आदरणीय गरीबदास साहेब जी की अमृतवाणी में सृष्टि रचना का प्रमाण
आदि रमैणी (सद् ग्रन्थ पृष्ठ नं. 690 से 692 तक)
आदि रमैंणी अदली सारा। जा दिन होते धुंधुंकारा।।1।।
सतपुरुष कीन्हा प्रकाशा। हम होते तखत कबीर खवासा ।।2।।
मन मोहिनी सिरजी माया। सतपुरुष एक ख्याल बनाया।।3।।
धर्मराय सिरजे दरबानी। चैसठ जुगतप सेवा ठांनी।।4।।
पुरुष पृथिवी जाकूं दीन्ही। राज करो देवा आधीनी।।5।।
ब्रह्माण्ड इकीस राज तुम्ह दीन्हा। मन की इच्छा सब जुग लीन्हा।।6।।
माया मूल रूप एक छाजा। मोहि लिये जिनहूँ धर्मराजा।।7।।
धर्म का मन चंचल चित धार्या। मन माया का रूप बिचारा।।8।।
चंचल चेरी चपल चिरागा। या के परसे सरबस जागा।।9।।
धर्मराय कीया मन का भागी। विषय वासना संग से जागी।।10।।
आदि पुरुष अदली अनरागी। धर्मराय दिया दिल सें त्यागी।।11।।
पुरुष लोक सें दीया ढहाही। अगम दीप चलि आये भाई।।12।।
सहज दास जिस दीप रहंता। कारण कौंन कौंन कुल पंथा।।13।।
धर्मराय बोले दरबानी। सुनो सहज दास ब्रह्मज्ञानी।।14।।
चैसठ जुग हम सेवा कीन्ही। पुरुष पृथिवी हम कूं दीन्ही।।15।।
चंचल रूप भया मन बौरा। मनमोहिनी ठगिया भौंरा।।16।।
सतपुरुष के ना मन भाये। पुरुष लोक से हम चलि आये।।17।।
अगर दीप सुनत बड़भागी। सहज दास मेटो मन पागी।।18।।
बोले सहजदास दिल दानी। हम तो चाकर सत सहदानी।।19।।
सतपुरुष सें अरज गुजारूं। जब तुम्हारा बिवाण उतारूं।।20।।
सहज दास को कीया पीयाना। सत्यलोक लीया प्रवाना।।21।।
सतपुरुष साहिब सरबंगी। अविगत अदली अचल अभंगी।।22।।
धर्मराय तुम्हरा दरबानी। अगर दीप चलि गये प्रानी।।23।।
कौंन हुकम करी अरज अवाजा। कहां पठावौ उस धर्मराजा।।24।।
भई अवाज अदली एक साचा। विषय लोक जा तीन्यूं बाचा।।25।।
सहज विमाँन चले अधिकाई। छिन में अगर दीप चलि आई।।26।।
हमतो अरज करी अनरागी। तुम्ह विषय लोक जावो बड़भागी।।27।।
धर्मराय के चले विमाना। मानसरोवर आये प्राना।।28।
मानसरोवर रहन न पाये। दरै कबीरा थांना लाये।।29।।
बंकनाल की विषमी बाटी। तहां कबीरा रोकी घाटी।।30।।
इन पाँचों मिलि जगत बंधाना। लख चैरासी जीव संताना।।31।।
ब्रह्मा विष्णु महेश्वर माया। धर्मराय का राज पठाया।।32।।
यौह खोखा पुर झूठी बाजी। भिसति बैकुण्ठ दगासी साजी।।33।।
कृतिम जीव भुलांनें भाई। निज घर की तो खबरि न पाई।।34।।
सवा लाख उपजें नित हंसा। एक लाख विनशें नित अंसा।।35।।
उपति खपति प्रलय फेरी। हर्ष शोक जौंरा जम जेरी।।36।।
पाँचों तत्त्व हैं प्रलय माँही। सत्त्वगुण रजगुण तमगुण झांई।।37।।
आठों अंग मिली है माया। पिण्ड ब्रह्माण्ड सकल भरमाया।।38।।
या में सुरति शब्द की डोरी। पिण्ड ब्रह्माण्ड लगी है खोरी।।39।।
श्वासा पारस मन गह राखो। खोल्हि कपाट अमीरस चाखो।।40।।
सुनाऊं हंस शब्द सुन दासा। अगम दीप है अग है बासा।।41।।
भवसागर जम दण्ड जमाना। धर्मराय का है तलबांना।।42।।
पाँचों ऊपर पद की नगरी। बाट बिहंगम बंकी डगरी।।43।।
हमरा धर्मराय सों दावा। भवसागर में जीव भरमावा।।44।।
हम तो कहैं अगम की बानी। जहाँ अविगत अदली आप बिनानी।।45।।
बंदी छोड़ हमारा नामं। अजर अमर है अस्थीर ठामं।।46।।
जुगन जुगन हम कहते आये। जम जौंरा सें हंस छुटाये।।47।।
जो कोई मानें शब्द हमारा। भवसागर नहीं भरमें धारा।।48।।
या में सुरति शब्द का लेखा। तन अंदर मन कहो कीन्ही देखा।।49।।
दास गरीब अगम की बानी। खोजा हंसा शब्द सहदानी।।50।।
उपरोक्त अमृतवाणी का भावार्थ है कि आदरणीय गरीबदास साहेब जी कह रहे हैं कि यहाँ पहले केवल अंधकार था तथा पूर्ण परमात्मा कबीर साहेब जी सत्यलोक में तख्त (सिंहासन) पर विराजमान थे। हम वहाँ चाकर थे। परमात्मा ने ज्योति निरंजन को उत्पन्न किया। फिर उसके तप के प्रतिफल में इक्कीस ब्रह्माण्ड प्रदान किए। फिर माया (प्रकृति) यानि देवी दुर्गा की उत्पत्ति की। युवा दुर्गा के रूप पर मोहित होकर ज्योति निरंजन (काल ब्रह्म) ने दुर्गा (प्रकृति) से बलात्कार करने की चेष्टा की। ब्रह्म को उसकी सजा मिली। उसे सत्यलोक से निकाल दिया तथा शाप लगा कि एक लाख मानव शरीर धारी प्राणियों का प्रतिदिन आहार करेगा, सवा लाख उत्पन्न करेगा।
काल ब्रह्म ने देवी दुर्गा से विवाह किया। तीन पुत्र उत्पन्न हुए। रजगुण युक्त ब्रह्मा, सतगुण युक्त विष्णु तथा तमगुण युक्त शिव को सुनियोजित षड़यंत्र के तहत उत्पन्न किया है। काल ब्रह्म अपने आहार के लिए अपने तीनों पुत्रों से उत्पत्ति, स्थिति तथा संहार करवाता है। इस षड़यंत्र की पोल परम अक्षर ब्रह्म यानि सतपुरूष जी ने पृथ्वी पर आकर खोली है। सब जीव अज्ञानता के कारण इन्हीं ब्रह्मा, विष्णु, शिव तथा देवी व अन्य देवताओं को पूर्ण परमात्मा मानकर भक्ति करते हैं। काल के जाल से निकल नहीं पाते। जन्म-मरण के चक्र में कष्ट उठा रहे हैं। कोई जीव काल ब्रह्म के इक्कीस ब्रह्मण्डों में सुखी नहीं है। ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश भी यहाँ कष्ट पर कष्ट उठाते हैं। इसी पुस्तक के पृष्ठ 43 पर लगी श्री देवी पुराण के प्रथम स्कंध के अध्याय 4 की फोटोकाॅपी में श्री विष्णु जी ने ब्रह्मा जी से कहा है कि मैं सदा तप करने में लगा रहता हूँ। (तप से सिद्धि-शक्ति प्राप्त करके यानि बैट्री चाॅर्ज करके) फिर राक्षसों से युद्ध करता रहता हूँ। जनता को दुःख देने वाले दानवों को मारता हूँ। कभी सौभाग्य से समय मिला तो लक्ष्मी के साथ सुखपूर्वक समय व्यतीत करता हूँ।
इस प्रकरण से सिद्ध हो जाता है कि यहाँ सर्व प्राणी जन्म-मृत्यु का कष्ट उठा रहे हैं। यदि कोई पूर्ण परमात्मा का वास्तविक शब्द (सच्चानाम जाप मंत्र) हमारे से प्राप्त करेगा, उसको काल की बंद से छुड़वा देंगे। हमारा बन्दी छोड़ नाम है। आदरणीय गरीबदास जी अपने गुरु व प्रभु कबीर जी के आधार पर कह रहे हैं कि सच्चे मंत्र अर्थात् सत्यनाम व सारशब्द की प्राप्ति कर लो, पूर्ण मोक्ष हो जायेगा। नहीं तो नकली नाम देने वाले शास्त्र विरूद्ध ज्ञान बताने वाले संतों व महन्तों की मीठी-मीठी बातों में फंसकर शास्त्रविधि रहित साधना करके काल जाल में रह जाओगे। फिर कष्ट पर कष्ट उठाओगे।
।।गरीबदास जी महाराज की वाणी।।
माया आदि निरंजन भाई, अपने जाऐ आपै खाई।।
ब्रह्मा विष्णु महेश्वर चेला, ऊँ सोहं का है खेला।।
शिखर सुन्न में धर्म अन्यायी, जिन शक्ति डायन महल पठाई।।
लाख ग्रासै नित उठ दूती, माया आदि तख्त की कुती।।
सवा लाख घड़िये नित भांडे, हंसा उतपति परलय डांडे।।
ये तीनों चेला बटपारी, सिरजे पुरुषा सिरजी नारी।।
खोखापुर में जीव भुलाये, स्वपना बहिस्त वैकुंठ बनाये।।
यो हरहट का कुआ लोई, या गल बंध्या है सब कोई।।
कीड़ी कुजंर और अवतारा, हरहट डोरी बंधे कई बारा।
अरब अलील इन्द्र हैं भाई, हरहट डोरी बंधे सब आई।।
शेष महेश गणेश्वर ताहिं, हरहट डोरी बंधे सब आहिं।
शुक्रादिक ब्रह्मादिक देवा, हरहट डोरी बंधे सब खेवा।।
कोटिक कर्ता फिरता देख्या, हरहट डोरी कहूँ सुन लेखा।
चतुर्भुजी भगवान कहावैं, हरहट डोरी बंधे सब आवैं।।
यो है खोखापुर का कुआ, या में पड़ा सो निश्चय मुवा।।
ज्योति निरंजन (कालबली) के वश होकर के ये तीनों देवता (रजगुण-ब्रह्मा, सतगुण-विष्णु, तमगुण-शिव) अपनी महिमा दिखाकर जीवों को स्वर्ग नरक तथा भवसागर में (लख चैरासी योनियों में) भटकाते रहते हैं। ज्योति निरंजन अपनी माया से नागिनी की तरह जीवों को पैदा करता है और फिर मार देते हैं। नागिन अपने बच्चों को खाती है। उसी प्रकार ज्योति निरंजन उत्पन्न करता है तथा मारता है। ज्योति निरंजन (काल) एक लाख मानव शरीर प्रतिदिन खाता है। उदाहरण बताया है कि नागिन अपने अण्डों से बच्चे निकालते समय अपने शरीर के पिछले भाग से (फन से आगे वाले भाग से) अण्डों के चारों ओर घेरा लगा लेती है। फिर अण्डों को अपना फन (मुख) मार-मारकर फोड़ती है। अण्डों से बच्चे निकलते ही भागने लगते हैं। नागिन उनको खाने लगती है। जो कोई उसके शरीर के ऊपर से होकर घेरे से बाहर निकल जाते हैं, वे ही बच पाते हैं। नहीं तो कुण्डली में वह (नागिनी) छोड़ती नहीं। जितने बच्चे उस कुण्डली के अन्दर होते हैं, उन सबको खा जाती है।
माया काली नागिनी, अपने जाये खात। कुण्डली में छोड़ै नहीं, सौ बातों की बात।।
इसी प्रकार यह कालबली का जाल है। निरंजन तक की भक्ति पूरे संत से नाम लेकर करेगें तो भी इस निरंजन की कुण्डली (इक्कीस ब्रह्माण्डों) से बाहर नहीं निकल सकते। स्वयं ब्रह्मा, विष्णु, महेश, आदि माया शेराँवाली भी निरंजन की कुण्डली में है। ये अवतार धार कर आते हैं और जन्म-मृत्यु का चक्कर काटते रहते हैं। इसलिए विचार करें सोहं जाप जो कि ध्रुव व प्रहलाद व शुकदेव ऋषि ने जपा, वह भी पार नहीं हुए। क्योंकि श्री विष्णु पुराण के प्रथम अंश के अध्याय 12 के श्लोक 93 में पृष्ठ 51 पर लिखा है कि ध्रुव केवल एक कल्प अर्थात् एक हजार चतुर्युग तक ही मुक्त है। इसलिए काल लोक में ही रहे तथा ‘ॐ नमः भगवते वासुदेवाय नमः’ मन्त्र जाप करने वाले भक्त भी कृष्ण तक की भक्ति कर रहे हैं, वे भी चैरासी लाख योनियों के चक्कर काटने से नहीं बच सकते। यह परम पूज्य कबीर साहिब जी व आदरणीय गरीबदास साहेब जी महाराज की वाणी प्रत्यक्ष प्रमाण देती हैं।
अनन्त कोटि अवतार हैं, माया के गोविन्द। कर्ता हो हो अवतरे, बहुर पड़े जग फंध।।
सतपुरुष कबीर साहिब जी की भक्ति से ही जीव मुक्त हो सकता है। जब तक जीव सतलोक में वापिस नहीं चला जाएगा तब तक काल लोक में इसी तरह कर्म करेगा और की हुई नाम व दान धर्म की कमाई स्वर्ग रूपी होटलों में समाप्त करके वापिस कर्म आधार से चैरासी लाख प्रकार के प्राणियों के शरीर में कष्ट भोगता रहेगा तथा इस काल लोक में चक्कर काटता रहेगा। माया (दुर्गा) से उत्पन्न हो कर करोड़ों गोबिन्द(ब्रह्मा-विष्णु-शिव) मर चुके हैं। भगवान का अवतार बन कर आये थे। फिर कर्म बन्धन में बन्ध कर कर्मों को भोग कर चैरासी लाख योनियों में चले गए। जैसे भगवान विष्णु जी को देवर्षि नारद का शाप लगा। वे श्री रामचन्द्र रूप में अयोध्या में आए। फिर श्री राम जी रूप में बाली का वध किया था। उस कर्म का दण्ड भोगने के लिए श्री कृष्ण जी का जन्म हुआ। फिर बाली वाली आत्मा शिकारी बना तथा अपना प्रतिशोध लिया। श्री कृष्ण जी के पैर में विषाक्त तीर मार कर वध किया।
महाराज गरीबदास जी अपनी वाणी में कहते हैं:
ब्रह्मा विष्णु महेश्वर माया, और धर्मराय कहिये।
इन पाँचों मिल परपंच बनाया, वाणी हमरी लहिये।।
इन पाँचों मिल जीव अटकाये, जुगन-जुगन हम आन छुटाये।
बन्दी छोड़ हमारा नामं, अजर अमर है अस्थिर ठामं।।
पीर पैगम्बर कुतुब औलिया, सुर नर मुनिजन ज्ञानी।
येता को तो राह न पाया, जम के बंधे प्राणी।।
धर्मराय की धूमा-धामी, जम पर जंग चलाऊँ।
जोरा को तो जान न दूगां, बांध अदल घर ल्याऊँ।।
काल अकाल दोहूँ को मोसूं, महाकाल सिर मूंडू।
मैं तो तख्त हजूरी हुकमी, चोर खोज कूं ढूंढू।।
मूला माया मग में बैठी, हंसा चुन-चुन खाई।
ज्योति स्वरूपी कह निरंजन, मैं ही कर्ता भाई।।
संहस अठासी दीप मुनीश्वर, बंधे मुला डोरी।
ऐत्यां में जम का तलबाना, चलिए पुरुष कीशोरी।।
मूला का तो माथा दागूं, सतकी मोहर करूंगा।
पुरुष दीप कूं हंस चलाऊँ, दरा न रोकन दूंगा।।
हम तो बन्दी छोड़ कहावां, धर्मराय है चकवै।
सतलोक की सकल सुनावां, वाणी हमरी अखवै।।
नौ लख पटट्न ऊपर खेलूं, साहदरे कूं रोकूं।
द्वादस कोटि कटक सब काटूं, हंस पठाऊँ मोखूं।।
चैदह भुवन गमन है मेरा, जल थल में सरबंगी।
खालिक खलक खलक में खालिक, अविगत अचल अभंगी।।
अगर अलील चक्र है मेरा, जित से हम चल आए।
पाँचों पर प्रवाना मेरा, बंधि छुटावन धाये।।
जहाँ ओंकार निरंजन नाहीं, ब्रह्मा विष्णु वेद नहीं जाहीं।
जहाँ कर्ता नहीं काल भगवाना, काया माया पिण्ड न प्राणा।।
पाँच तत्व तीनों गुण नाहीं, जोरा काल दीप नहीं जाहीं।
अमर करूं सतलोक पठाँऊ, तातैं बन्दी छोड़ कहाऊँ।।
अर्थात् संत गरीबदास जी ने कबीर परमेश्वर से प्राप्त ज्ञान को बताया है कि श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी, श्री शिव जी, श्री देवी दुर्गा जी तथा ज्योति निरंजन काल, इन पाँचों ने षड़यंत्र के तहत सब जीवों को रोक रखा है।
यही प्रमाण श्री मद्भगवत गीता अध्याय 14 श्लोक 3 से 5 में भी है कि रज् (रजगुण ब्रह्मा), सत् (सतगुण विष्णु), तम् (तमगुण शंकर) तीनों गुण प्रकृति अर्थात् दुर्गा देवी से उत्पन्न हुए हैं। प्रकृति तो सब जीवों को उत्पन्न करने वाली माता है। मैं (गीता ज्ञान दाता) सब जीवों का पिता हूँ। मैं दुर्गा (प्रकृति) के गर्भ में बीज स्थापित करता हूँ जिससे सबकी उत्पत्ति होती है।
ये तीनों गुण (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिव) ही जीवात्मा को शरीर में बाँधते हैं यानि सब जीवों को काल के जाल में फसांकर रखने वाले ये ही तीनों देवता हैं। यही प्रमाण गीता अध्याय 7 श्लोक 12.15 में है कि जिनकी बुद्धि तीनों गुणों (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिव) से मिलने वाले क्षणिक लाभ तक सीमित है यानि जिनका ज्ञान हरा जा चुका है, वे राक्षस स्वभाव को धारण किए हुए, मनुष्यों में नीच, दूषित कर्म करने वाले मूर्ख हैं जो मुझे (गीता ज्ञान दाता को) नहीं भजते।
कबीर परमेश्वर (कविर्देव) की महिमा बताते हुए आदरणीय गरीबदास साहेब जी कह रहे हैं कि हमारे प्रभु कविर् (कविर्देव) बन्दी छोड़ हैं। {बन्दी छोड़ का भावार्थ है काल की कारागार से छुटवाने वाला, काल ब्रह्म के इक्कीस ब्रह्माण्डों में सर्व प्राणी पापों के कारण काल के बंदी हैं। पूर्ण परमात्मा (कविर्देव) कबीर साहेब पाप का विनाश कर देते हैं। पापों का विनाश न ब्रह्म, न परब्रह्म, न ही ब्रह्मा, विष्णु, शिव जी कर सकते हैं। केवल जैसा कर्म है, उसका वैसा ही फल दे देते हैं। इसीलिए यजुर्वेद अध्याय 5 के मन्त्र 32 में लिखा है ‘कविरंघारिरसि‘ कविर्देव (कबीर परमेश्वर) पापों का शत्रु है, ‘बम्भारिरसि‘ बन्धनों का शत्रु अर्थात् बन्दी छोड़ है।}
इन पाँचों (ब्रह्मा-विष्णु-शिव-माया और धर्मराय) से ऊपर सतपुरुष परमात्मा (कविर्देव) है जो सतलोक में रहता है, सबका मालिक है और सर्व परब्रह्म-ब्रह्म तथा ब्रह्मा-विष्णु-शिव जी व आदि माया नाशवान हैं। महाप्रलय में ये सब तथा इनके लोक समाप्त हो जाएंगे। इन देवताओं की आम जीव से कई हजार गुणा ज्यादा लम्बी आयु है। परन्तु जो समय निर्धारित है वह एक दिन पूरा अवश्य होगा।
आदरणीय गरीबदास जी महाराज कहते हैं:-
शिव ब्रह्मा का राज, इन्द्र गिनती कहां। चार मुक्ति वैकुंण्ठ समझ, येता लह्या।।
संख जुगन की जुनी, उम्र बड़ धाारिया। जा जननी कुर्बान, सु कागज पारिया।।
येती उम्र बुलंद मरैगा अंत रे। सतगुरु लगे न कान, न भैंटे संत रे।।
चाहे संख युग की लम्बी उम्र भी क्यों न हो वह एक दिन समाप्त जरूर होगी। यदि सतपुरुष परमात्मा (कविर्देव) कबीर साहेब के नुमाँयदे पूर्ण संत(गुरु) जो तीन नाम का मंत्र (जिसमें एक ओ3म + तत् + सत् सांकेतिक हैं) देता है तथा उसे पूर्ण संत द्वारा नाम दान करने का आदेश है, उससे उपदेश लेकर नाम की कमाई करेंगे तो हम सतलोक के अधिकारी हंस हो सकते हैं। सत्य साधना बिना बहुत लम्बी उम्र कोई काम नहीं आएगी क्योंकि निरंजन का लोक दुःखालय है यानि यहाँ पर दुःख ही दुःख है।
कबीर, जीवना तो थोड़ा ही भला, जै सत सुमरन होय।
लाख वर्ष का जीवना, लेखै धरै ना कोय।।
कबीर साहिब अपनी (पूर्णब्रह्म की) जानकारी स्वयं बताते हैं कि इन परमात्माओं से ऊपर असंख्य भुजा का परमात्मा सतपुरुष है जो सत्यलोक (सच्च खण्ड, सतधाम) में रहता है तथा उसके अन्तर्गत सर्वलोक ख्ब्रह्म (काल) के 21 ब्रह्माण्ड व ब्रह्मा, विष्णु, शिव शक्ति के लोक तथा परब्रह्म के सात संख ब्रह्माण्ड व अन्य सर्व ब्रह्माण्ड, आते हैं और वहाँ पर सत्यनाम-सारनाम के जाप द्वारा जाया जाएगा जो पूरे गुरु से प्राप्त होता है। सच्चखण्ड (सतलोक) में जो आत्मा चली जाती है उसका पुनर्जन्म नहीं होता। सतपुरुष (पूर्णब्रह्म) कबीर साहेब (कविर्देव) ही अन्य लोकों में स्वयं ही भिन्न-भिन्न नामों से विराजमान हैं। जैसे अलख लोक में अलख पुरुष, अगम लोक में अगम पुरुष तथा अकह लोक में अनामी पुरुष रूप में विराजमान हैं। ये तो उपमात्मक नाम हैं, परन्तु वास्तविक नाम उस पूर्ण पुरुष का कविर्देव (भाषा भिन्न होकर कबीर साहेब) है।
प्रश्न 7: यह कहाँ प्रमाण है कि रजगुण ब्रह्मा है, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शंकर है?
उत्तर: प्रमाण नं. 1. श्री मार्कण्डेय पुराण (सचित्र मोटा टाईप गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित) के अध्याय 25 में 131 पृष्ठ पर कहा है कि रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शंकर, तीनों ब्रह्म की प्रधान शक्तियाँ है, ये ही तीन देवता हैं। ये ही तीन गुण हैं।
पेश है प्रमाण के लिए संक्षिप्त मार्कण्डेय पुराण से संबंधित प्रकरण की फोटोकाॅपी:-
प्रमाण नं. 2. श्री देवी महापुराण संस्कृत व हिन्दी अनुवाद {श्री वैंकटेश्वर प्रैस बम्बई (मुंबई) से प्रकाशित} में तीसरे स्कन्ध अध्याय 5 श्लोक 8 में लिखा है कि
शंकर भगवान बोले, हे मातः! यदि आप हम पर दयालु हैं तो मुझे तमोगुण, ब्रह्मा रजोगुण तथा विष्णु सतोगुण युक्त क्यों किया?
पेश है प्रमाण के लिए श्री देवी महापुराण तीसरा स्कंध के अध्याय 5 से संबंधित प्रकरण की फोटोकाॅपी:-
इस देवीपुराण की फोटोकाॅपी में स्पष्ट है कि श्री शिव जी ने अपनी माता देवी दुर्गा से दुःखी मन से कहा कि हे मातः! यदि आप हम पर दयालु हैं तो मेरे को तमगुण युक्त क्यों उत्पन्न किया, विष्णु को सतगुण तथा ब्रह्मा को रजगुण युक्त क्यों उत्पन्न किया? यह भाव व्यक्त करने का अर्थ यह है कि ये तीनों भी समझते हैं कि यहाँ सब जीव दुःखी हैं।
इनकी उत्पत्ति का ब्रह्मा का रजगुण कारण है जिससे प्रभावित होकर परवश हुए नर-मादा मिलन करते हैं। जीव उत्पन्न होते हैं। ऋषियों ने कामदेव से बचने के लिए घोर तप किए। एकांत वास किया। लेकिन अंत में हार गए। स्त्री भोग किया। विष्णु जी के सतगुण के प्रभाव से एक-दूसरे में मोह उत्पन्न होता है। जैसे द्रोणाचार्य को पता चला कि उनका पुत्र अश्वथामा युद्ध में मर गया तो वह पुत्र मोह के कारण हथियार भी नहीं उठा सका। इतना बेहाल हो गया कि युद्ध नहीं कर सका। कितना बलवान निपुण योद्धा धनुषधारी था। कतई टूट गया। जब श्रवण को राजा दशरथ का तीर लगा और वह मर गया। श्रवण भक्त के माता-पिता को पता चला तो रो-रो कर तड़फ-तड़फकर प्राण त्याग दिए तथा राजा दशरथ को श्राप भी दे दिया कि तुम भी हमारी तरह पुत्र वियोग में मरोगे। ऐसा ही हुआ। जब श्री रामचन्द्र पुत्र दशरथ वनवास में जाने लगे तो दशरथ राजा पुत्र मोह के कारण पुत्र को देखने के लिए महल पर चढ़ गया। कुछ दूर रामचन्द्र चला गया तो महल के ऊपर बने चैबारे के ऊपर चढ़कर देखने लगा। फिर चैबारे की तीन फुट ऊँची मंडेर पर चढ़ गया। पैर फिसलकर गिर गया। गिरते ही मर गया। यह सतगुण विष्णु से स्थिति होती है यानि एक-दूसरे से मोह बनाकर काल के जाल में फंसे रहें। शिव जी के तमगुण से क्रोधवश जीव झगड़ा करके कत्ल कर देता है। राजा लोग आपस में लड़-मरते हैं। हजारों सैनिक मारे जाते हैं। इस प्रकार संहार का कार्य श्री शिव जी तमगुण से होता है। यह सब काल ब्रह्म करवा रहा है।
इसलिए शिव जी ने दुःखी मन से अपनी माता देवी दुर्गा से प्रश्न किया था। काल ब्रह्म ने देवी जी को सख्त हिदायत दे रखी है कि मेरा व मेरे षड़यंत्र का भेद किसी को नहीं बताएगी। अपने पुत्रों को भी नहीं बताना है। यदि पता चल गया तो जब सतपुरूष का भेजा संत आएगा तो सब उसकी शरण में जाकर सत्य साधना करके मेरे लोक से चले जाएँगे। मेरी क्षुधा (भूख) कैसे शांत होगी? काल ब्रह्म (ज्योति निरंजन) के डर से देवी किसी को यह भेद नहीं बताती। परमेश्वर कबीर जी ने आकर यह भेद बताया है। दास (रामपाल दास) ने समझाया है।
- उपरोक्त प्रमाणों से सिद्ध हुआ कि रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी तथा तमगुण शंकर जी हैं। ये ही तीन देवता हैं, ये ही तीन गुण हैं।
प्रश्न 8:- परमात्मा को अजन्मा, अजर-अमर कहते हैं। उपरोक्त प्रकरण तथा प्रमाणों से सिद्ध
हुआ कि श्री ब्रह्मा श्री विष्णु तथा श्री शंकर तीनों नाशवान हैं, फिर अविनाशी परमात्मा कौन है, क्या ब्रह्मा, विष्णु तथा शंकर और काल ब्रह्म परमात्मा नहीं हैं? प्रमाण सहित बताऐं:-
उत्तर:- पहले स्पष्ट करता हूँ कि श्री ब्रह्मा, श्री विष्णु, श्री शंकर तथा ब्रह्म परमात्मा है या नहीं। यह तो आपने अपने प्रश्न में ही सिद्ध कर दिया कि परमात्मा तो अजन्मा अर्थात् जिसका कभी जन्म न हुआ हो, वह होता है, पूर्वोक्त विवरण तथा प्रमाणों से सिद्ध हो चुका है कि ब्रह्मा, विष्णु और शंकर के माता-पिता हैं। इनका पिता ब्रह्म भी नाशवान है, इसका भी जन्म हुआ है, इससे स्वसिद्ध हुआ कि ये परमात्मा नहीं हैं। अब प्रश्न रहा फिर अविनाशी कौन है? इसके उत्तर में श्री मद्भगवत गीता से ही प्रमाणित करते हैं कि अविनाशी परमात्मा गीता ज्ञान देने वाले (ब्रह्म) से अन्य है। श्री मद्भगवत गीता अध्याय 2 श्लोक 12, गीता अध्याय 4 श्लोक 5, गीता अध्याय 10 श्लोक 2 में गीता ज्ञान दाता ने अपनी स्थिति स्पष्ट कर दी कि मेरी उत्पत्ति हुई है, मैं जन्मता-मरता हूँ, अर्जुन मेरे और तेरे बहुत जन्म हो चुके हैं, मैं भी नाशवान हूँ। गीता अध्याय 2 श्लोक 17 में कहा है कि अविनाशी तो उसको जान जिसको मारने में कोई भी सक्षम नहीं है और जिस परमात्मा ने सर्व की रचना की है, अविनाशी परमात्मा का यह प्रथम प्रमाण हुआ।
प्रमाण नं. 2: श्री मद्भगवत गीता अध्याय 15 श्लोक 16-17 में तीन पुरूष (प्रभु) कहे हैं। गीता अध्याय 15 श्लोक 16 में कहा है कि इस लोक में दो पुरूष प्रसिद्ध हैं:- क्षर पुरूष तथा अक्षर पुरूष। ये दोनों प्रभु तथा इनके अन्तर्गत सर्व प्राणी नाशवान हैं, आत्मा तो सबकी अमर है। गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में कहा है कि उत्तम पुरूष अर्थात् पुरूषोत्तम तो कोई अन्य ही है, जिसे परमात्मा कहा गया है जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है, वह वास्तव में अविनाशी है।
गीता अध्याय 7 श्लोक 29 में कहा है कि जो साधक केवल जरा (वृद्धावस्था), मरण (मृत्यु), दुःख से छूटने के लिए प्रयत्न करते हैं। वे ‘‘तत् ब्रह्म’’ को जानते हैं, सब कर्मों तथा सम्पूर्ण अध्यात्म से परिचित हैं। गीता अध्याय 8 श्लोक 1 में अर्जुन ने पूछा कि “तत् ब्रह्म” क्या है? गीता ज्ञान दाता ने अध्याय 8 श्लोक 3 में उत्तर दिया कि वह “परम अक्षर ब्रह्म‘‘ है अर्थात् परम अक्षर पुरूष है। (पुरूष कहो चाहे ब्रह्म) गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में जो ’’उत्तम पुरूषः तु अन्यः परमात्मा इति उदाहृतः’’ कहा है, वह “परम अक्षर ब्रह्म” है, इसी को पुरूषोत्तम कहा है।
स्पष्टीकरण:- गीता अध्याय 15 श्लोक 18 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि मैं उन सर्व प्राणियों से उत्तम अर्थात् शक्तिमान हूँ जो मेरे 21 ब्रह्माण्डों में रहते हैं, इसलिए लोकवेद अर्थात् दन्त कथा के आधार से मैं पुरूषोत्तम प्रसिद्ध हूँ। वास्तव में पुरूषोत्तम तो गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में स्पष्ट कर दिया। उत्तम पुरूष अर्थात् पुरूषोत्तम तो क्षर पुरूष (गीता ज्ञान दाता) तथा अक्षर पुरूष (जो 7 शंख ब्रह्माण्डों का स्वामी है) से अन्य ही है, वही परमात्मा कहा जाता है। वह सर्व का धारण-पोषण करता है, वास्तव में अविनाशी है। वह “परम अक्षर ब्रह्म” है जो असंख्य ब्रह्माण्डों का मालिक है जो सर्व सृजनहार है, कुल का मालिक है अर्थात् परमात्मा है।
प्रश्न 9:- अक्षर का अर्थ अविनाशी होता है। आपने गीता अध्याय 15 श्लोक 16 में भी अक्षर
पुरूष को भी नाशवान बताया है, स्पष्ट करें।
उत्तर:- यह सत्य है कि “अक्षर” का अर्थ अविनाशी होता है, परन्तु प्रकरणवश अर्थ अन्य भी होता है। गीता अध्याय 15 श्लोक 16 में कहा है कि क्षर और अक्षर ये दो पुरूष (प्रभु) इस लोक में है, ये दोनों नाशवान हैं तथा इनके अन्तर्गत जितने जीव हैं, वे भी नाशवान हैं, आत्मा किसी की भी नहीं मरती। फिर गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में स्पष्ट किया है कि पुरूषोत्तम तो उपरोक्त दोनों प्रभुओं से अन्य है। वही सबका धारण-पोषण करने वाला वास्तव में अविनाशी है। गीता अध्याय 8 श्लोक 3 में तत् ब्रह्म को परम अक्षर ब्रह्म कहा है। अक्षर का अर्थ अविनाशी है, परन्तु यहाँ परम अक्षर ब्रह्म कहा है। इससे भी सिद्ध हुआ कि अक्षर से आगे परम अक्षर ब्रह्म है, वह वास्तव में अविनाशी है।
प्रमाण:- जैसे ब्रह्मा जी की आयु 100 वर्ष बताई जाती है, देवताआंे का वर्ष कितने समय का है? सुनो! चार युग (सत्ययुग, त्रोतायुग, द्वापरयुग तथा कलयुग) का एक चतुर्युग होता है जिसमें मनुष्यों के 43,20,000 (त्रितालीस लाख बीस हजार) वर्ष होते हैं। इस प्रकार बने 1008 चतुर्युग का ब्रह्मा जी का दिन और इतनी ही रात्रि होती है, ऐसे 30 दिन-रात्रि का एक महीना तथा 12 महीनों का ब्रह्मा जी का एक वर्ष हुआ। ऐसे 100 (सौ) वर्ष की श्री ब्रह्मा जी की आयु है।
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श्री विष्णु जी की आयु श्री ब्रह्मा जी से 7 गुणा है। = 700 वर्ष।
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श्री शंकर जी की आयु श्री विष्णु जी से 7 गुणा अधिक = 4900 वर्ष।
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ब्रह्म (क्षर पुरूष) की आयु = 70 हजार शंकर की मृत्यु के पश्चात् एक ब्रह्म की मृत्यु होती है अर्थात् क्षर पुरूष की मृत्यु होती है। इतने समय का अक्षर पुरूष का एक युग होता है।
अक्षर पुरूष की आयु:- गीता अध्याय 8 श्लोक 17 में कहा है:-
सहंस्र युग पर्यन्तम् अहः यत् ब्रह्मणः विदुः।
रात्रिम् युग सहंस्रान्तम् ते अहोरात्र विदः जनाः।। (17)
अनुवाद:- आज तक सर्व अनुवादकर्ताओं ने उचित अनुवाद नहीं किया। सबने ब्रह्मा का एक हजार चतुर्युग लिखा है, यह गलत है।
पेश है गीता अध्याय 8 श्लोक 17 के अनुवाद की फोटोकाॅपी जो गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित है:-
मूल पाठ में “सहस्र युग” लिखा है, न कि सहस्र चतुर्युग। इसलिए गीता अध्याय 8 श्लोक 17 का अनुवाद ऐसे बनता है:- (ब्रह्मणः) अक्षर पुरूष का (यत) जो (अहः) दिन है वह (सहस्रयुग प्रयन्तम्) एक हजार युग की अवधि वाला और (रात्रिम्) रात्रि को भी (युग सहस्रान्तम्) एक हजार युग की अवधि वाली जो पुरूष (विदुः) जानते हैं (ते) वे (जना) व्यक्ति (अहोरात्र) दिन-रात को (विदः) जानने वाले हैं।
भावार्थ:- इस श्लोक में “ब्रह्मा” शब्द मूल पाठ में नहीं है और न ही “चतुर युग” शब्द मूल पाठ में है, इसमें “ब्रह्मणः” शब्द है जिसका अर्थ सचिदानन्द ब्रह्म अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म होता है, परंतु प्रकरण अनुसार ब्रह्मणः का अर्थ ब्रह्म से अन्य परब्रह्म (अक्षर ब्रह्म) भी होता है।
प्रमाण:- गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में ब्रह्मणः का अर्थ सचिदानन्द घन ब्रह्म किया है, वह अनुवादकों ने ठीक किया है। इस गीता अध्याय 8 श्लोक 17 में आयु का प्रकरण है। इसलिए यहाँ पर “ब्रह्मण” का अर्थ “अक्षर ब्रह्म” बनता है, यहाँ अक्षर पुरूष की आयु की जानकारी दी है। अक्षर पुरूष का एक दिन उपरोक्त एक हजार युग का होता है। {70 हजार शंकर की मृत्यु के पश्चात् एक क्षर पुरूष की मृत्यु होती है, वह समय एक युग अक्षर पुरूष का होता है।} ऐसे बने हुए एक हजार युग का अक्षर पुरूष का दिन तथा इतनी ही रात्रि होती है, ऐसे 30 दिन रात्रि का एक महीना तथा 12 महीनों का अक्षर पुरूष का एक वर्ष तथा ऐसे 100 वर्ष की अक्षर पुरूष की आयु है। इसके पश्चात् इसकी मृत्यु होती है, इसलिए गीता अध्याय 15 श्लोक 16 में क्षर पुरूष तथा अक्षर पुरूष दोनों नाशवान कहे हैं। गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में जो वास्तव में अविनाशी परमात्मा कहा है। यह परमात्मा सर्व प्राणियों के नष्ट होने पर भी नाश में नहीं आता।
पेश है गीता अध्याय 17 श्लोक 23 की फोटोकाॅपी जिसमें ब्रह्मणः का अर्थ ’सच्चिदानंद घन ब्रह्म‘ किया है:-
प्रमाण:- गीता अध्याय 8 श्लोक 20 से 22 में स्पष्ट है कि वह परम अक्षर ब्रह्म सब प्राणियों के नष्ट होने पर भी कभी नष्ट नहीं होता।
उदाहरण:- जैसे सफेद मिट्टी के बने कप-प्लेट होते हैं, उनका ज्ञान है कि हाथ से छूटे और पक्के फर्श पर गिरे और टूटे अर्थात् नाशवान “क्षर” है, यह स्थिति तो क्षर पुरूष की जानो।
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दूसरे कप-प्लेट स्टील (इस्पाॅत) के बने हों, वे बहुत समय उपरान्त जंग लगकर नष्ट होते हैं, शीघ्र नहीं टूटते व नष्ट नहीं होते। मिट्टी के बने कप-प्लेट की तुलना में स्टील के कप-प्लेट चिर-स्थाई हैं, अविनाशी प्रतीत होते हैं, परन्तु हैं नाशवान। इसी प्रकार स्थिति “अक्षर पुरूष” की जानो।
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तीसरे कप-प्लेट सोने के बने हों। वे कभी नष्ट नहीं होते, उनको जंग नहीं लगता। यह स्थिति “परम अक्षर ब्रह्म” की जानो। यह वास्तव में अविनाशी हैं, इसलिए प्रकरणवश “अक्षर” का अर्थ नाशवान भी होता है, वास्तव में अक्षर का अर्थ अविनाशी होता है।
उदाहरण के लिए:- गीता अध्याय 8 श्लोक 11 में मूल पाठ =
यत् अक्षरम् वेद विदः वदन्ति विशन्ति यत् यतयः बीतरागाः।
यत् इच्छन्तः ब्रह्मचर्यम चरन्ति तत् ते पदम् संग्रहेण प्रवक्ष्ये।।(11)
अनुवाद: इस श्लोक में “अक्षर” का अर्थ अविनाशी परमात्मा के लिए हैः-(वेद विदः) तत्वदर्शी सन्त अर्थात् वेद के तात्पर्य को जानने वाले महात्मा (यत्) जिसे (अक्षरम्) अविनाशी (वदन्ति) कहते हैं। (यतयः) साधना रत (बीतरागा) आसक्ति रहित साधक (यत्) जिस लोक में (विशन्ति) प्रवेश करते हंै और (यत्) जिस परमात्मा को (इच्छन्तः) चाहने वाले साधक (ब्रह्म चर्यम) ब्रह्मचर्य अर्थात् शिष्य परम्परा का (चरन्ति) आचरण करते हैं, (तत्) उस (पदम्) पद को (ते) तेरे लिए मैं (संग्रहेण) संक्षेप में (प्रवक्ष्ये) कहूँगा। इस श्लोक में “अक्षर” का अर्थ अविनाशी परमात्मा ठीक है।
कबीर जी ने सूक्ष्म वेद में कहा है कि -
गुरू बिन काहू न पाया ज्ञाना, ज्यों थोथा भुस छिड़े मूढ़ किसाना।
गुरू बिन वेद पढ़े जो प्राणी, समझे ना सार रहे अज्ञानी।।
प्रश्न 10: आप पूर्ण मोक्ष किसे मानते हैं?
उत्तर:- गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में वर्णन है कि तत्वदर्शी सन्त की प्राप्ति के पश्चात् तत्वज्ञान रूपी शस्त्र से अज्ञान को काटकर अर्थात् अच्छी तरह ज्ञान समझकर उसके पश्चात् परमेश्वर के उस परमपद की (सत्यलोक की) खोज करनी चाहिए। जहाँ जाने के पश्चात् साधक फिर लौटकर संसार में कभी नहीं आते अर्थात् उनका जन्म कभी नहीं होता। जिस परमात्मा ने सर्व रचना की है, केवल उसी की भक्ति पूजा करो। पूर्ण मोक्ष उसी को कहते हंै जिसकी प्राप्ति के पश्चात् पुनः जन्म न हो। जन्म-मरण का चक्र सदा के लिए समाप्त हो जाए।
प्रश्न 11: क्या गीता ज्ञान दाता ब्रह्म की भक्ति से पूर्ण मोक्ष संभव है?
उत्तर: नहीं।
प्रश्न 12: गीता अध्याय 8 श्लोक 16 में प्रमाण है कि गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि हे अर्जुन!
मुझे प्राप्त होकर पुनर्जन्म नहीं होता। आप कैसे कहते हैं कि ब्रह्म भक्ति से पूर्ण मोक्ष संभव नहीं।
उत्तर: श्री देवी महापुराण (सचित्र मोटा टाईप केवल हिन्दी गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित) के सातवें स्कन्ध के अध्याय 36 में प्रमाण है कि श्री देवी जी ने राजा हिमालय को उपदेश देते हुए कहा है कि हे राजन! अन्य सब बातों को छोड़कर मेरी भक्ति भी छोड़कर केवल एक ऊँ नाम का जाप कर, “ब्रह्म” प्राप्ति का यही एक मंत्र है, इससे संसार के उस पार जो ब्रह्म है, उसको पा जाओगे, तुम्हारा कल्याण हो। वह ’’ब्रह्म‘‘ ब्रह्मलोक रूपी दिव्य आकाश में रहता है।
पेश है श्रीमद् देवीभागवत (देवी पुराण) के सातवें स्कन्ध के के अध्याय 36 से संबंधित प्रकरण की फोटोकाॅपी:-
भावार्थ है कि ब्रह्म साधना का केवल एक ओम् (ऊँ) नाम का जाप है, इससे ब्रह्म की प्राप्ति होती है और वह साधक ब्रह्म लोक में चला जाता है। इसी गीता अध्याय 8 श्लोक 16 में कहा है कि ब्रह्म लोक सहित सर्व लोक पुनरावर्ती में हैं अर्थात् ब्रह्मलोक में गए साधक का भी पुनर्जन्म होता है। ब्रह्म की भक्ति से पूर्ण मोक्ष नहीं होता। इस गीता अध्याय 8 श्लोक 16 का अनुवाद (गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित गीता में तथा अन्य प्रकाशन की गीता में) गलत किया है।
पेश है फोटोकाॅपी गीता अध्याय 8 श्लोक 16 की (गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित):-
इसका वास्तविक अनुवाद इस प्रकार है:- ब्रह्म लोक तक सर्व लोक पुनरावर्ती में हैं अर्थात् ब्रह्म लोक में भी गए व्यक्तियों का पुनर्जन्म होता है जो यह नहीं जानते हैं। हे अर्जुन! मुझे प्राप्त होकर भी उनका पुनर्जन्म होता है, इस श्लोक में “विद्यते” शब्द का अर्थ “जानना” बनता है। गीता अध्याय 6 श्लोक 23 में ‘‘विद्यात्‘‘ शब्द का अर्थ जानना किया है। यहाँ इस श्लोक में भी ‘‘विद्यते‘‘ का अर्थ ‘‘जानना‘‘ बनता है। देखें इसी पुस्तक में इसी श्लोक की फोटोकापी में। अधिक स्पष्ट करने के लिए गीता अध्याय 8 श्लोक 15 पर्याप्त है।
मूल पाठ:-माम् उपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयम् अशाश्वतम्।
न आप्नुवन्ति महात्मनः संसिद्धिम परमाम् गताः।। (8:15)
अनुवाद:- (माम) मुझे प्राप्त होकर (पुनर्जन्म) पुनर्जन्म होता है जो (अशाश्वतम्) नाशवान जीवन (दुःखालयम) दुखों का घर है। (परमाम्) परम (संसिद्धिम् गता) सिद्धि को प्राप्त (महात्मयः) महात्माजन (न आप्नुवन्ति) पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होते।(गीता अध्याय 8 श्लोक 15)
भावार्थ:- गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि मुझे प्राप्त होकर तो दुःखों का घर यह क्षणभंगुर जीवन जन्म-मरण होता है। जो महात्मा परम गति को प्राप्त हो जाते हैं, उनका पुनर्जन्म नहीं होता।
विचारें:- यदि गीता अध्याय 8 श्लोक 1 से 10 तक का सारांश निकालें जो इस प्रकार है:-
अर्जुन ने पूछा (गीता अध्याय 8 श्लोक 1) कि तत् ब्रह्म क्या है? गीता ज्ञान दाता ने गीता अध्याय 8 श्लोक 3 में उत्तर दिया कि वह “परम अक्षर ब्रह्म” है।
फिर गीता ज्ञान दाता ने अध्याय 8 श्लोक 5 व 7 में अपनी भक्ति करने को कहा है तथा गीता अध्याय 8 श्लोक 8, 9, 10 में “परम अक्षर ब्रह्म” की भक्ति करने को कहा है। अपनी भक्ति का मन्त्रा गीता अध्याय 8 श्लोक 13 में बताया है कि मुझ ब्रह्म का केवल एक ओम् (ऊँ) अक्षर है। उच्चारण करके स्मरण करता हुआ जो शरीर त्याग कर जाता है, वह परम गति को प्राप्त होता है। पूर्व में श्री देवी पुराण से सिद्ध कर आए हैं कि ऊँ का जाप करके ब्रह्म लोक प्राप्त होता है। गीता अध्याय 8 श्लोक 16 में स्पष्ट है कि ब्रह्म लोक में गए साधक का भी पुनर्जन्म होता है। इसलिए गीता अध्याय 8 श्लोक 13 में ऊँ नाम के जाप से होने वाली परम गति का वर्णन है, परन्तु गीता अध्याय 8 श्लोक 8, 9, 10 में जिस सच्चिदानन्द घन ब्रह्म अर्थात् परम दिव्य पुरूष की भक्ति करने को कहा है, उसका मन्त्रा गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में लिखा है।
ऊँ, तत्, सत्, इति, निर्देशः, ब्रह्मणः, त्रिविधः, स्मृतः
ब्राह्मणाः, तेन, वेदाः, च, यज्ञाः, च विहिताः, पुरा।।
अनुवाद:- सचिदानन्द घन ब्रह्म की भक्ति का मन्त्रा ‘‘ऊँ तत् सत्‘‘ है। “ऊँ‘‘ मन्त्र ब्रह्म यानि क्षर पुरूष का है। “तत्” यह सांकेतिक है जो अक्षर पुरूष का है। ‘‘सत्’’ मंत्र भी सांकेतिक मन्त्रा है जो परम अक्षर ब्रह्म का है। इन तीनों मन्त्रों के जाप से वह परम गति प्राप्त होगी जो गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में कही है कि जहाँ जाने के पश्चात् साधक फिर लौटकर संसार में कभी नहीं आते।
यदि गीता अध्याय 8 श्लोक 16 का यह अर्थ सही मानें कि मुझे प्राप्त होने वाले का पुनर्जन्म नहीं होता तो गीता अध्याय 2 श्लोक 12, गीता अध्याय 4 श्लोक 5, गीता अध्याय 10 श्लोक 2, गलत सिद्ध हो जाते हैं जिनमें गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि अर्जुन! तेरे और मेरे बहुत जन्म हो चुके हैं, तू नहीं जानता, मैं जानता हूँ। मेरी उत्पत्ति को न देवता जानते, न महर्षिगण तथा न सिद्ध जानते। विचारणीय विषय यह है कि जब साध्य इष्ट का ही जन्म-मृत्यु होता है तो साधक को वह मोक्ष कैसे प्राप्त हो सकता है जिससे पुनर्जन्म नहीं होता है।
इसलिए गीता अध्याय 8 श्लोक 16 का अनुवाद जो मैंने (रामपाल दास ने) ऊपर किया है, वही सही है कि गीता ज्ञानदाता ने कहा है कि ब्रह्म लोक तक सब लोक पुनरावर्ती में हैं अर्थात् ब्रह्मलोक में गए प्राणी भी लौटकर संसार में जन्म को प्राप्त होते हैं। जो यह नहीं जानते, वे मेरी भक्ति करके भी पुनर्जन्म को प्राप्त होते हैं। इसीलिए तो गीता ज्ञान दाता ने अध्याय 18 श्लोक 62 में कहा है कि हे अर्जुन! तू सर्वभाव से उस परमेश्वर की शरण में जा, उस परमेश्वर की कृपा से ही तू परमशान्ति को तथा सनातन परमधाम अर्थात् सत्यलोक को प्राप्त होगा। यही प्रमाण गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में है कि तत्वदर्शी सन्त से तत्वज्ञान प्राप्त करके उस तत्वज्ञान रुपी शस्त्र से अज्ञान को काटकर उसके पश्चात् परमेश्वर के उस परमपद की खोज करनी चाहिए जहाँ जाने के पश्चात् साधक फिर लौटकर संसार में कभी नहीं आते।
जिस परमेश्वर से संसार रुपी वृक्ष की प्रवृति विस्तार को प्राप्त हुई है अर्थात् जिस परमेश्वर ने संसार की रचना की है। गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि केवल उसी की भक्ति कर, सर्व का उसी से कल्याण सम्भव है।
- प्रमाणित हुआ कि ब्रह्म की भक्ति से पूर्ण मोक्ष सम्भव नहीं है। केवल पूर्ण परमात्मा (परम अक्षर ब्रह्म) की भक्ति से ही पूर्ण मोक्ष सम्भव है।
प्रश्न 13: ओम् (ऊँ) यह मन्त्र तो ब्रह्म का जाप हुआ, फिर यह क्यों कह रहे हो कि ब्रह्म
की भक्ति से पूर्ण मोक्ष नहीं होता। आपने बताया कि गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में ’’ऊँ तत् सत्’’ इस मन्त्रा के जाप से पूर्ण मोक्ष होता है। इस मन्त्रा में भी तो ओम् (ऊँ) मन्त्र है।
उत्तर: जैसे इन्जीनियर या डाॅक्टर बनने के लिए शिक्षा की आवश्यकता होती है। पहले प्रथम कक्षा पढ़नी पड़ती है, फिर धीरे-धीरे पाँचवीं-आठवीं, इस प्रकार दसवीं कक्षा पास करनी पड़ती है। उसके पश्चात् आगे पढ़ाई करनी होती है। फिर ट्रेनिंग करके इन्जीनियर या डाॅक्टर बना जाता है। ठीक इसी प्रकार श्री ब्रह्मा, विष्णु, शिव, गणेश तथा देवी की साधना करनी पड़ती है, मैं स्वयं करता हूँ तथा अपने अनुयाइयों से कराता हूँ। यह तो पाँचवी कक्षा तक की पढ़ाई अर्थात् साधना जानें, दूसरे शब्दों में पाँचों कमलों को खोलने की साधना है और ब्रह्म की साधना दसवीं कक्षा तक की पढ़ाई जानें अर्थात् ब्रह्मलोक तक की साधना है जो ‘‘ऊँ‘‘ (ओम्) का जाप करना है और अक्षर पुरुष की साधना को 14वीं कक्षा की पढ़ाई अर्थात् साधना जानो जो ‘‘तत्’’ मन्त्रा का जाप है। ‘‘तत्’’ मन्त्र तो सांकेतिक है, वास्तविक मन्त्र तो इससे भिन्न है जो उपदेशी को ही बताया जाता है।
परम अक्षर पुरुष की साधना इन्जीनियर या डाॅक्टर की पढ़ाई अर्थात् साधना जानो जो ‘‘सत्’’ शब्द से करनी होती है। यह ‘‘सत्’’ मन्त्रा भी सांकेतिक है। वास्तविक मन्त्रा भिन्न है जो उपदेशी को बताया जाता है। इसको सारनाम भी कहते हैं।
इसलिए अकेले ‘‘ब्रह्म’’ के नाम ओम् (ऊँ) से पूर्ण मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता। ‘‘ऊँ‘‘ नाम का जाप ब्रह्म का है। इसकी साधना से ब्रह्म लोक प्राप्त होता है जिसके विषय में गीता अध्याय 8 श्लोक 16 में कहा है कि ब्रह्म लोक में गए साधक भी पुनर्जन्म को प्राप्त होते हैं। पुनर्जन्म है तो पूर्ण मोक्ष नहीं हुआ जो गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है कि परमात्मा के उस परमपद की खोज करनी चाहिए जहाँ जाने के पश्चात् साधक कभी लौटकर पुनर्जन्म में नहीं आता। वह पूर्ण मोक्ष पूर्ण गुरु से शास्त्रानुकूल भक्ति प्राप्त करके ही संभव है। विश्व में वर्तमान में मेरे (संत रामपाल दास) अतिरिक्त किसी के पास नहीं है। जो ॐ, तत्, सत् का स्मरण करते हैं, वे ब्रह्मलोक में ॐ नाम का प्रतिफल प्राप्त नहीं करते। इसके स्मरण की कमाई ब्रह्म को दे देते हैं जिसके बदले में यह यानि काल ब्रह्म साधक को पाप मुक्त कर देता है।
प्रश्न 14:- परमात्मा एक है या अनेक हैं? किस प्रभु की भक्ति करें?
उत्तर:- कुल का मालिक एक है। उसी की भक्ति करो।
संत गरीबदास जी ने कहा है:- ‘‘भजन करो उस रब का जो दाता है कुल सब का।’’
संत गरीबदास जी के ग्रन्थ से राग आसावरी शब्द नं. 66 में बताया है:-
शब्द नं. 66:- भजन करौ उस रब का, जो दाता है कुल सब का।।टेक।। बिनां भजन भय मिटै न जम का, समझि बूझि रे भाई। सतगुरु नाम दान जिनि दीन्हा, याह संतौं ठहराई।।1।। सत कबीर नाम कर्ता का, कलप करै दिल देवा। सुमरन करै सुरति सै लापै, पावै हरि पद भेवा।।2।। आसन बंध पवन पद परचै, नाभी नाम जगावै। त्रिकुटी कमल में पदम झलकै, जा सें ध्यान लगावै।।3।। सब सुख भुक्ता जीवत मुक्ता, दुःख दालिद्र दूरी। ज्ञान ध्यान गलतांन हरी पद, ज्यौं कुरंग कसतूरी।।4।। गज मोती हसती कै मसतगि, उनमन रहै दिवानां। खाय न पीवै मंगल घूमें, आठ बखत गलतानां।।5।। ऐसैं तत पद के अधिकारी, पलक अलख सें जोरैं। तन मन धन सब अरपन करहीं, नेक न माथा मोरैं।।6।। बिनहीं रसना नाम चलत है, निरबांनी सें नेहा। गरीबदास भोडल में दीपक, छांनि नहीं सनेहा।।7।।66।।
सरलार्थ:- हे मानव! उस (रब) परमेश्वर भक्ति की करो जो सबका (दाता) धारण-पोषण करने वाला है। सबका मालिक है। हे भाई! विचार कर! संतों से ज्ञान समझ, भक्ति के बिना (जम) काल का भय नहीं मिटेगा। संतों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि सतगुरू दीक्षा में नाम दान करे तो मोक्ष मिलता है। जिनको सतगुरू ने नाम दान दिया है, उनका मोक्ष हुआ है। उस (कत्र्ता) सबकी उत्पत्ति करने वाले परमेश्वर का नाम सत कबीर है। वह (दिल देवा) हृदय में निवास करने वाला परमेश्वर है। {जिस विषय में गीता अध्याय 18 श्लोक 61 में कहा है कि परमात्मा सब प्राणियों को उनके कर्मों के अनुसार भ्रमण करवाता है जो सबके हृदय में निवास करता है। गीता अध्याय श्लोक में कहा है कि हे भारत! तू सर्व भाव से उस परमेश्वर की शरण में जा। उस परमात्मा की कृपा से ही तू परम शांति को तथा सनातन परम धाम को प्राप्त होगा।} वह परमेश्वर अपने भक्त से दिल से प्यार करता है। उसकी (कलप) कल्पना करो। सतगुरू द्वारा दिए नाम का स्मरण (सुरति) ध्यानपूर्वक करें, तब उस परमात्मा के परम पद (सतलोक स्थान) को प्राप्त करेगा। नाभि तथा त्रिकुटी आदि सब कमलों को खोलने वाले मंत्रों का जाप भी सतगुरू देता है। उनका जाप करके कमलों को खोलें। इससे इस संसार के सब सुख मिलेंगे। मार्ग भी मिलेगा। सतलोक जाते समय कोई बाधा नहीं आएगी। सब दुःख तथा (दालिद्र) निर्धनता समाप्त हो जाएँगे। स्मरण में ध्यान ऐसे लगाए जैसे (कुरंग) मृग कस्तूरी में लगाता है। उसके लिए तड़फ जाता है। एक पल भी उसकी गंध बिना नहीं रहता। जैसे हाथी के मस्तिक के ऊपर की खाल में मोती बन जाता है। जिसके प्रभाव से हाथी मस्त रहता है, उसी में ध्यान रखता है। जो (तत् पद) उस खास अमर स्थान के अधिकारी हैं, वे ऐसे साधना करते हैं, परमात्मा से दोस्ती करते हैं। तन-मन-धन समर्पित कर देते हैं। (नेक न माथा मोरैं) कभी भी तन, मन, धन देने से आना-कानी नहीं करते। उन भक्तों का नाम बिना (रसना) जीभ के श्वांस द्वारा चलता है। संत गरीबदास जी ने कहा है कि उनकी भक्ति का प्रभाव छुपा नहीं रहता। जैसे दीपक को (भोडल) मोमी कागज यानि पोलीथीन से छुपाया जाए तो उसके प्रकाश की झलक दिखाई अवश्य देती है।
राग बिलावल का शब्द नं. 17:- तत कहन कूं राम है, दूजा नहीं देवा। ब्रह्मा बिष्णु महेश से, जाकी करि हैं सेवा।।टेक।। जप तप तीर्थ थोथरे, जाकी क्या आशा। कोटि यज्ञ पुण्य दान से, जम कटै न फांसा।।1।। यहां देन वहां लेन है, योह मिटै न झगरा। वाह बिना पंथ की बाट है, पावै को दगरा।।2।। बिन इच्छा जो देत है, सो दान कहावै। फल बांचै नहीं तास का, अमरापुर जावै।।3।। सकल द्वीप नौ खंड के, क्षत्री जिन जीते। सो तो पद में ना मिले, विद्या गुण चीते।।4। कोटि उनंचा पृथ्वी, जिन दीन्ही दाना। परशुराम अवतार कूं, कीन्ही कुरबाना।।5।। कंचन मेर सुमेर रे, आये सब माही। कामधेनु कल्पबृक्ष रे, सो दान कराहीं।।6।। सुर नर मुनिजन सेवहीं, सनकादिक ध्यावैं। शेष सहंस मुख रटत हैं, जाका पार न पावैं।।7।। ब्रह्मा बिष्णु महेश रे, देवा दरबारी। संख कल्प युग हो गये, जाकी खुल्है न तारी।।8।। सर्ब कला सम्पूर्णां रे, सब पीरन का पीरा। अनन्त लोक में गाज है, जाका नाम कबीरा।।9।। प्रलय संख्य असंख्य रे, पल मांहि बिहानी। गरीब दास निज नाम की, महिमा हम जानी।।10।।17।।
सरलार्थ:- राम तो सबको कहते हैं, परंतु पूर्ण ब्रह्म तो एक ही है। दूसरा कोई परमेश्वर नहीं है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश जैसे भी उसकी पूजा करते हैं। परंतु साधना गलत है। तीर्थ, व्रत व्यर्थ हैं। इनकी क्या आशा लगाकर साधना करते हैं? करोड़ यज्ञ व दान करने से (यम) काल ब्रह्म का (फांसा) कर्मों का बंधन समाप्त नहीं होगा। यहाँ पृथ्वी पर दान-धर्म किया, स्वर्ग में सुख भोगा। पुण्य खत्म होते ही फिर पृथ्वी के ऊपर जन्म होगा। यह झगड़ा नहीं मिटता। बिना मनोकामना पूर्ति के जो निःस्वार्थ दान करता है, वह वास्तव में दान है। उस दान के फल की इच्छा नहीं करे। नाम जाप करे। वह (अमरापुर) अविनाशी नगर यानि सत्यलोक में जाता है। परशुराम ने पूरी पृथ्वी के क्षत्रिय मार डाले थे। परंतु परशुराम भी काल जाल में रह गया। पापों का अंबार लेकर संसार से गया। सतपुरूष के दरबार में ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश शेष जैसे तो दरबारी (नौकर) हैं। सतपुरूष सर्व कलाओं से परिपूर्ण है। सब पीरों का पीर है जिसकी अनंत लोक में धाक है। उसका नाम कबीर है। संत गरीबदास जी ने कहा है कि नाम की सच्ची साधना करके जो सतलोक में चले गए, वे कभी प्रलय में नष्ट नहीं होते। संखों असँख्यों प्रलय होती रही, उनके पल के समान भी नहीं हैं। निज नाम की महिमा ऐसी है जो हमने जानी है।
राग बिलावल शब्द नं. 21:- अविगत राम कबीर हैं, चकवै अविनाशी। ब्रह्मा विष्णु वजीर हैं, शिव करत खवासी।।टेक।। इन्द्र कोटि अनंत हैं, जाकै प्रतिहारा। बरन कुमेरं धर्मराय, ठाढे दरबारा।।1।। तेतीस कोटि देवता, ऋषि सहंस अठासी। वैष्णव कोटि अनंत हैं, गुण गावैं राशी।।2।। नौ जोगेश्वर नाद भरि, सुर पूरै संखा। सनकादिक संगीत हैं, अबिचल गढ बंका।।3।। शेष गणेश रु सरस्वती, और लक्ष्मी राजैं। सावित्री गौरा रटैं, गण संख बिराजैं।।4।। अनंत कोटि मुनि साध हैं, गण गंधर्व ज्ञानी। अरपैं पिंड रु प्राण कूं, जहां संखौं दानी।।5।। सावंत शूर अनंत हैं, कुछ गिणती नाहीं। जती सती और शीलवंत, लीला गुण गाहीं।।6।। चंद्र सूर बिनती करैं, तारा गण गाढे। पांच तत्व हाजिर खड़े, हुकमी दर ठाढे।।7।। तीर्थ कोटि अनंत हैं, और नदी बिहंगा। ठारा भार तो कूं रटै, जल पवन तरंगा।।8।। अष्ट कुली परबत रटैं, धर अंबर ध्याना। महताब अगनि तो कूं जपैं, साहिब रहमाना।।9।। अर्स कुर्स पर सेज है, तन तबक तिराजी। एक पलक में करत हैं, सो राज बिराजी।।10।। अलख बिनानी कबीर कूं, रंग खूब चवाया। एक पानी की बूंद से, संसार बनाया।।11।। अनंत कोटि ब्रह्मण्ड हैं, कछू वार न पारा। लख चैरासी खान का, तूं सिरजनहारा।।12।। सूक्ष्म रूप स्वरूपहै, बौह रंग बिनानी। गरीबदास के मुकट में, हाजिर प्रवानी।।13।।21।।
सरलार्थ:- (अविगत) दिव्य परम पुरूष कबीर जी हैं। (चकवै) चक्रवर्ती {चक्रवर्ती राजा उसे कहते हैं जिसका राज्य पूरी पृथ्वी पर होता था जो सब छोटे राजाओं का मालिक महाराजा होता था। कबीर सतपुरूष का राज्य सम्पूर्ण लोकों पर जो ब्रह्मा, विष्णु, महेश, ज्योति निरंजन तथा अक्षर पुरूष सहित सब छोटे देवों का मालिक महाराजा यानि महादेव है।} परमात्मा हैं, अविनाशी हैं। ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव भी इनकी (खवासी) गुलामी करते हैं। इन्द्र तथा तेतीस करोड़ देवता, अठासी हजार ऋषि, नौ योगेश्वर, सनकादिक चारों, शेषनाग, गणेश, सरस्वती, लक्ष्मी, सावित्री, पार्बती, शंखों गण, सब उसी के आदेश से चलते हैं। सबके ऊपर कबीर परमेश्वर का राज है। कबीर जी ने जल की बूंद से मानव शरीर कितना संुदर बना रखा है। असँख्यों ब्रह्मण्डों को तथा चैरासी लाख प्रकार के जीवों को उत्पन्न करने वाले आप कबीर जी ही हैं। सबका सृजनहार है। संत गरीबदास जी ने कहा है कि अनेकों रूपों में लीला करने वाला परमेश्वर मेरे सिर पर विराजमान है।
प्रश्न 15:- वह परमात्मा कौन है जो कुल का मालिक है, कहाँ प्रमाण है?
उत्तर:- वह परमात्मा ‘‘परम अक्षर ब्रह्म’’ है जो कुल का मालिक है।
प्रमाण:- श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 15 श्लोक 1 से 4 तथा 16-17 में है। गीता अध्याय 15 श्लोक 1 से 4 का सारांश व भावार्थ है कि ‘‘उल्टे लटके हुए वृक्ष के समान संसार को जानो। जैसे वृक्ष की जड़ें तो ऊपर हैं, नीचे तीनों गुण रुपी शाखाएं जानो। गीता अध्याय 15 श्लोक 1 में यह भी स्पष्ट किया है कि तत्वदर्शी सन्त की क्या पहचान है? तत्वदर्शी सन्त वह है जो संसार रुपी वृक्ष के सर्वांग (सभी भाग) भिन्न-भिन्न बताए।
विशेष:- वेद मन्त्रों की जो आगे फोटोकाॅपियाँ लगाई हैं, ये आर्यसमाज के आचार्यों तथा महर्षि दयानंद द्वारा अनुवादित हैं और सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा दिल्ली द्वारा प्रकाशित हैं। जिनमें वर्णन है कि परमेश्वर स्वयं पृथ्वी पर सशरीर प्रकट होकर कवियों की तरह आचरण करता हुआ सत्य अध्यात्मिक ज्ञान सुनाता है। (प्रमाण ऋग्वेद मण्डल नं. 9 सुक्त 86 मन्त्र 26-27, ऋग्वेद मण्डल 9 सुक्त 82 मन्त्र 1-2, सुक्त 96 मन्त्र 16 से 20, ऋग्वेद मण्डल 9 सुक्त 94 मन्त्र 1, ऋग्वेद मण्डल 9 सुक्त 95 मन्त्र 2, ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 20 मन्त्र 1, ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 54 मन्त्र 3 में) इन मन्त्रों में कहा है कि परमात्मा सर्व भवनों अर्थात् लोकांे के उपर के लोक में विराजमान है। जब-जब पृथ्वी पर अज्ञान की वृद्धि होने से अधर्म बढ़ जाता है तो परमात्मा स्वयं सशरीर चलकर पृथ्वी पर प्रकट होकर यथार्थ अध्यात्म ज्ञान का प्रचार लोकोक्तियों, शब्दों, चैपाईयों, साखियों, कविताओं के माध्यम से कवियों जैसा आचरण करके घूम-फिरकर करता है। जिस कारण से एक प्रसिद्ध कवि की उपाधि भी प्राप्त करता है। कृपया देखें उपरोक्त मन्त्रों की फोटोकाॅपी इसी पुस्तक के पृष्ठ 314 पर।
परमात्मा ने अपने मुख कमल से ज्ञान बोलकर सुनाया था। उसे सूक्ष्म वेद कहते हैं। उसी को ‘तत्व ज्ञान’ भी कहते हैं। तत्वज्ञान का प्रचार करने के कारण परमात्मा ‘‘तत्वदर्शी सन्त’’ भी कहलाने लगता है। उस तत्वदर्शी सन्त रूप में प्रकट परमात्मा ने संसार रुपी वृक्ष के सर्वांग इस प्रकार बताये:-
कबीर, अक्षर पुरुष एक वृक्ष है, क्षर पुरुष वाकि डार। तीनों देवा शाखा हैं, पात रुप संसार।।
भावार्थ: वृक्ष का जो हिस्सा पृथ्वी से बाहर दिखाई देता है, उसको तना कहते हैं। जैसे संसार रुपी वृक्ष का तना तो अक्षर पुरुष है। तने से मोटी डार निकलती है वह क्षर पुरुष जानो, डार के मानो तीन शाखाऐं निकलती हों, उनको तीनों देवता (रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी तथा तमगुण शिव) हैं तथा इन शाखाओं पर टहनियों व पत्तों को संसार जानों। इस संसार रुपी वृक्ष के उपरोक्त भाग जो पृथ्वी से बाहर दिखाई देते हैं। मूल (जड़ें), जमीन के अन्दर हैं। जिनसे वृक्ष के सर्वांगों का पोषण होता है। गीता अध्याय 15 श्लोक 16-17 में तीन पुरुष कहे हैं। श्लोक 16 में दो पुरुष कहे हैं ‘‘क्षर पुरुष तथा अक्षर पुरुष’’ दोनों की स्थिति ऊपर बता दी है। गीता अध्याय 15 श्लोक 16 में भी कहा है कि क्षर पुरुष तथा अक्षर पुरुष दोनों नाशवान हैं। इनके अन्तर्गत जितने भी प्राणी हैं, वे भी नाशवान हैं। परन्तु आत्मा तो किसी की भी नहीं मरती। गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में कहा है कि उत्तम पुरुष अर्थात् पुरुषोत्तम तो क्षर पुरुष और अक्षर पुरुष से भिन्न है जिसको परमात्मा कहा गया है। इसी प्रभु की जानकारी गीता अध्याय 8 श्लोक 3 में है जिसको ‘‘परम अक्षर ब्रह्म‘‘ कहा है। गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में इसी का वर्णन है। यही प्रभु तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है। यह वास्तव में अविनाशी परमेश्वर है। मूल से ही वृक्ष की परवरिश होती है, इसलिए सबका धारण-पोषण करने वाला परम अक्षर ब्रह्म है। जैसे पूर्व में गीता अध्याय 15 श्लोक 1-4 में बताया है कि ऊपर को जड़ (मूल) वाला, नीचे को शाखा वाला संसार रुपी वृक्ष है। जड़ से ही वृक्ष का धारण-पोषण होता है। इसलिए परम अक्षर ब्रह्म जो संसार रुपी वृक्ष की जड़ (मूल) है, यही सर्व पुरुषों (प्रभुओं) का पालनहार इनका विस्तार (रचना करने वाला = सृजनहार) है। यही कुल का मालिक है। यह वही है जो काशी शहर (भारत) में जुलाहा था। कबीर नाम से जाना जाता है।
प्रश्न 16: क्या रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शंकर (शिव) की पूजा (भक्ति)
करनी चाहिए?
उत्तर: नहीं।
प्रश्न 17: कहाँ प्रमाण है कि रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शंकर (शिव) की पूजा
(भक्ति) नहीं करनी चाहिए?
उत्तर: श्री मद्भगवत गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15, 20 से 23 तथा गीता अध्याय 9 श्लोक 23-24, गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15 में प्रमाण है कि जो व्यक्ति रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिव की भक्ति करते हैं, वे राक्षस स्वभाव को धारण किए हुए मनुष्यों में नीच, दूषित कर्म करने वाले मूर्ख मुझे भी नहीं भजते। (यह प्रमाण गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15 में है। फिर गीता अध्याय 7 के ही श्लोक 20 से 23 तथा गीता अध्याय 9 श्लोक 23-24 में यही कहा है और क्षर पुरुष, अक्षर पुरुष तथा परम अक्षर पुरुष गीता अध्याय 15 श्लोक 16-17 में जिनका वर्णन है), को छोड़कर श्री ब्रह्मा, श्री विष्णु तथा श्री शिव जी अन्य देवताओं में गिने जाते हैं। इन दोनों अध्यायों (गीता अध्याय 7 तथा अध्याय 9 में) में ऊपर लिखे श्लोकांे में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि जो साधक जिस भी उद्देश्य को लेकर अन्य देवताओं को भजते हैं, वे भगवान समझकर भजते हैं। उन देवताओं को मैंने कुछ शक्ति प्रदान कर रखी है। देवताओं के भजने वालों को मेरे द्वारा किए विधान के अनुसार कुछ लाभ मिलता है। परन्तु उन देवताओं की पूजा करने वाले अल्प बुद्धि वालों का वह फल नाशवान होता है। देवताओं को पूजने वाले देवताओं के लोक में जाते हैं। मेरे पुजारी मुझे प्राप्त होते हैं।
तीनों देवताओं की पूजा करने वाले कैसे कर्म करते हैं। प्रमाण के लिए पेश हैं कुछ उदाहरणः-
विचार करें:- रावण ने भगवान शिव जी को मृत्युंजय, अजर-अमर, सर्वेश्वर मान कर भक्ति की, दस बार शीश काट कर समर्पित कर दिया, जिसके बदले में युद्ध के समय दस शीश रावण को प्राप्त हुए, परन्तु मुक्ति नहीं हुई, राक्षस कहलाया। यह दोष रावण के गुरुदेव का है जिस नादान (नीम-हकीम) ने वेदों को ठीक से न समझ कर अपनी सोच से तमोगुण युक्त भगवान शिव को ही पूर्ण परमात्मा बताया तथा भोली आत्मा रावण ने झूठे गुरुदेव पर विश्वास करके जीवन व अपने कुल का नाश किया।
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एक भस्मागिरी नाम का साधक था, जिसने शिव जी (तमोगुण) को ही ईष्ट मान कर शीर्षासन (ऊपर को पैर नीचे को शीश) करके 12 वर्ष तक साधना की, भगवान शिव को वचन बद्ध करके भस्मकण्डा ले लिया। भगवान शिव जी को ही मारने लगा। उद्देश्य यह था कि भस्मकण्डा प्राप्त करके भगवान शिव जी को मार कर पार्वती जी को पत्नी बनाऊँगा। भगवान श्री शिव जी डर के मारे भाग गए, फिर श्री विष्णु जी ने उस भस्मासुर को गंडहथ नाच नचा कर उसी भस्मकण्डे से भस्म किया। वह शिव जी (तमोगुण) का साधक राक्षस कहलाया। हरिण्यकशिपु ने भगवान ब्रह्मा जी (रजोगुण) की साधना की तथा राक्षस कहलाया।
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एक समय आज (सन् 2006 ) से लगभग 335 वर्ष पूर्व हरिद्वार में हर की पैड़ियों पर (शास्त्र विधि रहित साधना करने वालों के) कुम्भ पर्व की परबी का संयोग हुआ। वहाँ पर सर्व (त्रिगुण उपासक) महात्मा जन स्नानार्थ पहुँचे। गिरी, पुरी, नाथ, नागा आदि भगवान श्री शिव जी (तमोगुण) के उपासक तथा वैष्णों भगवान श्री विष्णु जी (सतोगुण) के उपासक हैं। प्रथम स्नान करने के कारण नागा तथा वैष्णों साधुओं में घोर युद्ध हो गया। लगभग 25000 (पच्चीस हजार) त्रिगुण उपासक मृत्यु को प्राप्त हुए। जो व्यक्ति जरा-सी बात पर नरसंहार (कत्ले आम) कर देता है वह साधु है या राक्षस स्वयं विचार करें। आम व्यक्ति भी कहीं स्नान कर रहे हों और कोई व्यक्ति आ कर कहे कि मुझे भी कुछ स्थान स्नान के लिए देने की कृपा करें। शिष्टाचार के नाते कहते हैं कि आओ आप भी स्नान कर लो। इधर-उधर हो कर आने वाले को स्थान दे देते हैं। इसलिए पवित्र गीता जी अध्याय 7 श्लोक 12 से 15 में कहा है कि जिनका मेरी त्रिगुणमई माया (रजगुण-ब्रह्मा जी, सतगुण-विष्णु जी, तमगुण-शिव जी) की पूजा के द्वारा ज्ञान हरा जा चुका है, वे केवल मान बड़ाई के भूखे राक्षस स्वभाव को धारण किए हुए, मनुष्यों में नीच अर्थात् आम व्यक्ति से भी पतित स्वभाव वाले, दुष्कर्म करने वाले मूर्ख मेरी भक्ति भी नहीं करते। गीता अध्याय 7 श्लोक 16 से 18 तक पवित्र गीता जी के बोलने वाला (ब्रह्म) प्रभु कह रहा है कि मेरी भक्ति (ब्रह्म साधना) भी चार प्रकार के साधक करते हैं। एक तो अर्थार्थी (धन लाभ चाहने वाले) जो वेद मंत्रों से ही जंत्र-मंत्र, हवन आदि करते रहते हैं। दूसरे आत्र्त (संकट निवार्ण के लिए वेदों के मंत्रों का जन्त्रा-मंत्र हवन आदि करते रहते हैं) तीसरे जिज्ञासु जो परमात्मा के ज्ञान को जानने की इच्छा रखने वाले केवल ज्ञान संग्रह करके वक्ता बन जाते हैं तथा दूसरों में ज्ञान श्रेष्ठता के आधार पर उत्तम बन कर ज्ञानवान बनकर अभिमानवश भक्ति हीन हो जाते हैं, चैथे ज्ञानी। वे साधक जिनको यह ज्ञान हो गया कि मानव शरीर बार-बार नहीं मिलता, इससे प्रभु साधना नहीं बन पाई तो जीवन व्यर्थ हो जाएगा। फिर वेदों को पढ़ा, जिनसे ज्ञान हुआ कि (ब्रह्मा-विष्णु-शिवजी) तीनों गुणों व ब्रह्म (क्षर पुरुष) तथा परब्रह्म (अक्षर पुरुष) से ऊपर पूर्ण ब्रह्म की ही भक्ति करनी चाहिए, अन्य देवताओं की नहीं। उन ज्ञानी उदार आत्माओं को मैं अच्छा लगता हूँ तथा मुझे वे इसलिए अच्छे लगते हैं कि वे तीनों गुणों (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु, तमगुण शिवजी) से ऊपर उठ कर मेरी (ब्रह्म) साधना तो करने लगे जो अन्य देवताओं से अच्छी है परन्तु वेदों में ‘ओ3म्‘ नाम जो केवल ब्रह्म की साधना का मंत्र है उसी को वेद पढ़ने वाले विद्वानों ने अपने आप ही विचार - विमर्श करके पूर्ण ब्रह्म का मंत्र जान कर वर्षों तक साधना करते रहे। प्रभु प्राप्ति हुई नहीं। अन्य सिद्धियाँ प्राप्त हो गई। क्योंकि पवित्र गीता अध्याय 4 श्लोक 34 तथा पवित्र यजुर्वेद अध्याय 40 मंत्र 10 में वर्णित तत्वदर्शी संत नहीं मिला, जो पूर्ण ब्रह्म की साधना तीन मंत्र से बताता है, इसलिए ज्ञानी भी ब्रह्म (काल) साधना करके जन्म-मृत्यु के चक्र में ही रह गए।
एक ज्ञानी उदारात्मा महर्षि चुणक जी ने वेदों को पढ़ा तथा एक पूर्ण प्रभु की भक्ति का मंत्र ओ3म् जान कर इसी नाम के जाप से वर्षों तक साधना की। एक मानधाता चक्रवर्ती राजा था। (चक्रवर्ती राजा उसे कहते हैं जिसका पूरी पृथ्वी पर शासन हो।) उसने अपने अन्तर्गत राजाओं को युद्ध के लिए ललकारा, एक घोड़े के गले में पत्र बांध कर सारे राज्य में घुमाया। शर्त थी कि जिसने राजा मानधाता की गुलामी (आधीनता) स्वीकार न हो उसे युद्ध करना पड़ेगा। वह इस घोड़े को पकड़ कर बांध ले। किसी ने घोड़ा नहीं पकड़ा। महर्षि चुणक जी को इस बात का पता चला कि राजा बहुत अभिमानी हो गया है। कहा कि मैं इस राजा के युद्ध को स्वीकार करता हूँ युद्ध शुरू हुआ। मानधाता राजा के पास 72 करोड़ सेना थी। उसके चार भाग करके एक भाग (18 करोड़) सेना से महर्षि चुणक पर आक्रमण कर दिया। दूसरी ओर महर्षि चुणक जी ने अपनी साधना की कमाई से चार पूतलियाँ (बम्ब) बनाई तथा राजा की चारों भाग सेना का विनाश कर दिया।
विशेष:- श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी, श्री शिव जी तथा ब्रह्म व परब्रह्म की भक्ति से पाप तथा पुण्य दोनों का फल भोगना पड़ता है, पुण्य स्वर्ग में तथा पाप नरक में व चैरासी लाख प्राणियों के शरीर में नाना यातनाऐं भोगनी पड़ती हैं। जैसे ज्ञानी आत्मा श्री चुणक जी ने जो ओ3म् नाम के जाप की कमाई की उससे कुछ तो सिद्धि शक्ति (चार पुतलियाँ बनाकर) में समाप्त कर दिया जिससे महर्षि कहलाया। कुछ साधना फल को महास्वर्ग में भोग कर फिर नरक में जाएगा तथा फिर चैरासी लाख प्राणियों के शरीर धारण करके कष्ट पर कष्ट सहन करेगा। जो 72 करोड़ प्राणियों (सैनिकों) का संहार वचन से किया था, उसका भोग भी भोगना होगा। चाहे कोई हथियार से हत्या करे, चाहे वचन रूपी तलवार से दोनों को समान दण्ड प्रभु देता है। जब उस महर्षि चुणक जी का जीव कुत्ते के शरीर में होगा उसके सिर में जख्म होगा, उसमें कीड़े बनकर उन सैनिकों के जीव अपना प्रतिशोध लेंगे। कभी टांग टूटेगी, कभी पिछले पैरों से अर्धंग हो कर केवल अगले पैरों से घिसड़ कर चलेगा तथा गर्मी-सर्दी का कष्ट असहनीय पीड़ा नाना प्रकार से भोगनी ही पड़ेगी।
इसलिए पवित्र गीता जी बोलने वाला ब्रह्म (काल) गीता अ. 7 श्लोक 18 में स्वयं कह रहा है कि ये सर्व ज्ञानी आत्माऐं हैं तो उदार (नेक)। परन्तु पूर्ण परमात्मा की तीन मंत्र की वास्तविक साधना बताने वाला तत्वदर्शी सन्त न मिलने के कारण ये सब मेरी ही (अनुत्तमाम्) अति अश्रेष्ठ मुक्ति (गती) की आस में ही आश्रित रहे अर्थात् मेरी साधना भी अश्रेष्ठ है। इसलिए पवित्र गीता जी अध्याय 18 श्लोक 62 में कहा है कि हे अर्जुन! तू सर्व भाव से उस पूर्ण परमात्मा की शरण में चला जा। जिसकी कृपा से ही तू परम शान्ति तथा सनातन परम धाम (सतलोक) को प्राप्त होगा। पवित्र गीता जी को श्री कृष्ण जी के शरीर में प्रेतवत प्रवेश करके ब्रह्म (काल) ने बोला, फिर कई वर्षों उपरांत पवित्र गीता जी तथा पवित्र चारों वेदों को महर्षि व्यास जी के शरीर में प्रेतवत प्रवेश करके स्वयं ब्रह्म (क्षर पुरुष) द्वारा लिपिबद्ध भी स्वयं ही किए हैं। इनमें परमात्मा कैसा है, कैसे उसकी भक्ति करनी है तथा क्या उपलब्धि होगी, ज्ञान तो पूर्ण वर्णन है। परन्तु पूजा की विधि केवल ब्रह्म (क्षर पुरुष) अर्थात् ज्योति निरंजन-काल तक की ही है।
पूर्ण ब्रह्म की भक्ति के लिए पवित्र गीता अ. 4 श्लोक 34 में पवित्र गीता बोलने वाला (ब्रह्म) प्रभु स्वयं कह रहा है कि पूर्ण परमात्मा की भक्ति व प्राप्ति के लिए किसी तत्वज्ञानी सन्त को ढूंढ ले फिर जैसे वह विधि बताएं वैसे कर। पवित्र गीता जी को बोलने वाला प्रभु कह रहा है कि पूर्ण परमात्मा का पूर्ण ज्ञान व भक्ति विधि मैं नहीं जानता। अपनी साधना के बारे में गीता अ. 8 के श्लोक 13 में कहा है कि मेरी भक्ति का तो केवल एक ‘ओ3म् ‘ अक्षर है जिसका उच्चारण करके अन्तिम स्वांस (त्यजन् देहम्) तक जाप करने से मेरी वाली परमगति को प्राप्त होगा। फिर गीता अ. 7 श्लोक 18 में कहा है कि जिन प्रभु चाहने वाली आत्माओं को तत्वदर्शी सन्त नहीं मिला जो पूर्ण ब्रह्म की साधना जानता हो, इसलिए वे उदारात्माऐं मेरे वाली (अनुत्तमाम्) अति अनुत्तम परमगति में ही आश्रित हैं।(पवित्र गीता जी बोलने वाला प्रभु स्वयं कह रहा है कि मेरी साधना से होने वाली गति अर्थात् मुक्ति भी अति अश्रेष्ठ है।)
गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में कहा है कि शास्त्रविधि को त्यागकर जो साधक मनमाना आचरण करते हैं अर्थात् जिन देवताओं पितरों, यक्षों, भैरों-भूतों की भक्ति करते हैं और मनकल्पित मन्त्रों का जाप करते हैं, उनको न तो कोई सुख होता है, न कोई सिद्धि प्राप्त होती है तथा न उनकी गति अर्थात् मोक्ष होता है। इससे तेरे लिए हे अर्जुन! कर्तव्य (जो भक्ति करनी चाहिए) और अकत्र्तव्य (जो भक्ति न करनी चाहिए) की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण हैं। गीता अध्याय 17 श्लोक 1 में अर्जुन ने पूछा कि हे कृष्ण! (क्योंकि अर्जुन मान रहा था कि श्री कृष्ण ही ज्ञान सुना रहा है, परन्तु श्री कृष्ण के शरीर में प्रेत की तरह प्रवेश करके काल (ब्रह्म) ज्ञान बोल रहा था जो पहले प्रमाणित किया जा चुका है)। जो व्यक्ति शास्त्रविधि को त्यागकर मनमाना आचरण करके अन्य देवताओं आदि की पूजा करते हैं, वे स्वभाव में कैसे होते हैं? गीता ज्ञान दाता ने उत्तर दिया कि सात्विक व्यक्ति देवताओं का पूजन करते हैं। राजसी व्यक्ति यक्षों व राक्षसों की पूजा तथा तामसी व्यक्ति प्रेत आदि की पूजा करते हैं। ये सब शास्त्रविधि रहित कर्म हैं। फिर गीता अध्याय 17 श्लोक 5-6 में कहा है कि जो मनुष्य शास्त्रविधि से रहित केवल मनकल्पित घोर तप को तपते हैं, वे दम्भी (ढ़ोंगी) हैं और शरीर के कमलों में विराजमान शक्तियों को तथा मुझे भी क्रश करने वाले राक्षस स्वभाव के अज्ञानी जान। सूक्ष्मवेद में भी परमेश्वर जी ने कहा है कि:-
‘‘कबीर, माई मसानी सेढ़ शीतला भैरव भूत हनुमंत। परमात्मा से न्यारा रहै, जो इनको पूजंत।।
राम भजै तो राम मिलै, देव भजै सो देव। भूत भजै सो भूत भवै, सुनो सकल सुर भेव।।‘‘
स्पष्ट हुआ कि श्री ब्रह्मा जी (रजगुण), श्री विष्णु जी (सत्गुण) तथा श्री शिवजी (तमगुण) की पूजा (भक्ति) नहीं करनी चाहिए तथा इसके साथ-साथ भूतों, पितरों की पूजा, (श्राद्ध कर्म, तेरहवीं, पिण्डोदक क्रिया, सब प्रेत पूजा होती है) भैरव तथा हनुमान जी की पूजा भी नहीं करनी चाहिए।
प्रश्न 18: क्या क्षर पुरुष (ब्रह्म) की पूजा (भक्ति) करनी चाहिए या नही?
उत्तर: यदि पूर्ण मोक्ष चाहते हो जो गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में बताया है कि ‘‘तत्वज्ञान प्राप्ति के पश्चात् परमेश्वर के उस परमपद की खोज करनी चाहिए जहाँ जाने के पश्चात् साधक लौटकर फिर कभी संसार में जन्म नहीं लेता।’’ तो क्षर पुरुष (ब्रह्म) ‘‘जो संसार रुपी वृक्ष की डार है’’ की पूजा (भक्ति) नहीं करनी चाहिए।
प्रश्न 19: पूर्व में जितने ऋषि-महर्षि हुए हैं, वे सब ब्रह्म की पूजा करते और कराते थे।
‘‘ओम्‘‘ (ऊँ) नाम को सबसे बड़ा तथा उत्तम मन्त्रा जाप करने का बताते थे, क्या वे अज्ञानी थे? यदि ब्रह्म की भक्ति उत्तम नहीं है तो गीता में कोई प्रमाण बताऐं।
उत्तर: पूर्व में बताया गया है कि यथार्थ अध्यात्म ज्ञान स्वयं परमेश्वर (परम अक्षर ब्रह्म) धरती पर सशरीर प्रकट होकर ठीक-ठीक बताता है। देखें प्रमाण वेद मन्त्रों में इसी पुस्तक के पृष्ठ 314 पर। परमेश्वर द्वारा बताए ज्ञान को सूक्ष्मवेद (तत्वज्ञान) कहा गया है। तत्वज्ञान में परमात्मा ने बताया है कि:-
गुरु बिन काहू न पाया ज्ञाना, ज्यों थोथा भुस छड़े मूढ़ किसाना।
गुरु बिन बेद पढ़ै जो प्राणी, समझे ना सार रहे अज्ञानी।।
जिन ऋषियों व महर्षियों को सत्गुरु नहीं मिला। उनकी यह दशा थी कि वेद पढ़ते थे परन्तु वेदों का सार नहीं समझ सके। उदाहरण के लिये श्री देवी पुराण (सचित्र मोटा टाईप, गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित) के छठे स्कन्ध के चैथे अध्याय में पृष्ठ 425 में लिखा है कि सत्ययुग के ब्राह्मण (महर्षि) वेद के पूर्ण विद्वान होते थे और श्री देवी (दुर्गा) की पूजा करते थे। देवी का मंदिर गाँव-गाँव बनवाते थे।
विचार किया जाए:- वेदों में तथा गीता में कहीं नहीं लिखा है कि श्री देवी (दुर्गा) जी की पूजा करो और उसके मंदिर बनवाओ। ऋषिजन पढ़ते थे वेद, कर्म सब वेद विरूद्ध करते थे। तो क्या खाक विद्वान थे?
पेश है प्रमाण के लिए श्रीमद् देवीभागवत (देवी पुराण) के स्कन्ध छः से संबंधित प्रकरण की फोटोकाॅपी:-
विचार करें:- श्रीमद्भगवत गीता चारों वेदों का सारांश है। आप जी गीता जी को तो जानते ही हो, पढ़ते भी होंगे। क्या गीता में कहीं लिखा है कि ‘श्री देवी’ की पूजा करो? इसी प्रकार चारों वेदों में कहीं नहीं लिखा है कि दुर्गा (श्री देवी) की पूजा करो और उसके मंदिर बनवाओ तो क्या समझा वेदों को उन महर्षियों ने? क्या खाक विद्वान थे सत्ययुग के महर्षि? उन्हीं महर्षियों का मनमाना विधान है कि ऊँ (ओम्) नाम सबसे बड़ा अर्थात् उत्तम है जो कहते थे कि ब्रह्म पूजा (भक्ति) सर्वश्रेष्ठ है। जो ब्रह्म की पूजा इष्ट देव मानकर करते थे, वे अज्ञानी थे। उनकी ब्रह्म साधना अनुत्तम गति देने वाली है।
{विशेष:- यह दशा तो सत्ययुग के ब्राह्मणों की थी। कलयुग के ब्राह्मणों (शंकराचार्य ब्राह्मण हैं, अन्य कर्मकांड भी अधिकतर ब्राह्मण ही करते व करवाते हैं तथा जो अन्य गुरूजन हैं, वे उन्हीं कलयुगी ब्राह्मणों से सुना अज्ञान प्रचार करते हैं। इन कलयुग के गुरूजनों यानि ब्राह्मणों) के विषय में इसी श्री देवीभागवत पुराण की फोटोकाॅपी में बताया है कि जो सत्ययुग में राक्षस माने जाते थे। वैसे कलयुग के ब्राह्मण हैं क्योंकि अब के ब्राह्मण प्रायः पाखंड करने में तत्पर रहते हैं। दूसरों को ठगना, झूठ बोलना और वैदिक धर्म-कर्म से अलग रहना कलयुगी ब्राह्मणों का स्वभाविक गुण बन गया है।}
गीता में प्रमाण: श्रीमद्भगवत् अध्याय 7 श्लोक 12 से 15 में तो बताया है कि जो तीनों गुणों (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शंकर) की पूजा करने वाले राक्षस स्वभाव को धारण किए हुए मनुष्यों में नीच दूषित कर्म करने वाले मूर्ख मुझे भी नहीं भजते। यह गीता ज्ञान दाता ने कहा है। फिर गीता अध्याय 7 के ही श्लोक 16 से 18 तक में गीता ज्ञान दाता (ब्रह्म) ने कहा है कि मेरी भक्ति चार प्रकार से करते हैं। अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु तथा ज्ञानी। फिर कहा कि ज्ञानी मुझे अच्छा लगता है, ज्ञानी को मैं अच्छा लगता हूँ। (गीता अध्याय 7 श्लोक 18) इस श्लोक में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि ये ज्ञानी आत्मा हैं तो उदार (अच्छी) परन्तु ये सब मेरी अनुत्तम गति अर्थात् घटिया गति में आश्रित हैं। इस श्लोक (गीता अध्याय 7 श्लोक 18) में गीता ज्ञान दाता ब्रह्म स्वयं स्वीकार कर रहा है कि मेरी भक्ति से होने वाली गति अनुत्तम (अश्रेष्ठ/घटिया) है।
गीता ज्ञान दाता ने अध्याय 7 श्लोक 19 में कहा है कि:-
बहुनाम्, जन्मानाम्, अन्ते, ज्ञानवान्, माम्, प्रपद्यते, वासुदेवः, सर्वम्, इति, सः, महात्मा, सुदुर्लभः।।
अनुवाद:- गीता ज्ञान दाता ब्रह्म ने कहा है कि मेरी भक्ति बहुत-बहुत जन्मों के अन्त में कोई ज्ञानी आत्मा करता है अन्यथा अन्य देवी देवताओं व भूत, पितरों की भक्ति में जीवन नाश करते रहते हैं। गीता ज्ञान दाता ने अपनी भक्ति से होने वाले लाभ अर्थात् गति को भी गीता अध्याय 7 श्लोक 18 में अनुत्तम (घटिया) बता दिया है। इसलिए गीता अध्याय 7 श्लोक 19 में कहा है कि:-
यह बताने वाला महात्मा मुश्किल से मिलता है कि ‘‘वासुदेव’’ ही सब कुछ है। यही सबका सृजनहार है। यही पापनाशक, पूर्ण मोक्षदायक है, यही पूजा के योग्य है। यही (वासुदेव ही) कुल का मालिक (परम अक्षर ब्रह्म) है। केवल इसी की भक्ति करो, अन्य की नहीं।
गीता ज्ञान दाता ने भी स्वयं कहा है कि ‘‘हे अर्जुन! तू सर्वभाव से उस परमेश्वर की शरण में जा। उस परमेश्वर की कृपा से ही तू परमशान्ति को तथा सनातन परमधाम (सत्यलोक) को प्राप्त होगा।‘‘ (यह गीता अध्याय 18 श्लोक 62 तथा 66 में प्रमाण है) फिर गीता अध्याय 2 श्लोक 17 में तथा अध्याय 18 श्लोक 46 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि ‘‘जिस परमेश्वर से सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति हुई है, जिससे यह समस्त जगत व्याप्त है। उस परमेश्वर की अपने स्वाभाविक कर्म करते-करते पूजा करके मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त हो जाता है। फिर गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है कि तत्वज्ञान को समझकर उसके पश्चात् परमेश्वर के उस परमपद की खोज करनी चाहिए। जहाँ जाने के पश्चात् साधक लौटकर संसार में नहीं आता, जिस परमेश्वर से संसार रुपी वृक्ष की प्रवृत्ति विस्तार को प्राप्त हुई है अर्थात् जिस परमेश्वर ने सर्व की रचना की है, उसी की पूजा करो। इससे सिद्ध हुआ कि उन ऋषियों को वेद का गूढ़ रहस्य समझ नहीं आया। वे अज्ञानी रहे।
प्रश्न 20: गीता ज्ञान दाता ने अपनी गति को अनुत्तम क्यों कहा?
उत्तर: गीता ज्ञान दाता ने अध्याय 2 श्लोक 12 गीता अध्याय 4 श्लोक 5, गीता अध्याय 10 श्लोक 2 में कहा है कि अर्जुन! तेरे और मेरे बहुत जन्म हो चुके हैं। तू नहीं जानता, मैं जानता हूँ। मेरी उत्पत्ति को ऋषि-महर्षि तथा देवता नहीं जानते। तू और मैं तथा ये राजा व सैनिक बहुत बार पहले भी जन्मे हैं, आगे भी जन्मेंगे। पाठक जन विचार करें! जब ब्रह्म कह रहा है कि मेरा भी जन्म-मरण होता है तो ब्रह्म के पुजारी को गीता अध्याय 15 श्लोक 4 वाली गति (मोक्ष) प्राप्त नहीं हो सकती जिसमें जन्म-मरण सदा के लिए समाप्त हो जाता है। साधक कभी लौटकर संसार में नहीं आता यानि जन्म-मरण सदा के लिए समाप्त हो जाता है। जब तक जन्म-मरण है, तब तक परमशान्ति नहीं हो सकती। उसके लिए गीता ज्ञानदाता ने अपनी भक्ति से होने वाली गति को अनुत्तम (घटिया) कहा है। गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में कहा है कि परमशान्ति के लिए उस परमेश्वर (परम अक्षर ब्रह्म) की शरण में जा, उसी की कृपया से ही तू परमशान्ति को तथा सनातन परम धाम को प्राप्त होगा। गीता अध्याय 8 श्लोक 5 व 7 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि मेरी भक्ति करेगा तो युद्ध भी करना पड़ेगा, जहाँ युद्ध है, वहाँ शान्ति नहीं होती, परम शान्ति का घर दूर है। इसलिए गीता ज्ञान दाता ने अपनी गति को (ऊँ नाम के जाप से होने वाला लाभ) अनुत्तम (घटिया) बताया है।
प्रश्न 21: आपने प्रश्न नं. 13 के उत्तर में कहा है कि पूर्ण मोक्ष की प्राप्ति के लिए ब्रह्मा, विष्णु,
शिव, गणेश तथा देवी और क्षर ब्रह्म व अक्षर ब्रह्म की साधना करनी पड़ती है। दूसरी ओर कह रहे हो कि ब्रह्मा, विष्णु, शिव अन्य देवता हैं, क्षर ब्रह्म भी पूजा (भक्ति) योग्य नहीं है। केवल परम अक्षर ब्रह्म की ही पूजा (भक्ति) करनी चाहिए?
उत्तर: पहले तो यह स्पष्ट करता हूँ कि पूजा तथा साधना में क्या अन्तर है?
प्राप्य वस्तु की चाह पूजा कही जाती है तथा उसको प्राप्त करने के प्रयत्न को साधना कहते हैं। उदाहरण: जैसे हमें जल प्राप्त करना है। यह हमारा प्राप्य है। हमें जल की चाह है। जल की प्राप्ति के लिए हैण्डपम्प लगाना पड़ेगा। हैण्डपम्प लगाने के लिए जो-जो उपकरण प्रयोग किए जाएंगे, बोकी लगाई जाएगी, यह प्रयत्न है। इसी प्रकार परमेश्वर का वह परमपद प्राप्त करना हमारी चाह है, जहाँ जाने के पश्चात् साधक लौटकर संसार में नहीं आता। हमारा प्राप्य परमेश्वर तथा उनका सनातन परम धाम है। उसको प्राप्त करने के लिए किया गया नाम जाप हवन-यज्ञ आदि-2 साधना है। उस साधना से पूज्य वस्तु परमात्मा प्राप्त होगा। जैसे प्रश्न 13 के उत्तर में स्पष्ट किया है, वही सटीक उदाहरण है। उस पूर्ण मोक्ष के लिए तीन बार में दीक्षा क्रम पूरा करना होता है।
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प्रथम नाम दीक्षा = ब्रह्मा, विष्णु, शिव, गणेश, देवी के मन्त्रों की साधना दी जाती है।
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दूसरी बार में क्षर ब्रह्म तथा अक्षर ब्रह्म के दो अक्षर मन्त्रा जाप दिए जाते हैं जिसको सन्तों ने ‘‘सत् नाम’’ कहा है। गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में तीन नाम हैं, ‘‘ओम्-तत्-सत्‘‘ इस सतनाम में दो अक्षर होते हैं, एक ‘‘ओम्‘‘ (ऊँ) दूसरा ‘‘तत्‘‘ है। (यह सांकेतिक अर्थात् गुप्त नाम है जो उपदेश के समय उपदेशी को ही बताया जाता है)
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तीसरी बार में सारनाम की दीक्षा दी जाती है जिस मन्त्रा को गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में ‘‘सत्’’ कहा है, यह भी सांकेतिक है। उपदेश लेने वाले को दीक्षा के समय बताया जाता है। इस प्रकार पूर्ण मोक्ष प्राप्त होता है।
कबीर जी का वकील:- कृष्ण जी के वकील साहेबान श्री विष्णु जी यानि श्री कृष्ण जी को जगदीश (जगत+ईश) यानि सारे संसार का प्रभु बताते हैं। पुराणों को सत्य मानते हैं। पेश है अदालत में सबूत श्री शिव महापुराण से (जो गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित है) कि श्री विष्णु जी, श्री ब्रह्मा जी तथा श्री शिव जी ‘‘ईश’’ नहीं हैं। (ये जगदीश नहीं हैं।) इनका जन्म-मृत्यु होता है। इनका पिता काल ब्रह्म है।
पेश है शिव महापुराण (गीताप्रेस गोखपुर से प्रकाशित) के विद्येश्वर खंड के अध्याय 5-10 की फोटोकाॅपी:-
पेश हैं और प्रमाण, शिव महापुराण (श्री वैकंटेश्वर प्रेस मुबंई से प्रकाशित जिसमें संस्कृत यानि मूल पाठ भी लिखा है, साथ में हिन्दी अनुवाद भी किया है) के विद्येश्वर संहिता खंड के अध्याय 5- 10 की फोटोकाॅपी:-
कृष्ण जी के वकील:- हम चारों वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद), श्रीमद्भगवत गीता, अठारह पुराणों, महाभारत ग्रन्थ तथा श्रीमद्भगवत सुधा सागर को सत्य शास्त्र मानते हैं। इन्हीं सद्ग्रन्थों को आधार मानकर ज्ञान बताते हैं तथा साधना बताते हैं। श्री कृष्ण उर्फ श्री विष्णु, श्री शिव जी, श्री देवी दुर्गा की पूजा करने को कहते हैं। श्राद्ध करना बताते हैं। देव पूजा करते तथा करवाते हैं।
कबीर जी का वकील:- दास अदालत को बताना चाहता है कि श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में कहा कि:-
अध्याय 16 श्लोक 23:- जो पुरूष यानि साधक शास्त्रविधि को त्यागकर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है। (जो शास्त्रों में वर्णित साधना नहीं है, वह साधना शास्त्रविधि त्यागकर स्वइच्छा से आचरण करना कहा है।) वह न सिद्धि को प्राप्त होता है, न परमगति को, न सुख को ही।
सबूत के लिए पढ़ें गीता अध्याय 16 श्लोक 23 की फोटोकाॅपी:-
गीता अध्याय 16 श्लोक 24:- (हे अर्जुन!) इससे तेरे लिए कर्तव्य यानि जो साधना करनी चाहिए और अकर्तव्य यानि जो साधना नहीं करनी चाहिए, उसके लिए शास्त्रा ही प्रमाण हैं। ऐसा जानकर तू शास्त्राविधि से नियत कर्म कर यानि शास्त्रों में जो नहीं लिखा, वह न कर। जो शास्त्रों में वार्णित है, वही साधना कर।
पढ़ें प्रमाण के लिए गीता अध्याय 16 श्लोक 24 की फोटोकाॅपी:-