ब्रह्म साधक का चरित्र
‘‘ऋषि चुणक द्वारा मानधाता के विनाश की कथा‘‘
कथा प्रसंग: गीता ज्ञान दाता (ब्रह्म) ने गीता अध्याय 7 श्लोक 16-17 में बताया है कि मेरी भक्ति चार प्रकार के भक्त करते हैं -
- आर्त (संकट निवारण के लिए)
- अर्थार्थी (धन लाभ के लिए),
- जिज्ञासु (जो ज्ञान प्राप्त करके वक्ता बन जाते हैं) और
- ज्ञानी (केवल मोक्ष प्राप्ति के लिए भक्ति करने वाले)।
इनमें से तीन को छोड़कर चैथे ज्ञानी को अपना पक्का भक्त गीता ज्ञान दाता ने बताया है।
पेश है गीता अध्याय 7 श्लोक 16-17 की फोटोकाॅपियाँ:-
(गीता अध्याय 7 श्लोक 16 की फोटोकाॅपी)
(गीता अध्याय 7 श्लोक 17 की फोटोकाॅपी)
ज्ञानी की विशेषता:- ज्ञानी वह होता है जिसने जान लिया है कि मनुष्य जीवन केवल मोक्ष प्राप्ति के लिए ही प्राप्त होता है। उसको यह भी ज्ञान होता है कि पूर्ण मोक्ष के लिए केवल एक परमात्मा की भक्ति करनी चाहिए। अन्य देवताओं (रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी तथा तमगुण शिवजी) की भक्ति से पूर्ण मोक्ष नहीं होता। उन ज्ञानी आत्माओं को गीता अध्याय 4 श्लोक 34 तथा यजुर्वेद अध्याय 40 मन्त्र 10 में वर्णित तत्वदर्शी सन्त न मिलने के कारण उन्होंने वेदों से स्वयं निष्कर्ष निकाल लिया कि ‘‘ब्रह्म’’ समर्थ परमात्मा है, ओम् (ऊँ) इसकी भक्ति का मन्त्र है। इस साधना से ब्रह्मलोक प्राप्त हो जाता है। यही मोक्ष है।
पेश है यजुर्वेद अध्याय 40 मंत्र 15 की फोटोकाॅपी:-
यह फोटोकाॅपी यजुर्वेद अध्याय 40 मंत्र 15 की है। इसका अनुवाद महर्षि दयानंद (आर्य समाज प्रवर्तक) ने किया है जो गलत है। इसके मूल पाठ में स्पष्ट किया है कि ’’ओउम् क्रतो स्मर, क्लिबे स्मर, कृतम् स्मर‘‘ यानि ओउम् (ओम्) नाम का जाप कार्य करते हुए करो, विशेष कसक के साथ स्मरण करो। मानव जन्म का मुख्य उद्देश्य मानकर स्मरण करो। महर्षि दयानंद जी ने लिखा है कि ‘‘जिसका ओउम (ऊँ) नाम उसको स्मरण (याद) कर’’ यहीं से गलत अर्थ हो जाता है। हमने वेद के मंत्र को देखना है, अनुवाद गलत है, उसे छोड़ देना है।
इस यजुर्वेद अध्याय 40 मंत्र 15 का यथार्थ अनुवाद इस प्रकार है:-
ओम् (ऊँ) नाम का स्मरण कार्य करते-करते करो, विशेष तड़फ के साथ करो, मनुष्य जीवन का परम कत्र्तव्य मानकर स्मरण करो, ऊँ का जाप मृत्यु पर्यन्त करने से इतना अमरत्व प्राप्त हो जाएगा जितना ऊँ के स्मरण से होता है। (यजुर्वेद 40:15)
ज्ञानी आत्माओं ने परमात्मा प्राप्ति के लिए हठयोग किया। एक स्थान पर बैठकर घोर तप किया तथा ओम् (ऊँ) नाम का जाप किया। जबकि वेदों व गीता में हठ करने, घोर तप करने वाले मूर्ख दम्भी तथा राक्षस बताए हैं। (गीता अध्याय 3 श्लोक 4 से 9, गीता अध्याय 16 श्लोक 17 से 20 तथा गीता अध्याय 17 श्लोक 1 से 6)। बताता हूँ! इनको हठयोग करने की प्रेरणा कहाँ से हुई? श्री देवीपुराण (गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित सचित्र मोटा टाईप) के तीसरे स्कन्ध में लिखा है कि ब्रह्मा जी ने अपने पुत्र नारद को बताया कि जिस समय मेरी उत्पत्ति हुई, मैं कमल के फूल पर बैठा था। आकाशवाणी हुई कि तप करो-तप करो। मैंने एक हजार वर्ष तक तप किया।
पेश है गीता अध्याय 3 श्लोक 4-9 की फोटोकाॅपियाँ:-
(गीता अध्याय 3 श्लोक 4 की फोटोकाॅपी)
(गीता अध्याय 3 श्लोक 5 की फोटोकाॅपी)
(गीता अध्याय 3 श्लोक 6 की फोटोकाॅपी)
(गीता अध्याय 3 श्लोक 7 की फोटोकाॅपी)
(गीता अध्याय 3 श्लोक 8 की फोटोकाॅपी)
(गीता अध्याय 3 श्लोक 9 की फोटोकाॅपी)
उपरोक्त गीता अध्याय 3 के श्लोक 4-9 में कहा है कि मनुष्य समुदाय प्रकृति (दुर्गा) जनित यानि दुर्गा देवी से उत्पन्न तीनों गुण (ब्रह्मा रजगुण, विष्णु सतगुण तथा शिव तमगुण) जीव को कर्म करने के लिए बाध्य करते हैं। जिस कारण से कोई भी जीव किसी समय में भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता। जो मूर्ख ढोंग करके एक स्थान पर बैठकर साधना करते दिखाई देते हैं, वे तन हठ करते हैं यानि हठ योग करके तप करते हैं। मन से अन्य बातों को चिंतन करते रहते हैं। वे दंभी कहे जाते हैं। इसके बजाय मन को ज्ञान से रोककर अपने कर्म करते हुए साधना करना श्रेष्ठ है। कर्म न करने यानि एक स्थान पर आसन विशेष पर बैठकर तप आदि करने की अपेक्षा कर्म करते हुए साधना करना श्रेष्ठ है। हे अर्जुन! यदि कर्म न करेगा, एक स्थान पर बैठ गया तो तेरा निर्वाह कैसे चलेगा? (यज्ञार्थात्) यज्ञ यानि धार्मिक अनुष्ठानों के निमित किए जाने वाले (कर्मणा) कर्मों के अतिरिक्त (अन्यत्र) दूसरे कर्मों में लगा हुआ मनुष्य समुदाय (कर्म बंधनः) कर्मों से बँधता है यानि भक्ति तथा सत्संग व सेवा, दान आदि न करके अन्य कर्म करने से मानव को कर्म बाँधते हैं यानि जन्म-मरण के चक्र में डालते हैं। इसलिए हे अर्जुन! तू धार्मिक अनुष्ठान व भक्ति के निमित कर्तव्य कर्म कर, घोर तप न कर।
पेश है गीता अध्याय 16 श्लोक 17-20 की फोटोकाॅपियाँ:-
(गीता अध्याय 16 श्लोक 17 की फोटोकाॅपी)
(गीता अध्याय 16 श्लोक 18 की फोटोकाॅपी)
(गीता अध्याय 16 श्लोक 19 की फोटोकाॅपी)
(गीता अध्याय 16 श्लोक 20 की फोटोकाॅपी)
उपरोक्त गीता अध्याय 16 श्लोक 17-20 में बताया है कि जो शास्त्रविधि त्यागकर मनमाना आचरण करते हैं, वे अपने आप चुनी हुई भक्ति साधना करते हैं। वे अपने आप को ही श्रेष्ठ मानने वाले घमंडी पुरूष शास्त्रविधि रहित (यजन्ते) भक्ति करते हैं। वे शास्त्र विरूद्ध साधना करने वाले मेरी बात न मानकर मेरे से द्वेष करने वाले होते हैं। उन द्वेष करने वाले यानि मनमाना आचरण करने वाले (अशुभान्) पाप कर्म करने वाले पापाचारी (क्रूरान्) क्रूरकर्मी (नराधमान्) नीच मनुष्यों को संसार में बार-बार आसुरी योनियों में डालता हूँ। हे अर्जुन! वे मूढ यानि मूर्ख मुझको न प्राप्त होकर जन्म-जन्म में आसुरी (राक्षस) योनि यानि जन्म को प्राप्त होते हैं। फिर उससे भी (अधमाम्) अति नीच (गतिम) गति को (यान्ति) प्राप्त होते हैं।
विचार:- गीता में स्पष्ट है कि जो एक स्थान पर बैठकर घोर तप करते हैं, वे मूर्ख, राक्षस व्यक्ति हैं। घोर नरक में गिरते हैं। नीच योनियों को प्राप्त होते हैं। आप जी ने श्री देवी पुराण के प्रथम स्कंध के अध्याय 4 में पढ़ा कि श्री विष्णु जी घोर तप कर रहे थे। श्री विष्णु जी ने कहा है कि मैं तप करता रहता हूँ। फिर राक्षसों को मारता हूँ। कभी अवसर मिला तो लक्ष्मी के साथ सुखपूर्वक समय बिताने का सौभाग्य प्राप्त होता है। ‘‘गीता जी में तप करने वालों को मूर्ख (नराधम) नीच मनुष्य क्रूरकर्मी राक्षस कहा है। श्री विष्णु जी तप करने में लगे रहते हैं। इससे यह भी सिद्ध होता है कि श्री कृष्ण जी को गीता ज्ञान का क, ख भी पता नहीं था। महादुःखी रहते हैं। कभी घोर तप करते हैं। सिद्धि प्राप्त करके राक्षसों से युद्ध करते रहते हैं। नरकीय जीवन जी रहे हैं। परमेश्वर कबीर जी ने कहा वह सत्य सिद्ध होता है कि:-
‘‘ब्रह्मा, विष्णु, शिव जी दुःखिया जिन याह राह (जन्म-मरण की परम्परा) चलाई हो।
‘‘साच कहूँ तो जगत नहीं माने झूठों जगत पतियाई हो।’’
जब आपके श्री कृष्ण उर्फ श्री विष्णु जी ही गलत साधना करते हैं तो आप उनके पुजारियों का क्या हाल होगा? आपको यथार्थ भक्ति का ज्ञान नहीं है और आगे पढ़ें गीता अध्याय 17 श्लोक 1-6 में।
जैसे गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में कहा है कि जो साधक शास्त्रविधि को त्यागकर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करते हैं। उनको न तो सुख की प्राप्ति होती है, न उनको सिद्धि प्राप्त होती है यानि कोई कार्य सिद्ध नहीं होता, न उनकी गति (मुक्ति) होती है। इसलिए अर्जुन! शास्त्रों में वर्णित विधि से साधना कर। अध्याय 16 में कुल 24 श्लोक हैं। इसके पश्चात् अध्याय 17 प्रारंभ हो जाता है जिसके श्लोक नं. 1-6 में इसी से संबंधित प्रसंग है। अर्जुन ने गीता अध्याय 17 श्लोक 1 में प्रश्न किया कि हे कृष्ण! (क्योंकि अर्जुन को तो श्री कृष्ण ही बोलता दिखाई दे रहा था। इसलिए कृष्ण कहा है) ये जो मनुष्य शास्त्रविधि त्यागकर श्रद्वायुक्त होकर देवादि यानि देवी-देवताओं की पूजा करते हैं, उनकी स्थिति कौन-सी है? सात्विक, राजसी वा तामसी? गीता ज्ञान देने वाले ने बताया कि उनकी भक्ति तो शास्त्रविधि त्यागकर मनमाना आचरण ही है, परंतु वे अपने-अपने स्वभाव अनुसार भक्ति के लिए इष्ट चुनते हैं। जो अच्छे स्वभाव के (सात्विक) हैं, वे देवताओं की पूजा करते हैं। (गीता अध्याय 7 श्लोक 12-15 तथा 20-23 में देवताओं के पुजारियों को राक्षस स्वभाव को धारण किए हुए मनुष्यों में नीच, दूषित कर्म करने वाले मूर्ख कहा है।) देवताओं की पूजा शास्त्रविधि त्यागकर मनमाना आचरण होने से व्यर्थ बताई है, नहीं करनी चाहिए। जो यक्षों की पूजा करते हैं, वे राजस गुण से युक्त हैं तथा जो भूत, प्रेत, पित्तरों को पूजते हैं, उनका स्वभाव तामस गुण युक्त होता है। जो साधक जन शास्त्रविधि से रहित घोर तप को तपते हैं, वे दंभी, अहंकारी व्यक्ति शरीर में स्थित मुझे तथा अन्य प्राणियों {कमल चक्रों में ब्रह्मा, विष्णु, शिव, गणेश व दुर्गा देवी आदि को}, मुझको (काल ब्रह्म को) भी कृश करने वाले हैं। उन अज्ञानियों को असुर (राक्षस) स्वभाव के जान।
पेश है गीता अध्याय 17 श्लोक 1-6 की फोटोकाॅपियाँ:-
(गीता अध्याय 17 श्लोक 1 की फोटोकाॅपी)
(गीता अध्याय 17 श्लोक 2 की फोटोकाॅपी)
(गीता अध्याय 17 श्लोक 3 की फोटोकाॅपी)
(गीता अध्याय 17 श्लोक 4 की फोटोकाॅपी)
(गीता अध्याय 17 श्लोक 5 की फोटोकाॅपी)
(गीता अध्याय 17 श्लोक 6 की फोटोकाॅपी)
कबीर परमेश्वर जी ने कहा कि हे धर्मदास! ब्रह्माजी को वेद तो बाद में सागर मन्थन में मिले थे। उनको पढ़ा तो यजुर्वेद अध्याय 40 के मन्त्र 15 में ‘ओम्’’ नाम मिला। उसका जाप तथा आकाशवाणी से सुना हठयोग (घोर तप) दोनों मिलाकर ब्रह्मा जी स्वयं करने लगे तथा अपनी सन्तानों (ऋषियों) को बताया। (चारों वेदों तथा इन्हीं का निष्कर्ष श्रीमद्भगवत गीता में हठ करके घोर तप करने वालों को राक्षस, क्रूरकर्मी, नराधम यानि नीच व्यक्ति कहा है। प्रमाण गीता अध्याय 16 श्लोक 17-20 तथा अध्याय 17 श्लोक 1-6 में।) वही साधना ज्ञानी आत्मा ऋषिजन करने लगे। उन ज्ञानी आत्माओं में से एक चुणक ऋषि का प्रसंग सुनाता हूँ जिससे आप के प्रश्न का सटीक उत्तर मिल जाएगाः- एक चुणक नाम का ऋषि था। उसने हजारों वर्षों तक घोर तप किया तथा ओम् (ऊँ) नाम का जाप किया। यह ब्रह्म की भक्ति है। ब्रह्म ने प्रतिज्ञा कर रखी है कि मैं किसी साधना यानि न वेदों में वर्णित यज्ञों से, न जप से, न तप से, किसी को भी दर्शन नहीं दूँगा। गीता अध्याय 11 श्लोक 48 में कहा है कि हे अर्जुन! तूने मेरे जिस रुप के दर्शन किए अर्थात् मेरा यह काल रुप देखा, यह मेरा स्वरुप है। इसको न तो वेदों में वर्णित विधि से देखा जा सकता, न किसी जप से, न तप से, न यज्ञ से तथा न किसी क्रिया से देखा जा सकता। गीता ज्ञान दाता ने गीता अध्याय 7 श्लोक 24-25 में स्पष्ट किया है कि यह मेरा अविनाशी विधान है कि मैं कभी किसी को दर्शन नहीं देता, अपनी योग माया से छिपा रहता हूँ। ये मूर्ख लोग मुझे मनुष्य रूप अर्थात् कृष्ण रूप में मान रहे हैं। जो सामने सेना खड़ी थी, उसकी ओर संकेत करके गीता ज्ञान दाता कह रहा था। कहने का भाव था कि मैं कभी किसी को दर्शन नहीं देता, अब तेरे ऊपर अनुग्रह करके यह अपना रूप दिखाया है।
भावार्थ:- वेदों में वर्णित विधि से तथा अन्य प्रचलित क्रियाओं से ब्रह्म प्राप्ति नहीं है। इसलिए उस चुणक ऋषि को परमात्मा प्राप्ति तो हुई नहीं, सिद्धियाँ प्राप्त हो गई। ऋषियों ने उसी को भक्ति की अन्तिम उपलब्धि मान लिया। जिसके पास अधिक सिद्धियाँ होती थी, वह अन्य ऋषियों से श्रेष्ठ माना जाने लगा। यही उपलब्धि चुणक ऋषि को हुई थी।
एक मानधाता चक्रवर्ती राजा (जिसका राज्य पूरी पृथ्वी पर हो, ऐसा शक्तिशाली राजा) था। उसके पास 72 अक्षौणी सेना थी। राजा ने अपने आधीन राजाओं को कहा कि जिसको मेरी पराधीनता स्वीकार नहीं, वे मेरे साथ युद्ध करें, एक घोड़े के गले में एक पत्र बाँध दिया कि जिस राजा को राजा मानधाता की आधीनता स्वीकार न हो, वो इस घोड़े को पकड़ ले और युद्ध के लिए तैयार हो जाए। पूरी पृथ्वी पर किसी भी राजा ने घोड़ा नहीं पकड़ा। घोड़े के साथ कुछ सैनिक भी थे। वापिस आते समय ऋषि चुणक ने पूछा कि कहाँ गए थे सैनिको! उत्तर मिला कि पूरी पृथ्वी पर घूम आए, किसी ने घोड़ा नहीं पकड़ा। किसी ने राजा का युद्ध नहीं स्वीकार किया। ऋषि ने कहा कि मैंने यह युद्ध स्वीकार लिया। सैनिक बोले हे कंगाल! तेरे पास दाने तो खाने को हैं नहीं और युद्ध करेगा महाराजा मानधाता के साथ? ऋषि चुणक जी ने घोड़ा पकड़कर वृक्ष से बाँध लिया। मानधाता राजा को पता चला तो युद्ध की तैयारी हुई। राजा ने 72 अक्षौणी सैना की चार टुकड़ियाँ बनाई। ऋषि पर हमला करने के लिए एक टुकड़ी 18 अक्षौणी (एक अक्षौणी में लगभग पैदल + रथों पर + हाथियों व घोड़ों पर सवार सैनिक दो लाख अठारह हजार होते थे।) सेना भेज दी । दूसरी ओर ऋषि ने अपनी सिद्धि से चार पूतलियाँ बनाई। एक पुतली छोड़ी जिसने राजा की 18 अक्षौणी सेना का नाश कर दिया। राजा ने दूसरी टुकड़ी छोड़ी। ऋषि ने दूसरी पुतली छोड़ी, उसने दूसरी टुकड़ी 18 अक्षौणी सेना का नाश कर दिया। इस प्रकार चुणक ऋषि ने मानधाता राजा की चार पुतलियों से 72 अक्षौणी सेना नष्ट कर दी। जिस कारण से महर्षि चुणक की महिमा पूरी पृथ्वी पर फैल गई। इस अनर्थ के कारण सर्वश्रेष्ठ ऋषि माना गया।
हे धर्मदास! (जिन्दा रुप धारी परमात्मा बोले) ऋषि चुणक ने जो सेना मारी, ये पाप कर्म ऋषि के संचित कर्मों में जमा हो गए। ऋषि चुणक ने जो ऊँ (ओम्) एक अक्षर का जाप किया, वह उसके बदले ब्रह्मलोक में जाएगा। फिर अपना ब्रह्म लोक का सुख समय व्यतीत करके पृथ्वी पर जन्मेगा। जो हठ योग तप किया, उसके कारण पृथ्वी पर राजा बनेगा। फिर मृत्यु के उपरान्त कुत्ते का जन्म होगा। जो 72 अक्षौणी सेना मारी थी, वह अपना बदला लेगी। कुत्ते के सिर में जख्म होगा और उसमें कीड़े बनकर 72 अक्षौणी सेना अपना बदला चुकाएगी। इसलिए हे धर्मदास! गीता ज्ञान दाता (ब्रह्म) ने अपनी साधना से होने वाली गति यानि मुक्ति को अनुत्तम (अश्रेष्ठ) कहा है।
कृष्ण जी के वकील:- श्री कृष्ण जी ने मोरध्वज राजा के पुत्र ताम्रध्वज को जीवित किया था जो आरे (wood cutter) से बीचों-बीच चीरकर दो फाड़ कर दिया था, मर गया था। क्या इनमें शक्ति नहीं है?
परमेश्वर कबीर जी का वकील:- श्री कृष्ण जी ने राजा मोरध्वज के पुत्र ताम्रध्वज को तो जीवित कर दिया, परंतु अपने सगे भानजे सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु को जीवित नहीं कर सके जो महाभारत के युद्ध में छोटी आयु में ही मारा गया था। पांडवों का एकमात्र पुत्र था।
कारण स्पष्ट है कि श्री कृष्ण अर्थात् श्री विष्णु जी समर्थ परमात्मा नहीं हैं। ये तीन लोक (पृथ्वी, पाताल तथा स्वर्ग) के प्रभु हैं। इनकी शक्ति सीमित है। परमेश्वर कबीर जी अनंत करोड़ ब्रह्मडों के स्वामी (प्रभु) हैं। इनकी शक्ति का कोई वार-पार नहीं है। वेदों में इस परमेश्वर को अमित औजा (विसीमित शक्ति युक्त) कहा है।
श्री कृष्ण जी किसी की आयु न तो घटा सकते हैं, न बढ़ा सकते हैं। न किसी के प्रारब्ध कर्म को बदल सकते हैं। जिसकी किस्मत में जो पूर्व निर्धारित है, वही दे सकते हैं।
ताम्रध्वज की आयु शेष थी। जिस कारण उसको जीवित कर दिया। अभिमन्यु की आयु शेष नहीं थी। जिस कारण से उसको श्री कृष्ण जी जीवित नहीं कर सके। पांडव रो रहे थे, श्री कृष्ण जी दुःखी थे। बहन सुभद्रा पुत्र मृत्यु शोक से व्याकुल थी। सन्नाटा छाया था। श्री कृष्ण जी कुछ मदद नहीं कर पाए क्योंकि वे समर्थ प्रभु नहीं हैं।
परमेश्वर कबीर जी समर्थ परमेश्वर हैं। ये भक्त/भक्तमति के प्रारब्ध कर्म को भी बदल सकते हैं। संत गरीबदास जी ने कहा है कि:-
गरीब, मासा घटै ना तिल बढ़ै, विधना लिखे जो लेख। साचा सतगुरू मेट कर, ऊपर मारै मेख।।
गरीब, जम जौरा जा से डरैं, मिटें कर्म के लेख। अदली असल कबीर हैं, कुल के सतगुरू एक।।
अर्थात् जीव के कर्मों के अनुसार जो प्रारब्ध बनाया गया है। उसमें जरा-सा भी फेरबदल पूर्ण परमात्मा के बिना कोई नहीं कर सकता। पूर्ण परमात्मा जी संत व सतगुरू रूप में संत गरीबदास जी को मिले थे जो कबीर जी थे। इसलिए कहा है कि साचा सतगुरू यानि कबीर परमेश्वर जी प्रारब्ध (भाग्य) के लेख को (ऊपर मारै मेख) सदा के लिए समाप्त कर देता है। भक्त/भक्तमति की आयु भी बढ़ा सकता है। मुर्दे को भी जीवित कर देता है। वेदों में भी यही प्रमाण है।
ऋग्वेद मंडल नं. 10 सूक्त 161 मंत्र नं. 2 में कहा है कि परमेश्वर अपने साधक के असाध्य रोग को भी समाप्त करके स्वस्थ कर देता है। यदि साधक मृत्यु को प्राप्त होकर परलोक चला गया है तो उसको मृत्यु देवता से छुड़वाकर जीवित करके (शत) सौ वर्ष की आयु प्रदान कर देता है।
पेश है प्रमाण के लिए ऋग्वेद मंडल 10 सूक्त 161 मंत्र 2 की फोटोकाॅपी:-
अदालत में प्रमाणित करता हूँ कि समर्थ परमेश्वर कबीर जी काशी वाला जुलाहा है। आप जी (श्री कृष्ण उर्फ श्री विष्णु जी के वकील) भी सुनो अमर कथाएँ उस अमर परमेश्वर कबीर जी जुलाहे (धाणक) की। श्री कृष्ण जी ने राजा मोरध्वज के पुत्र ताम्रध्वज को जीवित किया। इसी प्रकार कबीर परमेश्वर जी ने सम्मन के लड़के सेऊ को जीवित किया। कथा इस प्रकार है:-