सुदामा कृष्ण कथा

सुमिरन का अंग (106)

वाणी नं. 106 का सरलार्थ:-

गरीब, संगी सुदामा संत थे, दारिद्रका दरियाव। कंचन महल बकस दिये, तंदुल भेंट चढाव।।106।।

कथा:- सुदामा जी को धनी बनाया

श्री कृष्ण जी तथा ब्राह्मण सुदामा जी सहपाठी (class fellow) थे। शिक्षा काल में दोनों की घनिष्ठ मित्रता थी। शिक्षा उपरांत श्री कृष्ण जी द्वारिका के राजा बने। सुदामा जी अपना पारंपरिक कार्य कर्मकाण्ड करके यजमानी करने लगे। वे वास्तव में ब्राह्मण थे। ग्रन्थों के ज्ञान के अनुसार अपने जीवन को चलाते थे। परंतु ऋषियों को ही ग्रन्थों के गूढ़ रहस्य का ज्ञान नहीं था। इस कारण से साधना शास्त्रविधि त्यागकर मनमाना आचरण जो गुरूजनों ने बताया हुआ था, वही करते थे जिससे वर्तमान में कोई लाभ नहीं हो रहा था। श्री सुदामा जी किसी यजमान को भ्रमित करके रूपये या अन्य पदार्थ नहीं लेते थे। केवल अपना व परिवार का भोजन तथा कपड़े यदि आवश्यकता हुई तो लेते थे। कुछ दिन कोई क्रियाकर्म करवाने वाला नहीं आया। भोजन की समस्या पूरे परिवार को हो गई। सुदामा जी की पत्नी ने कहा कि आपके चार पुत्र छोटे-छोटे हैं। भूख से बेहाल हैं। आप कहते हो कि द्वारिकाधीश श्री कृष्ण मेरे मित्र हैं। वे द्वारिका के राजा हैं। आप कुछ धन माँग लाओ। वे आपको मना नहीं करेंगे क्योंकि आप कहते हो कि शिक्षा काल में वे आपके परम मित्र थे। वे आपके साथ घर आते थे और इकट्ठा खाना खाते थे। सुदामा जी ने कहा कि ब्राह्मण माँगता नहीं। अपने कार्य कर्मकाण्ड करके दक्षिणा ले सकता है। श्री कृष्ण मेरे यजमान भी नहीं हैं। इसलिए मेरा सिर नीचा हो जाएगा। यदि मित्रता समाप्त करनी हो तो मित्र से कहो, कुछ दो। यह गलती सुदामा विप्र नहीं कर सकता, भूखा मर सकता है।

शास्त्रों में लिखा है कि जिसने पूर्व जन्म में दान-धर्म नहीं किया। वह अगले जन्म में निर्धन रहता है। मैंने पूर्व जन्म में कोई दान नहीं किया होगा। इसलिए मैं निर्धन हूँ। मुझे धन नहीं मिल सकता। पत्नी ने चारों पुत्रों को उसके सामने खड़ा कर दिया जो एक रोटी को एक-दूसरे से छीनने की कोशिश कर रहे थे जो मिसरानी ने छुपा रखी थी जो रात को बासी बची थी। यह सोचा था कि एक का भी पेट नहीं भरेगा, कौन-से बच्चे को दूँ। इसलिए उसको छुपा रखा था। वह एक लड़के के हाथ लग गई थी। उससे अन्य छीना-झपटी कर रहे थे। मिसरानी ने कहा कि आप इन बच्चों के लिए माँग लाओ। वह दृश्य देखकर सुदामा एकान्त में जाकर परमात्मा से विनय करने लगा तथा आँखों में पानी भर आया। हे प्रभु! ये क्या दिन देख रहा हूँ। मुझे पूर्व जन्म में कोई मार्गदर्शक ठीक नहीं मिला। जिस कारण से मैंने दान नहीं किया है। हे प्रभु! मुझसे ये भूखे बच्चे देखे नहीं जाते। या तो मुझे मार दो या फिर इन चारों को अपने पास बुला लो। इतने में परमेश्वर कबीर जी एक यजमान का रूप धारण करके आए और ढे़र सारा सूखा सीधा (आटा, चावल, दाल, खाण्ड, घी नमक-मिर्च, बच्चों के कपड़े) देकर चले गए। ब्राह्मणी ने तुरंत भोजन बनाया। बच्चों को परोसा। इतने में सुदामा जी आँसू पौंछकर रसोई की ओर गया तो बच्चे खाना खा रहे थे। पूछने पर पता चला कि कोई भक्त आया था। यह सामान दान कर गया है। सुदामा जी ने पूछा कि क्या नाम बताया था? पत्नी ने कहा कि दामोदर नाम बताया था। सुदामा जी ने अपने दिमाग पर जोर दिया तो कोई भी दामोदर नाम का यजमान उनका नहीं था। उस नाम का कोई भी व्यक्ति नगरी में भी नहीं था। उस दिन के अतिरिक्त तीन दिन का राशन पूरे परिवार का था। पत्नी ने फिर आग्रह किया कि आप श्री कृष्ण जी से कुछ माँगकर ले आओ तो सुदामा ने हाँ कर दी। परंतु मन में यही था कि जाकर आ जाऊँगा, माँगूगा नहीं। किसी मित्र या रिश्तेदारी में जाते समय उनके लिए घर से कुछ मिठाई बनवाकर ले जाने की परंपरा थी। उसके स्थान पर पत्नी ने तीन मुठ्ठी यानि 250 ग्राम चावल भूनकर भक्त की चद्दर के पल्ले से बाँध दिए। सुदामा जी द्वारिका में तीसरे दिन शाम को पहुँचा। मैले कपड़े, टूटी जूती, एक भिखारी जैसे वेश में श्री कृष्ण जी के राजभवन के सामने द्वार पर खड़ा हो गया और द्वारपाल से अंदर जाने के लिए आज्ञा चाही तो द्वारपाल ने परिचय पूछा। कौन हो? क्या नाम है? कहाँ से आए हो? क्या काम है? यह राजा का राजभवन है। आपको किससे मिलना है? सुदामा जी ने अपना परिचय दिया। फिर द्वारपाल ने कहा कि पहले हम महाराज जी से आज्ञा लेकर आएँगे, यदि आज्ञा हुई तो आपको मिलाएँगे।

द्वारपाल ने श्री कृष्ण जी को सब पता बताया तो श्री कृष्ण नंगे पैरों सिंहासन छोड़कर दौड़े-दौड़े आए और मैले धूल भरे कपड़ों समेत सुदामा जी को गले से लगा लिया और सिंहासन पर बैठा दिया। फिर अपने हाथों सुदामा जी के पैर धोए। नहाया, नए कपड़े पहनाए। कई प्रकार का भोजन बनवाया। खाने के लिए जो चावल सुदामा जी लाए थे, उनको बड़ी रूचि के साथ श्री कृष्ण जी ने खाया। सुदामा जी के खाने के लिए कई प्लेटों में हलवा-खीर, कई सब्जी-रोटी सामने रख दी। सुदामा जी को अपने घर का दृश्य याद आया कि आज शाम का खाना घर पर नहीं है। बच्चे भूखे बैठे हैं, रो रहे होंगे। माँ रोटी-माँ रोटी कह रहे होंगे। मैं ये पकवान कैसे खाऊँ? यदि नहीं खाऊँगा तो श्री कृष्ण जी को पता चलेगा कि मैं कुछ माँगने आया हूँ। इसलिए एक ग्रास लेकर धीरे-धीरे खाने लगा। ऊंगलियों को बार-बार मुख में चाटकर समय बिताने लगा। परंतु श्री कृष्ण की दृष्टि तो मित्र के मुख कमल पर थी। सब हाव-भाव देख रहे थे। कहा खाले, खाले यार सुदामा! क्यों उंगली चाटै है? सुदामा जी ने दो रोटी खाई तथा खीर-हलवा नाममात्र खाया और हाथ धोकर बैठ गया। श्री कृष्ण जी ने पूछा कि बच्चे तथा भाभी जी कुशल हैं। निर्वाह ठीक चल रहा है। सुदामा जी ने कहा कि:-

तेरी दया से है भगवन, हमको सुख सारा है। किसी वस्तु की कमी नहीं, मेरा ठीक गुजारा है।।

श्री कृष्ण जी तो समझ चुके थे कि यह मर जाएगा, माँगेगा नहीं। उसी समय सुदामा जी को दूसरे कक्ष में विश्राम के लिए निवेदन किया और राजदरबार में जाकर विश्वकर्मा जी को बुलाया जो मुख्य इन्जीनियर था तथा सुदामा जी का पूरा पता लिखाकर उसका सुंदर महल बनाने का आदेश दिया तथा कहा कि लाखों रूपये का धन ले जा जो भक्त के घर रख आना। यह कार्य एक सप्ताह में होना चाहिए। विश्वकर्मा जी ने छः दिन में कार्य सम्पूर्ण करके रिपोर्ट दे दी। सुदामा जी प्रतिदिन चलने के लिए कहते तो श्री कृष्ण जी विशेष विनय करके रोके रहे। सातवें दिन सुदामा चल पड़ा, नए बहुमूल्य वस्त्र पहने हुए थे। रास्ते में सोचता हुआ आ रहा था कि कृष्ण मेरे से पूछ रहा था कि किसी वस्तु का अभाव तो नहीं है। क्या उसको दिखाई नहीं दे रहा था कि मेरा क्या हाल है? वही बात सही हुई कि मित्रता समान हैसियत वालों की निभती है। इतनी देर में जंगली भीलों ने रास्ता रोक लिया और कहा कि निकाल दे जो कुछ ले रखा है। सुदामा जी ने कहा कि मेरे पास कुछ नहीं है। भीलों ने तलाशी ली तो कुछ नहीं मिला। सुदामा जी के कीमती धोती-कुर्ता छीन ले गए, उनको नंगा छोड़ गए। सुदामा जी को यह सजा अविश्वास की मिली थी।

शाम को सूर्य अस्त के बाद अपनी झोंपड़ी से थोड़ी दूरी पर अंधेरे में एक वृक्ष के नीचे खड़ा होकर देखने लगा तो देखा कि झोंपड़ी उखाड़कर फैंक रखी है। उसके स्थान पर आलीशान महल दो मंजिल का बना है। सुदामा जी दुःखी हुए कि किसी ने झोंपड़ी (कुटिया) भी उखाड़ दी और कब्जा करके अपना मकान बना लिया। बच्चे तथा पत्नी पता नहीं कहाँ भूख के मारे डूबकर मर गए होंगे। अब जीवित रहकर क्या करना है? मैं भी दरिया में समाधि लेकर जीवन अंत करता हूँ। यदि परिवार जीवित भी होगा तो भूख के मारे तड़फ रहा होगा। मेरे से देखा नहीं जाएगा। वहाँ से चलने वाला था। उसकी पत्नी महल पर खड़ी होकर अपने पति जी के आने की बाट देख रही थी। वह विचार कर रही थी कि विप्र जी अपनी झोंपड़ी को न पाकर कुछ बुरी न सोच लें। इसलिए द्वारिका के रास्ते पर टकटकी लगाए खड़ी थी। उसने उसी समय एक व्यक्ति अंधेरे में खड़ा महसूस हुआ। मिसरानी शीघ्रता से दीपक लेकर उस ओर चली। सुदामा जी वृक्ष की ओट में होकर देखने लगा कि यह स्त्री कौन है? दीपक लेकर कहाँ जाएगी? दीपक की रोशनी में सुदामा ने अपनी पत्नी को पहचान लिया। परंतु महल से आई है, यह क्या माजरा है? सुदामा जी ने कहा कि दीपक बुझाओ, मैं नंगा हूँ। रास्ते में भीलों ने मेरे वस्त्र छीन लिए जो श्री कृष्ण जी ने नए बहुत कीमती बनवाए थे। पंडितानी ने दीपक बुझा दिया। सुदामा ने पूछा कि यह महल किसने बना दिया? अपनी झोंपड़ी किसने उखाड़ दी? आप किसके महल से आई हो? नौकरानी का कार्य करने लगी हो क्या? पंडितानी ने कहा कि हे स्वामी! यह महल आपके मित्र कृष्ण ने बनवाया है। आपके जाने के चैथे दिन सैंकड़ों कारीगर आए, साथ में बैलों पर पत्थर-ईटें, चूना तथा अन्न-धन लादकर लाए थे। छः दिन में सम्पूर्ण करके चले गए। आओ! यह आपका महल है। महल में आकर देखा तो अन्न-धन से भरपूर था। जीवनभर का सामान था। पंडितानी ने पूछा कि आपके कपड़े क्यों उतारे? आपके पास कुछ था ही नहीं, पुराने वस्त्र थे। उनका भील क्या करेंगे? तब सुदामा ने सारी घटना बताई तथा अपने उस घटिया विचार की भी जानकारी दी जो मित्र के प्रति आया था कि मेरे से कृष्ण पूछ रहा था कि घर में किसी वस्तु की कमी तो नहीं है। गुजारा ठीक चल रहा है क्या? मैंने कह दिया था कि आपकी कृपा से सब कुशल है। किसी वस्तु की कमी नहीं है। निर्वाह ठीक चल रहा है। पत्नी ने कहा कि आप कहाँ माँगने वाले हो, वे तो अंतर्यामी हैं। सब जान गए थे। सुदामा जी ने कहा कि सब जान गए थे। इसलिए तो मेरे वस्त्र भी छिनवा दिए। मैं विचार करता जा रहा था कि देखा! मित्र मेरे से पूछ रहा था कि सब ठीक तो है। किसी वस्तु की कमी तो नहीं है। मैं सोच रहा था कि क्या उसको मेरी दशा देखकर यह नहीं पता था कि यह दशा क्या ठीक-ठाक की होती है। ठीक ही कहा है कि मित्रता तो समान हैसियत वालों की निभती है। मैंने तो इतना विचार किया ही था कि उसी समय मेरे वस्त्र भी लूट लिए गए। तब मिसरानी ने कहा कि आपकी परीक्षा ली थी, परंतु आप यहीं पर चूके थे, उसी का झटका आपको दिया। अब देख तेरे मित्र का कमाल। बच्चों के वस्त्र राजाओं जैसे हैं। चार सिपाही चारों कोनों पर रखवाली कर रहे हैं।

वाणी नं. 106 में यही कहा है कि संत सुदामा श्री कृष्ण के संगी यानि मित्र थे जो दारिद्र (टोटे यानि निर्धनता) की द्ररिया (नदी) यानि अत्यधिक निर्धन व्यक्ति था। उसके चावल खाकर कंचन (स्वर्ण) के महल बख्श दिए यानि निःशुल्क (मुफ्त में) दे दिए। (106)

विचार:– श्री कृष्ण जी राजा थे। अपने मित्र की इतनी सहायता करना एक राजा के लिए कोई बड़ी बात नहीं है। इतनी सहायता तो एक प्रान्त का मंत्री अपने मित्र की आसानी से कर सकता है।

परमेश्वर कबीर जी ने एक अति निर्धन मुसलमान लुहार तैमूरलंग की एक रोटी खाकर सात पीढ़ी का राज्य बख्श दिया था। उसी जीवन में तैमूरलंग राजा बना जिसका राज्य विशाल था। दिल्ली की राजधानी पर उसने अपना प्रतिनिधि छोड़ा था। उनकी मृत्यु के उपरांत कुछ समय दिल्ली की गद्दी पर अन्य ने कब्जा कर लिया था। फिर तैमूरलंग के परपौत्र बाबर ने सन् 1526 में लोधी वंश के इब्राहिम लोधी को पानीपत की पहली लड़ाई में हराकर दिल्ली पर कब्जा कर लिया। बाबर से औरंगजेब तक छः पीढ़ी तथा प्रथम तैमूरलंग, इस प्रकार कुल सात पीढ़ी का राज्य परमेश्वर कबीर जी ने तैमूरलंग को दिया।

  1. तैमूरलंग 2) बाबर। 3) हिमायुं पुत्र बाबर 4) अकबर पुत्र हिमायुं 5) जहांगीर पुत्र अकबर 6) शाहजहाँ पुत्र जहांगीर 7) औरंगजेब पुत्र शाहजहाँ।

सन् 1526 से 1707 तक बाबर से लेकर औरंगजेब ने दिल्ली का राज्य किया।

विशेष भिन्नता:– जन्म-मरण का कष्ट न श्री कृष्ण का समाप्त है, न सुदामा का हुआ। दोनों ही आगे के जन्मों में अन्य प्राणियों के शरीरों में जाएँगे।

तैमूरलंग को सात पीढ़ी का राज्य भी मिला और मोक्ष भी मिला। सहायता में इतना अंतर समझें। जैसे सहायता एक तो प्रान्त का मंत्री करे, दूसरा देश का प्रधानमंत्री करे। कबीर जी यानि सतपुरूष को प्रधानमंत्री जानो और श्री कृष्ण जी (श्री विष्णु जी) को प्रान्त का मंत्री जानो। फिर भी बात भक्ति की चल रही है। कबीर जी ने कहा है कि:-

कबीर, जो जाकी शरणा बसै, ताको ताकी लाज। जल सोंही मछली चढ़ै, बह जाते गजराज।।

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