सुमिरन के अंग का सरलार्थ (1-25)
(राग बिलावल से शब्द नं. 17 भी पढ़ें।)
तत कहन कूं राम है, दूजा नहीं देवा। ब्रह्मा बिष्णु महेश से, जाकी करि हैं सेवा।।टेक।। जप तप तीर्थ थोथरे, जाकी क्या आशा। कोटि यज्ञ पुण्य दान से, जम कटै न फांसा।।1।। यहां देन वहां लेन है, योह मिटै न झगरा। वाह बिना पंथ की बाट है, पावै को दगरा।।2।। बिन इच्छा जो देत है, सो दान कहावै। फल बांचै नहीं तास का, अमरापुर जावै।।3।। सकल द्वीप नौ खंड के, क्षत्री जिन जीते। सो तो पद में ना मिले, विद्या गुण चीते।।4। कोटि उनंचा पृथ्वी, जिन दीन्ही दाना। रशुराम अवतार कूं, कीन्ही कुरबाना।।5।। कंचन मेर सुमेर रे, आये सब माही। कामधेनु कल्पबृक्ष रे, सो दान कराहीं।।6।। सुर नर मुनिजन सेवहीं, सनकादिक ध्यावैं। शेष सहंस मुख रटत हैं, जाका पार न पावैं।।7।। ब्रह्मा बिष्णु महेश रे, देवा दरबारी। संख कल्प युग हो गये, जाकी खुल्है न तारी।।8।। सर्ब कला सम्पूर्णां रे, सब पीरन का पीरा। अनन्त लोक में गाज है, जाका नाम कबीरा।।9।। प्रलय संख्य असंख्य रे, पल मांहि बिहानी। गरीब दास निज नाम की, महिमा हम जानी।।10।।17।।
सुमिरन का अंग
वाणी नं. 1-2:-
गरीब, ऐसा अबिगत राम है, आदि अंत नहिं कोइ। वार पार कीमत नहीं, अचल हिरंबर सोइ।।1।।
गरीब, ऐसा अबिगत राम है, अगम अगोचर नूर। सुंन सनेही आदि है, सकल लोक भरपूर।।2।।
संत गरीबदास जी ने जिसको अविगत राम (परम दिव्य पुरूष) कहा है। वह कबीर परमेश्वर काशी शहर में जुलाहे की भूमिका किया करता था।
गरीब, सब पदवी के मूल हैं, सकल सिद्धि हैं तीर। दास गरीब सतपुरूष भजो, अविगत कला कबीर।।
गरीब, अनन्त कोटि ब्रह्मंड का, एक रति नहीं भार। सतगुरू पुरूष कबीर हैं, कुल के सिरजनहार।।
गरीब, हम सुल्तानी नानक तारे, दादू कूं उपदेश दिया। जाति जुलाहा भेद ना पाया, काशी मांहे कबीर हुआ।।
सरलार्थ:– संत गरीबदास जी ने इस अविगत राम का निज नाम पूर्ण सतगुरू से लेकर सुमरन (स्मरण) करने के लिए जोर देकर कहा है। उसकी महिमा बताई है। उसकी भक्ति से लाभ तथा अन्य देव की भक्ति से लाभ तथा फिर दोनों की तुलना करके निर्णय दिया है कि ‘‘राम कबीर का नाम जप भईया, जे तेरा पार चलने को दिल है जी।’’
कबीर परमेश्वर ऐसा अविगत राम है जिसका न आदि (जन्म-शुरूआत) है, न अंत है यानि मृत्यु है अर्थात् सनातन अविनाशी परमात्मा है। उसका कोई वार-पार यानि भेद नहीं, वह अनमोल, अचल (स्थाई) हिरंबर (स्वर्ण की तरह सुनहरी रंग यानि तेजोमय) है। जैसे एक ‘‘पारस’’ पत्थर है। उसके छोटे से टुकड़े को एक क्विंटल के लोहे के गाटर (स्तम्भ) से छू दिया जाए तो पूरे स्तम्भ को सोना (gold) बना देता है। यदि सौ क्विंटल के लोहे के स्तम्भ से छू दे तो उसको भी स्वर्ण बना देता है। यदि हजार-लाख क्विंटल के लोहे से घिसा दे तो उसे भी स्वर्ण बना देता है। इसी प्रकार उस पारस पत्थर के टुकड़े का मूल्य क्या बताया जाए? उसे अनमोल कहते हैं।
क्या आकाश फेर (अंत) है, क्या धरती का तोल। क्या परमेश्वर की महिमा कहें, जैसे क्या पारस का मोल।।
इस प्रकार कबीर परमेश्वर अनमोल यानि बेकीमत करतार है। (1)
वह परमात्मा सुन्न में आकाश में रहता है। वहीं से सब लोकों को अपनी शक्ति से भरपूर (परिपूर्ण) किए हैं। जैसे सूर्य करोड़ों कि.मी. धरती से दूर आकाश में होते हुए भी पूरी पृथ्वी को अपने प्रकाश तथा ऊष्णता से परिपूर्ण कर रहा है। अगोचर नूर का अर्थ है अव्यक्त प्रकाशयुक्त जो सामान्य साधना तथा चर्मदृष्टि से दिखाई नहीं देता। (2)
वाणी नं. 3 से 7:-
गरीब, ऐसा अबिगत राम है, गुन इन्द्रिय सै न्यार। सुंन सनेही रमि रह्या, दिल अंदर दीदार।।3।।
गरीब, ऐसा अबिगत राम है, अपरम पार अल्लाह। कादर कूं कुरबान है, वार पार नहिं थाह।।4।।
गरीब, ऐसा अबिगत राम है, कादर आप करीम। मीरा मालिक मेहरबान, रमता राम रहीम।।5।।
गरीब, अलह अबिगत राम है, बेच गूंन चित्त माहिं। शब्द अतीत अगाध है, निरगुन सरगुन नाहिं।।6।।
गरीब, अलह अबिगत राम है, पूर्णपद निरबान। मौले मालिक है सही, महल मढी सत थान।।7।।
वाणी नं. 3 से 7 का सरलार्थ:-
{शब्दार्थ:- कादर माने समर्थ, दीदार माने दर्शन, करीम माने दयालु, थाह माने अंत, (मीर) मीरा माने लाठ साहब यानि नवाब, बेचगून माने अव्यक्त जिसको तत्त्वज्ञान के अभाव से निराकार अर्थ कर रहे हैं। सत् थान माने सत्य स्थान यानि सत्य लोक। पूर्ण पद निरबान माने पूर्ण मोक्ष प्राप्त करने की पद्यति। अल्लाह, मौला, मालिक माने प्रभु।}
सरलार्थ: कबीर जी ऐसे अविगत राम हैं जो तीनों गुणों तथा भौतिक शरीर की इन्द्रियों से न्यारे हैं। उनका शरीर तथा सामथ्र्य सबसे भिन्न और अधिक है। उसका कोई अन्त नहीं है। वह बेचगून यानि अव्यक्त है। जैसे सूर्य के सामने बादल छा जाते हैं, उस समय सूर्य अव्यक्त होता है। उसी प्रकार परमात्मा और आत्मा के मध्य पाप कर्मों के बादल अड़े हैं। जिस कारण से परमेश्वर विद्यमान होते हुए भी अव्यक्त है, दिखाई नहीं देता।
गरीब, जैसे सूरज के आगे बदरा, ऐसे कर्म छया रे। प्रेम की पवन करे चित मंजन, झलकै तेज नया रे।।
भावार्थ:– सत्य साधना शास्त्रोक्त विधि से करने से परमात्मा के प्रति प्रेम उत्पन्न होता है। सुमरन (स्मरण-जाप) करते समय या परमेश्वर की महिमा सुनने तथा परमात्मा का विचार आने पर प्रभु प्रेम में आँसू बहने लगते हैं जो पाप कर्म नाश होने का प्रतीक होता है जैसे तेज वायु चलने से बादल तितर-बितर हो जाते हैं, सूर्य का प्रकाश स्पष्ट नया ताजा दिखाई देने लगता है। इसी प्रकार नाम जाप से उत्पन्न प्रेम की आँधी से आत्मा तथा परमात्मा के सामने से पाप कर्म रूपी बादल तितर-बितर हो जाते हैं। फिर परमेश्वर जी दिव्य दृष्टि से दिखाई देते हैं। उनका नूर (प्रकाश) पहले अगोचर था। फिर दिव्य दृष्टिगोचर हुआ। उसी परमेश्वर की भक्ति से पूर्ण निर्बाण (पूर्ण मोक्ष) प्राप्त होता है। वह (मौला) परमात्मा सत्धाम (सत्यलोक) में रहता है।
सुमिरन के अंग की वाणी नं. 8 से 12:-
गरीब, अलह अबिगत राम है, निराधारों आधार। नाम निरंतर लीजिये, रोम रोम की लार।।8।।
गरीब, अलह अबिगत राम है, निरबानी निरबंध। नाम निरंतर लीजिये, ध्यान चकोरा चंद।।9।।
गरीब, अलह अबिगत राम है, कीमत कही न जाइ। नाम निरंतर लीजिये, मुख से कह न सुनाइ।।10।।
गरीब, अलह अबिगत राम है, निरबानी निरबंध। नाम निरंतर लीजिये, ज्यूं हिल मिल मीन समंद।।11।।
गरीब, दोऊ दीन मधि एक है, अलह अलेख पिछान। नाम निरंतर लीजिये, भगति हेत उर आन।।12।।
वाणी नं. 8 से 12 का सरलार्थ:-
उस अविगत राम कबीर के निज नाम (वास्तविक नाम) का जाप-स्मरण निरंतर करो। जिनका कोई आधार नहीं, उनका आश्रय वही परमात्मा है। वह परमात्मा निरबानि यानि पूर्ण मोक्षदायक है, निरबन्ध यानि स्वतन्त्र है। उनके ऊपर किसी की हुकूमत (सत्ता) नहीं चलती। वह कुल का मालिक है। उसका नाम इस प्रकार सुमरण करो जैसे मीन (मछली) समुद्र में एक पल भी निश्चल नहीं रहती। उसी प्रकार नाम का स्मरण करते रहो। परमेश्वर के नाम से ध्यान ऐसे लगाओ जैसे चकोर पक्षी चाँद से लगाता है। संत धर्मदास जी ने कहा है कि:-
निर्विकार निर्भय तू ही, और सकल भयमान। सब पर तेरी साहेबी (सत्ता), तुझ पर साहब ना।।
दोनों धर्मों (हिन्दु-मुसलमान) का परमात्मा एक ही है। तत्त्वज्ञान के अभाव से मुसलमान कहते हंै कि जिसने ’’कुर्रान शरीफ’’ का ज्ञान हजरत मुहम्मद जी से कहा, वह कादर अल्लाह (समर्थ प्रभु) है। हिन्दू कहते हैं कि जिसने ’’गीता’’ का ज्ञान अर्जुन को दिया, वह श्री कृष्ण ही सर्वशक्तिमान प्रभु है। संत गरीब दास कह रहे हैं कि मुसलमान उसे बेचून अल्लाह कहते हैं, हिन्दू अलख (निराकार अलेख का अर्थ अदृश्य भी होता है जो दिखाई नहीं देता) कहते हो, उसकी पहचान करो। वह कौन है, फिर उसके पश्चात् परमात्मा का विशेष नाम की (भक्ति हेत) भक्ति हृदय में श्रद्धा उत्पन्न करके करो।
वाणी संख्या 13 से 16:-
गरीब, अष्ट कमल दल राम है, बाहिर भीतर राम। पिंड ब्रह्मंड में राम है, सकल ठौर सब ठाम।।13।।
गरीब, सकल व्यापी सुंनि में, मन पवना गहि राख। रोम रोम धुन होत है, सतगुरु बोले साख।।14।।
गरीब, मूल कमल में राम है, स्वाद चक्र में राम। नाभि कमल में राम है, हृदय कमल बिश्राम।।15।।
गरीब, कंठ कमल में राम है, त्रिकुटि कमल में राम। संहस कमलदल राम है, सुंनि बसति सब ठाम।।16।।
सरलार्थ:-
मानव शरीर में नौ (9) कमल हैं। जिनका कबीर वाणी (सूक्ष्म वेद) के अतिरिक्त कहीं वर्णन नहीं है। ऋषि-महर्षि केवल सात कमल बताते हैं, परन्तु परमेश्वर कबीर जी ने अपने द्वारा बनाऐ शरीर का यथार्थ ज्ञान कराया है।
वाणी नं. 13 में कहा है कि अष्ट कमल में भी राम है, अष्ट कमल दल में अक्षर पुरूष (परब्रह्म) का प्रसारण केन्द्र है। मानव शरीर एक टैलीविजन (T.V.) की तरह है। इसमें कमल रूपी चैनल लगे हैं। इन कमलों में प्रत्येक प्रभु का प्रसारण केन्द्र है, जैसे मूल कमल गणेश देव का चैनल है, नाभि कमल विष्णु-लक्ष्मी जी का चैनल है, हृदय कमल में शिव-पार्वती जी का चैनल है। कण्ठ कमल में देवी दुर्गा जी का चैनल है। त्रिकुटी कमल सतगुरू रूप में कबीर जी का चैनल है। (काल तो धोखा देने के लिए गुप्त रहता है) त्रिकुटी कमल से पहले छठा संगम कमल है जो मुख्य रूप में सरस्वती का चैनल है जहाँ पर भक्तों तथा भक्तमतियों की परीक्षा होती है। इस कमल की तीन पंखुड़ियाँ हैं। इसलिए इसको संगम कमल कहा जाता है। जब पंखुड़ी नं. 1 तथा नं. 2 में स्त्री-पुरूष भक्त भिन्न प्रवेश करते हैं, वहाँ पर स्त्री-भक्तमतियों को पुरूष रूप में काल के सुन्दर दूत अपनी अदाओं से लुभाते हैं। जिन स्त्रिायों का मन भक्ति के कारण निश्चल हो चुका है, वे उनके जाल को समझ कर अपने गंतव्य की ओर बढ़ जाती हैं। जो कच्ची होती हैं, वे वहीं आड़ पकड़ जाती हैं। उनको दूत वहाँ बने सुन्दर एकान्त स्थान पर ले जाकर उनसे यौन सम्बन्ध बनाकर भ्रष्ट करके काल जाल में फँसाकर सरस्वती रूप में विराजमान दुर्गा देवी के पास ले जाते हैं। वह उस भक्तमती को बहुत प्यार देती है तथा अपने स्थान पर रख लेती है। कुछ दिन उपरांत धर्मराज के दरबार में ले जाकर उसका हिसाब करवाया जाता है। तत्पश्चात् उसके पुण्य तथा भक्ति कर्म अनुसार स्वर्ग में अप्सरा बना दी जाती है। इसी प्रकार पुरूष भक्त पंखुड़ी दो में प्रवेश करते हैं। वहाँ पर 72 करोड़ सुन्दर अप्सराएँ रहती हैं उन पुरूषों को वे अपनी अदाओं से लुभाकर जाल में फंसाती हैं। जो उस जाल को इस ज्ञान से समझ जाता है, वह उनकी ओर देखता तक नहीं, अपने गंतव्य (गंतव्य का अर्थ है उद्देश्य वाले स्थान यानि त्रिकुटी की ओर जाने वाली तीसरी पंखुड़ी वाले मार्ग) की ओर चलते रहते हैं। जो कच्चे भक्त होते हैं। सतसंग में भी इसी तरह टेढ़े देखते रहते हैं, वे भी उन सुन्दर जालिम अप्सराओं की अदाओं से आकर्षित होकर एकान्त स्थान की ओर पेशाब या पानी पीने के बहाने खिसक जाते हैं। आगे वह अप्सरा संकेत करके आगे-आगे चल पड़ती हैं, पीछे-पीछे मजनु भक्त इधर-उधर देखता हुआ अपने को सुरक्षित जानकर उस काल के कूप में गिर कर नष्ट हो जाता है। उसको भी कुछ दिनों उपरान्त उसी अप्सरा के साथ धर्मराज की कोर्ट भेजकर उसका कर्मों का हिसाब (account) करवाकर स्वर्ग में कर्मानुसार देव पद या पारखद पद देकर उसको ठग लिया जाता है।
जो भक्त या भक्तमती परीक्षा पास करके उस तीसरी पंखुड़ी में यानि सत्य मार्ग पर चलकर त्रिकुटी में प्रवेश कर जाते हैं, वे एक परीक्षा से और गुजरते हैं। इस तीसरी पंखुड़ी के मुख्य द्वार को संगम कहते हैं। जैसे भारत देश के उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद शहर के पास गंगा दरिया तथा यमुना दरिया एक हो जाती हैं, तीसरी दरिया सरस्वती नीचे से आकर मिलती बताई गई है। उस स्थान को संगम कहा जाता है। इसी प्रकार यह छठा कमल संगम कमल भी कहा जाता है।
सातवां त्रिकुटी कमल है। इसमें दो पंखुड़ी हैं। एक सफेद तथा दूसरी काली। सफेद स्थान पर परमेश्वर कबीर जी सतगुरू रूप में विराजमान हैं। जैसे मेरे (रामपाल दास) से दीक्षा प्राप्त भक्तों के लिए मेरा रूप बनाकर परमेश्वर मिलते हैं। काल ब्रह्म भी धोखा करने के लिए सतगुरू का रूप बनाता है। जिन भक्तों ने ज्ञान ठीक से समझा होता है, वे सत्यनाम तथा सारनाम का सुमरन करके जाँच करते हैं। सुमरन के पश्चात् भी यदि सतगुरू रूप है तो वास्तविक परमेश्वर है। यदि नकली सतगुरू काल ब्रह्म होगा तो सुमरन से उसका नकली सतगुरू रूप समाप्त हो जाएगा। काल रूप दिखाई देगा। यह घटना केवल उसी भक्त को दिखाई देगी जिनको यह ज्ञान याद है और जिसको ज्ञान याद नहीं रहता, वे वहाँ असफल (fail) हो जाते हैं। काल के पक्ष में पहुँच जाते हैं। जन्म-मरण के चक्र में फँसकर करा-कराया नष्ट करके जन्म-मरण के चक्र में रह जाते हैं।
जो भक्त परीक्षा में सफल हो जाते हैं। उनको परमेश्वर कबीर जी सतगुरू रूप में साथ लेकर धर्मराय की कोर्ट में ले जाते हैं। वकालत करके ब्रह्म काल के स्तर के धार्मिक कर्मों का पुण्य वहाँ जमा कराकर भक्तों को अपने साथ ब्रह्मरन्द्र के सामने त्रिवेणी पर लाते हैं। वहाँ सत्यनाम के ओम् (om) से दूसरे मंत्र का जाप करते हैं। ब्रह्मरन्द्र का किवाड़ तुरंत खुल जाता है। आगे चलकर दो रास्ते हो जाते हैं। बायां रास्ता काल के ब्रह्म लोक में संहस्र कमल में चला जाता है। दायां रास्ता मिनी सतलोक की ओर जाता है।
जो काल ब्रह्म के साधक हैं, उनके लिए संहस्र कमल अष्ट कमल है जिसमें ज्योति निरंजन का निवास है। यह ब्रह्म के पुजारियों का आठवां कमल है। परंतु इस स्थान पर केवल वह जा सकता है जिसको काल ब्रह्म किसी उद्देश्य से बुलाता है या परमेश्वर कबीर जी का भक्त सत्यनाम के स्मरण से ब्रह्मरन्द्र को खोलकर जाता है। जहाँ दो रास्ते ब्रह्मरन्द्र के बाद आते हैं, वहाँ जाते ही ¬ का जाप अपने आप बंद हो जाता है। केवल सत्यनाम के दूसरे मंत्र का जाप चलता रहता है। श्वांस-उश्वांस यानि श्वांस लेते समय और छोड़ते समय यही मंत्र चलेगा। साथ में सारनाम भी दोनों (अंदर-बाहर) श्वांसों में चलेगा।
गरीब, सोहं-सोहं धुन लगे, दर्द बंद दिल मांही। सतगुरू पर्दा खोलही, अगम दीप ले जांही।।
दायीं ओर चलने पर वह अष्ट कमल आएगा जो अक्षर पुरूष वाला चैनल है जिसकी दस पंखुड़ियां हैं। इसके आगे मिनी सतलोक है जो नौंवा कमल है। इसकी असँख्य पंखुड़ियाँ हैं। परम अक्षर पुरूष यानि सत्य पुरूष का चैनल है। इस प्रकार प्रत्येक कमल में राम (प्रभु) हैं। परंतु पूर्ण परमात्मा (सत्य पुरूष) कुल का मालिक होने से प्रत्येक कमल में अपनी अदृश्य शक्ति से विद्यमान रहता है। इस नौंवे कमल का संबंध (connection) हृदय कमल (जो चैथा कमल शिव-पार्वती का है) में भी है। मिनी सतलोक वाला scene (दृश्य) वहाँ भी टी.वी. की तरह एक कोने में चलता रहता है। वहाँ परमेश्वर अन्य रूप में होने से पहचान में नहीं आता। उसे कोई ऋषि जानकर विशेष महत्व नहीं देते। संत गरीबदास जी ने कहा है कि सकल व्यापि यानि सब कमलों तथा सर्व ब्रह्माण्डों में व्यापक परमात्मा सुन्न यानि आकाश में रहता है। उसकी सत्ता सब पर है। वह सकल व्यापी यानि वासुदेव है। (गीता अध्याय 3 श्लोक 15 में सर्वगतम् ब्रह्म का अर्थ सर्वव्यापी ब्रह्म यानि वासुदेव परम अक्षर ब्रह्म है।) हे साधक! तू मन तथा श्वांस को नाम मंत्र पर दृढ़ता से लगाए रख।
वाणी नं. 17 से 21:-
गरीब, अचल अभंगी राम है, गलताना दम लीन। सुरति निरति के अंतरै, बाजे अनहद बीन।।17।।
गरीब, राम कह्या तौ क्या हुआ, उर में नहीं यकीन। चोर मुसैं घर लूटहीं, पांच पचीसौं तीन।।18।।
गरीब, एक राम कहते राम ह्नै, जिनके दिल हैं एक। बाहिर भीतर रमि रह्या, पूर्ण ब्रह्म अलेख।।19।।
गरीब, राम नाम निज सार है, मूल मंत्र मन मांहि। पिंड ब्रह्मंड सें रहित है,जननी जाया नाहिं।।20।।
गरीब, राम रटत नहिं ढील कर,हरदम नाम उचार। अमी महा रस पीजिये,योह तत बारं बार।।21।।
सरलार्थ:– संत गरीबदास जी ने अपनी आँखों देखकर बताया है कि कबीर परमेश्वर ही अचल (स्थाई) अभंगी (कभी नष्ट न होने वाला everlasting) है। नाम का जाप सुरति तथा निरति से यानि ध्यान लगाकर करने से सत्यलोक में होने वाली धुन सुनाई देने लगेगी। यदि पूर्ण विश्वास के साथ राम नाम यानि दीक्षा में प्राप्त मंत्र का जाप नहीं किया तो नाम जपा न जपा के बराबर है। उस साधक पर पाँचों विकार (काम, क्रोध, मोह, लोभ, अहंकार) तथा प्रत्येक की पाँच-पाँच प्रकृति जो कुल पच्चीस हैं तथा तीनों गुण (रज, सत, तम) मिलकर ये चोर आपके जीवन रूपी श्वांस धन को मुस रहे हैं यानि चुरा रहे हैं। (मुसना=चोरी करना) तेरे शरीर रूपी घर को लूट रहे हैं।
जिन साधकों का दिल परमात्मा में रम (लीन हो) गया, वे एक परमात्मा का नाम जाप करके राम हो जाते हैं यानि आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त करके देव के समान पद प्राप्त कर लेते हैं यानि देवताओं जितनी आध्यात्मिक शक्ति वाले हो जाते हैं। परमात्मा शरीर के कमलों में तथा बाहर सब जगह विद्यमान है।
(वाणी नं. 20-21) परमात्मा प्राप्ति के लिए साधना करने में राम नाम यानि गुरू जी से प्राप्त सत्य मंत्र ही निज सार है यानि विशेष महत्व रखता है। वह मूल मंत्र मन में समाया रहै यानि निरंतर जाप करता रहे। वह परमात्मा जिसका जाप मूल मंत्र (सारनाम) है, वह पिण्ड यानि शरीर तथा ब्रह्माण्ड से भिन्न आकाश में बने अमर धाम में रहता है। उसका जन्म किसी माता से नहीं हुआ है।
वाणी नं. 21:- अब उस राम का सुमरन (स्मरण) करने में ढ़ील (देरी) ना कर। प्रत्येक श्वांस (हरदम) से नाम का उच्चारण कर। यह स्मरण रूपी अमृत को पी ले, यह तत्त्व यानि निष्कर्ष है। बार-बार इस नाम के जाप का आनन्द ले। अमी महारस यानि अमर होने का महान मंत्र के जाप रूपी रस (juice) को पी ले।
वाणी नं. 22 से 24:-
गरीब, कोटि गऊ जे दान दे, कोटि जग्य जोनार। कोटि कूप तीरथ खने, मिटे नहीं जम मार।।22।।
गरीब, कोटिक तीरथ ब्रत करी, कोटि गज करी दान। कोटि अश्व बिपरौ दिये, मिटै न खैंचा तान।।23।।
गरीब, पारबती कै उर धर्या, अमर भई क्षण मांहिं। सुकदेव की चैरासी मिटी, निरालंब निज नाम।।24।।
सरलार्थ:- संत गरीबदास जी ने परमेश्वर कबीर जी से प्राप्त आध्यात्म ज्ञान को बताया है कि:-
यदि यथार्थ नाम जाप करने को नहीं मिला तो चाहे पुराणों में वर्णित धार्मिक क्रियाएँ करोड़ों गाय दान करो, करोड़ों (जग्य) धर्म यज्ञ तथा जौनार (जीमनवार = किसी खुशी के अवसर पर भोजन कराना) करो, चाहे करोड़ों कुँए खनों (खुदवाओ), करोड़ों तीर्थों के तालाबों को गहरा कराओ जिससे जम मार (काल की चोट) यानि कर्म का दण्ड समाप्त नहीं होगा। (22)
चाहे करोड़ों तीर्थों का भ्रमण करो, करोड़ों व्रत रखो, करोड़ों गज (हाथी) दान करो, चाहे करोड़ों घोड़े विप्रों (ब्राह्मणों) को दान करो। उससे जन्म-मरण तथा कर्म के दण्ड से होने वाली खेंचातान (दुर्गति) समाप्त नहीं हो सकती। (23)
वाणी नं. 24 का भावार्थ है कि जैसे पार्वती पत्नी शिव शंकर को जितना अमरत्व (वह भगवान शिव जितनी आयु नाम प्राप्ति के बाद जीएगी, फिर दोनों की मृत्यु होगी। इतना मोक्ष) भी देवी जी को शिव जी को गुरू मानकर निज मंत्रों का जाप करने से प्राप्त हुआ है। ऋषि वेद व्यास जी के पुत्र शुकदेव जी को अपनी पूर्व जन्म सिद्धि का अहंकार था। जिस कारण से बिना गुरू धारण किए ऊपर के लोकों में सिद्धि से उड़कर चला जाता था। जब श्री विष्णु जी ने उसे समझाया और स्वर्ग में रहने नहीं दिया, तब उनकी बुद्धि ठिकाने आई। राजा जनक से दीक्षा ली। तब शुकदेव जी की उतनी मुक्ति हुई, जितनी मुक्ति उस नाम से हो सकती थी। परमेश्वर कबीर जी अपने विधान अनुसार राजा जनक को भी त्रोतायुग में मिले थे। उनको केवल हरियं नाम जाप करने को दिया था क्योंकि वे श्री विष्णु जी के भक्त थे। वही मंत्र शुकदेव को प्राप्त हुआ था। जिस कारण से वे श्री विष्णु लोक के स्वर्ग रूपी होटल में आनन्द से निवास कर रहे हैं। वहीं से विमान में बैठकर राजा परीक्षित को भागवत कथा सुनाने आए थे। फिर वहीं लौट गए।
गरीब, ऋषभ देव के आईया, कबि नामें अवतार। नौ योगेश्वर में रमा, जनक विदेही उधार।।
भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी अपने विधान अनुसार {कि परमात्मा ऊपर के लोक में निवास करता है। वहाँ से गति करके आता है, अच्छी आत्माओं को मिलता है। उनको अपनी वाक (वाणी) द्वारा भक्ति करने की प्रेरणा करता है आदि-आदि जो पूर्व में विस्तार से लिख दिया है।} राजा ऋषभ देव (जैन धर्म के प्रथम तीर्थकर) को मिले थे। अपना नाम कविर्देव बताया था। ऋषभ देव जी ने अपने धर्मगुरूओं-ऋषियों से सुन रखा था कि परमात्मा का वास्तविक नाम वेदों में कविः देव (कविर्देव) है। परमात्मा कवि ऋषि नाम से ऋषभ देव को भक्ति की प्रेरणा देकर अंतध्र्यान हो गए थे। नौ नाथों (गोरखनाथ, मच्छन्द्रनाथ, जलन्दरनाथ, चरपटनाथ आदि-आदि) को समझाने के लिए उनको मिले तथा राजा जनक विदेही (विलक्षण शरीर वाले को विदेही कहते हैं) को सत्यज्ञान बताकर उनको सही दिशा दी। राजा जनक से दीक्षा लेकर शुकदेव ऋषि को स्वर्ग प्राप्त हुआ। परंतु वह पूर्ण मोक्ष नहीं मिला जो गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है:-
(तत्त्वदर्शी संत से तत्त्वज्ञान समझने के पश्चात्) आध्यात्म अज्ञान को तत्त्वज्ञान रूपी शस्त्र से काटकर उसके पश्चात् परमेश्वर के उस परम पद की खोज करनी चाहिए जहाँ जाने के पश्चात् साधक लौटकर संसार में कभी नहीं आते। जिस परमेश्वर से संसार रूपी वृक्ष की प्रवृति विस्तार को प्राप्त हुई है यानि जिस परमेश्वर ने संसार की रचना की है, केवल उसी की भक्ति करो।
वाणी नं. 24 में यही स्पष्ट किया है कि यदि स्वर्ग जाने की भी तमन्ना है तो वे भी विशेष (निज) मंत्रों के जाप से ही पूर्ण होगी। परंतु यह इच्छा तत्त्वज्ञान के अभाव से है। जैसे गीता अध्याय 2 श्लोक 46 में बहुत सटीक उदाहरण दिया है कि:- सब ओर से परिपूर्ण जलाशय (बड़ी झील=lake) प्राप्त हो जाने पर छोटे जलाशय में मनुष्य का जितना प्रयोजन रह जाता है। उसी प्रकार तत्त्वज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् विद्वान पुरूष का वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद) में प्रयोजन रह जाता है।
भावार्थ:- तत्त्वज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् अन्य देवताओं से होने वाले क्षणिक लाभ (स्वर्ग व राज्य प्राप्ति) से अधिक सुख समय तथा पूर्ण मोक्ष (गीता अध्याय 15 श्लोक 4 वाला मोक्ष) जो परमेश्वर (परम अक्षर ब्रह्म=गीता अध्याय 8 श्लोक 3, 8, 9, 10, 20 से 22 वाले परमेश्वर) के जाप से होता है, की जानकारी के पश्चात् साधक की जितनी श्रद्धा अन्य देवताओं में रह जाती है यानिः-
कबीर, एकै साधै सब सधै, सब साधें सब जाय। माली सींचे मूल कूँ, फलै फूलै अघाय।।
भावार्थ:– गीता अध्याय 15 श्लोक 1-4 को इस अमृतवाणी में संक्षिप्त कर बताया है किः-
जो ऊपर को मूल (जड़) वाला तथा नीचे को तीनों गुण (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु, तमगुण शिव) रूपी शाखा वाला संसार रूपी वृक्ष है:-
कबीर, अक्षर पुरूष एक पेड़ है, निरंजन वाकी डार। तीनों देवा शाखा हैं, पात रूप संसार।।
जैसे पौधे को मूल की ओर से पृथ्वी में रोपण करके मूल की सिंचाई की जाती है तो उस मूल परमात्मा (परम अक्षर ब्रह्म) की पूजा से पौधे की परवरिश होती है। तब तना, डार, शाखाओं तथा पत्तों का विकास होकर पेड़ बन जाता है। छाया, फल तथा लकड़ी सर्व प्राप्त होती है जिसके लिए पौधा लगाया जाता है। यदि पौधे की शाखाओं को मिट्टी में रोपकर जड़ों को ऊपर करके सिंचाई करेंगे तो भक्ति रूपी पौधा नष्ट हो जाएगा। इसी प्रकार एक मूल (परम अक्षर ब्रह्म) रूप परमेश्वर की पूजा करने से सर्व देव विकसित होकर साधक को बिना माँगे फल देते रहेंगे।(जिसका वर्णन गीता अध्याय 3 श्लोक 10 से 15 में भी है) इस प्रकार ज्ञान होने पर साधक का प्रयोजन उसी प्रकार अन्य देवताओं से रह जाता है जैसे झील की प्राप्ति के पश्चात् छोटे जलाश्य में रह जाता है। छोटे जलाश्य पर आश्रित को ज्ञान होता है कि यदि एक वर्ष बारिश नहीं हुई तो छोटे तालाब का जल समाप्त हो जाएगा। उस पर आश्रित भी संकट में पड़ जाएँगे। झील के विषय में ज्ञान है कि यदि दस वर्ष भी बारिश न हो तो भी जल समाप्त नहीं होता। वह व्यक्ति छोटे जलाश्य को छोड़कर तुरंत बड़े जलाश्य पर आश्रित हो जाता है। भले ही छोटे जलाश्य का जल पीने में झील के जल जैसा ही स्वादिष्ट है, परंतु पर्याप्त व चिर स्थाई नहीं है। इसी प्रकार अन्य देवताओं (रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी तथा तमगुण शिव जी) की भक्ति से मिलने वाले स्वर्ग का सुख बुरा नहीं है, परंतु क्षणिक है, पर्याप्त नहीं है। इन देवताओं तथा इनके अतिरिक्त किसी भी देवी-देवता, पित्तर व भूत पूजा करना गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15, 20 से 23 में मना किया है। इसलिए भी इनकी भक्ति करना शास्त्र विरूद्ध होने से व्यर्थ है जिसका गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में प्रमाण है। कहा है कि शास्त्र विधि को त्यागकर मनमाना आचरण करने वालों को न तो सुख प्राप्त होता है, न सिद्धि प्राप्त होती है और न ही परम गति यानि पूर्ण मोक्ष की प्राप्ति होती है अर्थात् व्यर्थ प्रयत्न है। (गीता अध्याय 16 श्लोक 23)
इससे तेरे लिए अर्जुन! कत्र्तव्य यानि जो भक्ति कर्म करने चाहिऐ और अकत्र्तव्य यानि जो भक्ति कर्म न करने चाहिऐ, उसके लिए शास्त्र ही प्रमाण हैं यानि शास्त्रों को आधार मानकर निर्णय लेकर शास्त्रों में वर्णित साधना करना योग्य है। (गीता अध्याय 16 श्लोक 24)
वाणी नं. 25:-
गरीब, अगम अनाहद भूमि है, जहां नाम का दीप। एक पलक बिछुरै नहीं, रहता नयनों बीच।।25।।
सरलार्थ:– उस परमेश्वर का द्वीप यानि सत्यलोक अगम अनाहद (काल के तथा अक्षर पुरूष के लोकों से आगे वाली) विशाल धरती है। अनहद माने जिसकी हद (सीमा) न हो। सतलोक विसीमित है। वह परमात्मा तत्त्वज्ञान प्राप्त साधक की आँखों का तारा बनकर रहता है। एक पल (क्षण) भी दूर नहीं होता। भक्त को आँखों के सामने कुछ रेखाएँ दिखाई देती हैं। वे परमात्मा की भक्ति का सांकेतिक तोल-माप हैं।