क्या श्री कृष्ण जी तत्वज्ञान से परिचित थे?
प्रश्नः-धर्मदास जी ने परमेश्वर कबीर बन्दी छोड़ से विनय पूर्वक प्रश्न किया हे दीनदयाल! हे बन्दी छोड़ आप के द्वारा दिया उपरोक्त तत्वज्ञान अद्वितीय है। मेरे ज्ञान चक्षु खुल गए हैं। जो प्रभु स्वयं को तथा अपने कुल को कर्मदण्ड से आनेवाली आपत्ति से नहीं बचा सकते तो हम साधकों द्वारा की गई इन भगवानों (श्री विष्णु, श्री शिव तथा श्री ब्रह्मा जी) की उपासना व्यर्थ थी। हे परमेश्वर! श्री कृष्ण जी ने भी किस कारण से शास्त्रविधि विरूद्ध साधना करने की प्रेरणा अपने अनुयाईयों को की। क्या इन्हें सत्य साधना का ज्ञान ही नहीं है? या किसी अन्य कारण से नहीं बताई?
उत्तरः-हे धर्मदास! जो काल ब्रह्म अर्थात् ज्योतिनिरंजन है वह इक्कीस ब्रह्मण्डों का प्रभु है वह एक हजार कलाओं तथा एक हजार भुजाओं युक्त है। श्री विष्णु, श्री शिव व श्री ब्रह्मा जी सोलह-सोलह कलाओं युक्त हैं तथा केवल चार-2 भुजा युक्त हैं। काल ब्रह्म नहीं चाहता कि मेरे इक्कीस ब्रह्मण्डों का कोई भी जीव तत्वज्ञान से परिचित होकर मेरे समान शक्तिशाली हो जाए तथा मेरे जाल से निकल जाए। इसी कारण से यह वेद ज्ञान की अपेक्षा स्वयं आकाशवाणी करके ऋषियों द्वारा स्वयं बनाए लोकवेद अर्थात् कहे सुने भक्ति ज्ञान के आधार से ही क्या श्री कृष्ण जी तत्वज्ञान से परिचित थे?
श्रद्धालुओं को भक्ति मार्ग प्रदान कराता है। अपनी गुप्त प्रेरणा या आकाश वाणी से ऋषियों को हठयोग करने के लिए प्रेरित करता है। वर्षों हठ योग से तप साधना करने से ऋषि जन सिद्धियाँ प्राप्त करके परमाणु बम तुल्य बन जाते हैं। जिस कारण से थोड़ी सी कहा सुनी होते ही एक दूसरे को श्राप देकर कष्ट भोगते रहते हैं। यर्थाथ् उद्देश्य पूर्ण मोक्ष को भूल कर एक दूसरे से बढ़-चढ़ कर सिद्धियाँ प्राप्त करने की स्पर्धा में मानव जीवन नष्ट कर जाते हैं। जिस के पास अधिक सिद्धियाँ होती हैं वह अन्य ऋषियों को मात दे देता है। जिस कारण भोली जनता में प्रसंशा का पात्र बन कर पूज्य बन जाता है। भोले श्रद्धालु उसे परम शक्तियुक्त ऋषि, महर्षि मान कर उस के आदेशनुसार भक्ति क्रियाऐं करते रहते हैं तथा अपने गुरूदेव के करिश्मों का गुण-गान करते रहते हैं। जिस कठिन तप अर्थात् हठयोग से साधना गुरूजी ने की थी वैसी साधना अनुयाई नहीं कर सकते क्योंकि अनुयाई गृहस्थी होते हैं अपना मेहनत-मजदूरी करके परिवार पालते हैं। जबकि ऋषि या तो कुंवारे ही साधना करते हैं। यदि गृहस्थी होते हैं तो उनके बच्चों का निर्वाह अनुयाई के द्वारा दी गई दक्षिणा से चलता है। जिस कारण से ऋषि एक स्थान पर हठयोग कई वर्षों तक करके सिद्धियाँ प्राप्त कर लेता है ऐसा अनुयाईयों के लिए सम्भव नहीं हैं। यदि ऋषि गुरूजी वाली साधना से मोक्ष प्राप्ति मानी जाए जो अनुयाई उस मोक्ष से वंचित ही रह जाऐंगे। परन्तु दोनों (गुरू व अनुयाईयों) की भक्ति विधि शास्त्रों के विस्द्ध होने से व्यर्थ है।
इसी प्रकार श्री कृष्ण जी के अध्यात्मिक गुरूदेव श्री दुर्वासा ऋषि थे (अक्षर ज्ञान अर्थात् शिक्षा के गुरू श्री संदीपनी ऋषि थे) दुर्वासा जी ने हठ योग करके हजारों वर्ष साधना की जिससे सिद्धियाँ प्राप्त करके प्रसंशा का पात्र बन गया। श्री कृष्ण जी गृहस्थी थे उनको दुर्वासा ने अन्य साधना करने को कहा। श्री कृष्ण जी ने फिर अपने शिष्यों (पाण्डवों तथा यादवों) को वही शास्त्र विधि विरूद्ध भक्ति विधि बताई जो बुरे समय पर बचाव नहीं कर सकी। जो आप ने पूर्वोक्त उल्लेख में पढ़ी व सुनी।
यही दशा श्री रामचन्द्र जी की जानों। उनके गुरूदेव श्री वशिष्ठ मुनि थे। श्री वशिष्ठ ऋषि जी ने भी शास्त्रविधि त्याग कर मनमाना आचरण (पूजा) किया। वशिष्ठ मुनि ने हजारों वर्ष तपस्या (हठयोग) की तत्पश्चात् सिद्धि युक्त होकर अनुयाई बनाए। श्री रामचन्द्र जी गृहस्थी व राजा थे। वे तपस्या अर्थात् वशिष्ठ ऋषि जी वाली हठयोग साधना नहीं कर सकते थे। इसलिए श्री रामचन्द्र जी भक्ति भी जो श्री वशिष्ठ जी द्वारा बताई गई थी करते थे परन्तु कर्म लेख भोगने ही पड़े। श्री रामचन्द्र जी का पूरा जीवन कष्टमय दुःखों से परिपूर्ण रहा। जिस व्यक्ति की पत्नी व बच्चे अन्यत्र कही पर रह रहे हों। वह व्यक्ति चाहे पृथ्वी पति हो उसे स्वपन में भी सुख नहीं हो सकता। भगवान श्री राम का सर्व जीवन ऋषि नारद के श्राप से नरकमय रहा। थोड़े कहे को अधिक समझ धर्मदास।
हे धर्मदास! काल ब्रह्मका भयंकर जाल है। आपने देवी पुराण तीसरे स्कंद अध्याय 6-7 में पढ़ा कि जिस समय ब्रह्मा कमल के फूल पर चेत हुआ था वह युवा था। तब काल ब्रह्म ने आकाशवाणी की थी ब्रह्मा तप करो, तप करो। ब्रह्मा ने एक हजार वर्ष तक तप किया फिर आकाशवाणी हुई सृष्टि करो। हे धर्मदास! ब्रह्मा को वेद बहुत बाद में प्राप्त हुए। शास्त्रविधि रहित साधना करने को प्रेरित काल ब्रह्म ने बहुत पूर्व ही कर दिया। इस प्रकार वेदों के ज्ञान को पढ़ कर भी तपस्या (हठयोग) करना उचित जाना। क्योंकि ब्रह्मा ने माना कि तप करना भी प्रभु का आदेश है। इसलिए इस शास्त्रविरूद्ध हानिकारक साधना को ब्रह्मा ने स्वयं भी किया तथा विष्णु और शिव व अपने वंशजों को भी इसी को करने की राय दी तथा कहा यह प्रभु की आकाशवाणी है जो उन्हीं का आदेश है जो मुझे स्पष्ट सुना है।
हे धर्मदास! तपस्या से सिद्धियों युक्त करके काल ब्रह्म अपना कार्यसिद्ध करता है। ऋषियों व ब्रह्मा, विष्णु, महेश को भी सिद्धी युक्त करके अन्य प्राणियों को सुख व दुःख दिलाता है तथा सर्व प्राणियों को यथार्थ भक्ति मार्ग से कोसों दूर रखता है। तप से कुछ समय राज्य मिलता है। पाप कर्म से दुःखमय योनियों में शरीर तथा नरक प्राप्ति होती, तप से कुछ समय स्वर्ग का सुख मिलता है, पश्चात् वह साधक चैरासी लाख प्रकार के प्राणियों की योनियों में महाकष्ट भोगता है। इस प्रकार काल ब्रह्म ने सर्व जीवात्माओं को दो तरफा ज्ञान से भ्रमित कर रखा है। जैसे गीता अध्याय 3 श्लोक 1-2 में अर्जुन ने पूछा हे जनार्दन! आप कभी कहते हो कर्म श्रेष्ठ है अर्थात् कर्मयोग श्रेष्ठ है, कभी कहते हो कर्मयोग की अपेक्षा ज्ञानयोग श्रेष्ठ है, यदि ज्ञान योग श्रेष्ठ है तो मुझे युद्ध करने वाले भयंकर कर्म में क्यों लगाना चाहते हो। आप के मिले जुले से वचन मुझे भ्रमित कर रहे हैं। जो एक बात निश्चित् करके कहिए जिससे मैं कल्याण को प्राप्त होऊँ।
गीता ज्ञान दाता ने अध्याय 3 श्लोक 4 से 8 में कहा है कि कर्म सन्यास अर्थात हठयोग करके एक स्थान पर बैठ कर साधना करने वाले दम्भी हैं। वे शरीर से तो साधना करते दिखाई देते हैं परन्तु उनका मन चंचल रहता है (जैसे सर्दी लगी तो सर्दी का चिन्तन, गर्मी लगी तो गर्मी का चिन्तन, भूख का चिन्तन मन से करते रहते है) यह साधना व्यर्थ है। एक स्थान पर बैठ कर साधना करेगा अर्थात् कर्मसन्यास करके भक्ति करेगा तो तेरा निर्वाह कैसे होगा।
यही प्रमाण गीता अध्याय 8 श्लोक 7 में कहा है कि युद्ध भी कर मेरा स्मरण भी कर मुझे प्राप्त होगा। हे धर्मदास! उपरोक्त विचार वेद ज्ञान के है जो श्रेष्ठ है। फिर गीता ज्ञान दाता ने गीता अध्याय 6 श्लोक 10 से 15 में अपने शास्त्रविस्द्ध विचार (लोक वेद) बताए हैं। जिससे स्पष्ट है कि यदि गीता अध्याय 3 श्लोक 4 से 8 वाला ठीक है। तो यह अध्याय 6 श्लोक 10 से 15 वाला उसके विपरीत होने के कारण व्यर्थ हुआ। अधिकतर श्रद्धालु हठयोग को रूचि से करते हैं क्योंकि मन रूपी काल उसी साधना से खुश रहता है जो जीव को हानि करे।
काल जाल का अन्य प्रमाण:- श्री विष्णु पुराण के तृतीय अंश के अध्याय 17 श्लोक 1 से 44 तथा अध्याय 18 श्लोक 1 से 36 में पृष्ठ 125 से 221 पर लिखा है की देवता तथा दैत्य दोनों ही वैदिक धर्म अनुसार साधना करते थे। एक समय दोनों का सौ दिव्य वर्ष तक युद्ध हुआ। देवता पराजित हो गए। देवताओं ने क्षीर समुद्र के उत्तरीय तट पर जाकर तपस्या की और भगवान विष्णु की आराधना के लिए इस स्तव का गान किया, देवगण बोले- हम लोग लोक नाथ भगवन् विष्णु की आराधना के लिए जिस वाणी का उच्चारण करते हैं उस से वे आद्य-पुरूष श्री विष्णु भगवान प्रसन्न हों। (17/मन्त्र 11) उस ब्रह्मस्वरूप को जो निराकार है।
उस ब्रह्मस्वरूप को नमस्कार है। हे पुरूषोतम्! आप का जो क्रूरता ओर माया से युक्त घोर तमोमय रूप हैं उस राक्षस स्वरूप को नमस्कार है (20) जो कल्पान्त में समस्त भूतों अर्थात प्राणियों का भक्षण कर जाता है आपके उस काल स्वरूप को नमस्कार है (25) जो प्रलय काल में देवता आदि समस्त प्राणियों का भक्षण करके नृत्य करता है आपके उस रूद्रस्वरूप को नमस्कार है (17/मन्त्र 26) विष्णु पुराण तृतीय अंश अध्याय 17 के श्लोक 11 से 34 तक स्त्रोत के समाप्त हो जाने पर देवताओं ने श्री हरि को हाथ में शंख चक्र, गदा लिए गरूड़ पर आरूढ़ समुख विराजमान देखा (35) देवताओं की प्रार्थना सुनकर भगवान विष्णु ने अपने शरीर से (वचन शक्ति से) एक मायामोह को उत्पन्न किया तथा कहा कि वह माया मोह दैत्यों को वेद मार्ग की साधना से हटा कर मनमुखी साधना पर आरूढ़ कर देगा। जिस कारण से दैत्य भक्तिहीन हो जाऐंगें तब, तुम देवता उन्हें मार डालना। ऐसा ही हुआ माया मोह ने सर्व दैत्यों (राक्षसों) को वैदिक मार्ग से विचलित करके मनमुखी साधना पर आरूढ़ कर दिया। कुछ पश्चात् देवता तपस्या करके (बैट्री चार्ज करके) दैत्यों के साथ युद्ध करने के लिए उपस्थित हुए। दैत्यों ने तपस्या करनी त्याग दी थी जिससे उनमें सिद्धि शक्ति नहीं रही। (उनकी बैट्री चार्ज नहीं हुई) इस कारण से देवताओं ने दैत्यों को मार डाला। उपरोक्त विष्णु पुराण के उल्लेख का निष्कर्ष:-
काल ब्रह्म ने सर्व प्राणियों (देवताओं, ऋषियों, ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव तथा अन्य प्राणियों) को भ्रमित किया हुआ है। यह स्वयं ही अपने तीनों पुत्रों (ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव) का रूप धारण कर लेता है। उपरोक्त स्तोत्र में देवताओं ने श्री विष्णु की स्तुति करनी चाही है, कर रहे हैं काल ब्रह्म की। वह काल ब्रह्म ही विष्णु रूप धारण करके गरूड़ पर बैठ कर आश्वासन दे गया। अपने वचन से एक व्यक्ति उत्पन्न कर के माया मोह नाम रख कर राक्षसों के पास भेज दिया। जो दैत्यगण तपस्या अर्थात् हठयोग करते थे उससे सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती थी।
माया मोह ने वह साधना भी छुड़वा दी जिस से असुर गण सिद्धियों से रहित हो गए। देवता गण भी पहले दैत्यों से युद्ध करने के कारण सिद्धियाँ समाप्त कर चुके थे तथा हार कर जान बचाकर चले गए थें फिर तपस्या की तथा सिद्धियाँ प्राप्त करके असुरों से युद्ध किया तथा विजय पाई। जब देवता गण राक्षसों से हारे थे उस समय दैत्य भी वही साधना (तपस्या अर्थात् हठ योग) करते थे जो देवता करते थे। इससे सिद्ध हुआ कि भक्ति करने से भी देवता, दैत्यों से रद्दी (पिछड़े हुए) थे। क्योंकि राक्षस वही साधना करके देवताओं पर विजय पाए थे जो देवतागण करते थे।
वास्तव में शास्त्रविधि अनुसार साधना न देवता करते थे न दैत्य। केवल काल द्वारा बताई गई तपस्या (जो ब्रह्मा को जन्म के समय आकाश वाणी द्वारा काल ब्रह्म द्वारा कमल के फूल पर बताई थी उस तपस्या) अर्थात् हठ योग को दोनों करते थे। दोनों ही सिद्धियाँ प्राप्त करते थे। जैसे शराब को देवता पीऐ चाहे दैत्य दोनों को ही सरूर होगा। सिद्धियाँ प्राप्त होने पर प्राणी को अभिमान का नशा हो जाता है। फिर आपस में एक दूसरे पर सिद्धियों का प्रयोग करके स्वयं के जीवन को नष्ट कर जाते हैं। यह सर्व काल ब्रह्म द्वारा फैलाया भयंकर जाल है जिसे तत्वज्ञान से ही समझा जा सकता है तथा इस जाल से निकला जा सकता है। वर्तमान में कुछ पंथ हैं जो न तो देशी घी की ज्योति लगाने देते हैं न गीता, वेद या स्वसम वेद वाणी का पाठ करने को बताते हैं न वास्तविक नाम जाप को देते हैं। कहते है सन्त कुछ नाम जाप करने को दे दे वही मोक्षदायक है। अढ़ाई घण्टे सुबह तथा कम से कम अढ़ाई घण्टे शाम को हठयोग करने को कहते हैं यह मोक्ष मार्ग नहीं है। ये सन्त काल ब्रह्म द्वारा माया मोह की तरह भेजे गए है। जिन्होंने वह साधना भी छुड़ा दी जिससे स्वर्ग तक जाने की भक्ति तो बनती थी। जैसे प्रतिदिन गीता, वेद या स्वसम वेद (कबीर वाणी या कबीर जी से परिचित सन्तों की वाणी) वाणी के पाठ से ज्ञान यज्ञ का फल मिलता है, तथा देशी घी की ज्योति से हवन यज्ञ का फल मिलता है। दण्डवत् प्रणाम से प्रणाम यज्ञ का फल मिलता है। वे नकली पंथ सुना-सुनाया सतलोक-2 तो कहते है परन्तु सतलोक में सतपुरूष निराकार बताते है। वहां प्रकाश ही प्रकाश है आनन्द ही आनन्द है। आत्मा भी उस प्रकाश में ऐसे समा जाती है जैसे समुन्द्र में बून्द समा जाती है। ऐसा व्यर्थ ज्ञान अनुयाईयों को बता कर कहते हैं चलो सतलोक में वहाँ आनन्द ही आनन्द है। विचार करें किसी लड़की को कोई मूर्ख कहे तेरी सगाई अमूक गाँव में कर दी है। वहाँ तेरा पति निराकार है। तेरे पति के घर में प्रकाश ही प्रकाश है, पति साकार नहीं है, वहाँ विवाह कराके जा, लड़की वहां आनन्द ही आनन्द है। उस मूर्ख से पूछे पति साकार नहीं है तो उस कन्या का क्या उत्साह होगा विवाह करने व बिना पति वाले घर जाने का? कोई उमंग नहीं हो सकती। ठीक इसी प्रकार जो गुरू जन सतपुरूष अर्थात् परमात्मा को निराकार कहते हैं तथा कहते है कि केवल प्रभु का प्रकाश ही देखा जा सकता है। वे भ्रमित कर रहे हैं उनको कोई ज्ञान नहीं है उनको परमात्मा प्राप्ति भी नहीं हुई है। उनसे कोई पूछे तुम कहते हो कि सतपुरूष (अविनाशी परमेश्वर) का केवल प्रकाश देखा जा सकता है क्योंकि सतपुरूष (सच्चा परमेश्वर) तो निराकार है। जैसे कोई अन्धा कहे कि सूर्य तो निराकार है उसका केवल प्रकाश ही देखा जा सकता है । सूर्य बिना प्रकाश किसका देखा? जब सूर्य निराकार है तो प्रकाश काहेका?
इसी प्रकार जो ज्ञान नेत्रहीन सन्त, ऋषि, महर्षि परमात्मा को निराकार कहते हैं तथा परमात्मा को सूर्य तुल्य प्रकाशमान कहते हैं तथा परमात्मा का प्रकाश देखा कहते है। वे सनीपात के ज्वर के रोगी की तरह बरड़ा रहे हैं उन्हें यही नहीं पता वे क्या बोल रहे हैं। वे सर्व काल ब्रह्म के द्वारा भेजे गए मोहमाया जैसे भ्रमित करने वाले दूत है। जिन्होंने भोली आत्माओं को उल्टा पाठ पढ़ा कर दिशाभ्रष्ट कर दिया है।
प्रश्न:- धर्मदास जी ने प्रश्न किया हे बन्दी छोड़ कबीर परमेश्वरजी! ऋषि वशिष्ठ जी के विषय में सुना है वे बड़े सहनशील व ज्ञानी महापुरूष थे। सुना है कि विश्वामित्र ने उनके सौ पुत्रों को मार डाला था। फिर भी उन्होंने श्राप नहीं दिया?
उत्तरः-कबीर परमेश्वर ने कहा हे धर्मदास! वशिष्ठ ऋषि ने ऋषि विश्वामित्र को श्राप इसलिए नहीं दिया यदि वशिष्ठ जी श्राप देते तो विश्वामित्र जी भी श्राप देते। दोनों ही सिद्धी प्राप्त (विषैले सर्प तुल्य) थे। विश्वामित्र राजा भी थे इस कारण से वशिष्ट जी ने झगड़ा करने के लिए भी अपने को असमर्थ समझा। इस कारण संयम व आधीनी से काम लिया।
श्री विष्णु पुराण चतुर्थ अंश के अध्याय 5 श्लोक 1 से 10 पृष्ठ 252 पर लिखा है कि राजा इक्ष्वाकु के निमि नामक पुत्र ने एक हजार वर्ष तक चलने वाला यज्ञ करने के विचार से सर्व सामान तैयार कर लिया। ऋषि वशिष्ठ कुल गुरू से यज्ञ में ऋत्वक् होने की प्रार्थना की। ऋषि वशिष्ठ ने कहा मैं पहले पांच सौ वर्षों तक चलने वाला यज्ञ इन्द्र का करूगां पश्चात् आपका यज्ञ करूंगा। यह कह कर वशिष्ठ ऋषि इन्द्र का यज्ञ करने चले गए। राजा निमि ने गौतम ऋषि को होता वरण करके यज्ञ प्रारम्भ किया। वशिष्ठ जी इन्द्र का यज्ञ करके राजा निमि के घर लौटा तो गौतम ऋषि को होता का कार्य करते देख अपना अपमान जान कर ऋषि वशिष्ठ ने राजा निमि को श्राप दे दिया कि तेरी देह नष्ट हो जाए अर्थात् मृत्यु को प्राप्त हो। उस समय राजा निमि सोए हुए थे। राजा सोकर उठा तो पता चला कि ऋषि वशिष्ठ ने मृत्यु का श्राप दिया है। मुझ से कारण जाने बिना ही शाप दिया है मैं भी इस दुष्ट गुरू को शाप देता हूँ ऋषि वशिष्ठ की देह नष्ट हो जाए। इस प्रकार गुरू और शिष्य दोनों एक दूसरे को शाप देकर नष्ट हो गए। हे धर्मदास! तत्वज्ञान हीन व्यक्ति चाहे ऋषि है चाहे राजा या देवता बना है।
वह स्वार्थवश कुछ भी उपद्रव कर सकता है। जो व्यक्ति काल ब्रह्म प्रेरणा से शास्त्रविधि विरूद्ध तपस्या आदि करते हैं वे सिद्धियाँ (चमत्कारी शक्तियाँ) प्राप्त कर लेते हैं। सिद्धि प्राप्त प्राणी विषैले सर्प तुल्य होता है। थोड़े से ही कारण से शाप रूपी डंक मार देता है। राजा निमि पूर्व जन्म की भक्ति तपस्या से सिद्धि लिए था। ऋषि वशिष्ठ पूर्व जन्म तथा इस जन्म की भक्ति तपस्या से सिद्धि प्राप्त था। ऋषि वशिष्ट की आत्मा मित्र वरूण के शरीर में वीर्य में प्रवेश कर गई। एक दिन एक उर्वशी को देखने से उसका (मित्रवरूण) का वीर्य स्खलित हो गया। उससे वशिष्ठ ऋषि को पुनः शरीर प्राप्त हुआ।
नोटः- देवी पुराण में मित्र-वरूण दो ऋषि लिखे हैं। एक उर्वशी को देखकर दोनों का वीर्य स्खलित हो गया दोनों ने बारी-2 उठ कर एक घड़े में वीर्य त्याग किया। वहाँ दो लड़के उत्पन्न हुए एक अगस्त ऋषि हुए तथा दूसरे वशिष्ठ हुए दोबारा मानव शरीर प्राप्त हुआ।
इसलिए हे धर्मदास ! पूर्ण सन्त का मिलना अति दुर्लभ है।
गरीब, गोरख से ज्ञानी घने, सुखदेव जति जिहान। सीता सी बहु भार्या, सन्त दूर अस्थान।
कोट्यों मध्य कोई नहीं रै झूमकरा, अरबों मैं कोई गरक सुनों राई झूमकरा।
भावार्थ:- गोरख नाथ जैसे ज्ञानी बहुत मिल जाऐंगे, (कबीर परमेश्वर जी की शरण में आने के पश्चात् श्री गोरखनाथ जी को कुछ ज्ञान प्राप्त हो गया था) सुखदेव ऋषि जैसे जति (यति पुरूष) भी बहुत संख्या में मिल जाऐंगे, सीता जैसी सुशील पत्नी भी बहुत संख्या में मिल जाऐंगी परन्तु पूर्ण सन्त का मिलना अति दुर्लभ है।
पूर्ण सन्त करोड़ों सन्तों में नहीं मिलेगा। अन्य को भोली जनता सन्त कहती है परन्तु उन नकली अरबों सन्तों में कोई पूर्ण सन्त मिलेगा। धर्मदास ने कहा हे बन्दी छोड़ कबीर परमेश्वर! आपने तो मेरे अज्ञान रूप मोतिया बिन्द को समाप्त कर दिया। आपका दास महा अज्ञानी था आपने मुझ दास की आँखे खोल दी। हे प्रभु सर्व संसार को अज्ञान रूपी मोतिया बिन्द हुआ है। आप के अतिरिक्त ऐसा निर्णायक ज्ञान किसी ने नहीं बताया। परमेश्वर कबीर जी बोले हे धर्मदास! किसी को पता ही नहीं, बताएगा कौेन? अपनी महिमा बताने मैं आप ही आता हूँ।
शब्दः- मेरे साधो भाई मोहे सब जग भूला पाया (टेक)
इसी भूल में ब्रह्मा भूला जिसने बेद सरसाया।
बेद पढ़ कर पंड़ित भूला, मरम भेद ना पाया। (1)
इसी भूल में विष्णु भूला, जिसने वैष्णव धर्म चलाया।
तीर्थ व्रत का बाँध महातम, बहुविध जीव फंसाया। (2)
इसी भूल में शंकर भूले जिसने भिक्षुक पंथ बनाया।
सिर पर जटा हाथ में खप्पर घर-2 अलख जगाया। (3)
इसी भूल में भूले मुहम्मद जिसने न्यारा धर्म चलाया।
परत्रिया संग फिरा भटकता लिंग और मूछ कटाया। (4)
इसी भूल मंे भूले मच्छन्द्र, जिसने सिंगल द्वीप बसाया।
विषय वासना केवश होकर अपना योग नशाया। (5)
कह कबीर सुनो धर्मदासा इस भूल का भेद हाथ ना आया।
जिसको मिल गया भेद भूल का वह गर्भवास ना आया। (6)
उपरोक्त शब्द का भावार्थ:- परमेश्वर कबीर बन्दी छोड़ जी ने अपने प्यारे भक्त धर्मदास को बताया हे धर्मदास! जिस समय मैं इस काल ब्रह्म के लोक में आया तो सर्व संसार तत्वज्ञान से अपरिचित मिला। तत्वज्ञान के अभाव से विष्णु ने अपने आप को सर्वोच्च परमात्मा मान कर अपने मत अनुसार साधना का प्रचार करा दिया। जैसे सुखदेव ऋषि ने स्वर्ग से आकर दिल्ली में एक चरण दास नामक सन्त को ज्ञान दिया जिसने वैष्णव पंथ का प्रचार किया। चरण दास परम्परा में एक गुमानी दास सन्त हुए हैं। उस गुमानी दास वैष्णव सन्त का शिष्य नितानन्द (नन्दलाल तहसीलदार) हुए है जिनका गाँव माजरा, बिगोवा, बास की सीमा पर जटैला जोहड़ नामक आश्रम प्रसिद्ध है। इसी प्रकार ब्रह्मा जी ने वेदों को पढ़ाया परन्तु तत्व ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ केवल मनमुखी साधना करते-कराते रहे। इसी प्रकार शिव ने अपने संदेश वाहक संसार में भेज कर गिरी, पुरी, नाथ आदि भिक्षा मांग कर खाने वाले पंथ प्रारम्भ कर दिए।
हजरत मुहम्मद ने भी काल ब्रह्म प्रेरणा से भिन्न धर्म की स्थापना कर दी। गोरखनाथ के गुरू मछन्दर नाथ ने अपना शरीर त्याग कर एक मृत राजा के शरीर में प्रवेश किया। उसकी पत्नी से संभोग किया। उससे सिंगल द्वीप में मछन्दर के जीव द्वारा राजा के शरीर से उत्पन्न बच्चों की परम्परा चली। परन्तु उपरोक्त तत्वज्ञान किसी को नहीं है। सर्व काल ब्रह्म की प्रेरणा से ही भक्ति क्रियाऐं कर रहे हैं। जिस व्यक्ति को सम्पूर्ण तत्वज्ञान हो गया जो पूर्ण परमात्मा से परिचित हो गया वह तो केवल जन्म-मरण से छूटने का ही प्रयत्न करता है। वह इस संसार की किसी वस्तु की इच्छा नहीं करता। यही प्रमाण गीता अध्याय 7 श्लोक 29 में है।