गीता में दो प्रकार का ज्ञान है
गीता का जो ज्ञान वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद) तथा सूक्ष्म वेद जो सच्चिदानन्द घन ब्रह्म अर्थात् सत्य पुरूष ने अपने मुख कमल से तत्वज्ञान बोला है, उससे मेल नहीं करता है तो वह गलत ज्ञान है। वह गीता ज्ञान दाता का अपना मत है, वह स्वीकार्य नहीं है। गीता ज्ञान दाता ने कई श्लोकों में (गीता अध्याय 13 श्लोक 2, अध्याय 7 श्लोक 18, अध्याय 6 श्लोक 36, अध्याय 3 श्लोक 31 तथा अध्याय 18 श्लोक 70 में) कहा है कि ऐसा मेरा मत है, मेरा विचार है। श्रीद्भगवत गीता में 95 प्रतिशत वेद ज्ञान है, 5 प्रतिशत गीता ज्ञान दाता का अपना मत है। यदि वह वेदों से मेल खाता है तो ठीक है, अन्यथा व्यर्थ है। उदाहरण के लिए गीता अध्याय 2 श्लोक 37-38 प्रर्याप्त है। इनमें विरोधाभास है। गीता अध्याय 2 श्लोक 37 में तो लाभ-हानि बता रहा है। कहा है कि या तो तू युद्ध में मरकर स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा युद्ध जीतकर पृथ्वी का राज भोगेगा। इसलिए हे अर्जुन! युद्ध के लिए खड़ा हो जा। (गीता अध्याय 2 श्लोक 37) फिर गीता अध्याय 2 श्लोक 38 में ही तुरन्त इसके विपरीत कहा है कि जय-पराजय अर्थात् हार-जीत, सुख-दुःख को समान समझकर युद्ध के लिए तैयार हो जा। इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को प्राप्त नहीं होगा। (गीता अध्याय 2 श्लोक 38) गीता अध्याय 11 श्लोक 33 में भी स्पष्ट किया है कि “तू उठ, यश को प्राप्त कर। शत्रुओं को जीतकर धन-धान्य से सम्पन्न राज्य को भोग। मैनें तेरे सामने वाले योद्धाओं को पहले ही मार रखा है, तू केवल निमित मात्र बन जा।