क्या श्री विष्णु अर्थात् श्री कृष्ण जी कर्मदण्ड को क्षमा कर सकते हैं?

प्रश्नः- क्या श्री विष्णु उर्फ श्री कृष्ण जी तीन ताप को समाप्त कर सकते

हैं। यदि नहीं कर सकते हैं तो कोई उदाहरण बताइए हे कबीर परमेश्वर! जिससे मेरी शंका समाप्त हो सके।

उत्तरः- हे धर्मदास! श्री विष्णु उर्फ श्री कृष्ण जी तीन ताप को समाप्त नहीं कर सकते।

उदाहरण-1:- जिस समय श्री विष्णु जी ने नारद ऋषि को बन्दर का मुख लगाया तो नारद जी ने शाप दिया था कि हे विष्णु तू भी एक जीवन में मेरे की तरह पृथ्वी पर स्त्राी वियोग में भटकेगा। नारद जी के शापवश श्री विष्णु का जन्म श्री रामचन्द्र रूप मे अयोध्या के राजा दशरथ के घर हुआ। फिर बनवास हुआ, सीता का अपहरण हुआ। श्री राम अपनी पत्नी के वियोग में व्याकुल हुए। फिर रावण को मारकर अयोध्या आए। वहाँ से फिर सीता जी को एक धोबी के व्यंग्य के कारण घर से निकाल दिया। अन्त तक राम और सीता का मिलन दोबारा नहीं हो सका। अन्त समय में सीता पृथ्वी में समाई तथा उसी के वियोग में श्री रामचन्द्र ने सरयू नदी में जल समाधी ली अर्थात् जल में शरीर त्यागा।

उदाहरण-2:- एक समय दुर्वासा ऋषि द्वारिका के पास जंगल में कुछ समय के लिए ठहरे। द्वारिका वासी भगवान कृष्ण के अतिरिक्त किसी भी ऋषि या सन्त को महत्व नहीं देते थे। सर्व को हेय समझते थे। एक दिन कुछ द्वारिका वासियों ने शरारत सूझी विचार किया कि दुर्वासा ऋषि की परीक्षा लेते हैं। कहते है यह त्रिकालदर्शी है। यह विचार करके श्री कृष्ण जी के पुत्र प्रद्यूमन के पेट पर लोहे की छोटी कड़ाही बांध कर उसके ऊपर रूई लगा कर कपड़ा बांध दिया तथा स्त्राी के कपड़े पहना कर गर्भवती स्त्राी का स्वांग बनाया। एक व्यक्ति उसका पति बनाया तथा दस-बीस व्यक्तियों के साथ दुर्वासा ऋषि के पास गए। ऋषि जी को प्रणाम करके बोले हे ऋषि जी! ये दोनों पति-पत्नी हैं। इनके विवाह को कई वर्ष हो गए थे। अब प्रभु ने इनकी आशा पूर्ण की है। ये उतावले हो रहे हैं जानना चाहते हैं कि इस गर्भ से लड़का होगा या लड़की? आप की महिमा सुनकर हम यहाँ आए हैं। दुर्वासा ऋषि उनके उद्देश्य को समझ गए तथा ध्यान द्वारा देखा तो सर्व रहस्य जान लिया तथा कहा इस गर्भ से यादव कुल का नाश होगा। यह कहते समय ऋषि दुर्वासा के नेत्र लाल हो गए चेहरा गम्भीर हो गया। सर्व व्यक्ति जो उनके साथ गए थे भयभीत होकर द्वारिका लौट आए।

द्वारिका वासी बड़े-बुढ़ों को पता चला कि बच्चों ने दुर्वासा ऋषि से उपहास किया है। जिस कारण से ऋषि ने यादव कुल नष्ट होने का श्राप दे दिया है। ऋषि का वचन टल नहीं सकता। कुछेक बुद्धिमान व्यक्ति बोले अपने राजा श्री कृष्ण जी क्या श्री विष्णु अर्थात् श्री कृष्ण जी कर्मदण्ड को क्षमा कर सकते हैं?

भगवान जो अपने साथ हैं। उनके सामने ऋषि दुर्वासा जैसे क्या वस्तु हैं? चलो श्री कृष्ण भगवान को सर्व कथा सुनाते हैं तथा ऋषि के श्राप से बचाने की प्रार्थना करते हैं। द्वारिका के गणमान्य व्यक्ति भगवान कृष्ण के पास गए तथा सर्व वृतान्त सुनाया। द्वारिका वासियों को अति व्याकुल जान कर श्री कृष्ण जी ने कहा आप चिन्ता क्यों कर रहे हो। सर्व व्यक्तियों ने कहा ऋषि ने शाप दिया है कि इस गर्भ से यादव कुल का नाश होगा। श्री कृष्ण जी बोले इसका समाधान है कि जो लोहे की कड़ाही व कपड़ों व रूई का गर्भ स्वांग किया था उन कपड़ों व रूई को जला कर भस्म कर दिया जाए तथा लोहे की कड़ाही को घिसा कर चूर्ण बना कर प्रभास क्षेत्र में यमुना नदी के जल में बहा दिया जाए। न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी। जब गर्भ का सामान ही नहीं रहेगा तो यादव कुल का नाश कैसे होगा? सर्व उपस्थित प्रजा जनों ने भगवान कृष्ण द्वारा बताई विधि का स्वागत किया तथा राहत की सांस ली। अपने धार्मिक गुरू श्री कृष्ण जी द्वारा बताई विधि के अनुसार गर्भ स्वांग में प्रयोग रूई तथा वस्त्र अग्नि में जला दिए लोहे की कड़ाही को घिसने का कार्य प्रभास क्षेत्र में यमुना दरिया के किनारे प्रारम्भ किया। कुछ व्यक्तियों को कार्य सौंपा गया।

एक व्यक्ति को लोहे की कड़ाही के कड़ों (बराबर में ऊपर के हिस्से में लगे गोलाकार छल्ले) को घिसने का कार्य सौंपा। उसने एक कड़ा पूरा घिस दिया दूसरा कुछ ही घिसा था तब तक अन्य व्यक्तियों ने पूरी कड़ाही को घिस कर अपना कार्य समाप्त कर दिया। कड़े घिसने वाले व्यक्ति के मन में आया कि मैं पीछे रह गया हूँ ये लोग मेरा उपहास करेगें इसलिए उसने दूसरा कड़ा जो चारों ओर से थोड़ा-2 घिसा था जल में फैंक दिया। घिसने के कारण कड़ा चमकीला बन गया था। एक बड़ी मछली ने उसे खाद्य वस्तु जान कर खा लिया। एक बालिया नामक शिकारी ने उस मछली को पकड लिया तथा काटने पर उसमें से एक चमकीली धातु का कड़ा मिला। उस कड़े को लेकर लुहार कारीगर के पास ले गया। अपने धनुष के लिए उस कड़े के लोहे का विषाक्त तीर बनावाया। जो कड़ाही के घिसने से लोह चूर्ण बना था उसे यमुना में डाला गया था। उस लोह चूर्ण का धारदार तीखे पत्तों वाला पठेरे जैसा घास उग गया। उस सरकण्डे जैसे घास के पते इतने नुकीले थे यदि उस से ऊंगली छू जाए तो कट के भिन्न हो जाए। अपने आप को श्राप मुक्त जान कर द्वारिका वासी आनन्द से निश्चिंत होकर रहने लगे।

कुछ वर्षों उपरान्त द्वारिका के व्यक्ति छोटी से छोटी बात पर लड़ मरने लगे। शत्रुता बढ़ने लगी। परस्पर ईष्र्या रखने लगे। प्रतिदिन दो-चार हत्याऐं आपसी झगड़े के कारण होने लगी। द्वारिका पुरी में पूर्ण रूप में अशान्ति का वातावरण हो गया। कोई भी बड़ें-बूढ़ों की बातों को महत्व नहीं देता था। अपनी धुन में प्रतिशोध लेने की ताक में रहने लगे। कुछ बड़े-बुजुर्ग मिलकर अपने गुरू श्री कृष्ण प्रभु के पास गए तथा बताया कि हे प्रभु! पता नहीं नगरी का कौन सा पाप उदय हो गया है। आपसी झगड़े होने लगे हैं। कोई भी न्याय की बात सुनने को तैयार नहीं है। एक दूसरे पर घात लगाए घूम रहे हैं। सम्पूर्ण नगरी में उपद्रव होने लगे हैं। कृप्या कारण तथा शान्ति का समाधान बताईए।

श्री कृष्ण प्रभु ने कुछ देर विचार करके ध्यान द्वारा देखा तो पता चला कि ऋषि दुर्वासा द्वारा दिया गया श्राप फली भूत हो रहा है। श्री कृष्ण जी ने उन उपस्थित द्वारिका वासियों को बताया हे द्वारिका वासियों ! आप सर्व यादवों पर ऋषि दुर्वासा द्वारा दिया श्राप (श्राप भी तीनों तापों में से एक होता है) अपना प्रभाव दिखा रहा है। इससे बचने का उपाय एक ही है सर्व द्वारिका वासी नर प्रभास क्षेत्र में जाकर यमुना नदी में स्नान करो। आप सर्व दुर्वासा ऋषि के श्राप से पूर्ण रूप से मुक्त हो जाओगे। उन व्यक्तियों ने भगवान श्री कृष्ण का धन्यवाद किया तथा प्रणाम करके लौट आए। श्री कृष्ण जी द्वारा बताया उपाय सर्व द्वारिका वासियों को बताया श्री कृष्ण प्रभु का आदेश सुनते ही सर्व नर यादव अपने नवजात शिशुओं को भी साथ लेकर प्रभास क्षेत्र की ओर चल पड़े। कहीं उन बच्चों (लड़कों) पर श्राप न रह जाए इस उद्देश्य से अपने उसी दिन के उत्पन्न लड़कों को भी स्नान कराने के लिए श्राप मुक्त कराने के लिए संग ले गए। यमुना में स्नान करके बाहर आकर आपस में युद्ध करने लगे। प्रथम श्राप मुक्त होने के उद्देश्य से यमुना नीर में स्नान करते थे। बाहर आते ही वहीं पर एक दुसरे को युद्ध करता देखकर अपने परिजनों के पक्ष में झगड़ा करने लगे। गर्भ स्वांग में प्रयुक्त लोहे की कड़ाही के चूर्ण से उत्पन्न सरकण्डों (जो तेज धार युक्त पतों वाले थे) को उखाड़ कर एक-दूसरे को मारने लगे। श्राप प्रभाव से सरकण्डों ने तेग का कार्य किया। घास के पत्तों से एक दूसरे की गर्दन काट डाली। श्री विष्णु पुराण पांचवा अंश अध्याय 37 पृष्ठ 413 पर लिखा है कि कड़ाहे के लोह चूर्ण से उत्पन्न सरकण्डों को श्री कृष्ण जी ने उखाड़ा वे मूसल बन गए। श्री कृष्ण जी ने भी उन मूसलों से यादवों को मारा। इस प्रकार छप्पन करोड़ यादव विनाश को प्राप्त हुए।

श्री कृष्ण भगवान प्रभास क्षेत्र में जाकर एक वृक्ष के नीचे दोपहर के समय विश्राम कर रहे थे। लेटे हुए श्री कृष्ण जी ने अपने एक पैर को दूसरे पैर के घुटने पर रखा हुआ था। जिस कारण से दाँऐ पैर का तलवा स्पष्ट दिखाई दे रहा था। दाँऐ पैर के तलवे में पदम था। जो बहुत चमकीला था। उस से रोशनी निकलती थी। (पद्यम, आंख के आकार का चमकीला चिन्ह तलवे की चमड़ी के अन्दर, मुस की तरह जन्मजात लगा हुआ था) जिस वृक्ष के नीचे भगवान कृष्ण लेटे हुए थे, उस वृक्ष की टहनियाँ तीन ओर से जमीन को छू रही थी। बालिया नामक क्या श्री विष्णु अर्थात् श्री कृष्ण जी कर्मदण्ड को क्षमा कर सकते हैं?

शिकारी अपने उद्देश्य से शिकार की खोज में सुबह से धूम रहा था। उस दिन उसे कोई शिकार हाथ नहीं लगा। बालिया शिकारी ने उस दिन वह तीर ले रखा था। जो गर्भ स्वांग में प्रयुक्त लोहे की कड़ाही के उस कड़े से बनवाया था। जो मछली से प्राप्त किया था। वह तीर विषयुक्त बनवा रखा था। शिकार की खोज में बालिया शिकारी दैव योग से उस वृक्ष के निकट आकर ध्यान पूर्वक शिकार को खोजने लगा। उसे श्री कृष्ण जी के तलवे में लगे पद्यम की चमक दिखाई दी। शिकारी ने सोचा कि यह मृग की आँख चमक रही है। सारा दिन से शिकार न मिलने के कारण हुए परेशान शिकारी ने उसे हिरण की आँख जान कर उसी पद्यम को निशाना बना कर वह विषाक्त तीर मारा। तीर श्री कृष्ण जी के पैर के तलवे में लगा। पीड़ा से श्री कृष्ण जी के मुख से निकला हे भगवान् ! मर गया। मनुष्य की चीख भरी आवाज सुनकर शिकारी समझ गया कि मेरा विषैला तीर किसी व्यक्ति को लगा है। दूसरी ओर जा कर देखा तो द्वारिका के राजा श्री कृष्ण पैर को पकड़ कर दर्द से व्याकुल थे। शिकारी ने कहा हे राजन्! मुझे क्षमा कर दीजिए। मैंने आपके इस पैर के तलवे की चमक को मृग की आँख जाना। प्रभु मैंने जानबूझ कर आप की हत्या नहीं की है। मुझ से धोखा हुआ है, प्रभु मुझ अपराधी को क्षमा कर दो दीनानाथ। अपने कुकृत्य से दुःखी शिकारी को अति व्याकुल देखकर श्री कृष्ण जी बोले हे बालिया ! आप से कोई अपराध नहीं हुआ है। यह तो तेरा और मेरा पूर्व जन्म का लेने-देन था, आज समाप्त हो गया। त्रोता युग में तू सुग्रीव का भाई बाली था मैं रामचन्द्र रूप में राजा दशरथ के घर जन्मा था। उस समय मैंने तुझे एक वृक्ष की ओट लेकर धोखा करके मारा था। वही प्रतिशोध आज तूने मेरे से लिया है। आप जाईए!

उस शिकारी ने द्वारिका में जाकर श्री कृष्ण जी के घायल होने की सूचना दी। पाँण्डव आए तथा श्री कृष्ण जी के आदेशानुसार सर्व यादवों के मृतक शरीरों का अन्तिम संस्कार किया। द्वारिका की स्त्रिायों को अपने साथ ले जाने तथा राज्य त्यागकर हिमालय में तपस्या करके प्राण त्यागने का आदेश श्री कृष्ण जी ने पाण्डवों को दिया था। श्री कृष्ण जी का भी अंतिम संस्कार पाण्डवों ने किया। जहाँ श्री कृष्ण जी का शरीर जमीन में समाधिस्थ किया वहाँ पर श्री कृष्ण जी का मन्दिर बना है। जिसे द्वारिकाधीश मन्दिर कहा जाता है।

निष्कर्ष:-उपरोक्त उल्लेख से निष्कर्ष निकला (1) श्री विष्णु अर्थात् अवतार गण श्री रामचन्द्र तथा श्री कृष्णचन्द्र तीन ताप (श्राप आदि) को समाप्त नहीं कर सकते। श्री कृष्ण जी के समक्ष दुर्वासा ऋषि के श्राप से पूरा यादव कुल (श्री कृष्ण जी के पुत्र, पौत्र आदि सर्व) आपस में लड़ कर मर गये। श्री कृष्ण जी कोई बचाव नही कर सके। (2) किए कर्म का भोग विष्णु भगवान को भोगना पड़ता है पाप कर्म दण्ड को नाश नहीं कर सकते। क्योंकि ये भगवान पूर्ण परमात्मा नहीं हैं। सर्व शक्तिमान नहीं हैं। इन भगवानों (श्री विष्णु, श्री शिव, श्री ब्रह्मा) की उपासना करने वालों को भी पाप कर्म का दण्ड भोगना ही पड़ता है। पाप कर्म दण्ड नाश नहीं होता। केवल पूर्ण परमात्मा की भक्ति से ही साधक का पाप क्षमा होता है। प्रमाण यजुर्वेद अध्याय 8 मन्त्रा 13 में है (3) पाप नाश या श्राप नाश करने की विधि स्वयं श्री कृष्ण जी ने बताई जो व्यर्थ सिद्ध हुई। जो सन्त व ऋषि व गुरूजन श्री विष्णु व श्री शिव के साधक हैं उन द्वारा बताई गई कष्ट निवारक विधि कैसे लाभदायक हो सकती है? जैसे श्री कृष्ण जी ने यादवों को कहा कि तुम यमुना नदी के जल में स्नान करो जिससे दुर्वासा ऋषि के श्राप से मुक्त हो जाओगे। श्री कृष्ण जी द्वारा बताई विधि से श्राप नाश तो नहीं हुआ परन्तु यादवों का नाश अवश्य हो गया। विचार करें जो भ्रमित करने वाले गुरूजन गंगा, यमुना या किसी तीर्थ के जल में स्नान करने से पाप नाश होने तथा मोक्ष प्राप्त होने की बात कहते हैं वह कहाँ तक उचित है। अर्थात् व्यर्थ है। बहकावा मात्र है। शास्त्राविधि रहित साधना करा कर अनुयाईयों का जीवन व्यर्थ करना है तथा स्वयं महापाप के भागी होकर घोर नरक में गिरने की तैयारी मात्र है। (4) श्री विष्णु को नारद ऋषि ने श्राप दिया वह श्राप श्री विष्णु जी ने श्री रामचन्द्र रूप में राजा दशरथ के घर अयोध्या में जन्म लेकर भोगना पड़ा। नारद के शाप अर्थात् तीन ताप को श्री विष्णु नाश नहीं कर सके।

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