आत्म बोध

अध्याय आत्म बोध का सारांश

कबीर सागर में 30वां अध्याय ‘‘आत्म बोध‘‘ पृष्ठ 6 पर है। आत्म बोध का अर्थ है आत्मा को परमात्मा की भक्ति का ज्ञान करना। आत्म बोध = आत्म ज्ञान।

आत्म बोध का अर्थ है कि आत्मा क्या है? यानि आत्मा की जानकारी आत्मा को उसका अस्तित्व बताना यानि जीव को उसकी स्थिति, सामथ्र्य, कर्म, अकर्म का ज्ञान कराना। ऋषिजन कहते हैं कि आत्म ज्ञान हो जाने से जीव मुक्त हो जाता है। यह गलत है क्योंकि यदि किसी रोगी को किसी ने ज्ञान करा दिया कि आपको अमूक रोग है। इतना जानने से वह व्यक्ति रोगमुक्त नहीं हो गया। उसको वैद्य का ज्ञान भी कराना पड़ेगा। तब रोग समाप्त होगा। जीव को ज्ञान हो गया कि आप जन्म-मरण के रोग से ग्रस्त हैं। जब तक जन्म-मरण समाप्त नहीं होगा। तब तक जीव को परम शांति नहीं हो सकती जो गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में कही है। ‘‘कूप की छाया कूप के मांही ऐसा आत्म ज्ञाना।‘‘ भावार्थ है कि जैसे कूए की छाया कूए में सीमित है। उसका बाहर कोई लाभ नहीं है। इसी प्रकार यदि आत्म ज्ञान करा दिया, समाधान हुआ नहीं तो उस ज्ञान का कोई लाभ नहीं है। इस अध्याय में परमेश्वर कबीर जी ने आत्म तथा परमात्म दोनों का ज्ञान करवाया है।

आत्म और परमात्म एकै नूर जहूर। बीच में झांई कर्म की तातें कहिए दूर।।

भावार्थ है कि आत्मा और परमात्मा का मिलता-जुलता अस्तित्व है क्योंकि आत्मा का जनक परमात्मा है। सोने (Gold) के पहाड़ से आभूषण बने हैं तो दोनों सोना यानि गोल्ड (Gold) ही हैं। यदि आभूषण वाले सोने में मिलावट है तो उसका मूल्य कम हो जाता है। उसे शुद्ध करने के पश्चात् ही वह शुद्ध सोना कहलाता है। शुद्ध करने की प्रक्रिया का ज्ञान होना अनिवार्य है। इसी प्रकार आत्मा कर्म के मैल से जीव बनी है। इसको शुद्ध करने के लिए यानि मोक्ष प्राप्ति के लिए ज्ञान कराना आवश्यक है। परमेश्वर कबीर जी ने इस ‘‘आत्म-बोध‘‘ अध्याय में आत्म बोध, परमात्म बोध तथा मोक्ष प्राप्ति की विधि बताई है।

पृष्ठ 5 पर वाणी लिखी है:-

रेखता

भक्ति भगवान की बहुत बारीक है, शीश सौंपे बिना भक्ति नाहीं।।
होय अवधूत सब आशा तन की तजै, जीवता मरै सो भक्ति पाही।।
नाचना कूदना, ताल का पीटना, रांडियाँ का खेल है भक्ति नाहीं।।
रैन दिन तारी करतार सों लागी रहै, कहै कबीर सतलोक जाही।।

भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी सतगुरू रूप में अपने पाने यानि जीव को मोक्ष दिलाने की विधि स्वयं बताने के लिए प्रकट होते हैं। वे बता रहे हैं कि परमात्मा की भक्ति बहुत नाजुक है। बड़ी सावधानी से साथ करना चाहिए। यदि परमात्मा भक्ति के लिए सिर भी देना पड़े तो चूकना नहीं चाहिए। यह सिर अर्थात् मानव शरीर तथा उसका अंग सिर परमात्मा का प्रदान किया हुआ है। यदि भक्ति मार्ग में सिर देने से चूक गए तो बहुत बड़ी भूल होगी। काल ब्रह्म कभी भी यह शरीर नष्ट करा देगा। दुर्घटना, रोग, जल में डूबने से, अग्नि लगने से कभी भी यह शरीर नष्ट हो सकता है। यदि परमात्मा प्राप्ति के लिए समर्पित करना पड़े तो सौभाग्य जाने और पीछे मुड़कर न देखें। परमात्मा प्राप्ति के लिए जीवित मरना अनिवार्य है।

जीवित मरना क्या है:-

आप जी को गुरू दर्शन या सत्संग सुनने के लिए जाना है। दूसरी ओर कोई अनिवार्य काम भी करना है तो आप जी को अनिवार्य कार्य छोड़कर सत्संग सुनने तथा सतगुरू सेवा में जाना चाहिए। यह कार्य वही कर सकेगा जो जीवित मर चुका है। एक व्यक्ति को अति अनिवार्य कार्य था। जिस कारण से उसने रातो-रात जाकर वापिस आकर उस कार्य को करना था। रात्रि सेवा बस (night bus service) से दिल्ली से चण्डीगढ़ रवाना हुआ। सुबह तक वापिस लौटना था। वह बस दुर्घटनाग्रस्त हो गई। वह व्यक्ति मारा गया। जिस अनिवार्य कार्य के लिए रातो-रात भागा था, उस कार्य को अब कभी नहीं कर सकेगा। भक्तजन जीवित मर जाते हैं, वे अनिवार्य कार्य को छोड़कर सत्संग तथा सतगुरू सेवा में अवश्य जाते हैं। वे विचार करते हैं कि यदि आज मेरी मृत्यु हो जाए तो फिर इस अनिवार्य कार्य को कौन करेगा? इसलिए दो या तीन दिन के लिए मरकर सत्संग तथा सतगुरू सेवा में चले जाते हैं। उनको ज्ञान होता है कि दो-तीन दिन के पश्चात् फिर कार्य करके क्षतिपूर्ति कर लेंगे। यदि स्थाई (permanent) मृत्यु हो गई, तब कौन करेगा? इसको जीवित मरना कहते हैं। नाचना-कूदना, ताल-मृदंग का बजाना रंडियां यानि हिजड़ों के खेल के समान है। जो जागरण में या अन्य धार्मिक कार्यक्रम में नाचते-कूदते हैं, वह भक्ति नहीं है।

रात-दिन सुरति का तार करतार में लगा रहे, वह मोक्षदायक है।

पृष्ठ 8 पर:-

रैन-दिन संत यूं सोवता देखिऐ। संसार की तरफ सूं पीठ दिया।।
मन अरू पवन फिर फूट चालै नहीं। चंद अरू सूर कूं सम किया।।
टकटकी चन्द चकोर की तरह। सुरति अरू निरति का तार बाजै।।
नौबत तहाँ रैन दिन शून्य में धुरत है। कहैं कबीर यों गगन गाजै।।

भावार्थ:- संत संसार की ओर से पीठ करके सोता है यानि संसारिक भोग-विलास तथा शानो-शौकत से मुख मोड़ लेता है। मन, पवन, सुरति-निरति को परमात्मा के भजन में लगाए रहता है। वह तो आकाश में परमात्मा के बाजों की धुन को सुनता रहता है। परमात्मा के भजन में ऐसे ध्यान लगाता है जैसे चकोर पक्षी एक पल भी चाँद से अपनी नजर नहीं हटाता। वह चन्द्रमा को देखते-देखते गर्दन को ऊपर करता रहता है और चन्द्रमा शिखर से नीचे को जाता है तो अपनी गर्दन को ऊपर से नीचे को करते समय वृक्ष से गिर जाता है। उसकी गर्दन टूट जाती है। वह पंख भी नहीं फैलाता, कहीं ध्यान भंग होने से चन्द्रमा को देखना न छूट जाए, ऐसे एकटक देखता रहता है। जमीन पर गिरा-गिरा गर्दन टूटने पर भी चन्द्रमा से नजर नहीं हटाता। संत इसी प्रकार परमात्मा के भजन में टकटकी लगाकर सुरति-निरति, मन तथा पवन से स्मरण में मग्न रहता है।

नाम-स्मरण यानि मंत्र के जाप को करते समय मन, सुरति, निरति तथा पवन (श्वांस-उश्वांस) को नाम पर लगाया जाता है।

पृष्ठ 10 पर:-

नाभि में कस्तूरी का मृगा बाहरै फिरै। उलटि कर आप में नाहीं जोवै।।
भागता भ्रमता योनि पूरी करै। अंध होय आपुनी वस्तु खोवै।।
नाभि निज नाम सो ठाम पावै नाहीं। जगत सब जावै तीर्थ भूला।।
कहैं कबीर हरि पंथ यूं नाल है। अंध भवसागर में फिरत फूला।।
उलिट कर वजूद में भ्रमना दूरि कर। बाछिकै भटकनै सिद्धि नाहीं।।
फिरै बाहर और वस्तु नास में। वस्तु विचार तूं देख माहीं।।
आप में आप है अजपा जपो। जाप जपते आप पावै।।
कहें कबीर ये सत्य की सैंन है। सत का शब्द सब सन्त गावै।।

भावार्थ:- मृग की नाभि में कस्तूरी विकसित हो जाती है। हिरण जब घास चरता है तो उसके श्वासों से कस्तूरी की सुगन्ध निकलती है। वह घास तथा धरती से टकरवाकर मृग के नाक में जाती है तो उस खुशबू का आनन्द लेने के लिए मृग घास को सूंघता है। फिर सोचता है कि वह सुगंधित वस्तु कहीं घास में गिरी है। वह सुगंध है इसकी नाभि में, उसी के शरीर में। वह पशु बिना ज्ञान के कस्तूरी कहाँ है, वह इधर-उधर भटक कर खोज कहाँ रहा है? जब वह मृग थककर बैठ जाता है तो उसको अपने श्वासों से वह सुगंध निकली महसूस होती है। जब घास चरने लगता है, तब फिर भ्रमित होकर कस्तूरी की खोज में लगा रहता है। इस प्रकार अपना जीवन नष्ट कर जाता है। यही दशा उन भोले भक्तों की है जो तीर्थों पर भ्रमण करके परमात्मा को खोज रहे हैं। जब सतगुरू मिल जाता है तो उसको श्वांस-उश्वांस का स्मरण अजपा-जाप बताया जाता है, तब परमात्मा अपने शरीर द्वारा भक्ति साधना करने से प्राप्त होता है।

आत्म बोध पृष्ठ 18 पर:-

साधु के संग साधु होत है, जगत के संते जगत होवै।
साधु के संग परम सुख उपजै, जगत के संग ते जन्म खोवै।।
साधु के संग ते परम पद पाईये, जगत के संग ते दुःख भारी।
कहैं कबीर यह संत का शब्द, सुनो रे जीव सब पुरूष नारी।।

भावार्थ:- संत की शरण में आने से जीवन में सुख होता है। परमात्मा का वह परम पद प्राप्त होता है जो गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में कहा है। जगत के व्यक्तियों के साथ रहने से जगत भाव ही रहता है और अनमोल मानुष जन्म नष्ट हो जाता है।

आत्म बोध पृष्ठ 21 पर:-

नर को बाँधने को एक नारी बनी, दूसरा और नहीं बँधा है रे।
ज्यों चोर को रोकने को एक बेड़ी बनी, काठ बिन नहीं दूसरा फंद रे।।
उबरै कोई कोटि में संत जन, जाल काल काटी हरि नाम लागे।
कहै कबीर फिर फंद में ना पड़ै, शब्द गुरू के सुरति लागे।।

भावार्थ:- जिनको गुरू की शरण नहीं है। उनके लिए स्त्री भक्ति में बाधक मानी गई है। जब नर दीक्षा ले लेता है तो वह ज्ञान आधार से नारी के साथ बर्ताव करता है। उस नर के लिए नारी बाधा नहीं। स्त्री भी भक्ति करती है तो घर स्वर्ग समान हो जाता है। फिर कोई भी किसी के लिए बंधन नहीं होता।

आत्मा को आगे ज्ञान दिया है, पढ़ें।

{संत गरीबदास जी, गाँव-छुड़ानी हरियाणा की अमृतवाणी}

मन तू चलि रे सुख के सागर, जहाँ शब्द सिंधु रत्नागर। (टेक)
कोटि जन्म तोहे मरतां होगे, कुछ नहीं हाथ लगा रे।
कुकर-सुकर खर भया बौरे, कौआ हँस बुगा रे।।(1)
कोटि जन्म तू राजा किन्हा, मिटि न मन की आशा।
भिक्षुक होकर दर-दर हांड्या, मिल्या न निर्गुण रासा।।(2)
इन्द्र कुबेर ईश की पद्वी, ब्रह्मा, वरूण धर्मराया।
विष्णुनाथ के पुर कूं जाकर, बहुर अपूठा आया।।(3)
असँख्य जन्म तोहे मरते होगे, जीवित क्यूं ना मरै रे।
द्वादश मध्य महल मठ बौरे, बहुर न देह धरै रे।।(4)
दोजख बहिश्त सभी तै देखे, राज-पाट के रसिया।
तीन लोक से तृप्त नाहीं, यह मन भोगी खसिया।।(5)
सतगुरू मिलै तो इच्छा मेटैं, पद मिल पदै समाना।
चल हँसा उस लोक पठाऊँ, जो आदि अमर अस्थाना।।(6)
चार मुक्ति जहाँ चम्पी करती, माया हो रही दासी।
दास गरीब अभय पद परसै, मिलै राम अविनाशी।।(7)

सूक्ष्मवेद की वाणी का सरलार्थ:-

आत्मा अपने साथी मन को अमर लोक के सुख तथा इस काल ब्रह्म के लोक के दुख को बताकर सुख के सागर रूपी अमर लोक (सत्यलोक) में चलने के लिए प्ररित कर रही हैं। काल (ब्रह्म) के लोक (इक्कीस ब्रह्माण्डों) में रहने वाले प्राणी को क्या-क्या कष्ट होते हैं, पहले यह जानकारी बताई है। कहा है कि:-

काल (ब्रह्म) के लोक का अटल विधान है कि जो जन्मता है, उसकी मृत्यु निश्चित है और जो मर जाता है, उसका जन्म निश्चित है।

प्रमाण गीता जी में देखें:-

श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 2 श्लोक 22 में इस प्रकार कहा है:-

जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नये वस्त्र ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नये शरीरों को प्राप्त करता है।

गीता अध्याय 2 श्लोक 27:- क्योंकि जन्में हुए की मृत्यु निश्चित है और मरे हुए का जन्म निश्चित है। इसलिए बिना उपाय वाले विषय में तू शोक करने के योग्य नहीं है।

श्रीमद् भगवत गीता शास्त्र से स्पष्ट हुआ कि काल (ब्रह्म) के लोक का अटल नियम है कि जन्म तथा मृत्यु सदा बने रहेंगे। जैसे गीता अध्याय 2 श्लोक 12 में भी कहा है कि:- हे अर्जुन! तू, मैं (गीता ज्ञान दाता) तथा ये सर्व राजा लोग पहले भी जन्मे, ये आगे भी जन्मेंगे।

गीता अध्याय 4 श्लोक 5 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि हे अर्जुन! तेरे और मेरे बहुत जन्म हो चुके हैं, उन सबको तू नहीं जानता, मैं जानता हूँ।

गीता अध्याय 10 श्लोक 2 में गीता ज्ञान ने यह भी स्पष्ट किया है कि मेरी उत्पत्ति को न तो ऋषिजन जानते हैं, न देवता जानते हैं क्योंकि ये सर्व मेरे से उत्पन्न हुए हैं।

इसलिए गीता अध्याय 8 श्लोक 15 में कहा है कि:-

माम् उपेत्य पुनर्जन्मः दुःखालयम् अशाश्वतम्।
न आप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिम् परमाम् गता।।

अनुवाद:- गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि (माम्) मुझे (उपेत्य) प्राप्त होकर तो (दुःखालयम् अशाश्वतम्) दुःखों के घर व नाशवान संसार में (पुनर्जन्मः) पुनर्जन्म है। (महात्मानः) महात्माजन जो (संसिद्धिम् परमाम्) परम सिद्धि को (गता) प्राप्त हो गए हैं, (न अप्नुवन्ति) पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होते।

विशेष:- पाठकजनों से निवेदन है कि मुझ (लेखक संत रामपाल दास) से पहले सर्व अनुवादकों ने गीता के इस श्लोक का गलत (wrong) अनुवाद किया है। (गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि मुझे प्राप्त होकर पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होते।)

विचार करें:- पहले लिखे अनेकों गीता के श्लोकों में आप जी ने पढ़ा कि गीता ज्ञान दाता ने स्वयं कहा है कि मेरे तथा तेरे अनेकों जन्म हो चुके हैं। फिर भी इस श्लोक का यह अर्थ करना कि मुझे प्राप्त महात्मा का पुनर्जन्म नहीं होता, गीता की यथार्थता के साथ खिलवाड़ करना तथा अर्थों का अनर्थ करना मात्र है।

फिर गीता ज्ञान दाता ने गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में तथा गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है कि:-

गीता अध्याय 18 श्लोक 62:- हे भारत! तू सर्वभाव से उस परमेश्वर की शरण में जा। उस परमेश्वर की कृपा से तू परम शांति तथा सनातन परम धाम को प्राप्त होगा।

गीता अध्याय 15 श्लोक 4:- तत्त्वज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् परमेश्वर के उस परमपद की खोज करनी चाहिए। जहाँ जाने के पश्चात् साधक लौटकर संसार में कभी नहीं आते अर्थात् उनका पुनर्जन्म कभी नहीं होता। जिस परमेश्वर से संसार रूपी वृक्ष की प्रवृति विस्तार को प्राप्त हुई है अर्थात् जिस परमेश्वर ने सर्व ब्रह्माण्डों की रचना की है तथा जिससे सर्व प्राणियों की उत्पत्ति हुई है, उसी आदिनारायण की (प्रपद्ये) भक्ति करो। यही प्रमाण गीता अध्याय 18 श्लोक 46 में भी हैः-

गीता अध्याय 18 श्लोक 46:- गीता ज्ञान दाता ने बताया है कि जिस परमेश्वर से संपूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति हुई है और जिससे यह समस्त जगत व्याप्त है अर्थात् जिसकी शक्ति से उत्पन्न होकर स्थित है। उस परमेश्वर की अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा अर्थात् अपने सांसारिक कार्य करते हुए पूजा करके मानव परम सिद्धि को प्राप्त हो जाता है।

गीता अध्याय 15 श्लोक 16 -17 में विशेष ज्ञान कहा है:-

गीता अध्याय 15 श्लोक 16:- इस संसार में दो पुरूष अर्थात् प्रभु हैं। 1) क्षर पुरूष 2) अक्षर पुरूष। ये दोनों तथा इनके लोकों में इनके अंतर्गत जितने प्राणी हैं, वे सर्व नाशवान हैं। जीवात्मा तो किसी की नहीं मरती।

गीता अध्याय 15 श्लोक 17:- उत्तम पुरूष अर्थात् पुरूषोत्तम जो श्रेष्ठ प्रभु है, वह तो ऊपर कहे (क्षर पुरूष तथा अक्षर पुरूष) दोनों पुरूषों से अन्य है। वही ‘परमात्मा‘ कहा जाता है। जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है, वह वास्तव में अविनाशी परमेश्वर है।

गीता अध्याय 8 श्लोक 1 में अर्जुन ने प्रश्न किया कि आप जी ने जो गीता अध्याय 7 श्लोक 29 में ‘‘तत् ब्रह्म‘‘ कहा है, वह क्या है? गीता ज्ञान दाता ने गीता अध्याय 8 के ही श्लोक 3 में उत्तर दिया है कि ‘‘वह परम अक्षर ब्रह्म‘‘ है। गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में भी इसी के विषय में कहा है।

गीता ज्ञान दाता ने गीता अध्याय 8 श्लोक 5 तथा 7 में तो अपनी भक्ति करने को कहा है। उसका परिणाम गीता अध्याय 2 श्लोक 12, अध्याय 4 श्लोक 5, अध्याय 10 श्लोक 2 में बता दिया कि अर्जुन! तेरे और मेरे बहुत जन्म हो चुके हैं। इससे सिद्ध हुआ कि गीता ज्ञान दाता की भक्ति से जन्म-मरण का चक्र समाप्त नहीं हो सकता।

फिर गीता अध्याय 8 के ही श्लोक 8, 9, 10 में गीता ज्ञान दाता ने अपने से अन्य परम अक्षर ब्रह्म की भक्ति करने को कहा है कि जो उस परम अक्षर ब्रह्म की भक्ति करता है, वह उसी मेरे से अन्य दिव्य पुरूष अर्थात् परम अक्षर पुरूष को प्राप्त होता है। ऊपर आपने पढ़ा कि उस परमेश्वर की भक्ति करने से परम शांति को प्राप्त होता है तथा सनातन परम धाम (शाश्वत स्थान) को प्राप्त होता है जो अविनाशी राम है और जहाँ जाने के पश्चात् साधक फिर लौटकर संसार में कभी नहीं आते अर्थात् जिनका जरा (वृद्ध अवस्था) तथा मरण सदा के लिए समाप्त हो जाता है, उनका पुनर्जन्म कभी नहीं होता।

सूक्ष्मवेद की अमृतवाणी का यह भावार्थ है:-

वाणी का सरलार्थ:- आत्मा और मन को पात्र बनाकर संत गरीबदास जी ने संसार के मानव को समझाया है। कहा है कि ‘‘यह संसार दुःखों का घर है। इससे भिन्न एक और संसार है। जहाँ कोई दुःख नहीं है। वह शाश्वत् स्थान है (सनातन परम धाम = सत्यलोक) वह सुख सागर है तथा वहाँ का प्रभु (अविनाशी परमेश्वर) भी सुखदायी है जो उस सुख सागर में निवास करता है। सुख सागर अर्थात् अमर लोक की संक्षिप्त परिभाषा बताई है:-

संखों लहर मेहर की ऊपजैं, कहर नहीं जहाँ कोई।
दास गरीब अचल अविनाशी, सुख का सागर सोई।।

भावार्थ:- जिस समय मैं (लेखक) अकेला होता हूँ, तो कभी-कभी ऐसी हिलोर अंदर से उठती है, उस समय सब अपने-से लगते हैं। चाहे किसी ने मुझे कितना ही कष्ट दे रखा हो, उसके प्रति द्वेष भावना नहीं रहती। सब पर दया भाव बन जाता है। यह स्थिति कुछ मिनट ही रहती है। उसको मेहर की लहर कहा है। सतलोक अर्थात् सनातन परम धाम में जाने के पश्चात् प्रत्येक प्राणी को इतना आनन्द आता है। वहाँ पर ऐसी असँख्यों लहरें आत्मा में उठती रहती हैं। जब वह लहर मेरी आत्मा से हट जाती है तो वही दुःखमय स्थिति प्रारम्भ हो जाती है। उसने ऐसा क्यों कहा?, वह व्यक्ति अच्छा नहीं है, वो हानि हो गई, यह हो गया, वह हो गया। यह कहर (दुःख) की लहर कही जाती है।

उस सतलोक में असँख्य लहर मेहर (दया) की उठती हैं, वहाँ कोई कहर (भयँकर दुःख) नहीं है। वैसे तो सतलोक में कोई दुःख नहीं है। कहर का अर्थ भयँकर कष्ट होता है। जैसे एक गाँव में आपसी रंजिस के चलते विरोधियों ने दूसरे पक्ष के एक परिवार के तीन सदस्यों की हत्या कर दी, कहीं पर भूकंप के कारण हजारों व्यक्ति मर जाते हैं, उसे कहते हैं कहर टूट पड़ा या कहर कर दिया। ऊपर लिखी वाणी में सुख सागर की परिभाषा संक्षिप्त में बताई है। कहा है कि वह अमर लोक अचल अविनाशी अर्थात् कभी चलायमान नहीं है, कभी ध्वस्त नहीं होता तथा वहाँ रहने वाला परमेश्वर अविनाशी है। वह स्थान तथा परमेश्वर सुख का समन्दर है। जैसे समुद्री जहाज बंदरगाह के किनारे से 100 या 200 किमी. दूर चला जाता है तो जहाज के यात्रियों को जल अर्थात् समंदर के अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं देता। सब और जल ही जल नजर आता है। इसी प्रकार सतलोक (सत्यलोक) में सुख के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है अर्थात् वहाँ कोई दुःख नहीं है।

अब पूर्व में लिखी वाणी का सरलार्थ किया जाता है:-

मन तू चल रे सुख के सागर, जहाँ शब्द सिंधु रत्नागर।।(टेक)
कोटि जन्म तोहे भ्रमत होगे, कुछ नहीं हाथ लगा रे।
कुकर शुकर खर भया बौरे, कौआ हँस बुगा रे।।

परमेश्वर कबीर जी ने अपनी अच्छी आत्मा संत गरीबदास जी को सूक्ष्मवेद समझाया, उसको संत गरीबदास जी (गाँव-छुड़ानी जिला-झज्जर, हरियाणा प्रान्त) ने आत्मा तथा मन को पात्र बनाकर विश्व के मानव को काल (ब्रह्म) के लोक का कष्ट तथा सतलोक का सुख बताकर उस परमधाम में चलने के लिए सत्य साधना जो शास्त्रोक्त है, करने की प्रेरणा की है। मन तू चल रे सुख के सागर अर्थात् हे मन! तू सनातन परम धाम में चल। शब्द को अविनाशी अर्थ दिया है क्योंकि शब्द नष्ट नहीं होता। इसलिए शब्द का अर्थ अविनाशीपन से है कि वह स्थान अमरत्व का सिंधु अर्थात् सागर है और मोक्षरूपी रत्न का आगार अर्थात् खान है। इस काल ब्रह्म के लोक में आप जी ने भक्ति भी की। परंतु शास्त्रानुकूल साधना बताने वाले तत्त्वदर्शी संत न मिलने के कारण आप करोड़ों जन्मों से भटक रहे हो। करोड़ों-अरबों रूपये संग्रह करने में पूरा जीवन लगा देते हो। अचानक मृत्यु हो जाती है। वह जोड़ा हुआ धन जो आपके पूर्व के संस्कारों से प्राप्त हुआ था, उसे छोड़कर संसार से चला गया। उस धन के संग्रह करने में जो पाप किए, वे आप जी के साथ गए। आप जी ने उस मानव जीवन में तत्त्वदर्शी संत से दीक्षा लेकर शास्त्रविधि अनुसार भक्ति की साधना नहीं की। जिस कारण से आपको कुछ हाथ नहीं आया। पूर्व के पुण्यों के बदले धन ले लिया। वह धन यहीं रह गया, आपको कुछ भी नहीं मिला। आपको मिले धन संग्रह तथा भक्ति शास्त्रानुकूल न करने के पाप।

जिनके कारण आप कुकर = कुत्ता, खर = गधा, सुकर = सूअर, कौआ = काग पक्षी, हँस = एक पक्षी जो केवल सरोवर में मोती खाता है, बुगा = बुगला पक्षी आदि-आदि की योनियों को प्राप्त करके कष्ट उठाया।

कोटि जन्म तू राजा कीन्हा, मिटि न मन की आशा।
भिक्षुक होकर दर-दर हांड्या, मिला न निर्गुण रासा।।

सरलार्थ:- हे मानव! आप जी ने काल (ब्रह्म) की कठिन से कठिन साधना की। घर त्यागकर जंगल में निवास किया, फिर भिक्षा प्राप्ति के लिए गाँव व नगर में घर-घर के द्वार पर हांड्या अर्थात् घूमा। जंगल में साधनारत साधक निकट के गाँव या शहर में जाता है। एक घर से भिक्षा पूरी नहीं मिलती तो अन्य घरों से भोजन लेकर जंगल में चला जाता है। कभी-कभी तो साधक एक दिन भिक्षा माँगकर लाते हैं, उसी से दो-तीन दिन निर्वाह करते हैं। रोटियों को पतले कपड़े रूमाल जैसे कपड़े को छालना कहते हैं। छालने में लपेटकर वृक्ष की टहनियों से बाँध देते थे। वे रोटियाँ सूख जाती हैं। उनको पानी में भिगोकर नर्म करके खाते थे। वे प्रतिदिन भिक्षा माँगने जाने में जो समय व्यर्थ होता था, उसकी बचत करके उस समय को काल ब्रह्म की साधना में लगाते थे। भावार्थ है कि जन्म-मरण से छुटकारा पाने के लिए अर्थात् पूर्ण मोक्ष प्राप्ति के लिए वेदों में वर्णित विधि तथा लोकवेद से घोरतप करते थे। उनको तत्त्वदर्शी संत न मिलने के कारण निर्गुण रासा अर्थात् गुप्त ज्ञान जिसे तत्त्वज्ञान कहते हैं। वह नहीं मिला क्योंकि यजुर्वेद अध्याय 40 मंत्र 10 में तथा चारों वेदों का सारांश रूप श्रीमद् भगवत गीता अध्याय 4 श्लोक 32 तथा 34 में कहा है कि जो यज्ञों अर्थात् धार्मिक अनुष्ठानों का विस्तृत ज्ञान स्वयं सच्चिदानन्द घन ब्रह्म अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म अपने मुख कमल से बोलकर सुनाता है, वह तत्त्वज्ञान अर्थात् सूक्ष्मवेद है। गीता ज्ञान दाता ब्रह्म ने कहा है कि उस तत्त्वज्ञान को तू तत्त्वज्ञानियों के पास जाकर समझ, उनको दण्डवत् प्रणाम करने से नम्रतापूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्म तत्त्व को भली-भाँति जानने वाले तत्त्वदर्शी संत तुझे तत्त्वज्ञान का उपदेश करेंगे। इससे सिद्ध हुआ कि तत्त्वज्ञान न वेदों में है और न ही गीता शास्त्र में। यदि होता तो एक अध्याय और बोल देता। कह देता कि तत्त्वज्ञान उस अध्याय में पढ़ें। संत गरीबदास जी ने मन के बहाने मानव शरीरधारी प्राणियों को समझाया है कि वह निर्गुण रासा अर्थात् तत्त्वज्ञान न मिलने के कारण काल ब्रह्म की साधना करके आप जी करोड़ों जन्मों में राजा बने। फिर भी मन की इच्छा समाप्त नहीं हुई क्योंकि राजा सोचता है कि स्वर्ग में सुख है, यहाँ राज में कोई सुख-चैन नहीं है, शान्ति नहीं है।

निर्गुण रासा का भावार्थ:- निर्गुण का अर्थ है कि वह वस्तु तो है परंतु उसका लाभ नहीं मिल रहा। वृक्ष के बीज में फल तथा वृक्ष निर्गुण रूप में है, उस बीज को मिट्टी में बीजकर सिंचाई करके वह सरगुण वस्तु (वृक्ष, वृक्ष को फल) प्राप्त की जाती है। यह ज्ञान न होने से आम के फल व छाया से वंचित रह जाते हैं। रासा = झंझट अर्थात् उलझा हुआ कार्य। सूक्ष्मवेद में परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि:-

नौ मन (360 कि.ग्रा.) सूत = कच्चा धागा

कबीर, नौ मन सूत उलझिया, ऋषि रहे झख मार।
सतगुरू ऐसा सुलझा दे, उलझे न दूजी बार।।

सरलार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि अध्यात्म ज्ञान रूपी नौ मन सूत उलझा हुआ है। एक कि.ग्रा. उलझे हुए सूत को सीधा करने में एक दिन से भी अधिक जुलाहों का लग जाता था। यदि सुलझाते समय धागा टूट जाता तो कपड़े में गाँठ लग जाती। गाँठ-गठीले कपड़े को कोई मोल नहीं लेता था। इसलिए परमेश्वर कबीर जुलाहे ने जुलाहों का सटीक उदाहरण बताकर समझाया है कि अधिक उलझे हुए सूत को कोई नहीं सुलझाता था। अध्यात्म ज्ञान उसी नौ मन उलझे हुए सूत के समान है जिसको सतगुरू अर्थात् तत्त्वदर्शी संत ऐसा सुलझा देगा जो पुनः नहीं उलझेगा। बिना सुलझे अध्यात्म ज्ञान के आधार से अर्थात् लोकवेद के अनुसार साधना करके स्वर्ग-नरक, चैरासी लाख प्रकार के प्राणियों के जीवन, पृथ्वी पर किसी टुकड़े का राज्य, स्वर्ग का राज्य प्राप्त किया, पुनः फिर जन्म-मरण के चक्र में गिरकर कष्ट पर कष्ट उठाया। परंतु काल ब्रह्म की वेदों में वर्णित विधि अनुसार साधना करने से वह परम शांति तथा सनातन परम धाम प्राप्त नहीं हुआ जो गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में कहा है और न ही परमेश्वर का वह परम पद प्राप्त हुआ जहाँ जाने के पश्चात् साधक लौटकर संसार में कभी नहीं आते जो गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है। काल ब्रह्म की साधना से निम्न लाभ होता रहता है।

वाणी नं 3:- इन्द्र-कुबेर, ईश की पदवी, ब्रह्मा वरूण धर्मराया।
विष्णुनाथ के पुर कूं जाकर, बहुर अपूठा आया।।

सरलार्थ:- काल ब्रह्म की साधना करके साधक इन्द्र का पद भी प्राप्त करता है। इन्द्र स्वर्ग के राजा का पद है। इसको देवराज अर्थात् देवताओं का राजा तथा सुरपति भी कहते हैं। यह सिंचाई विभाग अर्थात् वर्षा मंत्रालय भी अपने आधीन रखता है।

प्रश्न:- इन्द्र की पदवी कैसे प्राप्त होती है?

उत्तर:- अधिक तप करने से या सौ मन (4 हजार कि.ग्रा.) गाय-भैंस के घी का प्रयोग करके धर्मयज्ञ करने से एक धर्मयज्ञ सम्पन्न होती है। ऐसी-ऐसी सौ धर्मयज्ञ निर्विघ्न करने से इन्द्र की पदवी साधक प्राप्त करता है। तप या यज्ञ के दौरान यज्ञ या तप की मर्यादा भंग हो जाती है तो नए सिरे से यज्ञ तथा तप करना पड़ता है। सफल होने पर ही इन्द्र की पदवी प्राप्त होती है। इस प्रकार इन्द्र की पदवी प्राप्त होती है।

प्रश्न:- इन्द्र का शासन काल कितना है? मृत्यु उपरांत इन्द्र के पद को छोड़कर प्राणी किस योनि को प्राप्त करता है?

उत्तर:- इन्द्र स्वर्ग के राजा के पद पर 72 चैकड़ी अर्थात् 72 चतुर्युग तक बना रहता है।

{एक चतुर्युग में सत्ययुग + त्रेतायुग + द्वापरयुग तथा कलयुग का समय होता है। जो 1728000 + 1296000 + 864000 + 432000 क्रमशः सत्ययुग + त्रेतायुग + द्वापरयुग + कलयुग का समय अर्थात् 43 लाख 20 हजार वर्ष का समय एक चतुर्युग में होता है। ऐसे बने 72 चतुर्युग तक वह साधक इन्द्र के पद पर स्वर्ग के राजा का सुख भोगता है।} एक कल्प अर्थात् ब्रह्मा जी के एक दिन में (जो एक हजार आठ (1008) चतुर्युग का होता है) 14 जीव इन्द्र के पद पर रहकर अपना किया पुण्य-कर्म भोगते हैं। इन्द्र के पद को भोगकर वे प्राणी गधे का जीवन प्राप्त करते हैं।

कथा-मार्कण्डेय ऋषि तथा अप्सरा का संवाद

एक समय बंगाल की खाड़ी में मार्कण्डेय ऋषि तप कर रहा था। इन्द्र के पद पर विराजमान को यह शर्त होती है कि तेरे शासनकाल में 72 चैकड़ी युग के दौरान यदि पृथ्वी पर कोई व्यक्ति इन्द्र पद प्राप्त करने योग्य तप या धर्मयज्ञ कर लेता है और उसकी क्रिया में कोई बाधा नहीं आती है तो उस साधक को इन्द्र का पद दे दिया जाता है और वर्तमान इन्द्र से वह पद छीन लिया जाता है। इसलिए जहाँ तक संभव होता है, इन्द्र अपने शासनकाल में किसी साधक का तप या धर्मयज्ञ पूर्ण नहीं होने देता। उसकी साधना भंग करा देता है, चाहे कुछ भी करना पड़े।

जब इन्द्र को उसके दूतों ने बताया कि बंगाल की खाड़ी में मार्कण्डेय नामक ऋषि तप कर रहे हैं। इन्द्र ने मार्कण्डेय ऋषि का तप भंग करने के लिए उर्वशी भेजी। सर्व श्रंगार करके देवपरी मार्कण्डेय ऋषि के सामने नाचने-गाने लगी। उर्वशी ने अपनी सिद्धि से उस स्थान पर बसंत ऋतु जैसा वातावरण बना दिया। मार्कण्डेय ऋषि ने कोई उत्सुकता नहीं दिखाई। उर्वशी ने कमर-नाड़ा तोड़ दिया, निःवस्त्र हो गई। तब मार्कण्डेय ऋषि बोले, हे बेटी!, हे बहन!, हे माई! आप यह क्या कर रही हो? आप यहाँ गहरे जंगल में अकेली किसलिए आई? उर्वशी ने कहा कि ऋषि जी मेरे रूप को देखकर इस आरण्य खण्ड (बन-खण्ड) के सर्व साधक अपना संतुलन खो गए परंतु आप डगमग नहीं हुए, न जाने आपकी समाधि कहाँ थी? कृप्या आप मेरे साथ इन्द्रलोक में चलो, नहीं तो मुझे सजा मिलेगी कि तू हार कर आ गई। मार्कण्डेय ऋषि ने कहा कि मेरी समाधि ब्रह्मलोक में गई थी, जहाँ पर मैं उन उर्वशियों का नाच देख रहा था जो इतनी सुंदर हैं कि तेरे जैसी तो उनकी 7.7 बांदियाँ अर्थात् नौकरानियाँ हैं। इसलिए मैं तेरे को क्या देखता, तेरे पर क्या आसक्त होता? यदि तेरे से कोई सुंदर हो तो उसे ले आ। तब देवपरी ने कहा कि इन्द्र की पटरानी अर्थात् मुख्य पत्नी मैं ही हूँ। मुझसे सुन्दर स्वर्ग में कोई औरत नहीं है।

तब मार्कण्डेय ऋषि ने पूछा कि इन्द्र की मृत्यु होगी, तब तू क्या करेगी? उर्वशी ने उत्तर दिया कि मैं 14 इन्द्र भोगूँगी। भावार्थ है कि श्री ब्रह्मा जी के एक दिन में 1008 चतुर्युग होते हैं जिसमें 72-72 चतुर्युग का शासनकाल पूरा करके 14 इन्द्र मृत्यु को प्राप्त होते हैं। इन्द्र की रानी वाली आत्मा ने किसी मानव जन्म में इतने अत्यधिक पुण्य किए थे। जिस कारण से वह 14 इन्द्रों की पटरानी बनकर स्वर्ग सुख तथा पुरूष सुख को भोगेगी।

मार्कण्डेय ऋषि ने कहा कि वे 14 इन्द्र भी मरेंगे, तब तू क्या करेगी? उर्वशी ने कहा कि फिर मैं मृत्यु लोक में गधी बनाई जाऊँगी और जितने इन्द्र मेरे पति होंगे, वे भी पृथ्वी पर गधे की योनि प्राप्त करेंगे।

मार्कण्डेय ऋषि बोले कि फिर मुझे ऐसे लोक में क्यों ले जा रही थी जिसका राजा गधा बनेगा और रानी गधी की योनि प्राप्त करेगी? उर्वशी बोली कि अपनी इज्जत रखने के लिए, नहीं तो वे कहेंगे कि तू हारकर आई है।

मार्कण्डेय ऋषि ने कहा कि गधियों की कैसी इज्जत? तू वर्तमान में भी गधी है क्योंकि तू चैदह खसम करेगी और मृत्यु उपरांत तू स्वयं स्वीकार रही है कि मैं गधी बनूंगी। विधानानुसार अपना इन्द्र का राज्य मार्कण्डेय ऋषि को देने के लिए वहीं पर इन्द्र आ गया और कहा कि ऋषि जी हम हारे और आप जीते। आप इन्द्र की पदवी स्वीकार करें। मार्कण्डेय ऋषि बोले अरे-अरे इन्द्र! इन्द्र की पदवी मेरे किसी काम की नहीं। मेरे लिए तो काग (कौवे) की बीट के समान है। मार्कण्डेय ऋषि ने इन्द्र से फिर कहा कि तू मेरे बताए अनुसार साधना कर, तेरे को ब्रह्मलोक ले चलूँगा। इस इन्द्र के राज्य को छोड़ दे। इन्द्र ने कहा कि हे ऋषि जी अब तो मुझे मौज-मस्ती करने दो। फिर कभी देखूंगा।

पाठकजनो! विचार करो:- इन्द्र को पता है कि मृत्यु के उपरांत गधे का जीवन मिलेगा, फिर भी उस क्षणिक सुख को त्यागना नहीं चाहता। कहा कि फिर कभी देखूंगा। फिर कब देखेगा? गधा बनने के पश्चात् तो कुम्हार देखेगा। कितना वजन गधे की कमर पर रखना है? कहाँ-सी डण्डा मारना है? ठीक इसी प्रकार इस पृथ्वी पर कोई छोटे-से टुकड़े का प्रधानमंत्री, मंत्री, मुख्यमंत्री या राज्य में मंत्री बना है या किसी पद पर सरकारी अधिकारी या कर्मचारी बना है या धनी है। उसको कहा जाता है कि आप भक्ति करो नहीं तो गधे बनोगे। वे या तो नाराज हो जाते हैं कि क्यों बनेंगे गधे? फिर से मत कहना। कुछ सभ्य होते हैं, वे कहते हैं कि किसने देखा है, गधे बनते हैं? फिर उनको बताया जाता है कि सब संत तथा ग्रन्थ बताते हैं। तो अधिकतर कहते हैं कि देखा जाएगा। उनसे निवेदन है कि मृत्यु के पश्चात् गधा बनने के बाद आप क्या देखोगे, फिर तो कुम्हार देखेगा कि आप जी के साथ कैसा बर्ताव करना है? देखना है तो वर्तमान में देख। बुराई छोड़कर शास्त्रानुकूल साधना करो जो वर्तमान में विश्व में केवल मेरे पास (लेखक रामपाल दास के पास) है। आओ ग्रहण करो और अपने जीव का कल्याण कराओ।

ऊपर लिखी वाणी नं. 3 में बताया है कि इन्द्र-कुबेर तथा ईश की पदवी प्राप्त करने वाले तथा ब्रह्मा जी का पद वरूण, धर्मराय का पद प्राप्त करके तथा विष्णु जी के लोक को प्राप्त कर देव पद प्राप्त भी वापिस जन्म-मरण के चक्र में रहता है।

स्वर्ग लोक में 33 करोड़ देव पद हैं। जैसे भारत वर्ष की संसद में 540 सांसदों के पद हैं। व्यक्ति बदलते रहते हैं। उन्हीं सांसदों में से प्रधानमंत्री तथा अन्य केंद्रीय मंत्री आदि बनते हैं। इसी प्रकार उन 33 करोड़ देवताओं में से ही कुबेर का पद अर्थात् धन के देवता का पद प्राप्त होता है जैसे वित्त मंत्री होता है। ईश की पदवी का अर्थ है प्रभु पद जो कुल तीन माने गए हैं:- 1) श्री ब्रह्मा जी 2) श्री विष्णु जी तथा 3) श्री शिव जी। वरूणदेव जल का देवता है। धर्मराय मुख्य न्यायधीश है जो सब जीवों को कर्मों का फल देता है, उसे धर्मराज भी कहते हैं। ये सर्व काल ब्रह्म की साधना करके पद प्राप्त करते हैं। पुण्य क्षीण होने के पश्चात् पद से मुक्त होकर पशु-पक्षियों आदि की 84 लाख प्रकार की योनियों में चले जाते हैं। फिर नए ब्रह्मा जी, नए विष्णु जी तथा नए शिव जी इन पदों पर विराजमान होते हैं। उपरोक्त सर्व देवता जन्मते-मरते हैं। ये अविनाशी नहीं हैं। इनकी स्थिति आप जी को ‘‘सृष्टि रचना‘‘ अध्याय में इसी पुस्तक में स्पष्ट होगी कि ये कितने प्रभु हैं? किसके पुत्र हैं तथा कौन इनकी माता जी हैं?

अन्य प्रमाण:- श्री देवी पुराण (सचित्र मोटा टाईप केवल हिन्दी, गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित) के तीसरे स्कंद में पृष्ठ 123 पर लिखा है कि तुम शुद्ध स्वरूपा हो, यह सारा संसार आप से ही उद्भाषित हो रहा है। मैं (विष्णु), ब्रह्मा और शंकर आपकी कृप्या से विद्यमान हैं। हमारा तो अविर्भाव अर्थात् जन्म तथा तिरोभाव अर्थात् मृत्यु हुआ करता है। आप प्रकृति देवी हैं। शंकर भगवान बोले कि हे देवी! यदि विष्णु के पश्चात् उत्पन्न होने वाले ब्रह्मा आपसे उत्पन्न हुए हैं तो क्या मैं तमोगुणी लीला करने वाला शंकर क्या आपकी संतान नहीं हुआ अर्थात् मुझे भी उत्पन्न करने वाली तुम ही हो। हम तो केवल नियमित कार्य ही कर सकते हैं अर्थात् जिसके भाग्य में जो लिखा है, हम वही प्रदान कर सकते हैं। न अत्यधिक कर सकते, न कम कर सकते। पाठकजनो! इस श्री देवी पुराण के उल्लेख से स्पष्ट हुआ कि श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी तथा श्री शंकर जी नाशवान हैं। इनकी माता जी का नाम श्री देवी दुर्गा है। अधिक जानकारी आप ‘‘सृष्टि रचना‘‘ अध्याय से ग्रहण करेंगे जो इसी पुस्तक में लिखी है। ये प्रधान देवता हैं। अन्य इनसे निम्न स्तर के देव हैं। ये सर्व जन्मते-मरते हैं, अविनाशी राम यानि अविनाशी परमात्मा नहीं हैं।

श्रीमद् भगवत गीता अध्याय 10 श्लोक 2 में लिखा है कि गीता ज्ञान दाता काल ब्रह्म ने कहा है कि ‘‘मेरी उत्पत्ति को न तो देवता जानते और न महर्षिजन जानते क्योंकि इन सबका आदि कारण मैं ही हूँ अर्थात् ये सर्व मेरे से उत्पन्न हुए हैं।‘‘

गीता अध्याय 14 श्लोक 3 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि हे अर्जुन! मेरी प्रकृति अर्थात् दुर्गा तो गर्भ धारण करती है, मैं उसके गर्भ में बीज स्थापित करता हूँ जिससे सर्व प्राणियों की उत्पत्ति होती है।

गीता अध्याय 14 श्लोक 4 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि हे अर्जुन! नाना प्रकार की सब योनियों में जितने शरीरधारी मूर्तियाँ उत्पन्न होती हैं (महत्) प्रकृति तो उन सबकी गर्भ धारण करने वाली माता है। (अहम् ब्रह्म) मैं ब्रह्म बीज स्थापित करने वाला पिता हूँ।

गीता अध्याय 14 श्लोक 5:- गीता ज्ञान दाता ने स्पष्ट किया है कि हे अर्जुन! सत्वगुण श्री विष्णु जी, रजगुण श्री ब्रह्मा जी तथा तमगुण श्री शिव जी, ये प्रकृति अर्थात् दुर्गा देवी से उत्पन्न तीनों देवता अर्थात् तीनों गुण अविनाशी जीवात्मा को कर्मों के अनुसार शरीर में बाँधते हैं। उपरोक्त प्रमाणों से स्पष्ट हुआ कि उपरोक्त देवता नाशवान हैं तथा काल ब्रह्म के पुत्र हैं।

प्रसंग चल रहा है कि वाणी सँख्या 3 का सरलार्थ:-

इन्द्र, कुबेर, ईश अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु, शिव तक को प्राप्त करके तथा वरूण, धर्मराय की पदवी तथा श्री विष्णुनाथ के लोक को प्राप्त करके भी जन्म-मरण के चक्र में रहते हैं।

मार्कण्डेय ऋषि जी ब्रह्म साधना कर रहे थे। उसी को सर्वोत्तम मान रहे थे। इसीलिए इन्द्र को कह रहे थे कि आ तेरे को ब्रह्म साधना का ज्ञान कराऊँ। ब्रह्म लोक की तुलना में स्वर्ग का राज्य लापसी (बिना देशी घी से बना भोजन जो हलवे जेसा दिखाई देता है) की तुलना में जैसे कौवे की बीट है।

पाठकजनो! सत्यलोक को हलवा जानों! आप जी ने ब्रह्म साधना करने वाले श्री चुणक ऋषि, श्री दुर्वासा ऋषि तथा कपिल मुनि की दशा जान ली, उनकी साधना को गीता ज्ञान दाता ने गीता अध्याय 7 श्लोक 18 में अनुत्तम अर्थात् घटिया बताया है। उसी श्रेणी की साधना मार्कण्डेय ऋषि जी की थी। जिसको अति उत्तम मानकर कर रहे थे तथा इन्द्र जी को भी राय दे रहे थे कि ब्रह्म साधना कर ले।

सूक्ष्मवेद में कहा है कि:- औरों पंथ बतावहीं, आप न जाने राह।

भावार्थ:- अन्य को मार्गदर्शन करते हैं, स्वयं भक्ति मार्ग का ज्ञान नहीं। श्रीमद् भगवत गीता अध्याय 4 श्लोक 25 से 29 तक यही बताया है कि जो साधक जैसी भी साधना करता है, उसे उत्तम मानकर कर रहा होता है, सर्व साधक अपनी-अपनी भक्ति को पापनाशक जानते हैं। गीता अध्याय 4 श्लोक 32 में स्पष्ट किया है कि यज्ञों अर्थात् धार्मिक अनुष्ठानों का ज्ञान स्वयं सच्चिदानन्द घन ब्रह्म ने अपने मुख कमल से बोली वाणी में विस्तार के साथ कहा है, वह तत्त्वज्ञान है। जिसे जानकर साधक सर्व पापों से मुक्त हो जाता है।

गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में स्पष्ट किया है कि उस तत्त्वज्ञान को तत्त्वदर्शी संत जानते हैं, उनको दण्डवत प्रणाम करने से, नम्रतापूर्वक प्रश्न करने से वे तत्त्वज्ञान को जानने वाले ज्ञानी महात्मा तुझे तत्त्वज्ञान का उपदेश करेंगे।

वह तत्त्वज्ञान जिसे ऊपर की वाणी में निर्गुण रासा कहा है, नहीं मिलने से सर्व साधक जन्म-मरण के चक्र में रह गए।

मार्कण्डेय ऋषि ब्रह्म साधना कर रहा था। श्रीमद् भगवत गीता अध्याय 8 श्लोक 16 में कहा है कि ब्रह्मलोक में गए साधक भी पुनरावर्ती अर्थात् बार-बार जन्म-मरण के चक्र में ही रहते हैं। वाणी सँख्या 4:- असंख जन्म तोहे मरतां होगे, जीवित क्यों न मरै रे। द्वादश मध्य महल मठ बोरे, बहुर न देह धरै रे।।

सरलार्थ:- हे मानव! तू अनन्त बार जन्म और मर चुका है। सत्य साधना कर तथा जीवित मर। जीवित मरने का तात्पर्य है कि भक्त को ज्ञान हो जाता है कि इस संसार की प्रत्येक वस्तु अस्थाई है। यह शरीर भी स्थाई नहीं है। जन्म-मृत्यु का बखेड़ा भी भयँकर है। इस संसार में दुख के अतिरिक्त कुछ नहीं है। मानव शरीर प्राप्त करके मोक्ष प्राप्त नहीं किया तो पशु जैसा जीवन जीया। जैसे गीता अध्याय 7 श्लोक 29 में कहा है कि जो साधक केवल जरा अर्थात् वृद्धावस्था के कष्ट तथा मरण के दुःख से ही मुक्ति के लिए जो साधनारत हैं, वे तत् ब्रह्म को तथा सम्पूर्ण अध्यात्म को तथा कर्मों को जानते हैं।

इसी प्रकार तत्त्वज्ञान होने के पश्चात् मानव को अनावश्यक वस्तुओं की इच्छा नहीं होती, तम्बाकू, शराब-माँस सेवन नहीं करता। नाच-गाना मूर्खों का काम लगता है। जैसा भोजन मिल जाए, उसी में संतुष्ट रहता है।

आत्म कल्याण कराने के लिए साधक विचार करता है कि यदि मैं सत्संग में नहीं आऊँगा तो गुरू जी के दर्शन नहीं कर पाऊँगा। सत्संग विचार न सुनने से मन फिर से विकार करने लगेगा। वह साधक सर्व कार्य छोड़कर सत्संग सुनने के लिए चल पड़ता है। वह विचार करता है कि हम प्रतिदिन सुनते हैं तथा देखते हैं कि छोटे-छोटे बच्चों को छोड़कर पिता संसार से चला जाता है, मर जाता है। बड़े-बड़े पूंजीपति दुर्घटना में मर जाते हैं। सर्व सम्पत्ति जो सारे जीवन में जोड़ी थी, उसे छोड़कर चले जाते हैं, दोबारा उस सम्पत्ति को सँभालने नहीं आते। मृत्यु से पहले एक दिन भी कार्य छोड़ने का दिल नहीं करता था, अब स्थाई (permanent) कार्य छूट गया।

एक भक्त सत्संग में जाने लगा। दीक्षा ले ली, ज्ञान सुना और भक्ति करने लगा। अपने मित्र से भी सत्संग में चलने तथा भक्ति करने के लिए प्रार्थना की। परंतु दोस्त नहीं माना। कह देता कि कार्य से फुर्सत नहीं है। छोटे-छोटे बच्चे हैं। इनका पालन-पोषण भी करना है। काम छोड़कर सत्संग में जाने लगा तो सारा धँधा चैपट हो जाएगा।

वह सत्संग में जाने वाला भक्त जब भी सत्संग में चलने के लिए अपने मित्र से कहता तो वह यही कहता कि अभी काम से फुर्सत नहीं है। एक वर्ष पश्चात् उस मित्र की मृत्यु हो गई। उसकी अर्थी उठाकर नगरवासी चले, साथ-साथ सैंकड़ों नगर-मौहल्ले के व्यक्ति भी साथ-साथ चले। सब बोल रहे थे कि राम नाम सत् है, सत् बोले गत् है।

भक्त कह रहा था कि राम नाम तो सत् है परंतु आज भाई को फुर्सत है। नगरवासी कह रहे थे कि सत् बोले गत् है, भक्त कह रहा था कि आज भाई को फुर्सत है। अन्य व्यक्ति उस भक्त से कहने लगे कि ऐसे मत बोल, इसके घर वाले बुरा मानेंगे। भक्त ने कहा कि मैं तो ऐसे ही बोलूँगा। मैंने इस मूर्ख से हाथ जोड़कर प्रार्थना की थी कि सत्संग में चल, कुछ भक्ति कर ले। यह कहता था कि अभी फुर्सत अर्थात् समय नहीं है। आज इसको परमानैंट फुर्सत है। छोटे-छोटे बच्चे भी छोड़ चला जिनके पालन-पोषण का बहाना करके परमात्मा से दूर रहा। भक्ति करता तो खाली हाथ नहीं जाता। कुछ भक्ति धन लेकर जाता। बच्चों का पालन-पोषण परमात्मा करता है। भक्ति करने से साधक की आयु भी परमात्मा बढ़ा देता है। भक्तजन ऐसा विचार करके भक्ति करते हैं, कार्य त्यागकर सत्संग सुनने जाते हैं।

भक्त विचार करते हैं कि परमात्मा न करे, हमारी मृत्यु हो जाए। फिर हमारे कार्य कौन करेगा? हम यह मान लेते हैं कि हमारी मृत्यु हो गई। हम तीन दिन के लिए सत्संग में चलें, अपने को मृत मान लें और सत्संग में चले गए। वैसे तो परमात्मा के भक्तों का कार्य बिगड़ता नहीं, फिर भी हम मान लेते हैं कि हमारी गैर-हाजिरी में कुछ कार्य खराब हो गया तो तीन दिन बाद जाकर ठीक कर लेंगे। वास्तव में टिकट कट गई अर्थात् मृत्यु हो गई तो परमानैंट कार्य बिगड़ गया। फिर कभी ठीक करने नहीं आ सकते। इस स्थिति को जीवित मरना कहते हैं।

वाणी का शेष सरलार्थ:-

द्वादश मध्य महल मठ बौरे, बहुर न देहि धरै रे।

सरलार्थ:- श्रीमद् भगवत गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है कि तत्त्वज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् परमेश्वर के उस परमपद की खोज करनी चाहिए जहाँ जाने के पश्चात् साधक लौटकर संसार में कभी नहीं आते अर्थात् उनका पुनर्जन्म नहीं होता। वे फिर देह धारण नहीं करते। सूक्ष्मवेद की यह वाणी यही स्पष्ट कर रही है कि वह परम धाम द्वादश अर्थात् 12वें द्वार को पार करके उस परम धाम में जाया जाता है। आज तक सर्व ऋषि-महर्षि, संत, मंडलेश्वर केवल 10 द्वार बताया करते। परंतु परमेश्वर कबीर जी ने अपने स्थान को प्राप्त कराने का सत्यमार्ग, सत्य स्थान स्वयं ही बताया है। उन्होंने 12वां द्वार बताया है। इससे भी स्पष्ट हुआ कि आज तक (सन् 2012 तक) पूर्व के सर्व ऋषियों, संतों, पंथों की भक्ति काल ब्रह्म तक की थी। जिस कारण से जन्म-मृत्यु का चक्र चलता रहा।

वाणी सँख्या 5:- दोजख बहिश्त सभी तै देखे, राजपाट के रसिया।
तीन लोक से तृप्त नाहीं, यह मन भोगी खसिया।।

सरलार्थ:- तत्त्वज्ञान के अभाव में पूर्णमोक्ष का मार्ग न मिलने के कारण कभी दोजख अर्थात् नरक में गए, कभी बहिश्त अर्थात् स्वर्ग में गए,कभी राजा बनकर आनन्द लिया। यदि इस मानव को तीन लोक का राज्य भी दे दें तो भी तृप्ति नहीं होती।

उदाहरण:- यदि कोई गाँव का सरपंच बन जाता है तो वह इच्छा करता है कि विधायक बने तो मौज हो जाए। विधायक इच्छा करता है कि मन्त्राी बनूँ तो बात कुछ अलग हो जाएगी। मंत्री बनकर इच्छा करता है कि मुख्यमंत्री बनूँ तो पूरी चैधर (महिमा) हो। आनन्द ही न्यारा होगा। सारे प्रान्त पर कमांड चलेगी। मुख्यमंत्री बनने के पश्चात् प्रबल इच्छा होती है कि प्रधानमंत्री बनूँ तो जीवन की सफलता है। तब तक जीवन लीला समाप्त हो जाएगी। फिर गधा बनकर कुम्हार के लठ खा रहा होगा। इसलिए तत्त्वज्ञान में समझाया है कि काल ब्रह्म द्वारा बनाई स्वर्ग-नरक तथा राजपाट प्राप्ति की भूल-भुलईया में सारा जीवन व्यर्थ कर दिया।

एक अब्राहिम सुल्तान अधम नाम का बलख शहर का राजा था। वह पूर्व जन्म का बहुत अच्छा भक्त था। परंतु वर्तमान के ऐश्वर्य में मस्त होकर परमात्मा को भूल चुका था। राज के ठाठ में तथा महलों में आनंदमान बैठा था। एक दिन परमात्मा कबीर जी सत्यलोक से आकर एक यात्री का रूप बनाकर राजा के महल में गए तथा कहा कि सराय वाले! एक कमरा किराए पर दे, पैसे बता, रात्रि बितानी है। राजा ने कहा हे भोले यात्री! आपको यह सराय दिखाई देती है। मैं राजा हूँ और यह मेरा महल है। यात्री रूप में परमात्मा ने पूछा कि आपसे पहले इस महल में कौन रहते थे? राजा ने कहा कि मेरे पिता, दादा-परदादा रहते थे। यात्री रूप में परमेश्वर ने कहा कि आप कितने दिन रहोगे इस महल में? राजा ने कहा एक दिन मैं भी चला जाऊँगा इन्हें छोड़कर। परमेश्वर बोले कि यह सराय (धर्मशाला) नहीं तो क्या है? यह सराय है। जैसे तेरे बाप-दादा गए, ऐसे ही तू चला जाएगा, इसलिए मैंने महलों को धर्मशाला बताया है। राजा को वास्तविकता का ज्ञान हुआ। संसार की इच्छा त्यागकर आत्म-कल्याण करवाया। सदा रहने वाला सुख तथा अमर जीवन प्राप्त करने के लिए दीक्षा ली और आजीवन भक्ति की, अपना मानव जीवन सफल किया।

वाणी सँख्या 6:-सतगुरू मिलैं तो इच्छा मेटैं, पद मिल पदे समाना।
चल हंसा उस लोक पठाऊँ, जो आदि अमर अस्थाना।।

सरलार्थ:- यदि तत्त्वदर्शी संत सतगुरू मिलें तो उपरोक्त ज्ञान बताकर काल ब्रह्म के लोक की सर्व वस्तुओं से तथा पदों से इच्छा समाप्त करके ‘‘पद मिल पदे समाना‘‘ इसमें एक ‘पद‘ का अर्थ है पद्धति अर्थात् शास्त्रविधि अनुसार साधना। दूसरे पद का अर्थ है अमर लोक स्थान। सतगुरू साधना करवाकर परमेश्वर के उस परम पद की प्राप्ति करा देता है जहाँ जाने के पश्चात् फिर लौटकर संसार में कभी नहीं आते। हे भक्त! चल तुझे उस लोक में भेज दूँ जो आदि अमर अस्थान है अर्थात् गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में वर्णित सनातन परम धाम है जहाँ पर परम शांति है।

वाणी सँख्या 7:- चार मुक्ति जहाँ चम्पी करती, माया हो रही दासी।
दास गरीब अभय पद परसै, मिले राम अविनाशी।।

सरलार्थ:- उस सनातन परम धाम में परम शान्ति तथा अत्यधिक सुख है। काल ब्रह्म के लोक में चार मुक्ति मानी जाती है, जिनको प्राप्त करके साधक अपने को धन्य मानता है। परंतु वे स्थाई नहीं हैं। कुछ समय उपरांत पुण्य समाप्त होते ही फिर 84 लाख प्रकार की योनियों में कष्ट उठाता है। परंतु उस सत्यलोक में चारों मुक्ति वाला सुख सदा बना रहेगा। माया आपकी नौकरानी बनकर रहेगी।

संत गरीबदास जी ने बताया है कि अमर लोक में जाने के पश्चात् प्राणी निर्भय हो जाता है और उस सनातन परम धाम में वह अविनाशी राम अर्थात् परमेश्वर मिलेगा। इसलिए पूर्ण मोक्ष के लिए शास्त्रानुकूल भक्ति करनी चाहिए जिससे उस परमात्मा तक जाया जा सकता है। उपरोक्त वाणी तथा पूर्वोक्त विवरण से स्पष्ट हुआ कि श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी तथा शिव जी और इनके पिता काल ब्रह्म अर्थात् क्षर पुरूष व अक्षर पुरूष सर्व राम अर्थात् प्रभु नाशवान हैं। केवल परम अक्षर ब्रह्म ही अविनाशी राम अर्थात् प्रभु है। उस परमेश्वर की भक्ति से ही परमशांति तथा सनातन परम धाम अर्थात् पूर्ण मोक्ष प्राप्त होगा जहाँ पर चार मुक्ति का सुख सदा बना रहेगा। माया अर्थात् सर्व सुख-सुविधाऐं साधक के नौकर की तरह हाजिर रहती हैं।

सूक्ष्मवेद में कहा है कि:-

कबीर, माया दासी संत की, उभय दे आशीष।
विलसी और लातों छड़ी, सुमर-सुमर जगदीश।।

भावार्थ:- सर्व सुख-सुविधाऐं धन से होती हैं। वह धन शास्त्रविधि अनुसार भक्ति करने वाले संत-भक्त की भक्ति का अन् उदेशित उत्पाद (by product) होता है। जैसे जिसने गेहूँ की फसल बीजी तो उसका उद्देश्य गेहूँ का अन्न प्राप्त करना है। परंतु भूस अर्थात् चारा भी अवश्य प्राप्त होता है। चारा, तूड़ा गेहूँ के अन्न का अन् उदेशित उत्पाद (by product) है। इसी प्रकार सत्य साधना करने वाले को अपने आप धन माया मिलती है। साधक उसको भोगता है, वह चरणों में पड़ी रहती है अर्थात् धन का अभाव नहीं रहता अपितु आवश्यकता से अधिक प्राप्त रहती है। परमेश्वर की भक्ति करके माया का भी आनन्द भक्त, संत प्राप्त करते हैं तथा पूर्ण मोक्ष भी प्राप्त करते हैं।

कबीर सागर के अध्याय ‘‘आत्म बोध‘‘ का सारांश सम्पूर्ण हुआ।

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