गीता ज्ञान बोलने वाले के भी जन्म-मृत्यु होते हैं

अध्याय 2 के श्लोक 10 से 16 में वर्णन है कि अर्जुन को दुःख में ग्रस्त देख कर मुस्कराते हुए भगवान बोले कि हे अर्जुन शोक न करने वाली बात का शोक कर रहा है तथा ज्ञान कह रहा है पंडितों जैसा। विद्धान लोग मरने जीने की चिंता नहीं करते। यह नहीं है कि हम तुम और ये सभी सैनिक पहले कभी नहीं थे या आगे न होंगे। इसलिए दुःख-सुख सहन करने की हिम्मत रख और हम तुम ये सब सदा जन्म-मरण में ही हैं।

विशेष विवेचन:- गीता अध्याय 2 के श्लोक 16 में वर्णन है कि असत् यानि नाशवान का आस्तित्व चिर काल तक नहीं रहता तथा सत् यानि अविनाशी का आस्तित्व सदा रहता है। अविनाशी परमात्मा है। उसका अंश आत्मा भी अविनाशी है। परमात्मा से संपूर्ण संसार व्याप्त है यानि विस्तार को प्राप्त हुआ है। उस अविनाशी परमात्मा का अभाव (अनुपस्थिति) किसी समय में नहीं होता है। गीता अध्याय 2 श्लोक 17 में उसी अविनाशी परमात्मा की महिमा बताई है कि परमात्मा के अतिरिक्त कोई भी नित्य नहीं है क्योंकि आत्मा की उत्पत्ति परमात्मा ने अपने वचन से अपने शरीर से की है। उत्पत्ति से पहले आत्मा का अभाव था। भले ही वर्तमान में आत्मा भी अविनाशी है, परंतु परमात्मा का उस समय भी अभाव नहीं था।

गीता अध्याय 2 श्लोक 17 के एस्कोन वाले श्री प्रभुपाद द्वारा किए अनुवाद में गड़बड़ी की है। आत्मा की महिमा बताई है जबकि मूल पाठ उस अविनाशी परमात्मा का गुणगान कर रहा है।

  • (येन्) जिससे (सर्व इदम् ततम्) यह सम्पूर्ण जगत् यानि दृश्य वर्ग व्याप्त है यानि विद्यमान है। एस्कोन वालों ने अनुवाद गलत किया है। शब्दों के अर्थ अनुवाद से पहले लिखे हैं जिनमें ‘‘येन्’’ शब्द का अर्थ तो ठीक किया ‘‘जिससे’’, परंतु अनुवाद में कर दिया ‘‘जो’’। उनके द्वारा किया अनुवाद इस प्रकार है:- जो सारे शरीर में व्याप्त है, उसे ही तुम अविनाशी समझो। उस अव्यय आत्मा को नष्ट करने में कोई भी समर्थ नहीं है। (अध्याय 2 श्लोक 17)

इसी गीता अध्याय 2 श्लोक 17 का अनुवाद गीता प्रेस गोरखपुर से मुद्रित व प्रकाशित तथा जयदयाल गोयन्दका द्वारा अनुवादित में ठीक किया है जो इस प्रकार है:-

  • नाशरहित तो उसको जान (येन्) जिससे यह सम्पूर्ण जगत यानि दृश्य वर्ग व्याप्त है। उस अविनाशी का विनाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है। (अध्याय 2 श्लोक 17)

दोनों अनुवाद ऊपर लिखे हैं, पाठकजन स्वयं निर्णय कर सकते हैं सत्य तथा असत्य का।

वर्तमान में एस्कोन वालों की श्री प्रभुपाद जी द्वारा अनुवादित गीता का अधिक प्रचार हो रहा है जिसके प्रथम पृष्ठ पर लिखा है ‘‘श्रीमद्भगवत गीता यथारूप’’। श्रद्धालुजन ‘‘यथारूप’’ शब्द देखकर आकर्षित होकर इस अनुवादित गीता को मोल लेते हैं जिसमें यथारूप के स्थान पर गलत अनुवाद अधिक है।

अन्य उदाहरण:- गीता अध्याय 18 श्लोक 66 के अनुवाद में भी यही गलती कर रखी है। शब्दों के अर्थ में ‘‘व्रज’’ शब्द का अर्थ ‘‘जाओ’’ ठीक किया है, परंतु अनुवाद में ‘‘आओ’’ किया है जो स्पष्ट गलती है। आश्यर्च की बात तो यह है कि सन् 1983 से सन् 2012 तक 29 वर्षों में अड़तालीस (48) संस्करणों में कुल 6806000 (अड़सठ लाख छः हजार) गीता भारत में वितरित हो चुकी हैं जिनके प्रचार से गीता का बिगड़ा रूप पाठकों को पढ़ने को मिल रहा है। ‘‘यथारूप’’ की आड़ में गीता के ज्ञान को अज्ञान बनाकर जनता में फैलाया जा रहा है जो एक अपराध है, भोली जनता के साथ धोखा है। वैसे तो मेरे (रामपाल के) अतिरिक्त सर्व अनुवादकों ने गीता शास्त्र का अनुवाद व भावार्थ गलत किया है। परंतु एस्कोन वालों ने तो और अधिक बिगाड़ दिया है।

पाठकजन गीता का यथारूप इस पुस्तक में पढ़ेंगे।

गीता अध्याय 2 श्लोक 18-20 में जीवात्मा का वर्णन है। गीता अध्याय 2 श्लोक 16 में कहा कि सत् तथा असत् को तत्वदर्शी संत ही ठीक-ठीक बताते हैं। उन्होंने दोनों को देखा है यानि जाना है।

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