काशी नगर में भोजन-भण्डारा (लंगर) देना

पारख के अंग की वाणी नं. 793-824:-

सिमटि भेष इकट्टा हुवा, काजी पंडित मांहि। गरीबदास चिठ्ठा फिर्या, जंबूदीप सब ठांहि।।793।।
मसलति करी मिलाप से, जीवन जन्म कछु नांहि। गरीबदास मेला सही, भेष समेटे तांहि।।794।।
सेतबंध रामेश्वरं, द्वारका गढ़ गिरनार। गरीबदास मुलतान मग, आये भेष अपार।।795।।
हरिद्वार बदरी विनोद, गंगा और किदार। गरीबदास पूरब सजे, ना कछु किया बिचार।।796।।
अठारह लाख दफतर चढे़, अस्तल बंध मुकाम। गरीबदास अनाथ जीव, और केते उस धाम।।797।।
बजैं नगारे नौबतां, तुरही और रनसींग। गरीबदास झूलन लगे, उरधमुखी वौह पींघ।।798।।
एक आक धतूरा चबत है, एक खावै खड़ घास। गरीबदास एक मन मुखी, एक जीमें पंच गिरास।।799।।
एक विरक्त कंगाल हैं, एक ताजे तन देह। गरीबदास मुहमूंदियां, एक तन लावै खेह।।800।।
एक पंच अग्नि तपत है, एक झरनैं बैठंत। गरीबदास एक उरधमुख, नाना विधि के पंथ।।801।।
एक नगन कोपीनियां, इंद्री खैंचि बधाव। गरीबदास ऐसे बहुत, गर्दन पर धरि पांव।।802।।
एक कपाली करत हैं, ऊपर चरण अकाश। गरीबदास एक जल सिज्या, नाना भांति उपास।।803।।
एक बैठे एक ठाडेसरी, एक मौनी महमंत। गरीबदास बड़ बड़ करैं, ऐसे बहुत अनंत।।804।।
एक जिकरी जंजालिया, एक ज्ञानी धुंनि वेद। गरीबदास ऐसे बहुत, वक्ष काट घर खेद।। 805।।
एक ऊंचै सुर गावहीं, राग बंध रस रीत। गरीबदास ऐसे बहुत, आदर बिना अतीत।।806।।
एक भरड़े सिरडे़ फिरै, एक ज्ञानी घनसार। गरीबदास उस पुरी में, नहीं भेष सुमार।।807।।
एक कमरि जंजीर कस, लोहे की कोपीन। गरीबदास दिन रैंन सुध, पडे़ रहैं बेदीन।।808।।
एक मूंजौं के आड़बंधि, केलौं के लंगोट। गरीबदास लंबी जटा, एक मुंडावैं घोट।।809।।
एक रंगीले नाच हीं, करैं अचार विचार। गरीबदास एक नगन हैं, एको खर का भार।।810।।
एक धूंनी तापैं दिहुँ, सिंझ्या देह बुझाय। गरीबदास ऐसे बहुत, अन्न जल कछु न खाय।।811।।
एक मूंधे सूधे पडे़, आसन मोर अधार। गरीबदास ऐसे बहुत, करते हैं जलधार।।812।।
एक पलक मूंदे नहीं, एक मूंदे रहे हमेश। गरीबदास न्यौली कर्म, एक त्राटिक ध्यान हमेश।।813।।
एक बजर आसन करै, एक पदम प्रवीन। गरीबदास एक कनफट्टा, एक बजावैं बीन।।814।।
संख तूर झालर बजैं, रणसींगे घनघोर। गरीबदास काशीपुरी, दल आये बड़ जोर।।815।।
एक मकरी फिकरी बहुत, गलरी गाल बजंत। गरीबदास तिन को गिनें, ऐसे बहुतक पंथ।।816।।
एक हर हर हक्का करैं, एक मदारी सेख। गरीबदास गुदरी लगी, आये भेष अलेख।।817।।
एक चढे़ घोड्यौं फिरै, एक लड़ावैं फील। गरीबदास कामी बहुत, एक राखत हैं शील।।818।।
एक तन को धोवै नहीं, एक त्रिकाली न्हांहि। गरीबदास एक सुचितं, एक ऊपर को बांहि।।819।।
एक नखी निरवाणीयां, एक खाखी हैं खुश। गरीबदास पद ना लख्या, सब कूटत हैं तुश।।820।।
तुश कूटैं और भुस भरैं, आये भेष अटंब। गरीबदास नहीं बंदगी, तपी बहुत आरंभ।।821।।
एक ठोडी कंठ लगाव हीं, आठ बखत नक ध्यान। गरीबदास ऐसे बहुत, कथा छंद सुर ज्ञान।।822।।
एक सौदागर भेष में, कस्तूरी व्यौपार। गरीबदास केसर कनी, सिमट्या भेष अपार।।823।।
एक तिलक धोती करै, दर्पन ध्यान ज्ञान। गरीबदास एक अग्नि में, होमत है अन्नपान।।824।।

पारख के अंग की वाणी नं. 793-824 का सरलार्थ:-

कबीर परमेश्वर जी को काशी शहर से भगाने के उद्देश्य से हिन्दू तथा मुसलमानों के धर्मगुरूओं तथा धर्म के प्रचारकों ने षड़यंत्र के तहत झूठी चिट्ठी में निमंत्रण भेजा कि कबीर जुलाहा तीन दिन का भोजन-भंडारा (लंगर) करेगा। प्रत्येक बार भोजन खाने के पश्चात् दस ग्राम स्वर्ण की मोहर (सोने का सिक्का) तथा एक दोहर (खद्दर की दोहरी सिली चद्दर जो कंबल के स्थान पर सर्दियों में ओढ़ी जाती थी) दक्षिणा में देगा। भोजन में सात प्रकार की मिठाई, हलवा, खीर, पूरी, मांडे, रायता, दही बड़े आदि मिलेंगे। सूखा-सीधा (एक व्यक्ति का आहार, जो भंडारे में नहीं आ सका, उसके लिए) दिया जाएगा। यह सूचना पाकर दूर-दूर के संत अपने शिष्यों समेत निश्चित तिथि को पहुँच गए। काजी तथा पंडित भी उनके बीच में पहुँच गए। चिट्ठी जंबूदीप (पुराने भारत) में सब जगह पहुँची। {ईराक, ईरान, गजनवी, तुर्की, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बिलोचिस्तान, पश्चिमी पाकिस्तान आदि-आदि सब पुराना भारत देश था।} संतजन कहाँ-कहाँ से आए? सेतुबंध, रामेश्वरम्, द्वारका, गढ़ गिरनार, मुलतान, हरिद्वार, बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगा घाट। अठारह लाख तो साधु-संत व उनके शिष्य आए थे। अन्य अनाथ (बिना बुलाए) अनेकों व्यक्ति भोजन खाने व दक्षिणा लेने आए थे। जो साधु जिस पंथ से संबंध रखते थे, उसी परंपरागत वेशभूषा को पहने थे ताकि पहचान रहे। अपने पंथ की प्रचलित साधना कर रहे थे। कोई (बाजे) वाद्य यंत्र बजाकर नाच-नाचकर परमात्मा की स्तूति कर रहे थे।

कोई आक तथा धतूरे को खा रहे थे जो बहुत कड़वा तथा नशीला होता है। कोई खड़घास खा रहे थे। कोई उल्टा लटककर वृक्ष के नीचे साधना कर रहा था। कोई सिर नीचे पैर ऊपर को करके साधना यानि तप कर रहा था। कोई केवल पाँच ग्रास भोजन खाता था। उसका यह नियम था। कोई (मुँहमुंदिया) मुख पर पट्टी बांधकर रखने वाले थे। कोई शरीर के ऊपर (खेह) राख लगाए हुए थे। कोई पाँच धूने लगाकर तपस्या कर रहा था। कोई तिपाई के ऊपर मटके को रखकर उसमें सुराख करके पानी डालकर नीचे बैठकर जल धारा यानि झरना साधना कर रहे थे। कई नंगे थे। कई केवल कोपीन बांधे हुए थे। कोई अपनी गर्दन के ऊपर दोनों पैर रखकर आसन कर रहे थे। कोई (ठाडेसरी) खडे़ होकर तपस्या कर रहे थे। किसी ने मौन धारण कर रखा था। जो बड़बड़ कर थे, वे भी अनेकों आए थे। कुछ ऊँचे स्वर से भगवान के शब्द गा रहे थे। अनेकों ऐसे थे जिनके साथ कोई चेला नहीं था। उनका कोई सम्मान नहीं कर रहा था। कोई सिरड़े-भिरडे़ (बिना स्नान किए मैले-कुचैले वस्त्रा पहने) रेत-मिट्टी में पड़े थे। संत गरीबदास जी दिव्य दृष्टि से देखकर कह रहे हैं कि काशी पुरी में किलकारी पड़ रही थी। कोई सिर के ऊपर बड़े-बड़े बालों की जटा रखे हुए थे। कोई-कोई मूंड-मुंडाए हुए थे। कोई अपने पैरों में लोहे की जंजीर बंाधे हुए था। कोई लोहे की कोपीन (पर्दे पर लोहे की पतली पत्ती लगाए हुए था) बांधे हुए था। कोई केले के पत्तों का लंगोट बांधे हुए था। कोई त्राटक ध्यान लगा रहा था। कोई आँख खोल ही नहीं रहा था। कोई कान चिराए हुए था। इस प्रकार के अनेकों पंथों के शास्त्रा विरूद्ध साधना करने वाले परमात्मा को चाहने वाले (भेष) पंथ काशी में परमेश्वर कबीर जी द्वारा दिए गए भंडारे के निमंत्रण से इकट्ठे हुए थे। अठारह लाख तो साधु-शिष्य वेश वाले थे। अन्य सामान्य नागरिक भी अनेकों आए थे।

पारख के अंग की वाणी नं. 825-837:-

भेष देख रैदास जी, गये कबीरा पास। गरीबदास रैदास कहै, छूट्या काशी वास।।825।।
विहँसे बदन कबीर तब, सुन रैदास बिचार। गरीबदास जुलहा कहै, लाय धनी से तार।।826।।
लाय तार ल्यौ लीन होय, रूप विहंगम मांहि। गरीबदास जुलहा गया, अगम पुरी निज ठांहि।।827।।
जहां बोडी संख असंख सुर, बनजारे और बैल। गरीबदास अविगत पुरी, हुई काशी कूँ सैल।।828।।
जरद सेत और हरे नघ, बोडी भरी अनंत। गरीबदास ऐसे कह्या, ल्यौह कबीर भगवंत।।829।।
औह खाकी खंजूस पुर, अन्नजल ना अधिकार। गरीबदास ऐसे कह्या, सुन तूं कबीर सिरजनहार।।830।।
अनंत कोटि बालद सजी, तास लई नौ लाख। दास गरीब कबीर केशव कला, एक पलक पुर झाँक।।831।।
जहां कल्प ऐसी करी, चैपड़ के बैजार। गरीबदास तंबू तने, पचरंग झंडे सार।।832।।
खुल्या भंडारा गैब का, बिन चिट्ठी बिन नाम। गरीबदास मुक्ता तुले, धन्य केशो बलि जाँव।।833।।
झीनें झनवा तुलत हैं, बूरा घत और दाल। गरीबदास ना आटे अटक, लेवे मुक्ता माल।। 834।।
कस्तूरी पान मिठाईयां, लड्डू जलेबी चंगेर। गरीबदास नुकती निरख, जैसे भण्डारी कुबेर।।835।।
बिना पकाया पकि रह्या, उतरे अर्श खमीर। गरीबदास मेला सरू, जय जय होत कबीर।।836।।
सकल संप्रदा त्रिपती, तीन दिन जौंनार। गरीबदास षट दर्शनं, सीधे गंज अपार।।837।।
केशो आया है बनजारा,काशील्याया मालअपारा।।टेक।।

नौलख बोडी भरी विश्म्भर, दिया कबीर भण्डारा। धरती उपर तम्बू ताने, चैपड़ के बैजारा।।1।।
कौन देश तैं बालद आई, ना कहीं बंध्या निवारा। अपरम्पार पार गति तेरी, कित उतरी जल धारा।।2।।
शाहुकार नहीं कोई जाकै, काशी नगर मंझारा। दास गरीब कल्प से उतरे, आप अलख करतारा।।3।।

राग छन्द बंगाली से शब्द नं. 2 तथा 3 का कुछ अंश:-

ऐसे अगम अगाध सतगुरु, ऐसे अगम अगाध।।टेक।। अजामेल गनिका से त्यारे, ऐसे पापी अधम उधारे, छाडो वाद विवाद।।1।। ध्रू प्रहलाद गये स्वर्ग मंझारा, एक कल्प न आवैं संसारा, गुरु द्रोही कूँ खादि।।2।। सदना सेऊ सम्मन त्यारे, गुरु द्रोही तो चुणि चुणि मारे, निंदत कूँ नहीं दादि।।3।। धन्ना भगत का खेत निपाया, नामदेव की छानि छिवाया, सतगुरु लीन्ह अराध।।4।। षट्दर्शन कूँ हांसी करिया, भगति हेत केशो तन धरिया, ल्याये बालदि लादि।।5।। जा कूँ कहैं कबीर जुलाहा, सब गति पूर्ण अगम अगाहा, अविगत आदि अनादि।।6।। ऐसी सतगुरु थापना थापी, कोटि अकर्मी त्यारे पापी, मेरी क्या बुनियादि।।7।। बाहर भीतरि की सब जानैं, नौका लगी जिहाज निदानै, उतरि गये कई साध।।8।। दास गरीब कबीर समर्थ नाथा, हम कूँ भेटे सतगुरु दाता। मिट गई कोटि उपाधि।।9।।2।। ऐसे हैं निज नेक सतगुरु, ऐसे हैं निज नेक।।टेक।। चैरासी से बेगि उधारैं, जम किंकर की तिरास निवारैं, मेटै कर्म की रेख।।1।। सत कबीर सरबंगी सोई, आदि अनाहद अविगत जोई, कहा धरत हो भेष।।2।।

राग आसावरी से शब्द नं. 61:-

षट्दर्शन चढ़ि आया। देखौ ऐसी तेरी माया।।टेक।। चिठ्ठा फिर्या समुंदरौं ताईं, भेषौ तोत बनाया। ठारह लाख चढे़ दफतर में, कलम बंधि लिख धाया।।1।। करूनामई कलप जदि कीन्हीं, दिल में ऐसी धारी। नौ लख बोडी भरि करि आई, केशो नाम मुरारी।।2।। चावल चूंन और घिरत मिठाई, लागि गये अटनाले। छप्पन भोग सिंजोग सलौंने, भेष भये मतवाले।।3।। कबीर गोसांई रसोई दीन्हीं, आपै केशो बनि करि आये। परानंदनी जाकै द्वारै, बहु विधि भेष छिकाये।।4।। हिंदू मुसलमान कहत हैं, ब्राह्मण और बैरागी। सन्यासी काशी के गांवै, नाचै दुनिया नागी।।5।। कोई कहै भंडारा दीन्हा, कोई कोई कहै महौछा। बडे़ बड़ाई देत हैं भाई, गारी काढै ओछा।।6।। अमर शरीर कबीर पुरुष का, जल रूप जगदीशं। गरीबदास सतलोक है असतल, साहिब बिसवे बीसं।।7।।61।।

राग नट से शब्द नं. 4 का कुछ अंश:-

नामदेव ने निरगुन चीन्ह्या, देवल बेग फिरी रे। अजामेल से पापी होते, गनिका संगि उधरी रे।।4।। नाम कबीरा जाति जुलाहा, षट्दल हांसि करी रे। हे हरि हे हरि होती आई, बालदि आनि ढुरी रे।।5।।

राग निहपाल से शब्द नं. 1:-

जालिम जुलहे जारति लाई, ऐसा नाद बजाया है।।टेक।। काजी पंडित पकरि पछारे, तिन कूँ जवाब न आया है। षट्दर्शन सब खारज कीन्हे, दोन्यौं दीन चिताया है।।1।। सुर नर मुनिजन भेद ना पावैं, दोहूं का पीर कहाया है। शेष महेश गणेशर थाके, जिन कूँ पार न पाया है।।2।। नौ औतार हेरि सब हारे, जुलहा नहीं हेराया है। चरचा आंनि परी ब्रह्मा सैं, चार्यों बेद हराया है।।3।। मगहर देश कूँ किया पयांना, दोन्यौं दीन डुराया है। घोर कफन हम काठी दीजो, चद्दरि फूल बिछाया है।।4।। गैबी मंजिल मारफति औंढ़ी, चादरि बीच न पाया है। काशी वासी है अविनाशी, नाद बिंद नहीं आया है।।5।। ना गाड्या ना जार्या जुलहा, शब्द अतीत समाया है। च्यार दाग से रहित सतगुरु, सो हमरै मन भाया है।।6।। मुक्ति लोक के मिले प्रगनें, अटलि पटा लिखवाया है। फिर तागीर करै ना कोई, धुर का चाकर लाया है।।7।। तखत हिजूरी चाकर लागे, सति का दाग दगाया है। सतलोक में सेज हमारी, अविगत नगर बसाया है।।8।। चंपा नूर तूर बहु भांती, आंनि पदम झलकाया है। धन्य बंदी छोड़ कबीर गोसांई, दास गरीब बधाया है।।9।। 1।।

राग होरी से शब्द नं. 10 का कुछ अंश:-

केशो नाम धर कबीरा आए, बालदि आनि ढही रे।
दास गरीब कबीर पुरुष कै, उतरी सौंज नई रे।।6।।

अरील से शब्द नं. 22-25:-

एक चदरी एक गुदरी सतगुरु पास रे। हम नहीं निकसैं बाहर होय है हांस रे।।1।। शाह सिकंदर सुन कर डेरे जात है। बोलै माय कबीर यहाँ कुछ घात है।।2।। इन कपटी कुलहीन लगाया काट रे। बन केशव बनजारा कर हैं साँट रे।।3।। जहाँ शाह सिकंदर सतगुरु गोसटि कीन्हियां। तुम कर्ता पुरुष कबीर तिबै उहाँ चीन्हियाँ।।4।। हम रेजा कपरा बुनि हैं आत्म कारनैं। ठारह लाख दल भेष पर्या है बारनैं।।5।। खांन पांन घर मांहि नहीं है मोर रे। षट् दल कीन्ही हांसि कीया बहु जोर रे।।6।। मुसकल की आसान करैगा जानि कर। एक केशव बनजारा उतर्या आनि कर।।7।। कह शाह सिकंदर साची भाषि हैं। काशी के बैजारि द्रव्य बहु लाख हैं।।8।। गुदरी गहनें धर कर सीधा देत हैं। गौड़ी टोडी और बिलावल लेत हैं।।9।। रासा निरगुण नाम हमारे एक है। हरिहाँ महबूब कहता दास गरीब मुझे कोई देख है।।10।।22।। कुटल भेष कुलहीन कुबुद्धि कूर हैं। भाव भक्ति नहीं जानैं श्वाना सूर हैं।।1।। चल मेले का भाव देख फिर आवहीं। उहां केशव बनजारा भूल भूलावहीं।।2।। एक हिलकारा आंनि तंबु में ले गया। केशव और कबीर सु मेला दे गया।।3।। तीन दिवस दरवेश महात्म मालवै। गैबी फिरे नकीब कंूच कर चालवै।।4।। गंग उतरि कर गैब हुये दल भिन्न रे। कहां गये बनजारे बोडी अन्न रे।।5।। केशव और कबीर मिलत एकै भये। हरिहाँ महबूब कहता दास गरीब तकी रोवै दहे।।6।।23।। शाह तकी नहीं लखी निरंजन चाल रे। या परचे से आगे मांगै ज्वाल रे।।1।। शाला कर्म सुभान सरीकत देखिया। शाह तकी निरभाग न कागज छेकिया।।2।। शाह सिकंदर चरण जुहारे जान कर। तुम अविगत पुरुष कबीर बसो उर आंनि कर।।3।। तुम खालिक सरबंग सरूप कबीर है। हरिहाँ महबूब कहता दास गरीब पीरन सिर पीर है।।4।।24।। यौह सौदा सति भाय करो प्रभाति रे। तन मन रतन अमोल बटाऊ साथ रे।।1।। बिछरि जांहिगे मीत मता सुन लीजिये। बौहर न मेला होय कहो क्या कीजिये।।2।। शील संतोष विवेक दया के धाम हैं। ज्ञान रतन गुलजार संगाती राम हैं।।3।। धर्म धजा फरकंत फरहरैं लोक रे। ता मध्य अजपा नाम सु सौदा रोक रे।।4।। चले बनजुवा उठि हूंठ गढ़ छाडि रे। हरिहाँ महबूब कहता दास गरीब लगै जम डांड रे।।5।।25।।

पारख के अंग की वाणी नं. 825-837 का सरलार्थ:-

संत रविदास जी सुबह जंगल फिरने के लिए गए तो इतने सारे साधु-संतों को देखकर आश्चर्य किया तथा प्रश्न किया कि किस उपलक्ष्य में आए हो? उन्होंने बताया कि इस शहर के सेठ कबीर जुलाहा यज्ञ कर रहे हैं। हमारे पास पत्र गया था, हम आ गए हैं। तीन दिन का भोजन-भंडारा है। देखो पत्र साथ लाए हैं। रविदास जी को समझते देर नहीं लगी। परमेश्वर कबीर जी के पास घर पर गए। बताया कि हे प्रभु! अबकी बार तो काशी त्यागकर कहीं अन्य शहर में चलना होगा। सब बात बताई। परमात्मा कबीर जी संत रविदास जी की बात सुनकर चिंतित नहीं हुए। हँसे तथा बोले कि हे रविदास! बात सुन! बैठ जा भक्ति कर। परमात्मा आप संभालेगा। कबीर परमात्मा एक रूप में तो वहाँ कुटी में बैठे भजन करने का अभिनय कर रहे थे। अन्य रूप में सतलोक में गए। उनको पहले ही सतर्क कर रखा था। सतलोकवासियों ने असँख्यों बनजारे तथा बौड़ी (बैलों के ऊपर बोरे रखकर भोजन सामग्री भर रखी थी। एक बैल को बोरे समेत बंजारे लोग बोडी कहते थे) तैयार कर रखी थी।

जब कबीर जी सतलोक में बोडी लेने गए तो सतलोक वाले सेवक बोले कि हे कबीर भगवान! ले जाओ जितनी आवश्यकता है। हे कबीर सृजनहार! वह तो (खंजूस) भूखा निर्धन लोक है। कबीर जी ने उनमें से नौ लाख बौडी तथा कुछ बनजारे वाले वेश में भक्त सेवादार साथ लिए तथा स्वयं केशव बंजारे का रूप धारण किया। एक पलक (क्षण) में पृथ्वी के ऊपर आ गए। काशी शहर में तंबू (ज्मदज) लगाए। पाँच रंग के झंडे सतलोक वाले लगाए। भंडारे में कोई खाना खाओ, कोई रोक-टोक नहीं थी। यह नहीं था कि जिनके नाम निमंत्रण पत्र गया है, वे अपनी चिट्ठी तथा नाम-पता दिखाओ और खाना खाओ जैसा कि काल लोक वाले साधु किया करते थे। सूखा सीधा के लिए आटा, खांड, चावल, घी, दाल सब दी जा रही थी। मिठाई, लड्डू, जलेबी, चंगेर (बर्फी) सब खिलाई जा रही थी। जैसे कुबेर भंडारी ही पृथ्वी पर आया हो। बिना पकाया पक रहा था। टैंटों-तंबुओं में ढ़ेर के ढ़ेर मिठाईयों के लगे थे। कड़ाहे चावल, खीर, हलवा के भरे थे। सब खा रहे थे। दक्षिणा दी जा रही थी। कबीर परमेश्वर की जय-जयकार हो रही थी। बैल बिना सींगों वाले थे। बैल पृथ्वी से छः इंच ऊपर-ऊपर चल रहे थे। पृथ्वी के ऊपर पैर नहीं रख रहे थे क्योंकि यह पृथ्वी किटाणुओं से भरी है। पैरों के नीचे जीव मारने से पाप लगता है। तीन दिन तक सब सम्प्रदायों के व्यक्ति भोजन से तृप्त किए। षटदर्शन पंथों वाले साधुओं ने असँख्यों सीधे (एक व्यक्ति का एक समय की सूखी सामग्री, चावल, खांड, दाल, आटा, घी आदि-आदि) ले लिये। एक वर्ष का भोजन संग्रह कर ले गए। तीन दिन यहाँ छककर खा गए।

पारख के अंग की वाणी नं. 838-850:-

शाह सिकंदर कूँ सुनी, धंन कबीर बलि जाँव। गरीबदास मेले चलो, मम हिरदे धरि पांव।।838।।
कहै कबीर सुन शाह तूं, भेष बीगाड़ा काम। गरीबदास कैसे चलौं, मो गठरी नहीं दाम।।839।।
नहीं काशी में शाह कोई, मोहि उधारा देत। गरीबदास ताना तनूं, जिब कुंनबे की सुधि लेत।।840।।
मैं अधीन अंनकीट हूं, उदर भरै नहीं मोहि। गरीबदास माता दुखी, अरू मोमिन है छोहि।।841।।
ऐ कबीर तुम अलह हो, पलक बीच प्रवाह। गरीबदास कर जोरि करि, ऐसे कहता शाह।।842।।
तुम दयाल दरवेश हो, धरि आये नर रूप। गरीबदास ऐसे कहै, शाह सिकन्दर जहां भूप।।843।।
उठे कबीर कर्म किया, बरसे फूल अकाश। गरीबदास मेले चले, चैंर करत रैदास।।844।।
तीन एक चंहडोल में, रैदास शाह कबीर। गरीबदास चैंरा करै, बादशाह बलबीर।।845।।
मुकट मनोहर बांधि करि, चढ़े फील कबीर। गरीबदास उस पुरी में, कोई न धर है धीर।।846।।
केशव चले कबीर पै, कबीर कष्ट क्यों कीन। गरीबदास हस्ती चढ़े, मेला देखन तीन।।847।।
चैपड़ के बैजार फिर, आये केशव पास। गरीबदास कुरबान गति, क्या क्या कहूँ विलास।।848।।
पाट पिटंबर बिछ गये, ऊपरि हीरे लाल। गरीबदास साहिब धनी, ल्याये मुक्ता माल।।849।।
केशव और कबीर का, तंबू मांहि मिलाप। गरीबदास आठ पहर लग, गोष्ठी निज गरगाप।।850।।

पारख के अंग की वाणी नं. 838.850 का सरलार्थ:-

उन षड़यंत्रकारियों ने सुनियोजित सोची-समझी चाल के तहत दिल्ली के बादशाह सिकंदर लोधी को भी भंडारे का निमंत्रण भेजा था। सोचा था कि सिकंदर राजा आएगा। यहाँ कोई भंडारा नहीं मिलेगा। जनता कबीर को गालियाँ दे रही होगी। अराजकता का माहौल होगा। कबीर भाग जाएगा। राजा के मन से उसकी महिमा समाप्त हो जाएगी। शेखतकी जो राजा सिकंदर का धार्मिक पीर (गुरू) था तथा मंत्री भी था, वह इस षड़यंत्र का मुखिया था। जब राजा व शेखतकी भंडारा स्थल पर आए तो देखा लंगर लग रहा है। मोहन भोजन परोसे जा रहे हैं। दक्षिणा भी दी जा रही है। कबीर जी सेठ की जय बुलाई जा रही है। राजा ने उपस्थित व्यक्तियों से पूछा कि भंडारा कौन कर रहा है? उत्तर मिला कि कबीर सेठ जुलाहा कर रहा है। वह तो अभी आए नहीं हैं। उनका नौकर सामने तंबू में बैठा है। वह सब व्यवस्था कर रहा है। राजा सिंकदर तथा शेखतकी तंबू के पास गए। उस व्यक्ति का परिचय पूछा तो बताया कि मेरा नाम केशव बनजारा है। कबीर मेरा पगड़ी-बदल मित्र है। उनका पत्र मेरे पास गया था कि आप कुछ सामान भंडारे का लेते आना। छोटा-सा भंडारा करना है। मैं हाजिर हो गया। कबीर जी कहाँ है? राजा ने पूछा। वे किस कारण से नहीं आए? केशव ने कहा कि वे मालिक हैं। मर्जी है कभी आएँ। उनका नौकर जो बैठा है। यह व्यवस्था वे स्वयं ही कुटी में बैठे संभाल रहे हैं। वे परमात्मा हैं। राजा सिकंदर हाथी पर सवार होकर कबीर जी की कुटी पर पहुँचा। दरवाजा बंद था। निवेदन करके खुलवाया तथा कहा कि आप मेरा दिल का निवेदन स्वीकार करके मेरे साथ मेले में भंडारे पर चलो तो परमात्मा ने कहा कि हे राजन! मेरे साथ अभद्र मजाक किया गया है। मैं निर्धन व्यक्ति कपड़ा बुनकर परिवार का पोषण कर रहा हूँ। अठारह लाख साधु भोजन-भंडारा छकने आए हैं। तीन दिन का भंडारा पत्र में लिखा है। मैं कहाँ से खिलाऊँगा? मैं तो घर से बाहर नहीं निकल सकता। रात्रि में परिवार सहित भाग जाऊँगा। हे राजा! इन भेषों वालों ने काम बिगाड़ा है। झूठी चिट्ठी मेरे नाम से भेज रखी है। मेरा उदर भी नहीं भरता। मेरी माता तथा पिता (मँुह बोले माता-पिता) मेरे पर क्रोध करेंगे। कोई काशी नगर में सेठ (शाह) भी मुझे उधार नहीं देता क्योंकि मेरी आमदनी कम है, निर्धन हूँ। मैं कैसे आपके साथ मेले में भंडारे के स्थान पर चलूँ। राजा सिकंदर जो दिल्ली का सम्राट था, उसने हाथ जोड़कर कहा कि हे कबीर! आप परमात्मा (अल्लाह) हो। नर रूप बनाकर आए हो। तुम दयाल (दरवेश) संत हो।

कबीर ने (करम) रहम किया। चलने के लिए उठे तो आकाश से फूल बरसने लगे। सिकंदर राजा ने परमात्मा कबीर को हाथी पर बैठाया। साथ में रविदास जी कबीर जी के सिर के ऊपर चंवर करते हुए कबीर जी के आदेश अनुसार उनके साथ हाथी पर बैठ गए। राजा भी हाथी पर उनके साथ बैठा। फिर रविदास जी से निवेदन करके राजा सिकंदर ने चंवर ले लिया और कबीर जी के ऊपर चंवर करने लगे। कबीर परमात्मा के सिर के ऊपर अपने आप मनोहर मुकुट आकर सुशोभित हो गया। काशी पुरी के व्यक्ति बेचैनी से कबीर परमेश्वर के दर्शन करने का इंतजार कर रहे थे। भंडारा स्थल पर आए तो केशव रूप उनके हाथी के पास आया तथा कहा कि हे कबीर प्रभु! आपने यहाँ आने का कष्ट क्यांे किया? आपका दास जो सेवा में हाजिर है। उसकी बात को अनसुना करके तीनों हाथी को आगे मेले में ले गए जहाँ अठारह लाख व्यक्ति ठहरे थे। वह तो बहुत बड़ा मेला था। चैपड़ के बाजार में घूम-फिरकर केशव के पास आ गए। जब कबीर जी हाथी से उत्तरे तथा केशव वाले तंबू में गए तो अपने आप संुदर तख्त आ गया तथा उसके ऊपर संुदर बिछौनी बिछ गई। बिछौनी के चारों ओर हीरे, लाल लग गए। महाराजा जैसा आसन लग गया। दूसरी ओर ऐसा ही केशव के लिए लगा था। कबीर जी को देखने के लिए सब साधु-संत आकर चारों ओर कुछ बैठ गए, पीछे वाले खड़े रहे। परमात्मा कबीर जी ने केशव के साथ (आठ पहर) चैबीस घंटे लगातार आध्यात्मिक गोष्ठी की, तत्त्वज्ञान सुनाया। लगभग दस लाख उन भ्रमित साधुओं के शिष्यों ने कबीर जी से दीक्षा ली और जीवन सफल किया।

© Kabir Parmeshwar Bhakti Trust (Regd) - All Rights Reserved