तत्वज्ञान प्राप्ति के पश्चात् ही भक्ति प्रारम्भ होती है
अध्याय 9 के श्लोक 26, 27, 28 का भाव है कि जो भी आध्यात्मिक या सांसारिक काम करें, सब मेरे मतानुसार वेदों में वर्णित पूजा विधि अनुसार ही कर्म करें, वह उपासक मुझ(काल) से ही लाभान्वित होता है। इसी का वर्णन इसी अध्याय के श्लोक 20, 21 में किया है। अध्याय 9 के श्लोक 29 में भगवान कहते हैं कि मुझे किसी से द्वेष या प्यार नहीं है। परंतु तुरंत ही कह रहे हैं कि जो मुझे प्रेम से भजते हैं वे मुझे प्यारे हैं तथा मैं उनको प्रिय हूँ अर्थात् मैं उनमें और वे मेरे में हैं। राग व द्वेष का प्रत्यक्ष प्रमाण है - जैसे प्रहलाद विष्णु जी के आश्रित थे तथा हिरणाकशिपु द्वेष करता था। तब नरसिंह रूप धार कर भगवान ने अपने प्यारे भक्त की रक्षा की तथा राक्षस हिरणाकशिपु की आँतें निकाल कर समाप्त किया। प्रहलाद से प्रेम तथा हिरणाकशिपु से द्वेष प्रत्यक्ष सिद्ध है।
इसीलिए पवित्र श्रीमद् भगवद् गीता अध्याय 2 श्लोक 53 में कहा है कि तत्व ज्ञान हो जाने पर नाना प्रकार के भ्रमित करने वाले वचनों से विचलित हुई तेरी बुद्धि एक पूर्ण परमात्मा में दृढता से स्थिर हो जाएगी। तब तू योगी बनेगा अर्थात् तब तेरी अनन्य मन से निःसंस्य हो कर एक पूर्ण प्रभु की भक्ति प्रारम्भ होगी।
पवित्र गीता अध्याय 2 श्लोक 46 में कहा है कि जैसे बहुत बड़े जलाशय (जिसका जल 10 वर्ष तक वर्षा न हो तो भी समाप्त न हो) के प्राप्त हो जाने के पश्चात् छोटा जलाशय (जिसका जल एक वर्ष तक वर्षा न हो तो समाप्त हो जाता है) में जितना प्रयोजन रह जाता है। इसी प्रकार पूर्ण परमात्मा (परम अक्षर पुरुष) के गुणों का ज्ञान तत्व ज्ञान द्वारा हो जाने पर आपकी आस्था अन्य ज्ञानों में तथा अन्य भगवानों (अन्य देवताओं में जैसे ब्रह्मा, विष्णु, शिव में तथा क्षर पुरुष अर्थात् ब्रह्म में तथा अक्षर पुरुष अर्थात् परब्रह्म) में उतनी ही रह जाती है। जैसे छोटा जलाशय बुरा नहीं लगता परंतु उसकी क्षमता (औकात) का पता लग जाता है कि यह काम चलाऊ सहारा है जो जीवन के लिए पर्याप्त नहीं है तथा बहुत बड़ा जलाशय प्राप्त होने पर पता चल जाता है कि यदि अकाल गिरेगा तो भी समस्या नहीं आएगी तथा तुरंत छोटे जलाशय को त्याग कर बड़े जलाशय पर आश्रित हो जाएगा।
इसी प्रकार तत्वदर्शी संत से पूर्ण परमात्मा के तत्व ज्ञान के द्वारा पूर्णब्रह्म की महिमा से परिचित हो जाने के पश्चात् साधक पूर्ण रूप से (अनन्य मन से) उस पूर्ण परमात्मा (परमेश्वर) पर सर्व भाव से आश्रित हो जाता है।
गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में कहा है कि हे अर्जुन तू सर्व भाव से उस परमेश्वर की शरण में जा, उस परमात्मा की कृपा से ही परम शांति को प्राप्त होगा तथा शाश्वत् स्थान अर्थात् सनातन परम धाम अर्थात् कभी न नष्ट होने वाले सतलोक को प्राप्त होगा।
गीता अध्याय 18 श्लोक 63 में कहा है कि मैंने तेरे से यह रहस्यमय अति गोपनीय (गीता का) ज्ञान कह दिया। अब जैसे तेरा मन चाहे वैसा कर। (क्योंकि यह गीता के अंतिम अध्याय अठारह के अंतिम श्लोक चल रहे हैं इसलिए कहा है।)