अध्याय 2
गीता अध्याय 2 दिव्य सारांश
अध्याय 2 के श्लोक 1 से 3 में वर्णन है कि दुःखी व रोते हुए अर्जुन को देख कर श्री कृष्ण के शरीर में प्रवेश ‘‘काल‘‘ (ब्रह्म) ने कहा कि इस अवसर पर आपका कायरता दिखाना न तो स्वर्ग प्राप्ति है, न कीर्ति प्राप्ति है तथा श्रेष्ठ व्यक्तियों का काम नहीं है। इसलिए हे अर्जुन नपुसंकता को त्याग कर युद्ध के लिए तैयार हो जा।
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अध्याय 2 के श्लोक 4 से 6 में अर्जुन कह रहा है कि भगवन अपने पूजनीय बड़ों (द्रोणाचार्य, धृतराष्ट्र) व बन्धुओं को मार कर पाप का भागी होने से अच्छा तो हम भिक्षा का अन्न खाना उचित समझते हैं और इस रक्त से युक्त राज को भोग कर तो पाप ही प्राप्त करेंगे। फिर न जाने कौन मरे और कौन बचे?
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अध्याय 2 के श्लोक 7 से 9 में अर्जुन कहता है मैं आपका शिष्य हूँ तथा आपकी शरण में हूँ। मेरी बुद्धि काम करना बन्द कर चुकी है। जो मेरे हित में हो वही सलाह (राय) दीजिए। यदि मुझे कोई सारी पृथ्वी का राज्य प्रदान करे तथा देवताओं के स्वामी अर्थात् इन्द्र का शासन भी प्रदान करे तो भी युद्ध करके पाप का भार सिर पर रखना नहीं चाहूंगा अर्थात् मुझे कोई कितना ही लालच दे, परंतु मैं नहीं देखता हूँ कि आपकी कोई शिक्षा मुझे शोक मुक्त कर देगी अर्थात् युद्ध के लिए तैयार कर देगी। (मैं युद्ध नहीं करूंगा।) इस प्रकार यह कह कर अर्जुन चुप हो कर रथ के पिछले भाग में बैठ गया।