सहज समाधि कैसे लगती है?

Parakh Ka Ang

पारख के अंग की वाणी नं. 114-116:-

गरीब, जैसे हाली बीज धुनि, पंथी सें बतलाय। जामैं खंड परै नहीं, मुख सें बात सुनाय।।114।।
गरीब, नटवा की सुरति बाँस में, ढोल बोल बौह गाज। कमंद चढै करुणामई, कबहुं न बिगरै काज।।115।।
गरीब, ज्यौं धम घती धात को, देवै तुरंत बताय। जाकौं हीरा दर्श है, जहां वहां टांकी लाय।। 116।।

सरलार्थ:– परमात्मा कबीर जी ने अपनी प्रिय आत्मा संत गरीबदास जी को तत्त्वज्ञान पूर्ण रूप में बताया था। संत गरीबदास जी ने उसे बताया है।

परमात्मा कबीर जी का भक्त नाम का जाप करे तथा नाम के स्मरण में ध्यान लगाए। सतलोक के सुख को याद करके रह-रहकर उसकी प्राप्ति के बाद के आनंद की कल्पना करे। सतलोक के ऊपर ध्यान रहे। स्मरण करे, तब नाम पर ध्यान रहे। इसे सहज समाधि कहते हैं। उदाहरण बताए हैं।

किसान हल चलाता हुआ बीज बो रहा होता है। कई किसानों के खेत एक गाँव से दूसरे गाँव को जाने वाले रास्ते पर होते हैं। किसान बीज भी बो रहा होता है। रास्ते पर चलते (पंथी) पैदल यात्राी से बातें भी कर रहा होता है। बीज के दाने उसी प्रकार जमीन में बो रहा होता है। उसके बीज बोने के ध्यान में कमी नहीं आती। बिना बात करे जिस औसत से दाने छोड़ रहा होता है, यात्राी से बातें करते समय भी वह उसी औसत से बीज के दाने छोड़ता रहता है। उसमें अंतर नहीं आता। इसे सहज समाधि कहा जाता है। (114)

अन्य उदाहरण ‘‘नट’’ यानि बाजीगर का बताया है। कबीर परमात्मा की वाणी है किः-

कबीर जैसे नटनी चढ़ै बांस पर, नटवा ढ़ोल बजावै जी। इधर-उधर से निगाह बचाकर, ध्यान बांस में लावै जी।।

अर्थात् नट की पत्नी खेल करते समय लगभग 12-15 फुट लम्बे बाँस पर बिना जमीन में गाढ़े केवल जमीन के ऊपर रखकर उसके ऊपर चढ़ती है जो महासंतुलन का अनोखा खतरा भरा करतब होता है। पृथ्वी में गाड़कर भी बाँस पर चढ़ना कठिन है। वह तो बिना पृथ्वी में गाढ़े उसके ऊपर चढ़कर अंतिम सिरे पर पेट रखकर हाथ से भी बाँस को छोड़कर पैर भी सीधे कर लेती है। उसका पति ढ़ोल बजाकर उसके ध्यान को डिगाना चाहता है। दर्शक भी ताली पीट-पीटकर प्रसन्नता प्रकट करते हैं। परंतु नटनी सब ओर से ध्यान हटाकर अपनी सुरति बाँस पर रखती है। इसलिए अपना (कर्तब) चमत्कारी अनोखा कार्य करने में सफलता प्राप्त करती है। कहीं-कहीं नट यही कर्तब दिखाता है। अन्य ढ़ोल जोर-जोर से बजाता है। वह भी अपने ध्यान को बाँस में एकाग्र करके सफल हो जाता है। इसी प्रकार साधक को नाम के स्मरण में ध्यान एकाग्र करके जाप करना चाहिए। भले ही कोई गाना गा रहा है या गाने किसी यंत्र में चलाकर ऊँची आवाज से सुन रहा है। साधक का ध्यान उस ओर न जाए, यह सहज समाधि है। (115)

अन्य उदाहरण दिया है:- (धम घृति) पत्थर में हीरे को बताने वाला ध्यान से उस पहाड़ के पास खड़ा हो जाता है जिसमें हीरा है। हीरा पत्थर को चीरकर किसी दिशा की ओर चल पड़ता है। धमघृती ध्यान से उसकी गति (movement) को जानता है। साथ में खड़े व्यक्ति अपनी बातें कर रहे होते हैं, परंतु धमघृती का ध्यान हीरे की चाल पर होता है। धमघृती बता देता है कि इतनी देर में हीरा इतने फुट फांसला (distance) तय करेगा। उसी अनुसार पहाड़ को काटा जाता है। उसकी गहराई (depth) भी धमघृती बता देता है। हीरा चलता-चलता उस पहाड़ के कटे हुए स्थान यानि खाई में गिर जाता है। हीरे का व्यापारी उसे प्राप्त कर लेता है। साधक को परमात्मा के नाम रूपी हीरे पर निंरतर ध्यान रखकर परमात्मा रूपी लाल को प्राप्त करना चाहिए। (116)

सतगुरू की भूमिका

पारख के अंग की वाणी नं. 117-122:–

गरीब, कदली बीच कपूर है, ताहि लखै नहीं कोय। पत्र घूंघची बर्ण है, तहां वहां लीजै जोय।।117।।
गरीब, गज मोती मस्तक रहै, घूमै फील हमेश। खान पान चारा नहीं, सुनि सतगुरु उपदेश।।118।।
गरीब, जिनकी अजपा ध्वनि लगी, तिनका योही हवाल। सो रापति पुरूष कबीर के, मस्तक जाकै लाल।।119।।
गरीब, सीप समंदर में रहै, बूठै स्वांति समोय। वहां गज मोती जदि भवै, तब चुंबक चिडिया होय।।120।।
गरीब, चुंबक चिडिया चंच भरि, डारै नीर बिरोल। जदि गज मोती नीपजै, रतन भरे चहंडोल।।121।।
गरीब, चुंबक तो सतगुरु कह्या, स्वांति शिष्य का रूप। बिन सतगुरु निपजै नहीं, राव रंक और भूप।।122।।

सरलार्थ:- इन वाणियों में सतगुरू की भूमिका प्रमाण सहित समझाई है। कहा है कि (कदली) केले के पेड़ के कोइए (केले का पूरा पेड़ पत्तों ही से निर्मित है। सबसे ऊपर वाला पत्ता गोलाकार में कीप की तरह ऊपर से चैड़ा गोलाकार नीचे कम परिधि का होता है। बीच में (थोथा) खाली होता है। उस गोल पत्ते के खाली भाग को कोइया कहते हैं।) में स्वाति नक्षत्र की वर्षा की बूँद गिर जाती है तो उस केले के पत्ते में कपूर बन जाता है। केला शिष्य है। स्वांति सतगुरू का मंत्र नाम है। नाम यदि योग्य शिष्य को दिया जाता है तो उसमें भक्ति रूपी कपूर तैयार होता है। मोक्ष मिलता है।

अन्य उदाहरण (गज) हाथी का दिया है। कहा है कि हाथी के मस्तिक में एक स्थान परमात्मा ने बनाया है। श्वांति नक्षत्र की बारिश की बूँद ‘‘चुंबक’’ नाम की चिड़िया पृथ्वी पर गिरने से पहले अपने मुख में ग्रहण कर लेती है। वह कभी-कभी हाथी के मस्तक पर बैठी होती है। उसका स्वभाव है कि बारिश की बूँद को मुख में डालँू। फिर उसका कुछ अंश मुख से नीचे गिर जाता है। वह उस हाथी के मस्तक में बने सुराख में गिर जाता है। उससे हाथी के माथे में बने सुराख में अंदर-अंदर मोती बनने लग जाते हैं। जैसे माता का गर्भ का बच्चा बढ़ता है तो माता का पेट भी बढ़ता रहता है। फिर समय आने पर बच्चा सुरक्षित जन्म लेता है। इसी प्रकार हाथी के उस मोती उद्गम सुराख में कई चुंबक चिड़िया श्वांति की बूँदें डाल देती हैं। हाथी के मस्तक वाले मोती उद्गम स्थान में सैंकड़ों मोती तैयार हो जाते हैं। समय पूरा होने पर अपने आप निकलने लगते हैं। ढ़ेर लग जाता है। यह स्थान सब हाथियों में नहीं होता।

इसमें हाथी शिष्य है। चुंबक चिड़िया सतगुरू है। श्वांति बूंद नाम है। जैसे ऐसे सतगुरू रूप चुंबक चिड़िया सच्चे नाम रूपी श्वांति शिष्य के हृदय में डालते हैं। भक्ति तथा मोक्ष रूपी मोती बनते हैं।

जिस हाथी के मस्तक के अंदर मोती होते हैं। उसे अंदर ही अंदर नशा हो जाता है। वह मस्ती में मतवाला होकर घूमता रहता है। चारा खाना भी छोड़ देता है। जिन साधकों ने सतगुरू जी से उपदेश सुनकर दीक्षा लेकर सच्चे मन से अजपा जाप जपा तो उनकी ऐसी ही दशा हो जाती है। वे कबीर परमात्मा के (रापति) हाथी हैं जिनके हृदय में भक्ति रूपी लाल बन रहा है।

अन्य उदाहरण सीप का दिया है। सीप (सीपि) एक जल की जीव है। समुद्र में रहती है। समुद्र का जल खारा होता है। जिस समय बारिश होने को होती है, तब समुद्र का जल अंदर से कुछ गर्म होता है। उस ऊष्णता से सीप को बेचैनी होती है। वह जल के ऊपर आकर मुख खोल लेती है। यदि उस समय बारिश की बूँदें गिर जाती हैं तो सीप को शांति हो जाती है। अपना मुख बंद कर लेती है। उस जल को जो सीप के मुख में गिरा, श्वांति कहते हैं। जिस सीप में श्वांति गिरी, उसमें मोती बन जाता है। कुछ समय उपरांत परिपक्व होकर मोती जल में गिर जाता है। इस उदाहरण में सीप शिष्य है। श्वांति दीक्षा मंत्र हैं। बादल सतगुरू है। सीप से मोती अपने आप नहीं निकलता। एक सुकच मीन है। वह मोती के ऊपर के माँस को खाने के लिए उसको टक्कर मारती है कि इस माँस के अंदर घुसकर खाऊँगी। परंतु वह माँस मात्र प्याज के जाले जैसा रक्त वर्ण का होता है। सुकच मछली की टक्कर से मोती सीप से निकलकर समुद्र में गिर जाती है। सुकच मीन सार शब्द है। श्वांती सतनाम है। यदि सुकच मीन टक्कर नहीं मारती है तो वह मोती सीप में ही गलकर नष्ट हो जाता है।

गरीब सुकच मीन मिलता ना भाई, तो श्वांति सीप अहले जाई।

अर्थात् संत गरीबदास जी ने बताया है कि यदि सुकच मछली नहीं मिलती तो सीप तथा उसमें गिरी श्वांति (अहले) व्यर्थ जाती। सुकच मछली सारशब्द जानो। सारशब्द सतनाम के जाप को सफल करता है। सतगुरू सारशब्द देता है।

इसी प्रकार भक्त को प्रथम नाम, द्वितीय नाम (सतनाम) मिल गए। सारनाम नहीं मिला तो मोक्ष नहीं होगा। वह जीवन व्यर्थ गया। परंतु अगला मनुष्य जन्म (स्त्राी-पुरूष का) मिलेगा। उस जन्म में सतगुरू मिले और सब तीनों नाम मिल गए तो मोक्ष हो जाएगा। सतगुरू के बिना जीव का कल्याण संभव नहीं।

वाणी नं. 123-125:-

गरीब, अधरि सिंहासन गगनि में, बौहरंगी बरियाम। जाका नाम कबीर है, सारे सब के काम।।123।।
गरीब,पड़ाधनीसे काम है,प्रहलाद भगतिकूंबूझि। नरसिंहउतर्याअर्शसैं,किन्हैंनसमझीगूझि।।124।।
गरीब, नर मगेश आकार होय, कीन्ही संत सहाय। बालक वेदन जगतगुरु, जानत है सब माय।।125।।

सरलार्थ:– परमात्मा कबीर जी का (अधर) ऊपर सतलोक में सिंहासन है। वह सब भक्तों के कार्य सिद्ध करता है।

प्रहलाद भक्त को धणी (परमात्मा) से काम पड़ा तो परमात्मा ने उसका कार्य सिद्ध किया। प्रहलाद भक्त से पता करो कि कैसी अनहोनी परमात्मा ने की थी। परमात्मा समर्थ कबीर (अर्श) आकाश से उतरा था। हिरण्यकशिपु को मारा था।

(नर) मानव (मृगेश) सिंह रूप बनाकर संत प्रहलाद की सहायता की थी। जैसे बच्चा भूखा-प्यासा होता है तो उसकी (बेदन) पीड़ा (कष्ट) को माता जानती है। दूध-जल पिलाती है। ऐसे जगतगुरू अपने शिष्य के कष्ट को जानता है। अपने आप कष्ट निवारण कर देता है।

वाणी नं. 126-133:-

गरीब, इस मौले के मुल्क में, दोनौं दीन हमार। एक बामे एक दाहिनै, बीच बसै करतार।।126।।
गरीब, करता आप कबीर है, अबिनाशी बड़ अल्लाह। राम रहीम करीम है, कीजो सुरति निगाह।।127।।
गरीब, नर रूप साहिब धनी, बसै सकल कै मांहि। अनंत कोटि ब्रह्मंड में, देखौ सबहीं ठांहि।।128।।
गरीब, घट मठ महतत्त्व में बसै, अचरा चर ल्यौलीन। च्यारि खानि में खेलता, औह अलह बेदीन।।129।।
गरीब, कौन गडै कौन फूकिये, च्यार्यौं दाग दगंत। औह इन में आया नहीं, पूरण ब्रह्म बसंत।।130।। गरीब, मात पिता जाकै नहीं, नहीं जन्म प्रमाण। योह तो पूरण ब्रह्म है, करता हंस अमान।।131।।
गरीब, आतम और प्रमात्मा, एकै नूर जहूर। बिच कर झ्यांई कर्म की, तातैं कहिये दूर।।132।।
गरीब, परमात्म पूरण ब्रह्म है, आत्म जीव धर्म। कल्प रूप कलि में पड्या, जासैं लागे कर्म।।133।।

सरलार्थ:– परमात्मा के सब जीव हैं। दोनों धर्म (हिन्दू तथा मुसलमान) हमारे हैं। एक परमात्मा के दायीं ओर जानो, दूसरा बायीं ओर। दोनों के मध्य में परमात्मा निवास करता है। (126)

कबीर जी स्वयं ही सृष्टि के रचयिता हैं। अविनाशी (बड़) बड़ा (अल्लाह) परमात्मा हैं। राम कहो, रहीम कहो। (करीम) दयालु हैं। (किजो सुरति निगाह) ध्यान से देखो यानि विचार करो। (127)

परमात्मा (नर) मानव रूप में हैं। सबका (धनी) मालिक सर्वव्यापक है। (128-129)

कोई तो मुर्दे को पृथ्वी में गाड़ देता है। कब्र बनाता है। कोई अग्नि में जला देता है। यह सब मुझे (कबीर परमेश्वर जी को) अच्छा नहीं लगता। पूर्ण मुक्ति प्राप्त करो। वह तो (परमात्मा) चारों दागों में नहीं आता। एक जमीन में गाड़ते हैं। एक धर्म अग्नि में जला देता है। एक जल प्रवाह कर देता है। एक जंगल में पक्षियों के खाने के लिए डाल देता है। ये चार दाग कहे जाते हैं। परंतु परमात्मा कबीर जी किसी दाग में नहीं आया अर्थात् अजर-अमर है कबीर जी। (130)

परमात्मा के कोई माता-पिता नहीं हैं। उनके जन्म का कहीं पर प्रमाण नहीं है। कबीर परमात्मा पूर्ण ब्रह्म भक्तों को (अमान) शांति प्रदान करता है। (131)

आत्मा तथा परमात्मा की एक जैसी छवि है। बीच में पाप कर्मों का (झांई) मैल है। इसलिए परमात्मा जीव से दूर कहा जाता है। (132)

परमात्मा तो पूर्ण ब्रह्म बताया है। आत्मा जीव धर्म से जन्मती-मरती है। इसलिए जीव धर्म में है। (133)

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