संगत का प्रभाव तथा विश्वास प्रभु का
एक गाँव में एक व्यक्ति के विवाह को दस-बारह वर्ष हो चुके थे। संतान नहीं हुई थी। उसी गाँव से बाहर लगभग दो कि.मी. की दूरी पर एक आश्रम था। उसमें एक सिद्ध संत रहता था। वह गाँव में से भिक्षा माँगकर लाता था। उसको तीन-चार या अधिक दिन खाता रहता था। एक दिन वह उस घर से भिक्षा लेने गया जिस व्यक्ति को कोई संतान नहीं थी। स्त्री-पुरूष दोनों ने साधु जी से पुत्रा प्राप्ति के लिए चरण पकड़कर प्रार्थना की। साधु ने कहा कि एक शर्त पर संतान हो सकती है। स्त्री-पुरूष ने पूछा कि बताओ। साधु ने कहा कि प्रथम पुत्रा उत्पन्न होगा। दो वर्ष होने के पश्चात् मुझे चढ़ाना होगा। उसे मैं अपना उत्तराधिकारी बनाऊँगा। आपको मंजूर हो तो बताओ। उसके पश्चात् लड़की होगी। फिर एक पुत्रा होगा। दोनों ने उस शर्त को स्वीकार कर लिया। साधु के आशीर्वाद से दसवें महीने पुत्रा हुआ। दो वर्ष का होने पर साधु को सौंप दिया। उस समय स्त्री फिर गर्भवती थी। उसने कन्या को जन्म दिया। फिर एक पुत्रा और हुआ। जिस कारण से साधु की महिमा और अधिक हो गई। उस आश्रम में युवा लड़कियों का प्रवेश निषेध था। जब वह लड़का सोलह वर्ष का हुआ तो एक दिन गुरू जी को छाती में स्तन के पास फोड़ा हो गया। जिस कारण साधु जी दर्द के कारण व्याकुल रहने लगा। जड़ी-बूटी बनाकर उस फोड़े पर लगाई। चार-पाँच दिन में वह फोड़ा फूटकर ठीक हुआ। तब साधु सामान्य हुआ। कुछ दिन के पश्चात् साधु को बुखार हो गया। वृद्धावस्था व बुखार के कारण उत्पन्न कमजोरी की वजह से चलने-फिरने में असमर्थ हो गया। साधु ने उस शिष्य को कभी गाँव में भिक्षा लेने नहीं भेजा था। यह विचार करके कि कहीं जवान लड़का गाँव में लड़कों के साथ बैठकर बुरी संगत में पड़कर कोई गलती न कर दे।
कहीं विवाह करने की प्रेरणा न हो जाए। परंतु उस दिन विवश होकर साधु ने अपने शिष्य से कहा कि बेटा! भिक्षा माँगकर ला और गाँव में प्रथम गली में चौथे घर से जो मिले, उसे लेकर आ जाना, आगे मत जाना। लड़का गुरूजी के आदेशानुसार उसी घर के द्वार पर गया और बोला, अलख निरंजन! उस घर से एक 14 वर्षीय लड़की भिक्षा डालने के लिए द्वार पर आई तो साधु लड़का उस लड़की की छाती की ओर गौर से देख रहा था। लड़की ने देख लिया कि साधु की दृष्टि में दोष है। लड़की बोली कि ले बाबा भिक्षा। साधु बोला, हे माई की बेटी! तेरी छाती पर दो फोड़े हुए हैं। आप आश्रम में आ जाना। तेरे फोड़े गुरू जी ठीक कर देंगे। हे माई की बेटी! आपको बहुत पीड़ा हो रही होगी। मेरे गुरू जी को तो एक ही फोड़े ने दुःखी कर रखा था। यह बात लड़के साधु से सुनकर लड़की का अंदाजा और दृढ़ हो गया कि यह साधु नेक नहीं है। लड़की ऊँची-ऊँची आवाज में बोलने लगी कि अपनी माँ-बहन के फोड़े ठीक करा ले, बदतमीज! तेरे को जूती मारूंगी। यह कहकर लड़की ने पैर की जूती निकाल ली और बोली चला जा यहाँ से, फिर कभी मत आना। शोर सुनकर लड़की की माता भी द्वार पर आई और पूछा कि बेटी! क्या बात है? लड़की ने उस साधु की करतूत माता को बताई। माता ने पूछा कि बाबा जी! कहाँ से आये हो? लड़के साधु ने बताया कि इस आश्रम से आया हूँ। मेरे गुरू जी बीमार हो गए हैं, चलने-फिरने में असमर्थ हैं। इसलिए पहली बार मुझे भिक्षा लाने भेजा है। मैं उनका शिष्य हँू। मैंने तो इस बहन से पूछा था कि तेरी छाती पर दो फोड़े हैं, बहुत दुःखी हो रही होगी। मेरे गुरू जी को तो एक ही फोड़ा हुआ था, दिन-रात दर्द से व्याकुल रहते थे। वे औषधि जानते हैं। आप गुरू जी के पास जाकर फोड़े ठीक करा लो। वह साधु लड़का उसी स्त्री का बेटा था जो साधु को चढ़ा रखा था। वह लड़की उस साधु बाबा की छोटी बहन थी। माता ने बताया कि यह तेरा भाई है जो हमने साधु को चढ़ा रखा है। यह दुनियादारी की खराब बातों से बचा है। इसको कुछ भी पता नहीं है। जो दोष बेटी तुझे लगा, वह इस तेरे भाई में नहीं है। यह तो पाक-साफ आत्मा से बोल रहा था। तूने गाँव के चंचल युवकों वाली शरारत के अनुसार विचार करके धमकाया। माई ने बताया कि साधु जी! मेरी बेटी की छाती पर फोड़े नहीं हैं। ये दूधी हैं, देख! जैसे मेरी छाती पर हैं। इसका विवाह करेंगे। इसको संतान उत्पन्न होगी। तब इन दूधियों से इससे बच्चे दूध पीऐंगे। साधु बच्चा बोला, हे माई! इसका विवाह कब होगा? कब इसको संतान होगी? माई ने बताया कि कभी तीन-चार वर्ष के पश्चात् विवाह करेंगे। फिर दो-तीन वर्ष पश्चात् संतान होगी।
साधु लड़के ने आध्यात्मिक दृष्टिकोण से विचार किया कि परमात्मा को जन्म लेने वाले बच्चे की कितनी चिंता है। उसके जन्म से 7.8 वर्ष पूर्व ही दूध पीने की व्यवस्था कर रखी है। क्या वह हमारे खाने की व्यवस्था आश्रम में नहीं करेगा? हम तो गुरू-शिष्य उस परमात्मा के भरोसे बैठे हैं। आज के बाद भिक्षा माँगना बंद। यह विचार कर रहा था कि माई ने पूछा, बाबा जी! क्या चिंता कर रहे हो? साधु बोला कि माई चिंता समाप्त। यह कहकर भिक्षा सहित झोली (थैला) गली में फैंककर आश्रम खाली हाथ आया तो गुरू जी ने पूछा कि भिक्षा क्यों नहीं लाया? झोली किसी ने छीन ली क्या? लड़के ने बताया कि गुरू जी! जब परमात्मा बच्चे के जन्म लेने से 7.8 वर्ष पूर्व ही सर्व खाने की व्यवस्था करता है तो क्या अपनी आश्रम में नहीं करेगा? अवश्य करेगा। इसलिए मैं झोली गली में फैंक आया। साधु समझ गया कि यह कामचोर रास्ते में झोली फैंककर आ गया कि रोज भिक्षा लेने जाना पड़ेगा। साधु विवश था, कुछ नहीं बोला। सोचा कि कल मैं दुःखी-सुखी होकर जैसे-तैसे स्वयं भिक्षा लाऊँगा।
जब साधु बालक झोली तथा भिक्षा गली में फैंककर आश्रम में चला गया तो परमात्मा ने नगर के कुछ व्यक्तियों में प्रेरणा की कि बड़े बाबा अस्वस्थ हैं। छोटे बाबा को किसी ने कुछ कह दिया, वह भिक्षा व झोली दोनों फैंककर चला गया। साधु भूखा है, बच्चा भी भूखा रहेगा। यह विचार करके अच्छा भोजन तैयार किया। खीर-फुल्के-दाल बनाकर पहले एक लेकर पहुँचा और साधु से कहा कि छोटा बाबा जी किसी के कहने पर रूष्ट होकर भिक्षा नहीं लाया। झोली-भिक्षा फैंक आया। आप भोजन खाओ। साधु ने कहा कि पहले बालक को खिलाओ। बालक बोला कि पहले गुरू जी खाऐंगे, फिर चेला खाएगा। साधु भोजन खाने लगा। इतने में दूसरा हलवा-पूरी-छोले लेकर आ गया। इस प्रकार लगभग दस व्यक्ति गाँव के यही विचार करके भोजन लेकर आश्रम में पहुँचे। चेला बोला कि वाह भगवान! हमें पता नहीं था कि आप कितने अच्छे हो। इसीलिए आपके नाम की चिंता कम भोजन की अधिक रहती थी। गाँव वालों ने नम्बर बाँध लिया कि एक दिन एक घर से साधुओं का भोजन भेजा जाए। ऐसा ही हुआ।
शिक्षा:- जैसी संगत, वैसी रंगत। अपना दोष दूसरे में दिखता है। परमात्मा पर विश्वास बिना भक्त अधूरा है। माँगकर खाना भी शास्त्रविरूद्ध है क्योंकि यदि भक्त की श्रद्धा तथा भावना सच्ची है तो परमात्मा व्यवस्था कर देता है। परंतु गृहस्थी के कर्म करके भोजन ग्रहण करना सर्वोत्तम है। साधु-संत का कर्म सत्संग करना, भक्ति करना है। यदि सच्ची श्रद्धा से करता है तो उसे माँगने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। संत गरीबदास जी ने परमात्मा कबीर जी से प्राप्त ज्ञान से अपनी अमृतवाणी में कहा है कि:-
‘‘वैराग प्रकरण के अंग से कुछ वाणी’’
गरीब, नट पेरणा कांजर सांशी मांगत हैं भठियारे।
जाकी तारी लागी तत् में मोति देत उधारे।।(3)
गरीब, द्रोपद सुता के चीर बढ़ाए बिन ही ताने काते।
सकल मनोरथ पूर्ण साहिब तुम क्यों मांगन जाते।।(2)
गरीब, आप तें आवै रत्न बराबर मांग्या आवै लोहा।
लक्षण नहीं जोग के जोगी जा बस्या बन खोहा।।(6)
गरीब, टूकां कारण फिरै कुकरा (कुत्ता) सतघर फिर आवै।
ये तो लक्षण नहीं जोग के क्यों बाणा बिरदल जावै।।(10)
गरीब, जिनको आत्मज्ञान नहीं है वे मांगैं रे भाई।
चावल चून इकट्ठा करकै ब्याज बधावैं जाई।।(24)
गरीब, जो मांगै सो भड़वा कहिये दर-दर फिरै अज्ञानी।
योगी योग सम्पूर्ण जिसका जो मांग न पीवै पानी।।(41)
गरीब, कद नारद जमात चलाई व्यास न टुकड़ा मांग्या।
वसीष्ठ विश्वामित्रा ज्ञानी शब्द बिहंगम जाग्या।।(50)
गरीब, कबीर पुरूष कै बालद आई नौ लख बोडी लाहा।
केशव से बणजारे जिस कै देवैं यज्ञ जुलाहा।।(55)
भावार्थ:- उपरोक्त वाणियों का भाव है कि जो सत्य भक्ति शास्त्र अनुकूल नहीं करते, वे साधु वेश बनाकर ऐसे माँगते फिरते हैं जैसे कुत्ता टूक-रोटी के लिए सत्तर घरों में जाता है। जैसे अन्य जाति वाले नट-पेरणें, कांजर व सांशी लोग रोटी के लिए भटकते थे। यदि साधु भी ऐसे ही करता है तो उसकी साधना में त्राुटि है। परमेश्वर कबीर जी अपना दैनिक कर्म जुलाहे का करते थे तथा सत्य साधना भी करते थे व सत्संग भी करते थे। सत्य भक्ति करने वाले की परमात्मा कैसे सहायता करता है, यह प्रमाण स्वयं कबीर जी ने दिया है। कथा इस प्रकार है:-