शरीर के कमलों की जानकारी

अनुराग सागर के पृष्ठ 151 का सारांश:-

इस पृष्ठ पर मानव शरीर में बने कमलों का वर्णन है।

  1. मूल (मूलाधार) कमल:- इसकी चार पत्तियाँ हैं। इसका देवता गणेश है। इसके 600 (छः सौ) जाप हैं।

  2. इस मूल कमल के ऊपर स्वाद कमल (अनाहद कमल) है। इसकी छः पंखुड़ी हैं। ब्रह्मा तथा सावित्री देवता हैं। इसके छः हजार (6000) जाप हैं।

  3. इस स्वाद कमल से ऊपर नाभि कमल है। इसकी आठ पंखुड़ियाँ हैं। लक्ष्मी तथा विष्णु प्रधान देवता हैं। छः हजार जाप हैं।

  4. इसके ऊपर बारह पंखुड़ियों का कमल है। प्रधान देवता रूद्र (महेश) तथा पार्वती हैं। छः हजार जाप हैं।

  5. इसके ऊपर कण्ठ कमल है जो 16 पंखुड़ियों का है। इसकी प्रधान देवी अविद्या यानि दुर्गा है। इसके एक हजार जाप हैं।

  6. इसके ऊपर संगम कमल है जो छठा कमल है। इस छठे कमल की तीन पंखुड़ी हैं। मन का वास है। {भवतारण बोध पृष्ठ 111(957) पर इस कमल में परमात्मा का वास लिखा है। भवतारण बोध पृष्ठ 57(903) पर इस कमल में सरस्वती का वास लिखा है।} इस कमल के एक हजार जाप हैं।

  7. यह सातवां कमल सुरति कमल है। इसमें सतगुरू का निवास है। {भवतारण बोध पृष्ठ 57(903) पर इसको त्रिकुटी कमल लिखा है। इसकी दो पंखुड़ी हैं। कबीर बानी पृष्ठ 111(957) पर इसे दो पंखुड़ियों का लिखा है।} एक हजार जाप हैं।

  8. दो दल वाले सातवें कमल से ऊपर शुन्य स्थान है। इसकी एक सफेद पंखुड़ी है। उसमें सत्य पुरूष सतगुरू रूप में रहते हैं। दूसरी काले रंग की है। इसमें ज्योति निरंजन रहता है। {भवतारण बोध पृष्ठ 57(903) पर लिखा है कि अष्टम कमल ब्रह्माण्ड के मांही। तहां निरंजन दूसर नांही।। कबीर बानी पृष्ठ 111(957) पर लिखा है कि आठे कमल दश पंखुरी कहिए यानि आठवें कमल की दस (10) पंखुड़ियां हैं।} इसके जाप की सही सँख्या नहीं लिखी है।

संत गरीबदास (छुड़ानी वाले) ने कमलों का ज्ञान इस प्रकार कहा है।

मूल कमल, स्वाद कमल, नाभि कमल, हृदय कमल, कण्ठ कमल तक यही उपरोक्त वर्णन है। त्रिकुटी कमल में दो पंखुड़ी का कमल है। इसमें सतगुरू (कबीर) परमेश्वर का निवास बताया है। उपरोक्त सर्व प्रकरण का निष्कर्ष है।

शरीर के कमलों की यथार्थ जानकारी

कबीर सागर में अध्याय ‘‘कबीर बानी‘‘ पृष्ठ 111 पर है जो इस प्रकार हैः-

  1. प्रथम मूल कमल है, देव गणेश है। चार पंखुड़ी का कमल है।

  2. दूसरा स्वाद कमल है, देवता ब्रह्मा-सावित्री हैं। छः पंखुड़ी का कमल है।

  3. तीसरा नाभि कमल है, लक्ष्मी-विष्णु देवता हैं। आठ पंखुड़ी का कमल है।

  4. चैथा हृदय कमल है, पार्वती-शिव देवता हैं। 12 पंखुड़ी का कमल है।

  5. पाँचवां कंठ कमल है, अविद्या (दुर्गा) देवता है। 16 पंखुड़ी का कमल है। कबीर सागर में भवतारण बोध में पृष्ठ 57 पर लिखा है कि:-

षट्कमल पंखुड़ी है तीनी। सरस्वती वास पुनः तहाँ किन्ही।।
सप्तम् कमल त्रिकुटी तीरा। दोय दल मांही बसै दोई बीरा (शूरवीर)।।

  1. यह छठा संगम कमल त्रिकुटी से पहले है जो सुष्मणा के दूसरे अंत वाले द्वार पर बना है। इसकी तीन पंखुड़ियाँ है। इसमें सरस्वती का निवास है। वास्तव में दुर्गा जी ही अन्य रूप में यहाँ रहती है। इसके साथ 72 करोड़ सुन्दर देवियाँ रहती हैं। इसकी तीन पंखुड़ियाँ हैं। इन तीनों में से एक में परमेश्वर का निवास है जो अन्य रूप में रहते हैं। एक पंखुड़ी में सरस्वती तथा 72 करोड़ देवियाँ जो ऊपर जाने वाले भक्तों को आकर्षित करके उनको अपने जाल में फँसाती हैं। दूसरी पंखुड़ी में काल अन्य रूप में रहता है। मन रूप में काल का निवास है तथा करोड़ों युवा देव रहते हैं जो भक्तमतियों को आकर्षित करके काल के जाल में फँसाते हैं। तीसरी पंखुड़ी में परमेश्वर जी हैं जो अपने भक्तों को सतर्क करते हैं जिससे सतगुरू के भक्त उन सुन्दर परियों के मोह में नहीं फँसते।

  2. सातवां त्रिकुटी कमल है जिसकी काली तथा सफेद दो पंखुड़ियाँ हैं। काली में काल का सतगुरू रूप में निवास है तथा सफेद में सत्य पुरूष का सतगुरू रूप में निवास है।

  3. आठवाँ कमल (अष्ट कमल) ये दो हैं। एक तो उसे कहा है जो संहस्र कमल कहा है जिसमें काल ने एक हजार ज्योति जगाई हैं जो ब्रह्मलोक में है। इसको संहस्र कमल कहते हैं। इसकी हजार पंखुड़ी हैं। यह सिर में जो चोटी स्थान (सर्वोपरि) है, उसको ब्रह्माण्ड कहा जाता है। जैसे कई ऋषियों की लीला में लिखा है कि वे ब्रह्माण्ड फोड़कर निकल गए। इनके सिर में तालु के ऊपर और चोटी स्थान के बीच में निशान बन जाता है। शरीर त्याग जाते हैं। वे शुन्य में भ्रमण करते रहते हैं। वे ओम् (Om) अक्षर का जाप तथा हठ योग करके यह गति प्राप्त करते हैं। महाप्रलय में नष्ट हो जाते हैं। फिर जीव रूप जन्मते हैं। इस सिर के ऊपर के भाग को ब्रह्माण्ड कहते हैं। यह आठवां कमल ब्रह्माण्ड में इस प्रकार कहा है।

इस कमल में काल निरंजन ने धोखा कर रखा है। केवल ज्योति दिखाई देती है जो प्रत्येक पंखुड़ी में जगमगाती है। उस कमल में परमात्मा कबीर जी भी गुप्त रूप में निवास करते हैं। इसके साथ-साथ परमात्मा जी प्रत्येक कमल में अपनी शक्ति का प्रवेश रखते हैं।

अन्य अष्ट कमल वह जो सत्यलोक में जाने वाले रास्ते में है। उसकी दश (10) पंखुड़ियाँ हैं जो ब्रह्म के साधक हैं। उनके लिए आठवां कमल संहस्र कमल है जो हजार पंखुड़ियों वाला है। इसमें निरंजन का निवास है। भवतारण बोध पृष्ठ 57 पर वाणी है:-

अष्टम कमल ब्रह्मण्ड के मांही। तहाँ निरंजन दूसर नांही।।

फिर दूसरा अष्टम कमल मीनी सतलोक में जाने वाले मार्ग में है।

  1. नौंमा कमल मीनी सतलोक में है। तीसरा अष्टम कमल अक्षर पुरूष के लोक में है। उसका यहाँ वर्णन नहीं करना है। वह पिण्ड (शरीर) से बाहर सूक्ष्म शरीर में है। शब्द ‘‘कर नैंनो दीदार महल में प्यारा है‘‘ में सबको भिन्न-भिन्न बताया है जो आप नीचे पढ़ें।

कबीर सागर में कबीर बानी अध्याय के पृष्ठ 111 (957) पर नौंवे (नौमें) कमल का वर्णन है। नौमें कमल की शंख पंखुड़ी हैं। पूर्ण ब्रह्म का निवास है।

अनुराग सागर के पृष्ठ 152 का सारांश:-

इस पृष्ठ पर परमेश्वर ने शरीर के अंदर का गुप्त भेद बताया है। इस मानव शरीर में 72 नाड़ियां हैं। उनमें तीन (ईड़ा, पिंगला, सुष्मणा) मुख्य हैं। फिर एक विशेष नाड़ी है ‘‘ब्रह्म रन्द्र‘‘ परमेश्वर कबीर जी ने बताया है कि धर्मदास! मन ही ज्योति निरंजन है। इसने जीव को ऐसे नचा रखा है जैसे बाजीगर मर्कट (बंदर) को नचाता है। इस शरीर में 5 तत्त्व 25 प्रकृति तथा तीन गुण काल के तीन एजेंट हैं। जीव को धोखे में रखते हैं। इस शरीर में काल निरंजन तथा जीव दोनों की मुख्य भूमिका है। काल निरंजन मन रूप में सब पाप करवाता है। पाप जीव के सिर रख देता है।

अनुराग सागर के पृष्ठ 153 का सारांश:-

काल ने ऐसा धोखा कर रखा है कि जीव परमेश्वर को भूल गया है।

मन कैसे पाप-पुण्य करवाता है

मन ही काल-कराल है। यह जीव को नचाता है। सुंदर स्त्राी को देखकर उससे भोग-विलास करने की उमंग मन में उठाता है। स्त्राी भोगकर आनन्द मन (काल निरंजन) ने लिया, पाप जीव के सिर रख दिया।

{वर्तमान में सरकार ने सख्त कानून बना रखा है। यदि कोई पुरूष किसी स्त्राी से बलात्कार करता है तो उसको दस वर्ष की सजा होती है। यदि नाबालिक से बलात्कार करता है तो आजीवन कारागार की सजा होती है। आनन्द दो मिनट का मन की प्रेरणा से तथा दुःख पहाड़ के समान। इसलिए पहले ही मन को ज्ञान की लगाम से रोकना हितकारी है।}

अनुराग सागर के पृष्ठ 154 का सारांश:-

पराये धन को देखकर मन उसे हड़पने की प्रेरणा करता है। चोरी कर जीव को दण्ड दिलाता है। परनिंदा, परधन हड़पना यह पाप है। काल इसी तरह जीव को कर्मों के बंधन में फंसाकर रखता है। संत से विरोध तथा गुरूद्रोह यह मन रूप से काल ही करवाता है जो घोर अपराध है।

निरंजन चरित्र = काल का जाल

परमेश्वर कबीर जी ने बताया है कि धर्मदास! मैं तेरे को धर्म (धर्मराय-काल) का जाल समझाता हूँ। काल निरंजन ने श्री कृष्ण में प्रवेश करके गीता का ज्ञान दिया। उसको कर्मयोग उत्तम बताकर युद्ध करवाया। ज्ञान योग से उसको भ्रमित किया। अर्जुन तो पहले ही नेक भाषा बोल रहा था जो ज्ञान था। कह रहा था कि युद्ध करके अपने ही कुल के भतीजे, भाई, साले, ससुर, चाचे-ताऊ को मारने से अच्छा तो भीख माँगकर निर्वाह कर लेंगे। मुझे ऐसे राज्य की आवश्यकता नहीं जो पाप से प्राप्त हो। उसको डरा-धमकाकर युद्ध करवाकर नरक का भागी बना दिया। ज्ञान योग का बहाना कर कर्म योग पर जोर देकर महापाप करा दिया।

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