अध्याय 14
- सारांश
- ब्रह्म(काल) द्वारा अति उत्तम ज्ञान की जानकारी
- परमात्मा के क्या धर्म-गुण होते हैं?
- भगवान कृष्ण प्रभु परंतु पूर्ण समर्थ नहीं
-ः साहेब कबीर पूर्ण परमात्मा:-
- मृतक गाय को जीवित करना
- मृतक लड़के कमाल को जीवित करना
- चित्र - (मृतक लड़के कमाल को जीवित करना)
- चित्र - (मृतक लड़की कमाली को जीवित करना)
- मृतक लड़की कमाली को जीवित करना
- लड़के सेऊ (शिव) को जीवित करना
- ब्रह्म (काल) व प्रकृति (दुर्गा) से सर्व प्राणी तथा ब्रह्मा, - विष्णु, शिव की उत्पत्ति
- तीनों - ब्रह्मा (रजगुण), विष्णु (सतगुण), शिव (तमगुण) - आत्मा को शरीर में बाँधते हैं अर्थात् मुक्त नहीं होने देते
- ब्रह्मा की उपासना से उपलब्धि
- शिव की उपासना से प्राप्ति
- विष्णु की उपासना से प्राप्ति
- ब्रह्मा, विष्णु, शिव कत्र्ता नहीं
- ब्रह्मा, विष्णु, शिव की साधना त्याग कर पूर्ण परमात्मा-की पूजा करनी चाहिए
- तीनों गुणों से अतीत अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु, शिव की - भक्ति से ऊपर उठे भक्त के लक्षण
- ब्रह्म (काल) की उपासना का लाभ देवी-देवताओं व - ब्रह्मा, विष्णु, शिव की भक्ति त्याग कर होता है
- पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति में काल ब्रह्म सहयोगी
चौदहवां अध्याय
।। सारांश।।
।। ब्रह्म (काल) द्वारा अति उत्तम ज्ञान की जानकारी।।
- गीता अध्याय 14 श्लोक 1 का अनुवाद:- गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि अब मैं तेरे को (ज्ञानानाम्) ज्ञानों में भी (उतमम्) अति उत्तम (परम्) अन्य विशेष (ज्ञानम्) ज्ञान को (भूयः) फिर (प्रवक्ष्यामि) कहूँगा (यत्) जिसको (ज्ञात्वा) जानकर (सर्वे) सब (मुनय) साधक जन (इतः) इस संसार से मुक्त होकर (पराम्) अन्य विशेष (सिद्धिम्) सिद्धि को (गताः) प्राप्त हो गये।
भावार्थ:- गीता ज्ञान दाता ने अध्याय 9 श्लोक 1.3 में ब्रह्म स्तर का यानि अपने स्तर का उत्तम ज्ञान बताया है तथा सर्व को सब ज्ञानों का राजा कहा है। गीता के इस अध्याय 14 के श्लोक 1-2 में कहा है कि पहले जो सब उत्तम ज्ञान व ज्ञानों के राजा ज्ञान से भी अन्य विशेष उत्तम यानि सर्वश्रेष्ठ अन्य ज्ञान को कहूँगा जिस ज्ञान को जानकर मुनिजन यानि साधक इस काल ब्रह्म के लोक से अन्य विशेष सिद्धि को प्राप्त हो गए हैं।
- गीता अध्याय 14 श्लोक 2 का अनुवाद:- (इदम्) इस (ज्ञानम्) ज्ञान को (उपाश्रित्य) आश्रय करके (मम) मेरे (साध्म्र्यम्) धर्म यानि गुण का (आगताः) प्राप्त हुए पुरूष यानि परमात्मा जैसे गुणों को भक्ति करके प्राप्त करके अविनाशी धर्म को प्राप्त हुए साधक (सर्गे) सृष्टि में पुनः (न उपजायन्ते) नहीं होते (च) और (प्रलय) प्रलय के समय भी (न व्यथन्ति) व्याकुल नहीं होते।
भावार्थ:- काल ब्रह्म ने कहा है कि इस अन्य विशेष ज्ञान को जानकर साधक परासिद्धि को प्राप्त होते हैं। सूक्ष्मवेद में भी कहा है कि ‘‘परासिद्धि पूर्ण पटरानी अमरलोक की कहूँ निशानी’’ यानि परासिद्धि सतलोक में है। उसे प्राप्त साधक उस अमर लोक में अमर शरीर प्राप्त करता है। वह परमात्मा जैसे अविनाशी धर्मयुक्त हो जाता है। जिस कारण से वह जन्म-मरण से मुक्ति प्राप्त कर लेता है। उस ज्ञान के आश्रित हुआ साधक पूर्ण मोक्ष प्राप्त करता है।
अध्याय 14 के श्लोक 1, 2 में भगवान (ब्रह्म) ने कहा कि हे अर्जुन! सर्व ज्ञानों में अति उत्तम (परम्) अन्य ज्ञान को फिर कहूंगा जिसको जान कर सर्व भक्त आत्मा (मुनिजन) अध्याय 13 के श्लोक 34 में कहे गीता ज्ञान दाता से अन्य अर्थात् दूसरे पूर्ण परमात्मा को प्राप्त हो गए। {क्योंकि जिनको पूर्ण ज्ञान हो जाता है वह पूर्ण परमात्मा का मार्ग अपना कर भक्ति करते हैं। ब्रह्म (काल), ब्रह्मा, विष्णु, शिव व देवी-देवताओं की साधना से ऊपर पूर्ण परमात्मा/सतपुरुष की भक्ति करते हैं। इसलिए परम धाम (सतलोक) में चले जाते हैं।} वह पूर्ण ब्रह्म का उपासक साधु गुणों से युक्त होकर प्रभु जैसी शक्ति (गुणों) वाला हो जाता है अर्थात् ब्रह्म के तुल्य हो जाता है तथा सत्य भक्ति पूर्णब्रह्म की करने वाले स्वभाव का हो जाता है, वह अन्य देवों की साधना नहीं करता।
गरीब, अनन्त कोटि ब्रह्मा हुए, अनन्त कोटि हुए ईश (ब्रह्म)।
साहिब तेरी बंदगी (भक्ति) से, जीव हो जावे जगदीश (ब्रह्म)।।
भावार्थ:- जो साधक तत्वदर्शी संत से दीक्षा लेकर भक्ति करते हैं। वे काल ब्रह्म के देवताओं (ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव) जैसी शक्ति वाले हो जाते हैं। वे जीव यहाँ के जगदीश के तुल्य हो जाते हैं। यदि ये आशीर्वाद देकर अपनी भक्ति कमाई को नष्ट करना चाहें तो अपने प्रशंसक को बहुत लाभ दे सकते हैं और भगवान प्रसिद्ध हो सकते हैं।
पूर्ण परमात्मा के क्या धर्म- गुण होते हैं? पूर्ण परमात्मा के क्या धर्म- गुण होते हैं?
।। भगवान कृष्ण अर्थात् विष्णु जी भी प्रभु हैं परंतु समर्थ नहीं।।
जैसे भगवान कृष्ण तीन लोक के प्रभु (विष्णु अवतार) हैं। वे भगवान से मिलते गुणों वाले हैं। श्री कृष्ण जी ने राजा मोरध्वज के इकलौते पुत्र ताम्रध्वज को आरे से चिरवा कर मरवाया तथा फिर जीवित कर दिया। ये ईश्वरीय गुणों में से एक गुण (सिद्धि) है। इसके कारण (श्री कृष्ण) भी प्रभु हैं परंतु पूर्ण नहीं।
क्योंकि महाभारत के युद्ध में अर्जुन का पुत्र अभिमन्यु मारा गया था जो श्री कृष्ण जी का भानजा था। श्री कृष्ण की बहन सुभद्रा का अर्जुन से विवाह हुआ था। अभिमन्यु कृष्ण की बहन सुभद्रा का पुत्र था। भगवान श्री कृष्ण जी उसे जीवित नहीं कर सके। चूंकि ये प्रभु तो हैं परंतु पूर्ण नहीं हैं। इसी प्रकार भगवान श्री कृष्ण के सामने (दुर्वासा के शापवश) भगवान श्री कृष्ण का सर्व यादव कुल नष्ट हो गया। जिसमें भगवान के पुत्र प्रद्युमन, पौत्र अनिरूद्ध आदि आपस में लड़ कर मर गए। भगवान कृष्ण नहीं बचा पाए और एक शिकारी ने प्रभास क्षेत्र में भगवान को तीर मार कर हत्या की। इससे सिद्ध हुआ कि श्री कृष्ण जी भी प्रभु हैं, परंतु पूर्ण परमात्मा नहीं। ये केवल तीन लोक में परमात्मा (श्रेष्ठ आत्मा) हैं।
।। मृतक गाय को जीवित करना।।
बन्दी छोड़ कबीर साहेब पूर्ण परमात्मा हैं। ये अनंत करोड़ ब्रह्मण्ड के विद्याता हैं। एक समय कबीर साहेब के सत उपदेश को सुन कर हिन्दु तथा मुसलमान उनसे नाराज हो गए और सिकंदर लौधी दिल्ली के बादशाह (जो काशी गया हुआ था) के पास बहु संख्या में इक्ट्ठे हो कर आ गए। कबीर साहेब की झूठी शिकायत की। मुसलमानों ने कहा कि यह कबीर हमारे धर्म की छवि धूमिल करता है। कहता है मस्जिद में खुदा नहीं हैं। मैं ही खुदा हूँ। मांस खाने वाले पापी प्राणी हैं। उनको खुदा सजा देगा और वे नरक में जाएंगे।
कबीर, मांस अहारी मानई, प्रत्यक्ष राक्षस जानि।
ताकी संगति मति करै, होइ भक्ति में हानि।।1।।
कबीर, मांस मछलिया खात हैं, सुरापान से हेत।
ते नर नरकै जाहिंगे, माता पिता समेत।।2।।
कबीर, मांस मांस सब एक है, मुरगी हिरनी गाय।
जो कोई यह खात है, ते नर नरकहिं जाय।।3।।
कबीर, जीव हनै हिंसा करै, प्रगट पाप सिर होय।
निगम पुनि ऐसे पाप तें, भिस्त गया नहिंकोय।।4।।
कबीर, तिलभर मछली खायके, कोटि गऊ दै दान।
काशी करौत ले मरै, तौ भी नरक निदान।।5।।
कबीर, बकरी पाती खात है, ताकी काढी खाल।
जो बकरीको खात है, तिनका कौन हवाल।।6।।
कबीर, अंडा किन बिसमिल किया, घुन किन किया हलाल।
मछली किन जबह करी, सब खाने का ख्याल।।7।।
कबीर, मुला तुझै करीम का, कब आया फरमान।
घट फोरा घर घर दिया, साहब का नीसान।।8।।
कबीर, काजी का बेटा मुआ, उरमैं सालै पीर।
वह साहब सबका पिता, भला न मानै बीर।।9।।
कबीर, पीर सबनको एकसी, मूरख जानैं नाहिं।
अपना गला कटायकै, भिश्त बसै क्यों नाहिं।।10।।
कबीर, जोरी करि जबह करै, मुखसों कहै हलाल।
साहब लेखा मांगसी, तब होसी कौन हवाल।।11।।
कबीर, जोर कीयां जुलूम है, मागै ज्वाब खुदाय।
खालिक दर खूनी खडा, मार मुही मुँह खाय।।12।।
कबीर, गला काटि कलमा भरै, कीया कहै हलाल।
साहब लेखा मांगसी, तब होसी कौन हवाल।।13।।
कबीर, गला गुसाकों काटिये, मियां कहरकौ मार।
जो पांचू बिस्मिल करै, तब पावै दीदार।।14।।
कबीर, कबिरा सोई पीर हैं, जो जानै पर पीर।
जो पर पीर न जानि है, सो काफिर बेपीर।।15।।
कबीर, कहता हूं कहि जात हूं, कहा जो मान हमार।
जाका गला तुम काटि हो, सो फिर काटै तुम्हार।।16।।
कबीर, हिन्दू के दाया नहीं, मिहर तुरकके नाहिं।
कहै कबीर दोनूं गया, लख चैरासी मांहि।।17।।
कबीर, मुसलमान मारै करद सों, हिंदू मारे तरवार।
कह कबीर दोनूं मिलि, जावैं यमके द्वार।।18।।
कबीर, पानी पृथ्वी के हते, धूंआं सुनि के जीव।
हुक्के में हिंसा घनी, क्योंकर पावै पीव।।19।।
कबीर, छाजन भोजन हक्क है, और दोजख देइ।
आपन दोजख जात है, और दोजख देइ।।20।।
- भावार्थ:- वाणी सँख्या 1-2:- जो मानव (स्त्राी-पुरूष) माँस खाते हैं। उनको प्रत्यक्ष राक्षस जानो। भक्त को चाहिए कि ऐसे पापी का साथ न करें। उसके संग रहने से कभी भक्त भी गलती कर देगा। जिससे उसकी भक्ति में हानि हो जाएगी।(1)
जो व्यक्ति माँस खाते हैं, मछलियों का माँस खाते हैं और शराब का सेवन करते हैं। वे अपने माता-पिता सहित नरक में जाऐंगे। कारण यह है कि युवा बच्चे माता-पिता के धन से शराब व माँस सेवन करते हैं तो माता-पिता को भी दोष लगता है। वृद्ध होने पर वे बच्चे माता-पिता के भोजन में भी माँस को मिलाकर खिलाऐंगे। फिर उनको भी माँस की आदत पड़ जाती है। इस प्रकार पूरा परिवार नरक में गिरता है।(2)
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वाणी सँख्या 3.4:- जो व्यक्ति जीव हिंसा करते हैं। फिर उनका माँस खाते हैं। धार्मिक अनुष्ठानों में भी माँस का भोग लगाते हैं। वे प्रत्यक्ष पाप को सिर पर ले रहे हैं। ऐसे जैसे मुसलमान गाय के माँस को धार्मिक अनुष्ठान में उत्तम मानते हैं। हिन्दू गाय के माँस से परहेज करते हैं, परंतु सूअर, हिरण आदि के माँस खाने को पाप नहीं मानते। उनसे कहा है कि माँस तो माँस ही है, चाहे वह किसी प्राणी का है। उसके खाने से नरक ही मिलेगा।(3-4)
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वाणी सँख्या 5.6:- जो व्यक्ति गाय दान करते हैं यानि धर्म करते हैं। वे यदि तिलभर माँस मछली या अन्य किसी जीव का खाएगा तो उसका वह गऊ दान का धर्म समाप्त हो जाएगा। वह नरक में गिरेगा।(5)
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विचार करो कि जो बकरी कोई पाप नहीं करती थी। झाड़ियों के पत्ते खाकर जीवन जी रही थी। माँसाहारी व्यक्तियों ने उसको मारकर खा लिया या सिंह-चीता मारकर खा गया। यानि सादा जीवन जीने वाले जीव को भी कष्ट झेलना पड़ा तो जो माँस खाकर पाप का जीवन जी रहे हैं। एक दिन उनका कितना बुरा हाल होगा? इसलिए पाप से परहेज करें। इसी में भलाई है।(6)
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वाणी सँख्या 7:- मुसलमान कहते हैं कि हम बकरे, गाय व मुर्गे या अन्य भैंस-भैंसा को बिस्मिल करके गला काटकर हलाल करते हैं। फिर पाप नहीं लगता। उनसे कहा है कि यदि गला काटकर कलमा (मंत्र) पढ़कर हलाल कर देते हो तो अण्डा आपने खाया, उसका तो गला ही नहीं है। यदि कलमा पढ़ने से पाप नहीं लगता तो अपने बच्चे पर कलमा पढ़कर गला काटो, पता चले कि कितना कष्ट पहुँचता है। घुन यानि लकड़ी में लगा कीड़ा भी लकड़ी में जला है। उसका भी पाप लगता है। जो पूर्ण संत से दीक्षा लेकर भक्ति करते हैं, उनके पाप नष्ट हो जाते हैं। जो उपरोक्त बहाने बनाकर पाप से बचना भी बताते हैं और माँस भी खाते हैं। वे माँस खाने के लिए मनघड़न्त मिथ्या कहानी बनाते हैं । पूर्ण संत माँस-शराब आदि बुराईयाँ छुड़वाता है। पूर्व में किए पाप भक्ति से नष्ट होते हैं।
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वाणी सँख्या 8-11:- कबीर परमेश्वर जी ने कहा है कि हे मुल्ला जी! (मुल्ला मुसलमानों का धर्म प्रचारक होता है) आपको करीम यानि दयावान परमात्मा का आदेश माँस खाने व हलाल करने का नहीं है। उसके बनाए जीव को मारकर आप भी पाप के भागी बने हो और अन्य के घर-घर जाकर उसे बाँटते हो, उन्हें भी पाप के भागी बनाते हो।(8)
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वाणी सँख्या 9:- एक काजी (मुसलमान गुरू) के बेटे की मृत्यु हो गई। उसके (उर) हृदय में महाकष्ट हुआ। परमात्मा तो सर्व प्राणियों का पिता यानि उत्पत्तिकर्ता है। उसके किसी पुत्र/पुत्री यानि जीव को मारने से वह उस मारने वाले से खुश नहीं होगा।(9)
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वाणी सँख्या 10:- दर्द तो सबको एक जैसा होता है। मूर्ख व्यक्ति नहीं जानते। दूसरे जीवों को हलाल या बली चढ़ाकर उनको स्वर्ग भेजने का दावा करने वाले अपना गला कटवाकर कलमा पढ़वाकर हलाल होकर स्वर्ग क्यों नहीं जाते?(10)
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वाणी सँख्या 11.13:- जोर-जबरदस्ती करके जीवों को मारते हो, यह जुल्म (पाप) है। परमात्मा इसका जवाब माँगेगा। कहेगा कि बता किसके आदेश से जीव मारा था। उस समय हत्यारे के पास कोई उत्तर नहीं होगा। खालिक यानि सृष्टिकर्ता के द्वार पर वह खूनी बुरी तरह पिटेगा। उसके मुख पर अनेकों थप्पड़ लगेंगे। उसे नरक में डाला जाएगा। अन्य जीव का गला काटकर हलाल (धर्म) किया कहता है, तेरा परमात्मा हिसाब लेगा। तब बुरा हाल यानि दुर्गति होगी।(11.13)
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वाणी सँख्या 14.20:- कबीर जी ने उपदेश दिया है कि हे मियाँ जी! क्रोध का गला काटकर लड़ाई-झगड़े वाले कहर (जुल्म) को मार। जब काम, क्रोध, मोह, लोभ तथा अहंकार इन पाँचों को बिस्मिल कर, (बलि चढ़ा) तब परमात्मा के दर्शन संभव हैं।(14)
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जो अन्य की पीड़ा को समझता है। वही वास्तव में पीर (गुरू) है। जो दूसरे की पीड़ा को नहीं समझता, वह काफिर (गद्दार) निर्दयी (बेपीर) है।(15)
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कबीर जी ने उपदेश दिया है कि कान खोलकर सुन ले, जिसका गला तुम काटते हो, वह भविष्य में एक दिन तुम्हारा गला काटकर बदला लेगा। यह परमात्मा का नियम है।(16)
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जो हिन्दू हिंसा करते हैं, उनकी दया समाप्त है। मुसलमान हिंसा करते हैं, उनकी दया का नाश हो चुका है। जो जीव हिंसा करते हैं, वे चैरासी लाख योनियों में गिरकर कष्ट उठाते हैं।(17)
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मुसलमान करद (पैनी छुरी) से जीव धीरे-धीरे काटते हैं तथा हिन्दू तलवार से एक झटके में जीव काटते हैं। दोनों अपने तरीके को अच्छा व पाप न होने वाला कहते हैं। कबीर जी ने कहा है कि जीव हत्या चाहे धीरे-धीरे करद से करो, चाहे झटके के साथ तलवार से करो जो पाप समान है। दोनों प्रकार के हत्यारे नरक के भागी होंगे।(18)
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जो हुक्का पीते हैं यानि तम्बाकू सेवन करने वाले हुक्के के लिए अग्नि तैयार करते हैं तो पृथ्वी के जीव मारते हैं। हुक्के में पानी डालते हैं, उसमें पानी के जीव मारते हैं तथा तम्बाकू का धुँआ छोड़ते हैं, उससे वायु के जीवों को मारते हैं। इस प्रकार हुक्का पीने वाले अत्यधिक जीव हिंसा करते हैं। उनको कैसे परमात्मा मिलेगा? अर्थात् कभी नहीं।(19)
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परमात्मा ने जो अनाज, फल, मेवा, दूध, दही आदि-आदि अमृत भोजन खाने को दिया, वह ही हक्क यानि अच्छा यानि नेक है, अन्य नरक देने वाला है। जो जनता को भ्रमित करके पाप करने की प्रेरणा देते हैं, वे आप भी नरक में जाते हैं, अन्य को भी नरक ले जाते हैं।(20)
यह कबीर काफिर है। मांस मिट्टी भी नहीं खाता। इसके दिल में दया नहीं है। यह धर्म के विपरीत साधना करता है और करवाता है। सिंकदर लौधी राजा ने कहा कि लाओ उस कबीर को पकड़ कर। इतना कहना था कि दस सिपाही गए तथा साहेब कबीर को बाँध लाए। राजा के सामने खड़ा कर दिया। साहेब कबीर चुप-चाप खड़े हैं। सिंकदर लौधी ने पूछा कौन है तू? बोलता क्यों नहीं? तू अपने आपको खुदा कहता है।
तब साहेब कबीर ने कहा मैं ही अलख अल्लाह हूँ। इस सच्चाई से दुःख मान कर सिकंदर लौधी ने एक गऊ के तलवार से दो टुकड़े कर दिये। गऊ को गर्भ था और बच्चे के भी दो टुकड़े हो गए। तब सिकंदर लौधी राजा ने कहा कि कबीर, यदि तू खुदा है तो इस गऊ को जीवित कर दे अन्यथा तेरा सिर भी कलम कर (काट) दिया जाएगा। साहेब कबीर ने एक बार हाथ गऊ के दोनों टुकड़ों को लगाया तथा दूसरी बार उसके बच्चे के टुकड़ों को लगाया। उसी समय दोनों माँ-बेटा जीवित हो गए। साहेब कबीर ने गऊ से दूध निकालकर बहुत बड़ी देग (बाल्टी) भर दी तथा कहाः-
मैं ही अलख अल्ला हूँ, कुतुब गोस और पीर। गरीबदास खालिक धणी, मेरा नाम कबीर।।
गऊ अपनी अम्मा है, इस पर छुरी न बाह। गरीबदास घी दूध को, सब ही आत्म खाय।।
कबीर, दिनको रोजा रहत हैं, रात हनत हैं गाय। यह खून वह बंदगी, कहुं क्यों खुशी खुदाय।।
कबीर, खूब खाना है खीचडी, मांहीं परी टुक लौन। मांस पराया खायकै, गला कटावै कौन।।
मुसलमान गाय भखी, हिन्दु खाया सूअर। गरीबदास दोनों दीन से, राम रहिमा दूर।।
गरीब, जीव हिंसा जो करत हैं, या आगै क्या पाप। कंटक जूनि जिहान में, सिंह भेढिया और सांप।।
भावार्थ:- परमेश्वर कबीर बन्दी छोड़ जी ने उपस्थित दर्शकों तथा सिकंदर राजा से कहा कि जिस जननी को आप माता कहते हो, उसने केवल एक वर्ष दूध पिलाया। गऊ माता ने अपने को 08-10 वर्ष दूध पिलाया। घी, दही, मक्खन खिलाया। वह गऊ अपनी माता है। इसको मत मारो। इसके घी, दूध को हिन्दू-मुसलमान आदि-आदि सर्व धर्म के व्यक्ति पीते-खाते हैं। मुसलमान भाई दिन में रोजा (व्रत) रखते हो। उसे परमात्मा की भक्ति मानते हो। रात्रि में गाय या अन्य जीव मारकर खा लेते हो। भक्ति करके खून (हत्या) कर देने से परमात्मा कैसे प्रसन्न होगा?
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कबीर परमेश्वर जी ने उत्तम निर्दोष भोजन बताया है कि खिचड़ी नमकीन बनाओ और खाओ। दूसरे का गला काटकर फिर बदले में क्यों अपना गला कटाते हो?
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मुसलमान सूअर के माँस का परहेज करते हैं, गाय के माँस को खाना पाप नहीं मानते। दूसरी ओर हिन्दू गाय के माँस को खाने को पाप मानते हैं, सूअर का माँस खाने से परहेज नहीं मानते। दोनों ही भक्ति करके परमात्मा को प्राप्त करने की बात करते हैं। इस प्रकार की साधना से हिन्दुओं से राम तथा मुसलमानों से रहीम कोसों दूर है यानि परमात्मा कभी नहीं मिलेगा। यह भूल है।
परमात्मा कबीर जी के शिष्य गरीबदास जी ने बताया है कि जो जीव हिंसा करते हैं, इससे अधिक कोई पाप नहीं है। वे व्यक्ति अगले जन्मों में जंगली माँसाहारी जीवों (सिंह, भेड़िया आदि-आदि) की योनियों में कष्ट उठाते हैं। साँप आदि का जीवन भोगते हैं।
जब साहेब कबीर खडे़ हुए तो उनके शरीर से असंख्यों बिजलियों जैसा प्रकाश दिखाई देने लगा। राजा सिकंदर लौधी ने साहेब कबीर के चरणों में गिर कर क्षमा याचना की तथा कहा कि -
आप कबीर अल्लाह हैं, बख्सो इबकी बार।
दास गरीब शाह कुं, अल्लाह रूप दीदार।।
भावार्थ:- सिकंदर लोधी समा्रट ने कहा कि हे कबीर साहेब! आप वास्तव में भगवान हो। मुझे क्षमा करो। दिल्ली के बादशाह सिकंदर लौधी ने साहेब कबीर को पालकी में बैठा कर साहेब कबीर के घर भिजवाया।
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सिकंदर लौधी का जलन का रोग ठीक किया।
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श्री रामानन्द जी का सिकंदर लौधी ने तलवार से सिर कलम (कत्ल) कर दिया था परमेश्वर कबीर जी ने उसे जीवित कर दिया।
।। मृत लड़के कमाल को जीवित करना।।
एक लड़के का शव (लगभग 12 वर्ष का) नदी में बहता हुआ आ रहा था। सिकंदर लौधी के धार्मिक गुरु (पीर) शेखतकी ने कहा कि मैं तो कबीर साहेब को तब खुदा मानूं जब मेरे सामने इस मुर्दे को जीवित कर दे। साहेब ने सोचा कि यदि यह शेखतकी मेरी बात को मान लेगा और पूर्ण परमात्मा को जान लेगा तो हो सकता है सर्व मुसलमानों को सतमार्ग पर लगा कर काल के जाल से मुक्त करवा दे। सिकंदर लौधी राजा तथा सैकड़ों सैनिक उस दरिया पर विद्यमान थे। तब साहेब कबीर ने कहा कि शेख जी - पहले आप प्रयत्न करें, कहीं बाद में कहो कि यह तो मैं भी कर सकता था। इस पर शेखतकी ने कहा कि ये कबीर तो सोचता है कि कुछ समय पश्चात यह मुर्दा बह कर आगे निकल जाएगा और मुसीबत टल जाएगी। साहेब कबीर ने उसी समय कहा कि हे जीवात्मा! जहाँ भी है कबीर हुक्म से इस शव में प्रवेश कर और बाहर आजा। तुरंत ही वह बारह वर्षीय लड़का जीवित हो कर बाहर आया और साहेब के चरणों में दण्डवत् प्रणाम की। सब उपस्थित व्यक्तियों ने कहा कि साहेब ने कमाल कर दिया। उस लड़के का नाम ‘कमाल‘ रख दिया तथा साहेब ने उसे अपने बच्चे के रूप में अपने साथ रखा। इस घटना की चर्चा दूर-2 तक होने लगी। कबीर साहेब की महिमा बहुत हो गई। लाखों बुद्धिमान भक्त आत्मा एक परमात्मा (साहेब कबीर) की शरण में आ कर अपना आत्म कल्याण करवाने लगे। परंतु शेखतकी अपनी बेईज्जती मान कर साहेब कबीर से ईष्र्या रखने लगा।
परमेश्वर कबीर जी द्वारा मृत लड़के कमाल को जीवित करना
परमेश्वर कबीर जी द्वारा कब्र से निकाल कर मृत लड़की कमाली को जीवित करना
।। मृत लड़की कमाली को जीवित करना।।
एक दिन शेखतकी अवसर पाकर बहु सँख्या में मुसलमानों को बहकाकर सिंकदर लौधी के पास ले गया। उस समय साहेब कबीर सिंकदर लौधी के विशेष आग्रह पर उनके मकान पर दिल्ली में ही थे। सिंकदर लौधी ने इतने व्यक्तियों के आने का कारण पूछा तो बताया कि शेखतकी कह रहा है कि यह कबीर काफिर है। कोई जादू जन्त्र जानता है। यदि यह कबीर मेरी लड़की जो मर चुकी है और लगभग 15 दिन से कब्र में दबा रखी है, को जीवित कर देगा तो मैं और सर्व उपस्थित व्यक्ति भी इस कबीर की शरण में आ जाएंगे अन्यथा इस काफिर को सजा दी जाएगी। साहेब कबीर यही सोच कर कि हो सकता है यह नादान आत्मा ऐसे ही सतमार्ग स्वीकार कर ले, अपना भी उद्धार कर ले और अन्य आत्माओं का भी कल्याण करवा दे। चूंकि ये सर्व प्राणी आज चाहे मुसलमान हैं चाहे हिन्दू हैं, चाहे सिक्ख हैं और चाहे ईसाई बने हुए हैं सब कबीर साहेब (पूर्ण परमात्मा) का ही अंश हैं। काल भगवान इनको भ्रमित किए हुए है। कबीर साहेब ने कहा कि आज से तीसरे दिन आपकी कब्र में दबी हुई लड़की जीवित हो जाएगी। निश्चित समय पर हजारों की संख्या में दर्शक कब्र के आस-पास खड़े हो गए। कबीर साहेब ने कहा हे शेखतकी! आप भी कोशिश करें। उपस्थित जनों ने कहा कि यदि शेखतकी के पास शक्ति होती तो अपनी बच्ची को कौन मरने दे? कृप्या आप ही दया करें। तब कबीर साहेब ने कब्र फुड़वा कर उस कई दिन पुराने शव को जीवित कर दिया। वह लगभग 13 वर्ष की लड़की का शव था। तब सभी उपस्थित व्यक्तियों ने कहा कि कबीर साहेब ने कमाल कर दिया - कमाल कर दिया। कबीर साहेब ने उस लड़की का नाम कमाली रखा। लड़की ने अपने पिता शेखतकी के साथ जाने से मना कर दिया तथा कहा कि हे नादान प्राणियों! यह स्वयं पूर्ण परमात्मा (सतपुरुष) आए हैं। इनके चरणों में गिर कर अपना आत्म-कल्याण करवा लो। यह दयालु परमेश्वर हैं। हजारों व्यक्तियों ने साहेब के (मद्भक्त) मतावलम्बी अर्थात् साहेब कबीर के विचारों के अनुसार भक्त बन कर अपना कल्याण करवाया अर्थात् नाम दान लिया तथा कबीर साहेब ने उस कमाली लड़की को अपनी बेटी रूप में रखा।
।। मृत लड़के सेऊ (शिव) को जीवित करना।।
एक समय साहेब कबीर अपने भक्त सम्मन के यहाँ अचानक दो सेवकों (कमाल व शेखफरीद) के साथ पहुँच गए। सम्मन के घर कुल तीन प्राणी थे। सम्मन, सम्मन की पत्नी नेकी और सम्मन का पुत्र सेऊ। भक्त सम्मन इतना गरीब था कि कई बार अन्न भी घर पर नहीं होता था। सारा परिवार भूखा सो जाता था। आज वही दिन था। भक्त सम्मन ने अपने गुरुदेव कबीर साहेब से पूछा कि साहेब खाने का विचार बताएँ, खाना कब खाओगे? कबीर साहेब ने कहा कि भाई भूख लगी है। भोजन बनाओ। सम्मन अन्दर घर में जा कर अपनी पत्नी नेकी से बोला कि अपने घर अपने गुरुदेव भगवान आए हैं। जल्दी से भोजन तैयार करो। तब नेकी ने कहा कि घर पर अन्न का एक दाना भी नहीं है। सम्मन ने कहा पड़ोस वालों से उधार मांग लाओ। नेकी ने कहा कि मैं मांगने गई थी लेकिन किसी ने भी उधार आटा नहीं दिया। उन्होंने आटा होते हुए भी जान बूझ कर नहीं दिया और कह रहे हैं कि आज तुम्हारे घर तुम्हारे गुरु जी आए हैं। तुम कहा करते थे कि हमारे गुरु जी भगवान हैं। आपके गुरु जी भगवान हैं तो तुम्हें माँगने की आवश्यकता क्यों पड़ी? ये ही भर देगें तुम्हारे घर को आदि-2 कह कर मजाक करने लगे। सम्मन ने कहा लाओ आपका चीर गिरवी रख कर तीन सेर आटा ले आता हूँ। नेकी ने कहा यह चीर फटा हुआ है। इसे कोई गिरवी नहीं रखता। सम्मन सोच में पड़ जाता है और अपने दुर्भाग्य को कोसते हुए कहता है कि मैं कितना अभागा हूँ। आज घर भगवान आए और मैं उनको भोजन भी नहीं करवा सकता। हे परमात्मा! ऐसे पापी प्राणी को पृथ्वी पर क्यों भेजा। मैं इतना नीच रहा हूँगा कि पिछले जन्म में कोई पुण्य नहीं किया। अब सतगुरु को क्या मुंह दिखाऊँ? यह कह कर अन्दर कोठे में जा कर फूट-2 कर रोने लगा। तब उसकी पत्नी नेकी कहने लगी कि हिम्मत करो। रोवो मत। परमात्मा आए हैं। इन्हें ठेस पहुँचेगी। सोचेंगे हमारे आने से तंग आ कर रो रहा है। सम्मन चुप हुआ। फिर नेकी ने कहा आज रात्रि में दोनों पिता पुत्र जा कर तीन सेर (पुराना बाट किलो ग्राम के लगभग) आटा चुरा कर लाना। केवल संतों व भक्तों के लिए। तब लड़का सेऊ बोला माँ - गुरु जी कहते हैं चोरी करना पाप है। फिर आप भी मुझे शिक्षा दिया करती कि बेटा कभी चोरी नहीं करनी चाहिए। जो चोरी करते हैं उनका सर्वनाश होता है। आज आप यह क्या कह रही हो माँ? क्या हम पाप करेंगे माँ? अपना भजन नष्ट हो जाएगा। माँ हम चैरासी लाख योनियों में कष्ट पाएंगे। एैसा मत कहो माँ। माँ आपको मेरी कसम। तब नेकी ने कहा पुत्र तुम ठीक कह रहे हो। चोरी करना पाप है परंतु पुत्र हम अपने लिए नहीं बल्कि संतों के लिए करेंगे। नेकी ने कहा बेटा - ये नगर के लोग अपने से बहुत चिड़ते हैं। हमने इनको कहा था कि हमारे गुरुदेव कबीर साहेब (पूर्ण परमात्मा) आए हुए हैं। इन्होंने एक मृतक गऊ तथा उसके बच्चे को जीवित कर दिया था जिसके टुकड़े सिंकदर लौधी ने करवाए थे। एक लड़के तथा एक लड़की को जीवित कर दिया। सिंकदर लौधी राजा का जलन का रोग समाप्त कर दिया तथा श्री रामानन्द जी (कबीर साहेब के गुरुदेव) जो सिंकदर लौधी ने तलवार से कत्ल कर दिया था वे भी कबीर साहेब ने जीवित कर दिए थे। इस बात का ये नगर वाले मजाक कर रहे हैं और कहते हैं कि आपके गुरु कबीर तो भगवान हैं तुम्हारे घर को भी अन्न से भर देंगे। फिर क्यों अन्न (आटे) के लिए घर घर डोलती फिरती हो?
बेटा ये नादान प्राणी हैं यदि आज साहेब कबीर इस नगरी का अन्न खाए बिना चले गए तो काल भगवान भी इतना नाराज हो जाएगा कि कहीं इस नगरी को समाप्त न कर दे। हे पुत्र! इस अनर्थ को बचाने के लिए अन्न की चोरी करनी है। हम नहीं खाएंगे। केवल अपने सतगुरु तथा आए भक्तों को प्रसाद बना कर खिलाएगें। यह कह कर नेकी की आँखों में आँसू भर आए और कहा पुत्र नाटियो मत अर्थात् मना नहीं करना। तब अपनी माँ की आँखों के आँसू पौंछता हुआ लड़का सेऊ कहने लगा
- माँ रो मत, आपका पुत्र आपके आदेश का पालन करेगा। माँ आप तो बहुत अच्छी हो न।
अर्ध रात्रि के समय दोनों पिता (सम्मन) पुत्र (सेऊ) चोरी करने के लिए चले दिए। एक सेठ की दुकान की दीवार में छिद्र किया। सम्मन ने कहा कि पुत्र मैं अन्दर जाता हूँ। यदि कोई व्यक्ति आए तो धीरे से कह देना मैं आपको आटा पकड़ा दूंगा और ले कर भाग जाना। तब सेऊ ने कहा नहीं पिता जी, मैं अन्दर जाऊँगा। यदि मैं पकड़ा भी गया तो बच्चा समझ कर माफ कर दिया जाऊँगा। सम्मन ने कहा पुत्र यदि आपको पकड़ कर मार दिया तो मैं और तेरी माँ कैसे जीवित रहेंगे? सेऊ प्रार्थना करता हुआ छिद्र द्वार से अन्दर दुकान में प्रवेश कर जाता है। तब सम्मन ने कहा पुत्र केवल तीन सेर आटा लाना, अधिक नहीं। लड़का सेऊ लगभग तीन सेर आटा अपनी फटी पुरानी चद्दर में बाँध कर चलने लगा तो अंधेरे में तराजू के पलड़े पर पैर रखा गया। जोर दार आवाज हुई जिससे दुकानदार जाग गया और सेऊ को चोर-चोर करके पकड़ लिया और रस्से से बाँध दिया। इससे पहले सेऊ ने वह चद्दर में बँधा हुआ आटा उस छिद्र से बाहर फैंक दिया और कहा पिता जी मुझे सेठ ने पकड़ लिया है। आप आटा ले जाओ और सतगुरु व भक्तों को भोजन करवाना। मेरी चिंता मत करना। आटा ले कर सम्मन घर पर गया तो सेऊ को न पा कर नेकी ने पूछा लड़का कहाँ है? सम्मन ने कहा उसे सेठ जी ने पकड़ कर थम्ब से बाँध दिया। तब नेकी ने कहा कि आप वापिस जाओ और लड़के सेऊ का सिर काट लाओ। क्योंकि लड़के को पहचान कर अपने घर पर लाएंगे। फिर सतगुरु को देख कर नगर वाले कहेंगे कि ये हैं जो चोरी करवाते हैं। हो सकता है सतगुरु देव को परेशान करें। हम पापी प्राणी अपने दाता को भोजन के स्थान पर कैद न दिखा दें। यह कह कर माँ अपने बेटे का सिर काटने के लिए अपने पति से कह रही है वह भी गुरुदेव जी के लिए। सम्मन ने हाथ में कर्द (लम्बा छुरा) लिया तथा दुकान पर जा कर कहा सेऊ बेटा, एक बार गर्दन बाहर निकाल। कुछ जरूरी बातें करनी हैं। कल तो हम नहीं मिल पाएंगे। हो सकता है ये आपको मरवा दें। तब सेऊ उस सेठ (बनिए) से कहता है कि सेठ जी बाहर मेरा बाप खड़ा है। कोई जरूरी बात करना चाहता है। कृप्या करके मेरे रस्से को इतना ढीला कर दो कि मेरी गर्दन छिद्र से बाहर निकल जाए। तब सेठ ने उसकी बात को स्वीकार करके रस्सा इतना ढीला कर दिया कि गर्दन आसानी से बाहर निकल गई। तब सेऊ ने कहा पिता जी मेरी गर्दन काट दो। यदि आप मेरी गर्दन नहीं काटोगे तो आप मेरे पिता नहीं हो। सम्मन ने एक दम कर्द मारी और सिर काट कर घर ले गया। सेठ ने लड़के का कत्ल हुआ देख कर उसके शव को घसीट कर साथ ही एक पजावा (ईटें पकाने का भट्ठा) था उस खण्डहर में डाल गया।
जब नेकी ने सम्मन से कहा कि आप वापिस जाओ और लड़के का धड़ भी बाहर मिलेगा उठा लाओ। जब सम्मन दुकान पर पहुँचा उस समय तक सेठ ने उस दुकान की दीवार के छिद्र को बंद कर लिया था। सम्मन ने शव कीे घसीट (चिन्हों) को देखते हुए शव के पास पहुँच कर उसे उठा लाया। ला कर अन्दर कोठे में रख कर ऊपर पुराने कपड़े (गुदड़) डाल दिए और सिर को अलमारी के ताख (एक हिस्से) में रख कर खिड़की बंद कर दी।
कुछ समय के बाद सूर्य उदय हुआ। नेकी ने स्नान किया। फिर सतगुरु व भक्तों का खाना बनाया। फिर सतगुरु कबीर साहेब जी से भोजन करने की प्रार्थना की। नेकी ने साहेब कबीर व दोनों भक्त (कमाल तथा शेख फरीद), तीनों के सामने आदर के साथ भोजन परोस दिया। साहेब कबीर ने कहा इसे छः दौनों में डाल कर आप तीनों भी साथ बैठो। यह प्रेम प्रसाद पाओ। बहुत प्रार्थना करने पर भी साहेब कबीर नहीं माने तो छः दौनों में प्रसाद परोसा गया। पाँचों प्रसाद के लिए बैठ गए। तब साहेब कबीर ने कहा:-
आओ सेऊ जीम लो, यह प्रसाद पे्रम। शीश कटत हैं चोरों के, साधों के नित्य क्षेम।।
भावार्थ:- साहेब कबीर ने कहा कि सेऊ आओ भोजन पाओ। सिर तो चोरों के कटते हैं। संतों (भक्तों) के नहीं। उनको तो क्षमा होती है। साहेब कबीर ने इतना कहा था उसी समय सेऊ के धड़ पर सिर लग गया। कटे हुए का कोई निशान भी गर्दन पर नहीं था तथा पंगत (पंक्ति) में बैठ कर भोजन करने लगा। बोलो कबीर साहेब (कविरमितौजा) की जय। गरीब, सेऊ धड़ पर शीश चढ़ा, बैठा पंगत माहीं। नहीं घरहरा गर्दन कै, औह सेऊ अक नाहीं।।
भावार्थ:- जो सिर अलमारी की ताक में रखा था। वह लड़के शिव (सेऊ) के धड़ पर अपने आप लग गया। लड़का जीवित होकर उठकर भोजन खाने वाली पंक्ति में आकर बैठ गया। सम्मन (पिता) तथा नेकी (माता) को विश्वास नहीं हो रहा था कि यह वही बेटा सेऊ है कि नहीं क्योंकि लड़की की गर्दन पर कटे का निशान (चिन्ह) भी नहीं था।
सम्मन तथा नेकी ने देखा कि गर्दन पर कोई चिन्ह भी नहीं है। लड़का जीवित कैसे हुआ? अन्दर जा कर देखा तो वहाँ शव तथा शीश नहीं था। केवल रक्त के छीटें लगे थे जो इस पापी मन के संश्य को समाप्त करने के लिए प्रमाण बकाया था।
ऐसी-2 बहुत लीलाएँ साहेब कबीर (कविरग्नि) ने की हैं जिनसे यह स्वसिद्ध है कि ये ही पूर्ण परमात्मा हैं। सामवेद संख्या नं. 822 में कहा है कि कविर्देव अपने विधिवत् साधक साथी की आयु बढ़ा देता है।
।। ब्रह्म (काल) व प्रकृति (दुर्गा) से सर्व प्राणी व ब्रह्मा, विष्णु, शिव की उत्पत्ति।।
अध्याय 14 के श्लोक 3 में हे अर्जुन! मेरी प्रकृति तो योनि (गर्भाधान स्थान है) तथा (अहम् ब्रह्म) मैं ब्रह्म (काल) उसमें गर्भ स्थापन करता हूँ। उससे सर्व प्राणियों की उत्पत्ति होती है। अध्याय 14 के श्लोक 4 में कहा है कि हे अर्जुन! सब योनियों में जितनी मूर्ति (शरीरधारी प्राणी) उत्पन्न होती हैं। प्रकृति तो उन सब की गर्भधारण करने वाली माता है और मैं ब्रह्म (काल) उसमें बीज स्थापना करने वाला पिता हूँ।
।। तीनों ब्रह्मा (रजगुण), विष्णु (सतगुण), शिव (तमगुण) आत्मा को शरीर में बाँधते हैं अर्थात् मुक्त नहीं होने देते।।
अध्याय 14 के श्लोक 5 में कहा है कि हे अर्जुन! सत्वगुण (विष्णु) रजोगुण (ब्रह्मा) तमोगुण (शिव) ये प्रकृति (दुर्गा) से उत्पन्न तीनों गुण अविनाशी जीव आत्मा को शरीर में बाँधते हैं अर्थात् पूर्ण मुक्ति बाधक हंै।
अध्याय 14 के श्लोक 6 में कहा है कि उन तीनों गुणों में सतगुण (विष्णु) निर्मल होने के कारण प्रकाश करने वाला (यह नकली अनामी लोक काल द्वारा बनाया हुआ) सुखदायक ज्ञान के सम्बन्ध में जीव को बाँधता है। पार नहीं होने देता। चैरासी में डालता है। एक बहुत ही भावुक भक्त आत्मा से मैंने भगवान काल की सृष्टि तथा उसके द्वारा दी जाने वाली चैरासी लाख योनियों में कष्ट तथा एक लाख प्राणियों का काल द्वारा प्रतिदिन भक्षण करना समझाया तथा आगे सतलोक व परम गति का मार्ग बताया। नहीं तो आपको व सर्व देवताओं को काल खाएगा। इस पर उस पुण्य आत्मा ने कहा कि मैं तो बिल्कुल सतलोक नहीं जाऊँगा। चूंकि यदि मैं सतलोक चला गया तो भगवान की भूख कौन बुझाएगा? यहाँ पर वह प्राणी सतगुण प्रधान है जो उसके सतमार्ग का बाधक बन गया। विवेक बिना सतगुणी उदारात्मा होने पर भी काल के जाल से नहीं बच पाती।
।। ब्रह्मा (रजोगुण) की उपासना से उपलब्धि।।
अध्याय 14 के श्लोक 7 में कहा है कि हे अर्जुन! राग-रूप रजोगुण (ब्रह्मा) भी जीव को कर्म तथा उसके फल भोग की कामना के कारण बाँधे रखता है अर्थात् मुक्त नहीं होने देता। विषयों के भोगों के कारण मौज करने के वश हो कर काल जाल से नहीं निकल पाता।
एक समय मार्कण्डेय ऋषि ने इन्द्र जी (स्वर्ग के राजा) से कहा कि आपको मालूम भी है कि इन्द्र का राज भोगकर गधे की जूनी में जाओगे। इसलिए इस इन्द्र के राज को त्याग कर ब्रह्म का भजन कर। तेरा चैरासी से पीछा छूट जाएगा। इस पर इन्द्र जी ने कहा कि फिर कभी देखेंगे। अब तो मौज मनाने दो ऋषि जी।
विचार करें:-- फिर कब देखेंगे? क्या गधा बनने के बाद? फिर तो गधे को कुम्हार देखेगा। एक क्विंटल वजन कमर पर, ऊपर से डण्डा लगेगा। ज्ञान होते हुए भी रजोगुणवश प्राणी भी काल जाल से मुक्त नहीं हो पाता।
।। शिव (तमोगुण) की उपासना से प्राप्ति।।
अध्याय 14 के श्लोक 8 का अनुवाद: हे अर्जुन! सब शरीर धारियोंको मोहित करनेवाले तमोगुणको तो अज्ञान से उत्पन्न जान। वह इस जीवात्माको प्रमाद आलस्य और निंद्राके द्वारा बाँधता है।
लंकापति राजा रावण ने भगवान शिव (तमगुण) की कठिन साधना व भक्ति की। यहाँ तक कि उसने अपने शरीर को भी काट कर समर्पित कर दिया। उसके बदले में भगवान शिव ने रावण को दश सिर व बीस भुजा प्रदान की। जब रावण को श्री राम ने मारा तो दश बार सिर काटे थे। रावण की भक्ति के परिणाम स्वरूप उसे फिर दश बार सिर वापिस लगे थे अर्थात् दश बार गर्दन कटने पर भी मरा नहीं। फिर गर्दन नई लग जाती थी। परंतु तमोगुण (अहंकार) समाप्त नहीं हुआ जिससे इतना अज्ञानी (अंधा) हो गया कि अपनी ही माता (जगत जननी) सीता का अपहरण कर लिया। तमोगुण ने उसका ज्ञान हर लिया तथा सर्वनाश को प्राप्त हुआ। यह तमगुण (शिव शंकर) की साधना का परिणाम है। गीता जी में भगवान ब्रह्म (काल) बताना चाहते हैं कि इन तीनों गुणों की भक्ति से भी जीव पार नहीं हो सकता। इससे अच्छी तो मेरी (ब्रह्म) साधना है परंतु यह भी पूर्ण मुक्तिदायक नहीं है। वह घटिया मुक्ति भगवान ब्रह्म (काल) ने स्वयं अध्याय 7 श्लोक 18 में कही है।
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अध्याय 14 श्लोक 9 में कहा है कि हे अर्जुन (भारत)! सतगुण सुख में लगाता है तथा रजोगुण कर्म में और तमोगुण ज्ञान को ढ़ककर प्रमाद (उल्ट मार्ग) में भी लगाता है।
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अध्याय 14 के श्लोक 10 से 17 तक कहा है कि एक गुण दूसरे को दबाकर अपना प्रभाव प्राणी पर बनाए रखता है।
एक भला व्यक्ति (जिसका सतगुण बढ़ा हुआ था तथा अन्य दोनों गुण दबे हुए थे) सतगुणी भाव से किसी लावारिस (जिसका कोई नाती जीवित नहीं था) रोगी को यह कहकर घर ले आया कि मैं आप की सेवा भी करूंगा तथा आपका ईलाज भी कराऊँगा। आप मुझे अपना पुत्र ही समझो। घर लाकर रजोगुण के बढ़ जाने पर (दोनों गुण दबे रहने पर) बढ़िया कपड़े सिलवाए, ईलाज करवाना प्रारम्भ कर दिया। एक दिन उस रोगी ने उसके पत्थर के फर्श पर थूक दिया। उस दिन उठाकर उस रोगी को घर से बाहर पटक दिया। तब तमोगुण बढ़ा हुआ था, दोनों गुण दबे हुए थे।
।। विष्णु (सतोगुण) की उपासना से प्राप्ति।।
अध्याय 14 के श्लोक 18 में कहा है कि सतगुण में स्थित (अर्थात् विष्णु उपासक) स्वर्ग आदि उच्च लोकों में चला जाता है। फिर जन्म-मरण, नरक, चैरासी लाख योनियों में चला जाता है। रजगुण उपासक (ब्रह्मा का साधक) मनुष्य लोक (पृथ्वी लोक) पर मनुष्य का एक आध जन्म प्राप्त कर फिर नरक व चैरासी लाख जूनियों में चला जाता है। तमगुण प्रधान (शिव उपासक) अधोगति (नरक तथा लख चैरासी जूनियों) को सीधा प्राप्त होता है।
।। ब्रह्मा, विष्णु, शिव कत्र्ता नहीं।।
गीता अध्याय 14 श्लोक 19 का अनुवाद:- काल ब्रह्म ने कहा है कि (यदा) जब यानि जिस स्थिति में (दृष्टा) ज्ञान की आँखों से देखने वाला अल्प ज्ञान के कारण (गुणेभ्यः) तीनों गुणों यानि रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिव के अतिरिक्त (अन्य कर्तरम्) अन्य कोई कर्ता (न) नहीं (अनुपश्यति) देखता यानि इन तीनों देवों से ऊपर कोई परमात्मा स्वीकार नहीं करता (च) तथा किसी से सुनकर (गुणेभ्य) तीनों गुण रूप ब्रह्मा रजगुण, विष्णु सतगुण तथा शिव तमगुण से (परम् वेति) अन्य परम अक्षर ब्रह्म को भी जानता है। (सः) वह (मत् भावम्) मेरे भाव को (अधिगच्छति) प्राप्त होता है।
भावार्थ:- काल ब्रह्म ने स्पष्ट किया है कि जिसको पूर्ण ज्ञान नहीं है, वह श्री ब्रह्मा रजगुण, श्री विष्णु सतगुण तथा श्री शिव तमगुण के अतिरिक्त किसी को सृष्टि का कर्ता नहीं जानता। यदि किसी तत्वदर्शी संत से इनसे अन्य परम दिव्य परमात्मा के विषय में जान लेता है तो वह मुझे ही परम अक्षर ब्रह्म मानकर मेरे भाव को प्राप्त करता है यानि वह भी मेरे ही जाल में रह जाता है। अध्याय 14 के श्लोक 19 में वर्णन है कि इस सर्व ज्ञान को तत्व से जान कर तीन गुणों (ब्रह्मा, विष्णु, शिव) के अतिरिक्त किसी अन्य को कत्र्ता नहीं जानता। इन गुणों से (परम) अन्य परम अक्षर ब्रह्म को भी जानता है। वह मेरे मतावलम्बी भाव को प्राप्त होता है अर्थात् वह साधक अध्याय 13 में दिए मत (विचारों) का अनुसरण करने वाला है। उसे मत-भावम् (मद्भावम्) कहा जाता है (अध्याय 3 के श्लोक नं. 31,32 में अपना मत कहा है) तथा मेरे जाल में रह जाता है।
।। ब्रह्मा, विष्णु, शिव की साधना त्याग कर पूर्ण परमात्मा की साधना करनी चाहिए।।
- अध्याय 14 के श्लोक 20 में कहा है कि वह जीवात्मा इस शरीर (दुःख की जड़) की उत्पत्ति अर्थात् जन्म-मरण का कारण गुणों को समझ लेता है तथा वह तीनों गुणों को उल्लंघन कर अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु, महेश की भक्ति छोड़ कर, जन्म-मरण, बुढापा व सर्व दुःखों से मुक्त होकर (पूर्ण मुक्ति पूर्ण परमात्मा प्राप्ति करके) परमानन्द को प्राप्त हो जाता है।
- अध्याय 14 के श्लोक 21 में अर्जुन ने प्रश्न किया है कि हे भगवन! इन तीनों गुणों से अतीत हुए भक्त के क्या लक्षण होते हैं? तथा कैसे आचरण वाला होता है? कैसे इन तीनों गुणों (ब्रह्मा, विष्णु, शिव) से अतीत (परे) होता है?
।। तीनों गुणों से अतीत अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु, शिव की भक्ति से ऊपर उठे भक्त के लक्षण।।
अध्याय 14 के श्लोक 22 से 25 में कहा है कि जो भक्त किसी देव की महिमात्मक प्रशंसा सुन कर उस पर आसक्त नहीं होता क्योंकि उसे पूर्ण ज्ञान है कि यह देव (गुण) केवल इतनी ही महिमा रखता है जो जीव के उद्धार के लिए पर्याप्त नहीं है। जैसे भगवान कृष्ण (विष्णु-सतगुण) ने कंश-केशि, शिशुपाल आदि मारे तथा सुदामा को धन दे दिया। आम जीव के कल्याण के लिए पर्याप्त नहीं है। क्योंकि भगवान विष्णु (सतगुण) का उपासक केवल स्वर्ग आदि उत्तम लोकों में जा सकता है। फिर चैरासी लाख जूनियों का संकट बना रहेगा। इसलिए वह साधक अपने विचार स्थिर रखता है तथा अपना स्वभाव मोह वश नहीं बदलता और न ही उन देवों (ब्रह्मा, विष्णु, शिव) से द्वेष करता। न ही उनकी आकांक्षा (इच्छा) करता जो उनकी शक्ति से परिचित है, उनको वहीं तक समझता है तथा अविचलित स्थित एक रस इनसे भी परे परमात्मा में लीन रहता है तथा सुख-दुःख, मिट्टी-सोना, प्रिय-अप्रिय, निन्दा-स्तुति में सम भाव में रहता है। मान-अपमान, मित्र-वैरी को समान समझता है तथा सर्व प्रथम अभिमान का त्याग करता है। वह (भक्त) गुणातीत कहा जाता है।
।। ब्रह्म (काल) की उपासना का लाभ - देवी-देवताओं व ब्रह्मा, विष्णु, शिव की भक्ति त्याग कर ही होता है।।
अध्याय 14 के श्लोक 26 में कहा है कि - और जो (भक्त) अव्याभिचारिणी भक्ति योग के द्वारा अर्थात् केवल एक इष्ट की साधना (अन्य देवी-देवताओं, भूतों-पित्रों तथा ब्रह्मा, विष्णु, शिव की पूजा त्याग कर) करता है वह आत्मा अव्याभिचारी है। जैसे कोई स्त्राी अपने पति के साथ-2 अन्य पुरुष का संग करती है वह व्याभिचारिणी स्त्राी कहलाती है जो अपने एक पति पर आश्रित नहीं हुई। इसलिए व्याभिचारी भक्त हैं जो एक इष्ट पर आधारित नहीं हैं।, जो अनन्य मन से (केवल एक इष्ट की आशा से) भक्ति करते हैं और जो एक इष्ट पर आधारित हैं वे अव्याभिचारिणी भक्ति करने वाले कहे हैं।
ऐसा भक्त केवल मुझे (काल-ब्रह्म को एक अक्षर ऊँ मन्त्र से) भजता है। वह साधक तीनांे गुणों (ब्रह्मा, विष्णु, शिव) की भक्ति त्याग कर जो काल (ब्रह्म) को अनन्य मन से केवल ऊँ मन्त्र से भजता है, वह साधक उस पूर्ण परमात्मा (परम अक्षर ब्रह्म, परम अविनाशी भगवान) को प्राप्त होने के योग्य होता है क्योंकि पूर्ण परमात्मा को प्राप्त करने की साधना में तीन नामों में प्रथम ¬ नाम भी है।
।। पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति में काल ब्रह्म सहयोगी।।
अध्याय 14 के श्लोक 27 में ब्रह्म काल कह रहा है कि पूर्ण परमात्मा के अविनाशी अमृत का तथा शाश्वत् धर्म का और एकान्तिक सुख की पहली अवस्था (प्रतिष्ठा) मैं ही हूँ। यह काल ही सत्यनाम उपासक भक्त को पार होने के लिए अपना सिर झुका कर रास्ता देता है। तब कबीर हंस उस काल के सिर पर पैर रख कर सतलोक जाता है। काल ने कबीर साहेब से कहा है कि - ‘‘जो भी भक्त होवै तुम्हारा। मम सिर पग दे होवै पारा।।‘‘
परमात्मा की तीन अवस्था (प्रतिष्ठा) है। तीन ही परमात्मा हैं -
गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में ओं-तत्-सत् इस तीन मन्त्र के जाप से पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति कही है।
- क्षर यह काल ब्रह्म है, इसका ओम् (ऊँ) नाम है।
- अक्षर अर्थात् परब्रह्म है। इसका तत् जो सांकेतिक मन्त्र है।
- परम अक्षर ब्रह्म अर्थात् पूर्णब्रह्म है। इसका सत् मन्त्र है जो सांकेतिक है।
पहली प्रतिष्ठा अर्थात् अवस्था ब्रह्म है। ब्रह्म लोक को पार करके परब्रह्म (अक्षर पुरुष) का लोक आता है। जब कबीर साहेब का उपासक हंस सतलोक जाता है तो पहली अवस्था (प्रतिष्ठा) काल ब्रह्म के लोक को पार करना है। यह प्रथम अवस्था भी तब होगी जब¨ऊँ मन्त्र का जाप काल के दुःख को ध्यान में रखते हुए करता है। जैसे सतनाम में (क्षर-ब्रह्म का मन्त्र ऊँ है तथा अक्षर पुरुष/परब्रह्म का मन्त्र सोहं) दोनों मन्त्रों का श्वांसों द्वारा जाप करना होता है। पूर्ण गुरु से ले कर ऊँ मन्त्र का जाप काल के ऋण से मुक्त करता है। तब काल (ब्रह्म) अपनी हद (21 ब्रह्मण्ड) से स्वयं अपने सिर पर पैर रखवा कर परब्रह्म लोक में जाने देता है। क्योंकि जिस भक्त आत्मा के पास सतनाम के साथ सार नाम भी है तथा वह अंतिम श्वांस तक गुरुदेव जी की शरण में रहता है उसमें इतनी भक्ति शक्ति हो जाती है कि काल (क्षर/ब्रह्म/ज्योति निरंजन) विवश हो जाता है तथा उस हंस के सामने अपना सिर झुका देता है। फिर वह भक्त उसके सिर पर पैर रख कर परब्रह्म लोक मंे चला जाता है। यह पहली प्रतिष्ठा (अवस्था) हुई।
दूसरी अवस्था (प्रतिष्ठा) है कि परब्रह्म के अर्थात् अक्षर पुरुष के लोक को पार करना है। यह दूसरी अवस्था (प्रतिष्ठा) है। उसके लिए अक्षर पुरुष का जाप सोहं मन्त्र है। यदि इसके साथ सार नाम नहीं मिला तो भी अधूरा काम है। सोहं मन्त्र का जाप का अभ्यास अधिक हो जाने पर सारनाम दिया जाता है। सारनाम के जाप के अभ्यास की कमाई की शक्ति से परब्रह्म का लोक पार हो जाता है। क्योंकि सोहं मन्त्र के जाप अभ्यास (कमाई) से परब्रह्म का यात्रा ऋण मुक्त हो जाता है। अक्षर पुरुष के लोक को पार करने के बाद सोहं मन्त्र भी नहीं रहता। फिर केवल सारनाम सुरति निरति का जाप है। जिसको सार शब्द गुरु जी से प्राप्त हो गया, वह सार शब्द प्राप्त हंस उस शब्द की कमाई से उत्पन्न ध्वनि के आधार पर सतलोक में अपने सही स्थान पर चला जाता है। (जो ध्वनि शरीर में सुनती है, यह तो काल जाल ही है) यह तीसरी अवस्था (प्रतिष्ठा) हुई। यहाँ पर पूर्ण मुक्त हंस रहते हैं।
अध्याय 14 के श्लोक 27 में ब्रह्म (ज्योति निरंजन) ने कहा है कि उस पूर्ण परमात्मा के सच्चे आनन्द को प्राप्त कराने में मैं (काल) ही प्रतिष्ठा अर्थात् आश्रय हूँ का साधारण सा भाव पाठक इस प्रकार समझे कि जैसे किसी ने डोमिसाईल (प्रमाण पत्र) बनवाना हो तो उसका प्रथम प्रतिष्ठा (अवस्था) पटवारी होता है। वह लिख कर देता है कि यह इस क्षेत्र तथा गाँव का रहने वाला है परंतु डोमिसाईल बनाने वाला अन्य उच्च अधिकारी होता है। इसी प्रकार पूर्ण परमात्मा को प्राप्त करने में काल भगवान पहली प्रतिष्ठा है।