री, आरी व तो शेरां के गीदड़ बन जावैं।।2।।
थारे सतसंग के बीच में ऐ, आहे वहां पै रहते हैं साधु संत, कोए-कोए संत तनै ले रमै ए।
तेरे री मन मैं माता पाप है री, संत मेरे मां बाप हैं री, आ री ये तो कर देगें बेड़ा पार।।3।।
वो तो जात चमार है ए, इसमैं म्हारी हार है ए।
तेरे री लेखै माता चमार है री, मेरा सिरजनहार है री, आरी वै तो मीरां के गुरु रविदास।।4।।

शब्दार्थ:– मीरा बाई की माता ने कहा कि हे मीरा! तू सत्संग में जाना बंद कर दे। संसार के व्यक्ति हमारे विषय में गलत बातें करते हैं। मीरा ने कहा कि हे माता! मैं सत्संग में जाना बंद नहीं करूँगी, संसार भले ही ईष्र्या की आग में जलकर मर जाए। माता ने मीरा को भय कराने के लिए बताया कि जिस रास्ते से तू रात्रि में सत्संग सुनने के लिए जाती है, उस रास्ते में सर्प तथा सिंह रहते हैं। वे तुझे मार देंगे। मीरा ने उत्तर दिया कि मेरे गुरू जी इतने समर्थ हैं, वे कृपा करेंगे तो सिंह तो गीदड़ की तरह व्यवहार करेंगे और सर्प ऐसे निष्क्रिय हो जाएँगे जैसे गंडेवे प्राणी होते हैं जो सर्प जैसे आकार के होते हैं, परंतु छः या आठ इंच के लंबे और आधा इंच गोलाई के मोटे होते हैं, वे डसते नहीं। मीरा की माता ने फिर कहा कि सत्संग सुनने वाले स्थान पर कुछ युवा भक्त पुरूष भी रहते हैं। कोई तेरे को कहीं ले जाएगा और गलत कार्य करेगा। मीरा ने उत्तर दिया कि हे माता! आपके मन में दोष है। इसीलिए आपके मन में ऐसे विचार आए हैं। हे माता! वे संत व भक्त तो मेरे माता-पिता के समान हैं। वे ऐसा गलत कार्य नहीं करते। मीरा की माता ने छूआछात के कारण मीरा को रोकना चाहा, कहा कि हे मीरा! तेरा गुरू रविदास तो अनुसूचित जाति का चमार है। इससे हम राजपूतों की बेइज्जती हो रही है। सत्संग में जाना बंद कर दे। मीरा ने कहा कि हे माता! आपके विचार से मेरे गुरू जी अनुसूचित जाति के चमार हैं। मेरे लिए तो मेरे परमात्मा हैं। मैं उनकी बेटी, वे मेरे पिता हैं। सत्संग में जाना बंद नहीं होगा।

कुछ वर्ष के बाद अपने देवर के अत्याचारों से परेशान होकर घर त्यागकर वृंदावन में चली गई। वहाँ कबीर परमात्मा जी एक साधु के वेश में गए। ज्ञान चर्चा हुई। तब मीरा को ज्ञान हुआ कि अभी आगे की पढ़ाई शेष है यानि केवल प्रथम मंत्रा का जाप संत रविदास जी ने दे रखा था। परमात्मा कबीर जी ने सतनाम की दीक्षा दी। मीरा जी को वही रूप दिखाया जिस रूप में संत रविदास जी के साथ सत्संग में मिले थे। मीरा जी का फिर मानव जन्म अब वर्तमान के भक्ति युग में होगा। तीनों नाम की दीक्षा मिलेगी। मोक्ष उसकी मर्यादा पर निर्भर करेगा। यदि आजीवन विश्वास के साथ मर्यादा में रहकर तीनों नामों का जाप करती रही तो मोक्ष निश्चित है। वंृदावन में भी मीरा की आस्था श्री कृष्ण में कुछ-कुछ थी। इसलिए उसने वृंदावन में जाने का विचार किया था।

जब मीरा बाई राणा के अत्याचारों से तंग आकर घर त्याग गई थी तो उस क्षेत्र में अकाल मृत्यु, महामारी, अकाल (दुर्भिक्ष) की मार शुरू हो गई थी। ज्योतिषियों ने बताया कि आपके नगर से संत रूष्ट होकर चला गया है। जिस कारण से यह उपद्रव हो रहा है। समाधान बताया कि यदि वह संत जीवित मिल जाए और वापिस मनाकर प्रसन्न करके लाया जाए तो वह आशीर्वाद देकर सब ठीक कर सकता है। राणा ने अपने सभापतियों से प्रश्न किया कि ऐसा कौन संत था जो रूष्ट होकर चला गया? राणा का चाचा (मीरा का पितसरा यानि चाचा सुसर) भवन सिंह राणा का महामंत्राी था तथा परमात्मा का भक्त था। मीरा बाई के साथ भौम ने भी संत रविदास जी से नाम लिया था। भौम को एक नौकर राजा ने दे रखा था। उस नौकर ने भी उस समय संत रविदास जी से नाम लिया था। वे पहले मीरा के साथ बैठकर परमात्मा की चर्चा घंटों किया करते थे। भवन मीरा को बेटी की तरह तथा साध्वी की तरह सम्मान देता था। परंतु अत्याचारी भतीजे राजा से डरता था। मीरा को सांत्वना देता था कि भक्तों का भगवान रक्षक है। मीरा के चले जाने के पश्चात् भवन तथा नौकर बहुत रोते थे। याद करते थे। भौम ने राजा को बताया कि ‘‘मीरा’’ संत थी। वह चली गई। इस कारण से यह सब अनिष्ट हो रहा है। राणा ने कहा कि उसे कौन ला सकता है? मैं कभी उसे कष्ट नहीं दूँगा। प्रतिज्ञा करता हूँ। दो सिपाही जो मीरा की निगरानी के लिए छोड़ रखे थे। मीरा के साथ छाया की तरह साथ रहने का आदेश राणा ने दे रखा था। मीरा की प्रत्येक गतिविधि पर नजर रखने को कहा था। दोनों मीरा बाई से ज्ञान चर्चा सुना करते। उसके कष्ट में रोया करते थे। कहते थे कि बहन विश्वास रखो। परमात्मा सब देख रहा है। मीरा के अचानक चले जाने से उनकी दशा भी खराब थी। घंटों रोते थे।

उन दोनों ने खड़ा होकर सभा में कहा कि हम मीरा को लौटा ला सकते हैं, यदि जिंदा मिल गई तो। राजा ने कहा कि यदि नहीं आई तो क्या करोगे? वे बोले कि हम भी लौटकर नहीं आएँगे। दोनों मीरा बाई की खोज में निकले। पता लगा कि बहुत सारे संत (स्त्राी-पुरूष) वृंदावन में रहते हैं। वहाँ मीरा बाई मिल गई। लौट चलने की प्रार्थना की। बताया कि राजा के राज में उपद्रव हो रहे हैं। ब्राह्मणों ने बताया है कि मीरा वापिस आएगी तो सब ठीक होगा। राणा ने कहा है कि आगे से मीरा को कोई कष्ट नहीं दूँगा। आप चलो। मीरा ने कहा कि भाई अब नहीं जाऊँगी। उन्होंने कहा कि यदि आप नहीं चलोगी तो हम प्रतिज्ञा करके आए हैं कि यदि मीरा जीवित मिल गई तो हमारी बात को मान लेगी। राणा ने कहा था कि यदि नहीं आई तो क्या करोगे। हमने कहा है कि हम भी नहीं आएँगे। बहन जी हमारे परिवार की ओर देखकर चलो। मीरा बाई बोली कि यदि मैं संसार छोड़ गई होती तो भी तो लौट जाते। सिपहियों ने कहा कि फिर लौटना ही था। उसी समय मीरा जी ने एकतार वाला यंत्र (एक तारा) उठाया। परमात्मा की स्तूति करने लगी। आँखों से प्रेम के आँसू बहने लगे। उसी समय श्री कृष्ण जी की मूर्ति में समा गई। दोनों नौकरों ने लौटकर राणा को सभा में बताया। उस समय राजा अपने महामंत्राी भवन के साथ शिकार खेलने जाने वाले थे। भौम तलवार-तीर लेकर तैयार था। उसके घोड़े को भक्त नौकर पकड़कर खड़ा था। भवन मंत्राी सभा में बैठा था। नौकरों से राजा ने प्रश्न किया कि मिली मीरा? नौकरों ने कहा कि मिली थी। मना कर दिया। भगवान की मूर्ति में समा गई। राजा अहंकारी था। उसने कहा कि बाहर जाकर चरित्राहीन हो गई होगी। मुसलमान खसम कर लिया होगा। इसलिए धरती में गढ़ गई। जब जानता वह संत थी, ऊपर आकाश में स्वर्ग में जाती। उस समय भवन भक्त खड़ा हुआ और बोला हे अपराधी! उस देवी के लिए ऐसे कटे-जले शब्द ना बोलं यदि वह ऊपर चली जाती तो भी तूने नहीं मानना था। तेरा पाप नहीं मानने देता। मैं जा रहा हूँ। स्वर्ग में देख ले। भौम सबके सामने घोड़े पर सवार हो गया। तलवार भी हाथ में थी। घोड़ा ऊपर को उठने लगा तो नौकर रोने लगा कि मालिक मैं कैसे अकेला इस अन्यायी के राज्य में रह सकूँगा। मुझे भी साथ ले चलो। यँू कहते-कहते नौकर भक्त ने घोड़े की पूँछ पकड़ ली। वह भी घोड़े से लटका ऊपर चल दिया। घोड़े, (जोड़े) जूतों व गुलाम (नौकर) सहित भवन स्वर्ग गया।

विशेष:– एक नितानंद जी महाराज गाँव-माजरा जिला-रोहतक में जटेला तालाब पर साधना किया करते थे। जटेला तालाब चार गाँव की सीमा पर माजरा की सीमा में है। गाँव हैं माजरा बिगावा, बास अचीना आदि-आदि। ये दादरी जिले के हैं।}

उनके विषय में कहा जाता है कि वे सशरीर ऊपर गए हैं। वे श्री विष्णु जी के पुजारी थे। उनको ऊपर जाते किसी ने आँखों तो नहीं देखा, परंतु पूर्ण विश्वास यही है। संत गरीबदास जी स्पष्ट करना चाहते हैं कि श्री रामचन्द्र के साथ सब अयोध्यावासी स्वर्ग गए थे। राजा हरिशचन्द्र के साथ काशी वासी सब स्वर्ग गए थे। परंतु जन्म-मरण न तो श्री रामचन्द्र का समाप्त हुआ। वे श्री कृष्ण रूप में जन्मे। फिर मरे। न राजा हरिशचन्द्र का जन्म-मरण समाप्त हुआ। वे दसवें अवतार के रूप में आगे जन्म लेंगे। करोड़ों व्यक्तियों को मारकर कोरे पाप इकट्ठे करके नरक में गिरेंगे। नित्यानंद जी तथा भौम जैसों की गिनती क्या की जाए?

केवल कबीर परमात्मा की सत्य साधना तीन बार दीक्षा वाली अधिकारी से लेकर करने से जन्म-मरण सदा के लिए समाप्त हो जाता है। (वर्तमान में मेरे यानि संत रामपाल के अतिरिक्त विश्व में किसी को तीनों बार की दीक्षा देने का अधिकार नहीं है। यह विडियो के माध्यम से मेरा इलेक्ट्रोनिक शरीर हजारों वर्ष कलयुग में दीक्षा देगा। अरब-खरब मानव (स्त्राी-पुरूष) जो दीक्षा लेकर मर्यादा में रहकर आजीवन भक्ति करेंगे तो मोक्ष में कोई शंका नहीं है।

भवन मंत्राी भक्त की रक्षा परमात्मा ने की:- भक्त भवन महामंत्राी था। राजा का चाचा था तथा बहुत वफादार था। राणा अपना चाचा होने के नाते तथा निष्कपट से सेवा करने के कारण भवन पर बहुत विश्वास करता था। भवन को परमात्मा पर पूर्ण विश्वास था। एक अन्य मंत्राी चाहता था कि मैं महामंत्राी बनूँ तो सब कमांड मेरे हाथ में आ जाए। अब महामंत्राी भवन के आधीन रहना पड़ता है। वह जो कहता है, वही करना पड़ता है। मेरी नहीं चलती। राजा के सामने महामंत्राी भवन की निंदा करता रहता था। परंतु राजा को विश्वास नहीं हो रहा था कि मेरे चाचा मेरे विरूद्ध चल सकता है या मेरे राज्य को हड़पना चाहता है। परंतु दुष्ट मंत्राी को चैन नहीं था। राजा महामंत्राी भवन को शिकार करने के समय या किसी अन्य शहर में जाना होता था तो सदा साथ रखता था। शिकार करने जाते थे। भवन जीव नहीं मारना चाहता था। परंतु राजा को नाराज भी नहीं करना चाहता था। इसलिए काष्ठ (लकड़ी) की तलवार बनाकर लोहे की म्यान (ब्वअमत) में डाल रखी थी। बाहर से तो तलवार तेज धार वाली लगती थी। अंदर लकड़ी का टुकड़ा था। भवन शिकार के समय राजा से दूसरी ओर घोड़ा दौड़ा ले जाते थे। कोई जीव हिंसा नहीं करते थे। भवन का परमात्मा पर अटूट विश्वास था। जो भी कार्य गलत होता, तभी कहते थे कि परमात्मा जो करता है, अच्छा करता है। अच्छा हुआ, अच्छा हुआ। किसी ने मंत्राी को बताया कि भवन महामंत्राी ने काष्ठ की तलवार ले रखी है। कहता है कि जीव हिंसा नहीं करनी चाहिए। चापलूस मंत्राी ने भवन के पीछे से उसकी तलवार देखी। वास्तव में काष्ठ की थी। एक-दो को और दिखाई। तीन-चार ने आँखों देखी। चापलूस मंत्राी ने सबसे कहा कि भवन अपने भतीजे को मरवाना चाहता है। स्वयं राज्य चाहता है। भाईयो! मेरे साथ राजा के पास चलो। मंत्राी अपनी मंडली को लेकर राजा के पेश हुआ। सबने एक सुर में कहा कि राजन्! हम आँखों देखकर आए हैं। भवन आपका रक्षक नहीं है। आपको धोखा दे रहा है। काष्ठ की तलवार ले रखी है। आप स्वयं मँगाकर देखें। हम पर विश्वास ना करो।

राजा ने कहा कि यदि भवन की तलवार काष्ट की मिली तो सबके सामने उसकी गर्दन काट दूँगा। राजा ने सब मंत्राी तथा महामंत्रियों को आदेश दिया कि दूसरे शहर में जाना है। सब अपने अस्त्रा-शस्त्रा लगाकर आधे घंटे में तैयार होकर ड्योडी द्वार पर हाजिर हों। सब अपनी-अपनी तलवार व अन्य शस्त्रा लेकर ड्योडी द्वार पर खड़े हो गए। राजा आए और बोले सब मंत्राी-महामंत्राी तथा अन्य अंगरक्षक अपनी-अपनी तलवार लेकर एक पंक्ति में खड़े हो जाएँ। ऐसे ही हो गया। राजा प्रत्येक के पास जाकर कहे कि अपनी तलवार की धार चैक कराओ। तुमने धार ठीक से बनवा रखी है कि नहीं। सबकी तलवार लोहे की थी। जब भवन का नंबर आया तो भवन को लग रहा था कि चंद मिनटों का जीवन शेष है। परमात्मा कोयाद करलूँ। भवन परमात्मा का नाम जो गुरूजी से ले रखा था, जाप करने लगा। राजा ने कहा कि महामंत्राी! तलवार म्यान से निकाल। भवन को नहीं पता लगा कि कब तलवार म्यान से बाहर निकली। वह तो अंतिम श्वांस ले रहा था। ज्यों ही भवन ने पूरे बेग के साथ तलवार म्यान से बाहर निकाली तो तलवार लोहे की थी। उसकी चमक आँखों को ऐसे लग रही थी जैसे आकाशीय बिजली का चमका लगा हो। देखने वाले जो आँखों देख चुके थे कि भवन की तलवार काष्ठ की थी। उनको अपनी आँखों पर भरोसा नहीं हो रहा था। इस घटना के पश्चात् भवन की आस्था परमात्मा में पूर्ण रूप से दृढ़ हो गई। परंतु दुष्ट मंत्राी बाज नहीं आया।

परमात्मा जो करता है, अच्छा करता है

एक दिन राजा व महामंत्राी-मंत्राी कहीं जाने को तैयारी में खड़े थे। राजा मंत्रियों से बातें भी कर रहा था तथा तलवार को निकालकर उसकी धार देखने लगा। बातों में व्यस्त होने के कारण राजा को ध्यान नहीं रहा। उसकी दायें हाथ की ऊँगली कटकर दूर गिर गई। राजा को जोर की पीड़ा हुई। महामंत्राी बोला कि अच्छा हुआ। जो होता है, अच्छा ही होता है। परमात्मा जो करता है, अच्छा ही करता है। उस दिन राजा को लगा कि वास्तव में महामंत्राी के मन में दोष है। यह मेरा अहित चाहता है। चापलूस मंत्राी को मौका मिल गया। राजा के लिए वैद्य बुलाकर लाया। कहने लगा हे राजन्! देख लिया आपने सुन लिया अपने कानों से। राजा ने आदेश दिया कि महामंत्राी को जेल में डाल दो। चापलूस मंत्राी को महामंत्राी बना दिया। छः महीने में राजा की ऊँगली का जख्म भर गया। राजा के दायें हाथ में केवल तीन अंगुलियाँ थी। नए महामंत्राी को साथ लेकर राजा शिकार करने गया। जंगल में शिकार के पीछे घोड़े दौड़ा रखे थे। राजा तथा महामंत्राी दोनों सेना से दूर गहरे जंगल में चले गए। आगे कुछ जंगली व्यक्ति मिले। उन्होंने दोनों को घेर लिया तथा पकड़कर रस्सों से बाँधकर घर पर ले गए। जंगली व्यक्तियों ने देवी को नरबली चढ़ाने का संकल्प कर रखा था। पुरोहित को बताया कि दो व्यक्ति पकड़कर लाए हैं। पुरोहित ने कहा कि अच्छी बात है। दोनों की बली चढ़ा देंगे। देवी अधिक प्रसन्न होगी। परंतु जाँच करो कि इनका कोई अंग-भंग ना हो। जाँच करने पर पाया कि एक व्यक्ति की एक अंगुली नहीं है। कटी हुई है। पुरोहित बोला कि जिसकी अंगुली कटी है, उसे जाने दो। वह बली के योग्य नहीं हैं। दूसरे को तैयार करो। देखते-देखते चापलूस मंत्राी का सिर काटकर पत्थर की मूर्ति पर चढ़ाकर फिर पकाकर खाने के लिए ले जाने लगे। राजा तेजी से भागा। सीधा कारागार में गया जहाँ महामंत्राी बंद था। उसे कैद मुक्त किया तथा आप बीती बताई और कहा कि आप ठीक कह रहे थे कि जो होता है, अच्छा ही होता है। यदि उस दिन मेरी अंगुली न कटी होती तो आज मेरी मौत होती। राजा ने महामंत्राी से प्रश्न किया कि मेरी अंगुली कटी तो मेरी जान बची। मेरे लिए तो अच्छा हुआ। परंतु आपको छः महीने की कैद का कष्ट भोगना पड़ा। आपके लिए क्या अच्छा हुआ? महामंत्राी ने कहा कि छः महीने की कैद से मेरी जान बच गई। यदि मैं कैद में ना होता तो आपके साथ जंगल में जाता। उस मंत्राी की जगह मेरी बली चढ़ती। राजा ने अपनी गलती की क्षमा याचना की। उसे अपना पुनः महामंत्राी बनाया।

आत्म ज्ञान बिना नर भटकै:-

जब बहन मीरा जी घर त्यागकर जा रही थी तो रास्ते में कुछ व्यक्ति एक गुफा के द्वार के सामने बैठे थे। मीरा बाई ने उनसे वहाँ इकट्ठे होने के कारण जाना तो बताया कि इस गुफा के अंदर एक महात्मा रहता है। वह कभी-कभी बाहर आता है। जिसको दर्शन हो जाते हैं, उसका कल्याण हो जाता है। परंतु महिलाओं को दर्शन नहीं देते। मीरा बाई ने कहा कि मैंने तो सुना है कि पुरूष तो एक परमात्मा ही है। अन्य तो शरीर बदलकर स्त्राी-पुरूष बनते रहते हैं। यदि कोई दूसरा पुरूष पृथ्वी पर है तो मैं उसके दर्शन करके ही जाऊँगी। महात्मा का विशेष सेवक था। केवल वह गुफा में जा सकता था। सेवक से महात्मा पता कर लेता था कि कोई स्त्राी तो बाहर नहीं बैठी है? सेवक ने बताया कि एक साध्वी आई है। वह कहती है कि मैं तो दर्शन करके ही जाऊँगी। महात्मा बाहर आया। मीरा बाई ने कहा कि महाराज! मैं जानना चाहती हूँ कि इस पाँच तत्त्व के बने मानव शरीर में स्त्राी तथा पुरूष के तत्त्व में अंतर है क्या? केवल एक पुरूष है परमात्मा। आप अन्य पुरूष कैसे हो? आत्मा शरीर धारण करती है। नर-मादा का अभिनय करती है। महात्मा को अपनी गलती का अहसास हुआ। गुफा छोड़कर मीरा बाई के साथ जाकर संत रविदास जी से दीक्षा ली। आत्म ज्ञान = ‘‘आत्मा’’ स्त्राी-पुरूष की एक है। जैसे स्वांगी-स्वांग करते हैं। स्त्राी-पुरूष बनकर अभिनय करते हैं। ऐसे आत्मा कर्मों के अनुसार नर-मादा का अभिनय करती है।

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