सिकंदर लौधी बादशाह का असाध्य रोग ठीक करना

शाम का समय हो गया था। बीरसिंह को पता था कि इस समय साहेब कबीर जी अपने औपचारिक गुरुदेव स्वामी रामानन्द जी के आश्रम में ही होते हैं। यह समय परमेश्वर कबीर जी का वहाँ मिलने का है। बीरदेव सिंह बघेल काशी नरेश तथा सिकंदर लोधी दिल्ली के बादशाह दोनों, स्वामी रामानन्द जी के आश्रम के सामने खड़े हो गए। वहाँ जाकर पता चला कि कबीर साहेब अभी नहीं आए हैं, आने ही वाले हैं। बीरसिंह अन्दर नहीं गए। बाहर सेवक खड़ा था उससे ही पूछा। सिकंदर ने कहा कि ‘‘तब तक आश्रम में विश्राम कर लेते हैं।’’ राजा बीरसिंह ने स्वामी रामानन्द जी के द्वारपाल सेवक से कहा कि स्वामी रामानन्द जी से प्रार्थना करो कि दिल्ली के बादशाह सिकंदर लौधी आपके दर्शन भी करना चाहते हैं और साहेब कबीर का इन्तजार भी आपके आश्रम में ही करना चाहते है। सेवक ने अन्दर जाकर रामानन्द जी को बताया कि दिल्ली के बादशाह सिकंदर लौधी आए हैं। रामानन्द जी मुसलमानों से घृणा करते थे। रामानन्द जी ने कहा कि मैं इन मलेच्छों की शक्ल भी नहीं देखता। कह दो कि बाहर बैठ जाएगा। जब सिकंदर लोधी ने यह सुना तो क्रोध में भरकर (क्योंकि राजा में अहंकार बहुत होता है और वह दिल्ली का सम्राट) कहा कि यह दो कोड़ी का महात्मा दिल्ली के बादशाह का अनादर कर सकता है तो साधारण मुसलमान के साथ यह कैसा व्यवहार करता होगा? इसको मज़ा चखा दूँ। स्वामी रामानन्द जी अलग आसन पर बैठे थे। सिकंदर लोधी ने जाकर रामानन्द जी की गर्दन तलवार से काट दी। वापिस चल पड़ा और फिर उसको याद आया कि मैं जिस कार्य के लिए आया था? वह काम अब पूरा नहीं होगा। कहा कि बीरसिंह देख मैं क्या जुल्म कर बैठा? मेरे बहुत बुरे दिन हैं। चाहता हूँ अच्छा करना और होता है बुरा। कबीर साहेब के गुरुदेव की हत्या कर दी। अब वे कभी भी मेरे ऊपर दयादृष्टि नहीं करेंगे। मुझे तो यह दुःख भोग कर ही मरना पड़ेगा। मैं बहुत पापी जीव हूँ। यह कहता हुआ आश्रम से बाहर की ओर चल पड़ा। बीरसिंह अपने बादशाह के आगे क्या बोलता। ज्यों ही आश्रम से बाहर आए, कबीर साहेब आते दिखाई दिए। बीरसिंह ने कहा कि हे राजन! मेरे गुरुदेव कबीर साहेब आ गए। ज्योंही कबीर साहेब थोड़ी दूर रह गए बीरसिंह ने जमीन पर लेटकर उनको दण्डवत् प्रणाम किया। सिकंदर बहुत घबराया हुआ था। {अगर उसने यह जुल्म नहीं किया होता तो वह दण्डवत् नहीं करता और दण्डवत् नहीं करता तो साहेब उस पर रजा भी नहीं बकस पाते। क्योंकि यह नियम होता है।

_‘अति आधीन दीन हो प्राणी, ताते कहिए ये अकथ कहानी।‘‘

उच्चे पात्र जल ना जाई, ताते नीचा हुजै भाई।

आधीनी के पास हैं पूर्ण ब्रह्म दयाल। मान बड़ाई मारिए बे अदबी सिर काल।।_

कबीर परमेश्वर ने यहाँ पर एक तीर से दो शिकार किए। स्वामी रामान्नद जी में धर्म भेद-भाव की भावना शेष थी, वह भी निकालनी थी। रामान्नद जी मुसलमानों को हिन्दूओं से अभी भी भिन्न तथा हेय मानते थे। सिकंदर में अहंकार की भावना थी। यदि वह नम्र नहीं होता तो कबीर साहेब कृपा नहीं करते तथा सिकंदर स्वस्थ नहीं होता} बीरसिंह को दंडवत करते देखकर तथा डरते हुए सिकंदर लौधी ने भी दण्डवत् प्रणाम किया। {मुसलमान कहते हैं कि हमारा सिर केवल अल्लाह के आगे झुकता है। अन्य के सामने मुसलमान का सिर नहीं झुकेगा। सामने अल्लाह अकबर खड़ा था। सिर अपने आप झुक गया।} कबीर परमेश्वर जी ने दोनों के सिर पर हाथ रखा और कहा कि दो-दो नरेश आज मुझ गरीब के पास कैसे आए हैं? मुझ गरीब को कैसे दर्शन दिए? परमेश्वर कबीर जी ने अपना हाथ उठाया भी नहीं था कि सिकंदर का जलन का रोग समाप्त हो गया। सिकंदर लौधी की आँखों में पानी आ गया। (संत के सामने मन भाग जाता है और आत्मा ऊपर आ जाती है। क्योंकि परमात्मा आत्मा का साथी है। ‘‘अन्तरयामी एक तू आत्म के आधार।‘‘ आत्मा का आधार कबीर भगवान है।) सिकंदर लौधी ने पैर पकड़ कर छोड़े नहीं और रोता ही रहा। जानीजान होते हुए भी कबीर साहेब ने सिकन्दर लोधी दिल्ली के बादशाह से पूछा क्या बात है?। सिकंदर ने कहा कि अल्लाह की जात! मैंने घोर अपराध कर दिया। आप मुझे क्षमा नहीं कर सकते। जिस काम के लिए मैं आया था वह असाध्य रोग तो आपके आशीर्वाद मात्र से ठीक हो गया। इस पापी को क्षमा कर दो। कबीर साहेब ने कहा क्षमा कर दिया। यह तो बता कि क्या हुआ? सिकंदर ने कहा कि आप क्षमा कर नहीं सकते। मैंने ऐसा पाप किया है। कबीर साहेब ने कहा कि क्षमा कर दिया। सिकंदर ने फिर कहा कि सच में माफ कर दिया? कबीर साहेब ने कहा कि हाँ क्षमा कर दिया। अब बता क्या कष्ट है? सिकंदर ने कहा कि दाता मुझ पापी ने गुस्से में आकर आपके गुरुदेव का कत्ल कर दिया और फिर सारी कहानी बताई। कबीर साहेब बोले कोई बात नहीं। जो हुआ प्रभु इच्छा से ही हुआ है आप स्वामी रामानन्द जी का अन्तिम संस्कार करवा कर जाना नहीं तो आप निंदा के पात्र बनोगे। परमेश्वर कबीर साहेब जी नाराज नहीं हुए। सिकंदर लोधी ने बीरसिंह के मुख की और देखा और कहा कि बीरसिंह यह तो वास्तव में अल्लाह है। देखिए मैंने इनके गुरुदेव का सिर काट दिया और कबीर जी को क्रोध भी नहीं आया। बीरसिंह चुप रहा और साथ-साथ हो लिया और मन ही मन में सोचता है कि अभी क्या है, अभी तो और देखना। यह तो शुरूआत है।

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