शास्त्र विधि रहित पूजा अर्थात् मनमाना आचरण का विवरण
- गीता अध्याय 3 के श्लोक 3 से 8 में भगवान ने कहा है कि हे निष्पाप! (अर्जुन) इस लोक में ज्ञानी तो ज्ञान को श्रेष्ठ मानते हैं तथा योगी कर्म योग को फिर भी ऐसा कोई नहीं है जो कर्म किए बिना बचे। निष्कर्मता नहीं बन सकती और कर्म त्यागने मात्र से भी उद्देश्य प्राप्त नहीं हो सकता।
अध्याय 3 श्लोक 4 में निष्कर्मता का भावार्थ है कि जैसे किसी व्यक्ति ने एक एकड़ गेहूँ की पक्की हुई फसल काटनी है तो उसे काटना प्रारम्भ करके ही फसल काटने वाला कार्य पूरा किया जाएगा तब कार्य शेष नहीं रहेगा इस प्रकार कार्य पूरा होने से ही निष्कर्मता प्राप्त होती है। ठीक इसी प्रकार शास्त्र विधि अनुसार भक्ति कर्म प्रारम्भ करने से ही परमात्मा प्राप्ति रूपी कार्य पूरा होगा। फिर निष्कर्मता बनेगी। कोई कार्य शेष नहीं रहेगा। यदि भक्ति कर्म नहीं करेगें तो यह त्रिगुण माया (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिव) बलपूर्वक अन्य व्यर्थ के कार्यों में लगाएगी। चूंकि स्वभाव वश माया (प्रकृति) से उत्पन्न तीनों गुण (रज-ब्रह्मा, सत-विष्णु, तम-शिव) जीव से जबरदस्ती कर्म करवाते हैं। जैसे जूआ खेलना, शराब आदि नशीली वस्तुओं का सेवन करना, चोरी-लूट, व्याभीचार करना, अधिक धन उपार्जन के अर्थ पाप करना जैसे मिलावट-धोखाधड़ी आदि कर्म जीव तीनों देवताओं से निकल रहे गुणों के प्रभाव से करता है। जब तक मानव (स्त्री-पुरूष) पूर्ण गुरू धारण नहीं करता, तब तक वह ऐसा होता है जैसे बिना खेवटिया (मल्लाह) की नौका जो हवा के झोंकों तथा पानी की लहरों व दरिया के बहाव से प्रभावित होकर इधर-उधर जाती है। भंवर में फँसकर नष्ट हो जाती है। पूर्ण सतगुरू की शरण में जब मानव (स्त्री-पुरूष) आ जाता है तो वह मल्लाह वाली नौका बन जाता है। सतगुरू रूपी मल्लाह जीव रूपी नौका को संसार सागर में इधर-उधर बहने (भटकने) नहीं देता। अपनी कुशलता से चलाकर दरिया के उस पार सकुशल पहुँचा देता है। जिनको पूर्ण गुरू नहीं मिला। वे जो मनमुखी भक्तजन (साधक) कर्म इन्द्रियों को हठ पूर्वक रोक कर एक स्थान पर भजन पर बैठते हैं तो उनका मन ज्ञान इन्द्रियों के प्रभाव से प्रभावी रहता है। वे लोग दिखावा आडम्बर वश समाधिस्थ दिखाई देते हैं। वे पाखण्डी हैं अर्थात् कर्म त्याग से भजन नहीं बनता। करने योग्य कर्म करता रहे तथा ज्ञान से मन व इन्द्रियों को अच्छे कर्मों में संलग्न रखे। शास्त्रों में वर्णित विधि से करने योग्य कर्म करना श्रेष्ठ है यदि सांसारिक कर्म नहीं करेगा तो तेरा निर्वाह (परिवार पोषण) कैसे होगा?
- अध्याय 3 के श्लोक 9 में कहा है कि निष्काम भाव से शास्त्र अनुकूल किये हुए धार्मिक कर्म (यज्ञ) लाभदायक हैं। यज्ञ यानि धार्मिक अनुष्ठान जैसे पाँचों यज्ञ तथा नाम जाप करने के अतिरिक्त जूआ खेलना, शराब, तम्बाकू, माँस सेवन करना, फिल्म देखना, निंदा करना, व्याभीचार करना आदि-आदि कर्मों को करने वाला व्यक्ति कर्मों में बँधता है। इसलिए परमात्मा के निमित शास्त्र वर्णित कर्तव्य कर्म कर।
विशेष:- उपरोक्त गीता अध्याय 3 श्लोक 6 से 9 तक एक स्थान पर एकान्त में विशेष आसन पर बैठ कर कान-आँखें आदि बंद करके हठयोग करने की मनाही की है तथा शास्त्रों में वर्णित भक्ति विधि अनुसार साधना करना श्रेयकर बताया है। प्रत्येक सद्ग्रन्थों में सांसारिक कार्य करते-करते नाम जाप व यज्ञादि करने का भक्ति विधान बताया है।
प्रमाण:- पवित्र गीता अध्याय 8 श्लोक 13 में कहा है कि मुझ ब्रह्म का उच्चारण करके सुमरण करने का केवल एक मात्र ओं (ॐ) अक्षर है जो इसका जाप अन्तिम श्वांस तक कर्म करते-करते भी करता है वह मेरे वाली परमगति को प्राप्त होता है।
-
अध्याय 8 श्लोक 7 में कहा है कि हर समय मेरा स्मरण भी कर तथा युद्ध भी कर। इस प्रकार मेरे आदेश का पालन करते हुए अर्थात् सांसारिक कर्म करते-करते साधना करता हुआ मुझे ही प्राप्त होगा। भले ही अपनी परमगति को गीता अध्याय 7 श्लोक 18 में अति अश्रेष्ठ अर्थात् अति व्यर्थ बताया है, परंतु ब्रह्म साधना की विधि यही है।
-
फिर अध्याय 8 श्लोक 8 से 10 तक में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि जो गीता अध्याय 8 श्लोक 3 में परम अक्षर ब्रह्म कहा है, उस परमात्मा अर्थात् पूर्णब्रह्म की भक्ति करो, जिसका विवरण गीता अध्याय 8 श्लोक 8-10 में तथा अध्याय 18 श्लोक 62 व अध्याय 15 श्लोक 1 व 4 तथा 17 में दिया है। उसका भी यही विधान है कि जो साधक पूर्ण परमात्मा की साधना तत्वदर्शी संत से उपदेश प्राप्त करके नाम जाप करता हुआ तथा सांसारिक कार्य करता हुआ शरीर त्याग कर जाता है वह उस परम दिव्य पुरुष अर्थात् पूर्ण परमात्मा को ही प्राप्त होता है। तत्वदर्शी संत का संकेत गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में दिया है। तत्वदर्शी सन्त की पहचान गीता अध्याय 15 श्लोक 1 में है यही प्रमाण पवित्र यजुर्वेद अध्याय 40 मंत्र 10 तथा 13 में दिया है।
यजुर्वेद अध्याय 40 मंत्र 10 का भावार्थ:-
पवित्र वेदों को बोलने वाले ब्रह्म ने कहा कि पूर्ण परमात्मा के विषय में कोई तो कहता है कि वह अवतार रूप में उत्पन्न होता है अर्थात् आकार में कहा जाता है, कोई उसे कभी अवतार रूप में आकार में उत्पन्न न होने वाला अर्थात् निराकार कहता है। उस पूर्ण परमात्मा का तत्वज्ञान तो धीराणाम् अर्थात् तत्वदर्शी संत ही बताऐंगे कि वास्तव में पूर्ण परमात्मा का शरीर कैसा है? वह कैसे प्रकट होता है? पूर्ण परमात्मा की पूरी जानकारी धीराणाम् अर्थात् तत्वदर्शी संतों से सुनों। मैं वेद ज्ञान देने वाला ब्रह्म भी नहीं जानता। फिर भी अपनी भक्ति विधि को बताते हुए अध्याय 40 मंत्र 15 में कहा है कि मेरी साधना ओ3म् (ॐ) नाम का जाप कार्य करते-करते कर, विशेष आस्था के साथ सुमरण कर तथा मनुष्य जीवन का मुख्य कत्र्तव्य जान कर सुमरण कर, इससे मृत्यु उपरान्त अर्थात् शरीर छूटने पर मेरे वाला अमरत्व अर्थात् परमगति को प्राप्त हो जाएगा। जैसे सूक्ष्म शरीर में कुछ शक्ति आ जाती है, कुछ समय तक अमर हो जाता है। जिस कारण स्वर्ग या महास्वर्ग यानि ब्रह्मलोक में चला जाता है। पुनः जन्म-मृत्यु को प्राप्त हो जाता है।