ज्ञान सागर का निष्कर्ष
इस अध्याय में कुल 106 पृष्ठ हैं। हमने मोती निकालने हैं, सागर भरा रहेगा। हमारे लिए मोती प्राप्त करना अनिवार्य तथा पर्याप्त है। प्रथम तो यह सिद्ध करना चाहूँगा कि ’’अथाह सागर से मोती निकालना मेरे स्तर का कार्य नहीं था। मैं (रामपाल दास) केवल दसवीं तक पढ़ा हूँ। उसके पश्चात् तीन वर्ष का सिविल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा किया और हरियाणा सरकार के सिंचाई विभाग में 17-02-1977 को जूनियर इंजीनियर (श्रण्म्ण्) के पद पर नौकरी लगा। 17-02-1988 को परम पूज्य गुरूदेव स्वामी रामदेवानन्द जी से दीक्षा प्राप्त हुई। फिर मार्च 1994 को गुरूदेव ने गुरू पद प्रदान किया। कहा कि बेटा तू दीक्षा दे, मैं तेरे को आदेश देता हूँ। उस दिन वही दिन था जिस दिन परमेश्वर कबीर जी अपनी प्यारी आत्मा संत गरीबदास जी को गाँव छुड़ानी के खेतों में मिले थे और दीक्षा दी थी। सत्यलोक ले गए थे, शाम को वापिस छोड़ा था।
बहु आनन्द होत तेहीं ठाऊँ। शोक रहित अमरपुर गांऊँ।।(गाँव)
पृष्ठ 2 = तहँवा रोग शोग नहिं होई, क्रीड़ा विनोद करें सब कोई।।
चन्द न सूर दिवश न राती। वरण भेद नही जाति अजाति।।
तहाँ वहाँ जरा-मरण नहीं होई। बहु आनन्द करे सब कोई।
पुष्पक विमान सदा उजियारा। अमृत भोजन करत आहारा।
काया सुन्दर ताहि प्रमाना। उदित हुए जनु षोडस भाना।।
इतनौ एक हंस उजियारा। शोभित ऐसे जानु गगन में तारा।
विमल बांस तहाँ बिगसाई। योजन चार लग सुबांस उड़ाई।।
सदा मनोहर छत्रा सिर छाजा। बूझ न परै रंक और राजा।।
नही तहाँ काल वचन की खानी। अमृत वचन बोलै भल बानी।।
आलस निद्रा नहीं प्रकाशा। बहुत प्रेम सुख करें विलसा।।
साखी = अस सुख है हमरे घरे। कहै कबीर समुझाय।
सत शब्द को जानिकै, अस्थिर बैठे जाय।।
भावार्थः- परमेश्वर कबीर जी ने अपने प्रिय भक्त धर्मदास जी को बताया कि जिस तरह मुक्ति हो सकती है। वह भेद बताता हूँ और उस मुक्ति को प्राप्त हंस वहाँ चले जाते हैं जहाँ कोई रोग नहीं, कोई शोक नहीं, वहाँ पर सब आत्माऐं आनन्द से खेलती हैं अर्थात सुखमय जीवन जीते हैं, वहाँ पर कोई चाँद-सूर्य नहीं हैं, वहाँ पर वह सतलोक स्वयं प्रकाशित है, सत्य पुरूष के एक रोम का प्रकाश करोड़ों सूर्यों तथा चान्दों से अधिक है। वहाँ एक हंस (मानव) के शरीर का प्रकाश 16 सूर्यों जितना है। वहाँ जाति भेद भी नहीं है। वहाँ हमारे सत्यलोक में जरा-मरण नहीं है। सदा युवा रहते हैं, मृत्यु नहीं है। सब भक्तों (स्त्राी तथा पुरूष) का शरीर सुन्दर है और सोलह सूर्यों जितना प्रकाश एक भक्त के शरीर का है तथा भक्तमति के शरीर का प्रकाश भी सोलह सूर्यों के प्रकाश के समान है। सतलोक में सितारों की तरह चमक रहे हैं। सतलोक में सुगन्ध उठ रही है जो चार योजन यानि 48 कि.मी. तक जाती है। (एक योजन में चार कोस, एक कोस में तीन कि.मी.। इस प्रकार एक योजन में 12 कि.मी., चार योजन में 48 कि.मी. हुए।) सतलोक में प्रत्येक भक्त के पास पुष्पक विमान है। श्री रामचन्द्र जी सीता को लेकर लंका से आए थे। वे पुष्पक विमान में आए थे। वैसा विमान सत्यलोक में प्रत्येक हंस आत्मा के पास है। प्रत्येक भक्त तथा भक्तमति के सिर पर छत्रा शोभा करता है। वहाँ कोई निर्धन और रंक का भेद नहीं है। वहाँ सतलोक में काल लोक के प्राणियों की तरह कराल वचन कोई नहीं बोलता। सदा अमृत जैसी मीठी बोली भली भाषा में बोलते हैं। उस लोक में आलस निन्द्रा नहीं है। बहुत सुखी हैं। बहुत प्रेम से रहते हैं। परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि हमारे घर (सतलोक) में ऊपर वर्णित सुख है। जिनके पास सत्य शब्द (सतनाम) है, वह उस लोक में स्थाई निवास प्राप्त करता है।
पृष्ठ 3 से 27 तक सृष्टि की उत्पत्ति का ज्ञान है, परंतु कांट-छांट कर लिखा है। वास्तविक ज्ञान पूर्व में लिख दिया है, वहाँ से ग्रहण करें।
पृष्ठ 27 से 51 तक श्री रामचन्द्र तथा श्री कृष्ण जी की लीला बताई है और सिद्ध किया है कि यह सब ज्योति निरंजन का षडयंत्रा है। पहले तो अपने अवतारों को शक्ति दे देता है। फिर उनसे पाप करवाता है। फिर उनसे वह शक्ति छीन लेता है, उनका अन्त भी बुरा होता है। जब इसी लोक में ऐसी गति हुई तो ऊपर के लोक में क्या मिलेगा। श्री राम जी ने अन्त में अपने पुत्रों लव तथा कुश से पराजित होकर शर्म के मारे सरयू नदी में समाधि लेनी पड़ी यानि अपनी जीवन लीला सरयू नदी में छलांग लगाकर समाप्त की। पहले बाली तथा रावण जैसे योद्धाओं को मार डाला था। यही दशा श्री कृष्ण जी की हुई थी। उनकी आँखों के सामने उनका पूरा यादव कुल नष्ट हो गया था तथा श्री कृष्ण जी के पैर में विषाक्त तीर एक बालिया नामक शिकारी ने मारा जिससे उनकी मृत्यु हुई। श्री कृष्ण जी ने बाली को त्रोता युग में वृक्ष की ओट लेकर मारा था। उसी आत्मा ने शिकारी बनकर अपना बदला लिया।
पृष्ठ 52 से 53 तक सुदर्शन सुपच द्वारा पाण्ड़वों की यज्ञ पूर्ण करने का वर्णन है, परंतु पूर्ण रूप से गलत लिखा है। पूर्ण वर्णन आगे बताया जाएगा।
पृष्ठ 53 से 70 तक कबीर परमेश्वर जी का सत्ययुग, त्रोतायुग, द्वापर में सतसुकृत, मुनीन्द्र तथा करूणामय नाम से प्रकट होने वाला प्रकरण है जो बिल्कुल ऊट-पटांग तरीके से बताया है। वाणी कांट-छंाट तथा बनावटी-मिलावटी बनाकर अपनी बुद्धि अनुसार व्याख्या की है जो गलत है। वास्तविकता पहले वर्णन कर दी है।
पृष्ठ 71 से 74 तक कलयुग में काशी में प्रकट होने का प्रकरण।
पृष्ठ 74 पर वर्णन है कि बालक कबीर जी ने बछिया का दूध पीया। (कंवारी गाय का दूध पीया।)
पृष्ठ 75 से 76 रामानन्द जी से गुरू दीक्षा लेना आदि-आदि वर्णन है।
पृष्ठ 76 पर सिकंदर राजा को अपनी शरण में लेने वाला प्रकरण है।
उपरोक्त प्रकरण ‘‘कबीर चरित्र बोध‘‘ में भी हैं। यथार्थ कबीर जी की लीला इस अध्याय में सम्पूर्ण नहीं है।
पृष्ठ 76 से 86 तक रतना को मिलना तथा अन्य जानकारी है जो ज्ञान प्रकाश में बताई जा चुकी है।
पृष्ठ 86 पर आठ कमलों की जानकारी है।
पृष्ठ 88 से 97 तक सामान्य ज्ञान है जो ज्ञान प्रकाश में बताया जा चुका है।
पृष्ठ 97 से 106 तक अस्पष्ट वर्णन है, इससे अधिक स्पष्ट ज्ञान पहले ज्ञान प्रकाश में धर्मदास को शरण में लेने वाले प्रकरण में पढे़ं।
विशेषः- जैसा कि ज्ञान सागर के सार के प्रारम्भ में लिखा है कि कबीर सागर धनी धर्मदास जी द्वारा लिखा था, वह हस्तलिखित था। बहुत अधिक बड़ा होने के कारण से किसी महंत ने उसमें से अपने विवेक के अनुसार कुछ-कुछ वाणी लेकर कुछ अपनी बनावटी बना-मिलाकर ज्ञान सागर बनाया है। इसी प्रकार अन्य कई अध्यायों में यही देखने को मिला है। बाद में स्वामी युगलानन्द जी भारत पथिक कबीर पंथी ने उन सर्व अध्यायों को कुछ संशोधित करके एक कबीर सागर का रूप दे दिया गया जो अपने को वर्तमान में उपलब्ध है। इसलिए ’’ज्ञान सागर’’ में कोई भिन्न ज्ञान नहीं है। यह ज्ञान अन्य अध्यायों में विस्तार के साथ है।