तप्त शिला पर जल रहे प्राणियों से वार्ता

धर्मदास जी ने प्रश्न किया हे परमेश्वर! हम आप के साथ विश्वास घात करके आए थे। आपको हम नीच आत्माओं पर फिर भी दया आ गई। आप का काल ब्रह्मके इस भयंकर लोक में कैसे तथा कब-कब आगमन हुआ। उत्तर (कबीर देव का):- जिस समय सृष्टि रचना की तथा काल ब्रह्म ने इन आत्माओं को आकर्षित किया। ये इस के साथ स्वःइच्छा से यहाँ आ गए। कुछ समय पश्चात् ही काल ब्रह्म इनको तप्तशिला पर गर्म करके तड़फाने लगा तथा अन्य कष्टमय प्राणियों के शरीर में डालकर कष्ट भोगने के लिए विवश करने लगा तब सर्व आत्माऐं परमेश्वर को याद करके सुख की इच्छा करने लगी। तब अपनी आत्माओं का कष्ट मुझ से देखा नहीं गया। मैं प्रथम सत्ययुग में इस काल ब्रह्म के लोक में अन्य रूप धारण करके आया।

सर्व प्रथम उस स्थान पर पहुँचा जहाँ पर प्रतिदिन एक लाख मानव शरीर धारी प्राणियों के सूक्ष्म शरीर को तप्त शिला पर गर्म करके उनसे निकले मैल को खाता है। तप्तशिला, एक पत्थर की टुकड़ी है। जो तवे के आकार की है जो स्वतः गर्म रहती है। उस समय उस तप्तशिला पर एक लाख प्राणी तड़फ रहे थे, हा-2 कार मचा था। दिल दहलाने वाली चीखें मार रहे थे। जैसे चावलों से खील बनाते समय चटक-मटक होती है। ऐसे सर्व प्राणी उस तप्तशिला पर चटक रहे थे। मैं उस तप्त शिला के निकट जा के खड़ा हुआ। मेरे प्रताप से तप्तशिला की अग्नि की आंच ने उन प्राणियों को प्रभावित करना बन्द कर दिया। तप्तशिला उसी प्रकार जल रही थी परन्तु मेरी उपस्थिति के कारण अग्नि की आंच उन प्राणियों को जला नहीं रही थी। सर्व प्राणी अपने आप को कष्ट रहित जानकर शान्त होकर उस तप्तशिला पर बैठकर मेरी और देखने लगे। मुझ से पूछा हे परमेश्वर! यहाँ पर हम कौन से कर्म का दण्ड भोग रहे हैं? हे प्रभु! आप की कृपा से हमें अब कोई कष्ट नहीं है। हम अग्नि में बैठे हुए भी अपने आप को सामान्य से भी अधिक सुखी महसूस कर रहे हैं। आप कौन है? क्या आप ही काल ब्रह्म हैं? या कोई उनके अनुचर हो कृपा हमें सर्व भेद बताइऐ?

उत्तर (कविर्देव का):- मैंने उन दुःखी प्राणियों को बताया। हे जीवात्माओं! मैं काल ब्रह्म नहीं हूँ। मैं तत् ब्रह्म अर्थात् वह परमात्मा हूँ। जिसके विषय में वेद भी कहते हैं कि उस पूर्ण परमात्मा का पूर्ण ज्ञान हम नहीं जानते उस के विषय मैं तो तत्वदर्शी सन्त ही वास्तविक ज्ञान देते हैं। उन से पूछो। {यजुर्वेद अध्याय 40 श्लोक 10 व 13 में कहा है कि परमात्मा कैसा है? तथा विद्वान कौन है? यह ज्ञान धीराणाम् अर्थात् तत्वदर्शी सन्त ही बताते हैं उनसे सुनो। यही प्रमाण गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में लिखा है कि तत्वज्ञान को तत्वदर्शी सन्तों के पास जाकर समझ जो परमात्मा के विषय में पूर्ण परिचित हैं। तत्वदर्शी सन्त की पहचान गीता अध्याय 15 श्लोक 1 में बताई है। जो श्लोक 1 से 4 के विवरण से स्पष्ट रूप से समझी जा सकती है। गीता अध्याय 13 श्लोक 2 व 11 में भी गीता ज्ञान दाता काल ब्रह्म ने कहा है कि जो तत्व ज्ञान है, वही वास्तविक ज्ञान है। ऐसा मेरा मत है।

विचारणीय विषय है कि वेदों व गीता के ज्ञान दाता काल ब्रह्म ने कहा है कि जो मेरे द्वारा दिया ज्ञान (वेदों व गीता का ज्ञान) पूर्ण नहीं है उस तत्वज्ञान को तो तत्वदर्शी सन्त ही जानते हैं। उनकी खोज करके अपना कल्याण कराओ।} वेदों व गीता के ज्ञान के आधार से भक्ति करने वालों को जन्म-मृत्यु, स्वर्ग-नरक का चक्र तथा यह तप्तशिला का कष्ट सदा बना रहेगा। आप जिस काल ब्रह्म के विषय में जानते हो जो लोक वेद के आधार से पुरूषोत्तम प्रसिद्ध है। परन्तु वास्तव में पुरूषोत्तम तो अन्य ही है। प्रमाण गीता अध्याय 15 श्लोक 16 से 18 में गीता ज्ञान दाता स्वयं कह रहा है कि उत्तम पुरूषः अर्थात् पुरूषोतम् तो अन्य है। जो परमात्मा कहा जाता है। जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सब का धारण पोषण करता है। वह वास्तव में अविनाशी प्रभु है। (गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में) फिर गीता अध्याय 15 श्लोक 18 में अपने विषय में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि मुझे तो लोक वेद के आधार से पुरूषोत्तम मानते हैं मैं वास्तव में पुरूषोत्तम नहीं हूँ। जो गीता अध्याय 11 श्लोक 32 में कहता है कि मैं काल हूँ सर्व को खाने के लिए आया हूँ। गीता अध्याय 11 श्लोक 21 में अर्जुन ने आँखों देखा विवरण कहा कि हे भगवन् आप तो उन ऋषियों को भी खा रहे हो जो आप की वेद मन्त्रों द्वारा स्तुति कर रहे हैं। आप देवताओं तथा सिद्धों के समूह को भी खाने को तैयार हो वे आप से अपनी जान की रक्षा के लिए मंगल कामना कर रहे हैं। काल भगवान ने कहा है कि मैं सर्व को खाने के लिए प्रवृत हुआ हूँ।

हे धर्मदास! उस तप्तशिला पर ऋषि व महर्षि व अन्य वेद पाठ करने व पढ़ने वाले विद्वान भी कष्ट उठा रहे थे। जो वेदों के मन्त्रों से भी परिचित थे। वे सर्व एक स्वर में बोले हे पूर्ण परमात्मा! आप सत्य कह रहे हो यह ज्ञान वेदों में लिखा है। (वेदों का सार ज्ञान ही गीता जी में लिपी बद्ध है) सत्ययुग में सर्व मनुष्य साधनाएंे करते थे। कोई श्री विष्णु जी व श्री शिवजी की, कोई देवी की जो उस समय के गुरूओं ने प्रचलित कर रखी थी। जो वेदों को भी ठीक से न समझने वाले ऋषियों द्वारा बताई गई थी। कुछ गुरूजन व ऋषिजन भी उसी तप्तशिला पर कष्ट भोग रहे थे। जो अपनी-2 साधनाओं को श्रेष्ठ मान कर स्वयं कर रहे थे तथा अपने अनुयाईयों से भी करा रहे थे। वे भी कहने लगे हे परमेश्वर! हमारी भक्ति शास्त्राविरूद्ध थी। अब आप की कृपा से हमें ज्ञान हुआ है। हमारी वह शास्त्राविरूद्ध साधना कोई काम नहीं आई। हम यहाँ तप्तशिला पर महाकष्ट उठा रहे है। {यही प्रमाण गीता अध्याय 16 श्लोक 23 में कहा है कि जो शास्त्राविधि को त्याग कर मनमाना आचरण (पूजा) करते हैं। उनको न तो कोई सुख होता है, न उनको कोई सिद्ध प्राप्त होती तथा न उनकी गति अर्थात् मोक्ष होता है अर्थात् शास्त्राविधि विरूद्ध भक्ति व्यर्थ है।}

तब मैने (कबीर देव ने) उन तप्त शिला पर विराजमान प्राणियों को सृष्टि रचना सुनाई( कृप्या पाठक पढ़े सृष्टि रचना इसी पुस्तक के पृष्ठ 250 से 269 पर) जिस कारण से उनको ज्ञान हुआ कि वे कैसे अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार कर काल ब्रह्म के जाल में फंसे थे। उन सर्व प्राणियों ने कहा हे परमेश्वर! हमें इस महादुःख दायक काल लोक से निकाल लो। हमें अपने सत्यलोक में ले चलो, तब मैंने उन सर्व प्राणियों से कहा ऐसे मैं आप को सत्यलोक नहीं ले जा सकता। क्योंकि आप स्वइच्छा से इस काल ब्रह्म के साथ आए थे। आप के पुण्य समाप्त हो चुके हैं। आप पर काल ब्रह्म का ऋण है। उस ऋण से मुक्त होकर ही आप सत्यलोक जा सकते हो। उसकी विधि है कि ‘‘जब आप को पृथ्वी पर मानव जन्म प्राप्त हो तथा मैं किसी अन्य वेश में प्रकट होकर यह तत्वज्ञान बताने आऊं या अपने किसी अंश को भेजूं तब तुम हमारे सत्य शब्द (सार शब्द) तथा सारज्ञान अर्थात् तत्व ज्ञान को ग्रहण कर के मर्यादा में रहते हुए भक्ति करना तब आपका सत्यलोक जाना सम्भव होगा।

हे धर्मदास! मैंने (कबीर परमेश्वर ने) उन ऋषियों से प्रश्न किया जो तप्तशिला पर उपस्थित थे तथा वे पृथ्वी लोक में वेद के प्राकाण्ड विद्वान प्रसिद्ध थे। प्रश्न (कबीर जी का):- आपने वेदों को पढ़ा है। कृपा बताईये वेदों में प्रभु को साकार लिखा है वा निराकार? उन ऋषियों ने एक स्वर में उत्तर दिया परमात्मा निराकार है। केवल उसका प्रकाश ही समाधी द्वारा शरीर में देखा जा सकता है। समाधी मंे परमात्मा प्रत्यक्ष होता है। मैंने (कबीर परमेश्वर ने) उन मतिहीनों से पूछा प्रत्यक्ष से आपका क्या तात्पर्य है? उन्होंने उत्तर दिया कि ‘‘प्रत्यक्ष का तात्पर्य है’’ समाधी में परमात्मा का साक्षात्कार होना। मैंने कहा ‘‘प्रत्यक्ष’’ तो साकार वस्तु का होता है। जैसे किसी ने किसी से कहा जल लाना। उसने जल लाकर रख दिया। वह लाया गया पदार्थ अर्थात् जल साक्षात् वस्तु है ‘‘जल’’ शब्द नहीं। जैसे किसी ने घड़े को देखा फिर समाधी दशा में घड़े का साक्षात्कार हुआ इस प्रकार जो साकार वस्तु बाहर है उसी का साक्षात्कार समाधी दशा में होता है। जिस वस्तु का आकार ही नहीं है। उस का साक्षात् होना असम्भव है। यह आप का मिथ्या ज्ञान है। आप को कभी भी परमात्मा का साक्षात्कार नहीं हुआ है। आप व्यर्थ में महिमा बना कर अनुयाईयों को भ्रमित करके महापाप के भागी होकर यहाँ काल ब्रह्म के लोक में महा कष्ट भोग रहे हो। (परमेश्वर कबीर जी ने कहा) हे ऋषि जनों ! आप ने कहा कि परमात्मा निराकार है केवल उसका प्रकाश ही देखा जा सकता है। हे भोले प्राणियों विचार करो जैसे कोई नेत्राहीन अन्य नेत्राहीन से सूर्य के विषय में मिथ्या ज्ञान प्राप्त करके आगे प्रचार कर रहा हो वह कह रहा हो कि ‘‘सूर्य’’ निराकार है। उसका केवल प्रकाश ही देखा जा सकता है। उस नेत्राहीन से पूछे कि सूर्य के बिना प्रकाश किस का देखा! आप सूर्य को निराकार बता रहे हो उसके प्रकाश को देखने का प्रचार कर रहे हो क्यों मिथ्या भाषण कर रहे हो। ठीक इसी प्रकार वेद ज्ञान को तत्व से जानने का मिथ्या दावा करने वाले वेद ज्ञान हीन ऋषियों व महर्षियों की दशा है। आप को न वेद ज्ञान की पूर्ण जानकारी है तथा न आप की भक्ति विधि शास्त्रा अनुकूल है। आप महादोष के पात्रा बन गए हो तुम्हें घोर नरक में डाला जाएगा। पृथ्वी लोक में आप को एक परम ज्ञानी मान कर आप के सैकड़ों शिष्य आप द्वारा बताए मिथ्या ज्ञान का प्रचार करके लाखों भोली आत्माओं को काल जाल में फंसा रहे हैं। आप को ऋषि व महर्षि मान कर आप की मूर्तियाँ स्थापित की जाऐंगी। कुछ धुर्त व्यक्ति वहाँ मन्दिर आदि बना कर अपना स्वार्थ सिद्ध करेगें। यह सर्व दोष भी आप को कई वर्षों तक प्राप्त होता रहेगा। भोली जनता आप जैसे अज्ञानियों को महर्षि मान कर आप के नाम से कई संस्थाऐं चलाऐंगे तथा आप के द्वारा रची अपने अनुभव की पुस्तकों को भोली जनता में बेच कर धन कमा कर अपना परिवार पोषण करेगें तथा मौज-मस्ती में उस धन को खर्च करेगें। आप द्वारा रची वेद ज्ञान विरूद्ध पुस्तक द्वारा लाखों व्यक्ति व्यर्थ ज्ञान को ग्रहण करके नरक में गिरेगें। यह सर्व दोष भी आपके सिर पर ही रखा जाएगा। पृथ्वी पर आपकी जय-2 कार वे भोले प्राणी कर रहे होगें तथा आप उस घोर नरक में गिर कर चीखें मार रहे होंगे। महाकष्ट के कारण चिल्ला-2 कर रो रहे होंगे। पृथ्वी लोक पर बनी आप की महिमा आपके क्या काम आई?

हे धर्मदास! मेरे इस तत्वज्ञान रूपी कड़वी सच्चाई से परिचित होकर वे नकली गुरू व ऋषि-महर्षि अपने कृत्य को जानकर भय से कांपने लगे। क्योंकि वहाँ पर उनको हाथों-हाथ प्रमाण मिल रहा था। मैंने उनसे कहा भाई यह सच्चाई मैं या मेरा भेजा हुआ मेरा अंश आप को पृथ्वी पर आपके इन शिष्यों के समक्ष कहता तो आप तथा आपके शिष्य मुझे वा मेरे अंश संत को मारने को दौड़ते तथा हमें सन्तों व ऋषियों का निन्दक कह कर जनता में बदनाम करते हमारी एक बात भी नहीं सुनते। सर्व नकली ऋषि-महर्षियों तथा गुरूओं तथा उनके साथ वहीं पर उपस्थित उनके अनुयाईयों ने एक स्वर में कहा आप ! सत्य कह रहे हो वहाँ पर तो हम अपने ज्ञान को सर्वोच्च मान रहे थे। हे परमेश्वर! आपने हमारी आँखें खोल दी।

परमेश्वर कबीर देव ने कहा हे धर्मदास! मैंने उन नकली महर्षियों से कहा आप ने बताया कि वेदों में परमेश्वर को निराकार बताया है। आप की यह बात भी मिथ्या है क्योंकि वेदों ने मेरे विषय में कहा है कि परमेश्वर सशरीर है वही परमात्मा अन्य शरीर धारण करके अतिथि की तरह कुछ समय इस काल ब्रह्म के लोक में आता है। उस समय अज्ञान निन्द्रा में सोए प्राणियों को तत्व ज्ञान प्रदान कराता है। प्रमाण:- यजुर्वेद अध्याय 5 श्लोक 1 में तथा अध्याय 1 श्लोक 15 में तथा ऋग्वेद मण्डल 9 सुक्त 96 मन्त्र 17 से 20 तक में भी है।

{परमेश्वर कबीर जी तप्तशिला पर हुई वार्ता द्वारा अपनी प्रिय आत्मा भक्त धर्मदास जी को भी तत्वज्ञान से परिचित करा रहे थे। यही तत्वज्ञान की अमृतवाणी धर्मदास जी ने लिपिबद्ध की जो पांचवा वेद अर्थात् कबीर सागर नाम से प्रसिद्ध है।} परमेश्वर कबीर जी ने कहा हे धर्मदास! मेरे द्वारा बताए गए वेदों के मन्त्रों को सुनते ही उन नकली ऋषियों को याद आया कि आप सत्य कह रहे हो मालिक! वेदों में ऐसा ही लिखा है। हम पढ़ते थे परन्तु हमारी बुद्धि काल ब्रह्म ने बांध रखी थी। हम समझ ही नहीं सके। केवल लोक वेद (सुना सुनाया ज्ञान जो वेदों विरूद्ध था उसे) ही सुनाया करते थे। {गीता अध्याय 10 श्लोक 9 से 11 में प्रमाण है। जिस में कहा है कि जो मुझ काल ब्रह्म पर ही आश्रित हैं उनको में ऐसा ज्ञान देता हूँ। वे आपस मे विचार करके मेरे ही गुणों का ज्ञान ही करते कराते रहते हैं। जिस कारण वे मुझमें रमण करते रहते हैं। उन मेरे में ही आश्रित श्रद्धालुओं को मैं (काल ब्रह्म) वह ज्ञान देता हूँ जिससे वे मुझे ही प्राप्त होते हैं अर्थात् काल जाल में ही रह जाते हैं। उनके ऊपर अनुग्रह करने के लिए मैं स्वयं ही उनको वह ज्ञान देता हूँ जिससे वे मुझे ही प्राप्त होते हैं।}

(कबीर सागर से वाणी) कबीर जी का जीवों से संवाद:-

बहु विधि जीवन कीन्ह पुकारा, काल देत है कष्ट अपारा।।
यम का कष्ट सहा नहीं जाई, हे सतगुरु होहुँ सहाई।।
आए जहाँ यम जीव सतावै, काल निरंजन जीव नचावै।।
चटक-पटक करे जीव तहँ भाई, ठाढे भया पुनि तहाँ मैं जाई।।
मोहि देख जीव कीन्ह पुकारा, हे साहिब हमों लेहु उबारा।।
तब हम सत्य शब्द गुहरावा, पुरुष शबद से जीव तपत बुझावा।।
यम ते छुड़ाव लेव तुम स्वामी, दया करो प्रभु अन्तर यामि।।

भावार्थ:- उपरोक्त वाणी में तप्तशिला पर कष्ट भोग रहे प्राणियों ने परम शक्ति से कष्ट निवारण की प्रार्थना की तब मैं (कबीर परमेश्वर) उस तप्तशिला के पास प्रकट हुआ। अपनी शक्ति से तप्तशिला की गर्मी को शांत किया। सर्व प्राणियों ने तत्वज्ञान से परिचित होकर मुझ से (कबीर परमेश्वर से) काल के जाल से निकालने की प्रार्थना की।

तब मैं कहा जीवन समझाई, जोर करूं तो वचन नसाई।।

भावार्थ:- कबीर परमेश्वर जी बता रहे हैं कि तब मैंने उन प्राणियों से कहा मैं बलपूर्वक आपको काल से छुड़वा सकता हूँ। परन्तु मैंने इसको वचन दिया है कि मैं बलपूर्वक जीवों को नहीं ले जाऊगां क्योंकि मैंने ही तुम्हारी इच्छा से काल लोक में आने की आज्ञा दे रखी है तथा कहा था कि तुम यहाँ (सतलोक में) स्वइच्छा से आने की प्रार्थना करोगे तब तुम्हें भक्ति शक्तियुक्त करके सतलोक लाऊँगा।

जब तुम जाय धरो जग देहा, तब तुम करिहौ शब्द स्नेहा।।
पुरुष नाम सुमिरन सहिदाना, बीरा सार गहो प्रवाना।।
देह धरो सत्य शब्द समाई, तब हम सतलोक ले जाई।।
जहाँ आशा तहाँ बासा होई, मन कर्म वचन सुमिरै जोई।।

भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी कह रहे हैं कि हे प्राणियों जब तुम संसार में मानव शरीर प्राप्त करो उस समय मेरे पूर्ण सन्त से सम्पूर्ण मन्त्र (सतनाम व सारशब्द) प्राप्त करके सच्चे मन से भक्ति करना। जब तुम मानव शरीर प्राप्त करके सत्य साधना (तीनों मन्त्रों ओंम्,तत्,सत्) की अन्तिम स्वांस तक करोगे तब मैं तुम्हें सतलोक ले जाऊँगा। आप अनन्य मन से कर्म वचन मन से मेरे (कबीर परमेश्वर) में सच्ची लगन लगाना उस सच्ची आशा जो सतलोक जाने की होगी उसी आधार से आप सतलोक में निवास करोगे। क्योंकि जहाँ जाने की सच्ची लगन होती है साधक अन्त समय में उसी प्रभु को प्राप्त करता है।

।।चैपाई।।

कहे जीव सुन पुरुष पुराना, देह धरी बिसरो नहीं ज्ञाना।।
पुरुष जानि सुमिरा जमराई, बेद पुरान कहे समुझाई।।
बेद पुरान कहे मति येहा, निराकार से किजै नेहा।।
सुर नर मुनिजन तैंतीस करोड़ि, बंधे सब निरंजन डोरि।।
ताके मते कीन्ह हम आशा, अब मोहि चीन्ह परा यम फांसा।।

भावार्थ:- सर्व प्राणियों ने कहा हे आदि पुरूष परमेश्वर ! जब भी मानव शरीर प्राप्त होगा आप के इस तत्वज्ञान को नहीं भूलेंगे। हमने तो काल ब्रह्म (क्षर पुरूष) को परमेश्वर मानकर पूजा की थी। जैसा भी वेदों को हम समझ सके उस लोक वेद आधार से तथा पुराणों के ज्ञान के आधार से काल की पूजा पूर्ण परमात्मा जानकर की है। हम ही नहीं हे परमेश्वर तैतीस करोड़ देवताओं, अठ्ठासी हजार ऋषि आदि व अन्य सर्व साधक भी काल ब्रह्म को ही पूर्ण परमात्मा जानकर साधना करके काल ब्रह्म की ही डोरी से बंधें हैं अर्थात् वे भी सर्व काल में ही हैं। जन्म-मृत्यु का कुचक्र उन पर भी सदा चलेगा।

सुनो जीव यह छल यम केरा, यह यम फंदा कीन्ह घनेरा।।

।।छन्द।।

काल कला अनेक कीन्हो, जीव कारण ठाट हो।
बेद शास्त्रा पुरान स्मृति, अन्त रोकै बाट हो।।
सोरठा - जीव पड़े बस कालके, काल कराल प्रचण्ड।
सतनाम चिन्हे बिना, जन्म जन्म भव दण्ड।।

भावार्थ:- कबीर परमेश्वर जी ने कहा हे प्राणियों! सुनों! यह सर्व छल काल ब्रह्म ने आप सर्व प्राणियों को अपने जाल में फांसे रखने के लिए किया है। जो चारों वेदों (ऋग्वेद,यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद) का ज्ञान अधूरा है। क्योंकि पूर्ण ज्ञान तत्वदर्शी सन्त बताते हैं जो पूर्ण मोक्षदायक है। पुराणों तथा अन्य समृति व छः शास्त्रों का ज्ञान उन देवताओं व ऋषियों का अनुभव है जो स्वयं वेद ज्ञान से परिचित नहीं हैं। इसलिए तत्वज्ञान के आधार से सतनाम के सुमरण से ही पूर्ण मोक्ष सम्भव है। अन्यथा सदा जन्म-मरण का कष्ट बना रहेगा।

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