दस मुकामी रेखता
पृष्ठ 21 से कुछ अंश लिखता हूँ:-
भया आनन्द फन्द सब छोड़िया पहँुचा जहाँ सत्यलोक मेरा।।
{हंसनी (नारी रूप पुण्यात्माऐं) हंस (नर रूप पुण्यात्माऐं)}
हंसनी हंस सब गाय बजाय के साजि के कलश मोहे लेन आए।।
युगन युगन के बिछुड़े मिले तुम आय कै प्रेम करि अंग से अंग लाए।।
पुरूष दर्श जब दीन्हा हंस को तपत बहु जन्म की तब नशाये।।
पलिट कर रूप जब एक सा कीन्हा मानो तब भानु षोडश (16) उगाये।।
पहुप के दीप पयूष (अमृत) भोजन करें शब्द की देह सब हंस पाई।।
पुष्प का सेहरा हंस और हंसनी सच्चिदानंद सिर छत्रा छाए।।
दीपैं बहु दामिनी दमक बहु भांति की जहाँ घन शब्द को घमोड़ लाई।।
लगे जहाँ बरसने घन घोर कै उठत तहाँ शब्द धुनि अति सोहाई।।
सुन्न सोहैं हंस-हंसनी युत्थ (जोड़े-झुण्ड) ह्नै एकही नूर एक रंग रागै।।
करत बिहार (सैर) मन भावनी मुक्ति में कर्म और भ्रम सब दूर भागे।।
रंक और भूप (राजा) कोई परख आवै नहीं करत कोलाहल बहुत पागे।।
काम और क्रोध मदलोभ अभिमान सब छाड़ि पाखण्ड सत शब्द लागे।।
पुरूष के बदन (शरीर) कौन महिमा कहूँ जगत में उपमा कछु नाहीं पायी।।
चन्द और सूर (सूर्य) गण ज्योति लागै नहीं एक ही नख (नाखुन) प्रकाश भाई।।
परवाना जिन नाद वंश का पाइया पहुँचिया पुरूष के लोक जायी।।
कह कबीर यही भांति सो पाइहो सत्य पुरूष की राह सो प्रकट गायी।।
भावार्थ:- इस अमृतवाणी में स्पष्ट है कि परमेश्वर कबीर जी सतगुरू रूप में पृथ्वी से धर्मदास जी को लेकर सत्यलोक को चले तो रास्ते में 9 स्थान आए जैसे नासूत, मलकूत यह फारसी में शब्द है। इन सात आसमानों के पार अचिन्त, विष्णु लोक आदि के पार जब सत्यलोक में पहुँचा तो धर्मदास जी कह रहे हैं कि मेरे को सत्कार के साथ लेने को सत्यलोक के हंस (नर) हंसनी (नारी) गाते-नाचते ढ़ोल आदि साज-बाज बजाते हुए स्त्रिायां सिर के ऊपर कलश रखकर लेने आए। उनके शरीर का प्रकाश सोलह सूर्यों के समान था। मेरे शरीर का प्रकाश भी उनके शरीर के प्रकाश के समान 16 सूर्यों के समान हो गया।
जो पृथ्वी लोक से मोक्ष प्राप्त करके हंस जाता है। वह पुहप द्वीप में ले जाया जाता है। वहाँ सर्व सुख है, वह सत्यलोक का हिस्सा है। परंतु सर्व प्रथम नीचे से गए मोक्ष प्राप्त जीव को पोहप द्वीप में रखा जाता है। यहाँ का दृश्य बताया जा रहा है। यहाँ से इसका जन्म अन्य स्थानों में परिवार में होता है। इसके पश्चात् उस स्थान का वर्णन है जहाँ नर-नारी से उत्पत्ति होकर परिवार बनता है। जहाँ पर नर-नारी के जोड़ों के समूह के समूह सुख से बैठे बातें करते हैं। बादल गरजते हैं, फव्वार पड़ती हैं। यह भिन्न स्थान है जहाँ सतलोक निवासी पिकनिक के लिए जाते हैं। कुछ स्थान ऐसे हैं जहाँ न बादल दिखाई देता है, वर्षा हो रही होती है।
दीक्षा के पश्चात् साधक को क्या करना चाहिए? उसकी जानकारी पवित्र कबीर सागर के अध्याय ‘‘धर्म बोध’’ में भी है।
कृपा पढ़ें अध्याय ‘‘धर्म बोध’’ का सारांश:-
कबीर सागर में 33वां अध्याय ‘‘धर्म बोध‘‘ पृष्ठ 177 (1521) पर है। इस अध्याय में परमेश्वर कबीर जी ने धर्म करने का विशेष ज्ञान बताया है। यह भी स्पष्ट किया है कि कबीर परमेश्वर के सच्चे पंथ में दिन में तीन बार संध्या की जाती है। संध्या का अर्थ है दो वक्त का मिलन। एक संध्या सुबह उससे दिन और रात्रि का मिलन होता है, रात्रि विदा होती है, दिन का शुभारंभ होता है। दूसरी संध्या दिन के बारह बजे होती है। उस समय चढ़ते दिन का दोपहर पूरा होता है, ढ़लते दिन की शुरूआत होती है, यह मध्य दिन की संध्या है। तीसरी संध्या शाम के समय होती है। उस समय दिन और रात्रि का मिलन होता है। वैसे आम जन शाम को संध्या कहते हैं। संध्या का अर्थ परमात्मा की स्तुति करना भी होता है।
वेदों में प्रमाण है कि जो जगत का तारणहार होगा, वह तीन बार की संध्या करता तथा करवाता है। सुबह और शाम पूर्ण परमात्मा की स्तुति-आरती तथा मध्यदिन में विश्व के सब देवताओं की स्तुति करने को कहता है। प्रमाण:- ऋग्वेद मण्डल नं. 8 सूक्त 1 मंत्र 29 में तथा यजुर्वेद अध्याय 19 मंत्र 26 में है। कबीर सागर में धर्म बोध अध्याय में पृष्ठ 177 पर भी यही प्रमाण है।
सांझ सकार मध्या सन्ध्या तीनों काल। धर्म कर्म तत्पर सदा कीजै सुरति सम्भाल।।
भावार्थ:- भक्तजनों को चाहिए कि तीनों काल (समय) की संध्या करे। सांझ यानि शाम को सकार यानि सुबह तथा मध्याहन् यानि दोपहर (दिन के मध्य) में संध्या करते समय सुरति यानि ध्यान आरती में बोली गई वाणी में रहे और धर्म के कार्य में सदा तैयार रहे, आलस नहीं करे।
धर्म बोध पृष्ठ 178 (1522) पर:-
कबीर कोटिन कंटक घेरि ज्यों नित्य क्रिया निज कीन्ह। सुमिरन भजन एकांत में मन चंचल गह लीन।।
भावार्थ:- भक्त के ऊपर चाहे करोड़ों कष्ट पड़े, परंतु अपनी नित्य की क्रिया (तीनों समय की संध्या) अवश्य करनी चाहिए तथा चंचल मन को रोककर एकान्त में परमात्मा की दीक्षा वाले नाम का जाप करें।
कबीर भक्तों अरू गुरू की सेवा कर श्रद्धा प्रेम सहित। परम प्रभु (सत्य पुरूष) ध्यावही करि अतिश्य मन प्रीत।।
भावार्थ:- अपने गुरूदेव तथा सत्संग में या घर पर आए भक्तों की सदा आदर के साथ सेवा करें। श्रद्धा तथा प्रेम से सेवा करनी चाहिए। परम प्रभु यानि परम अक्षर पुरूष की भक्ति अत्यधिक प्रेम से करें।