स्वर्ग की परिभाषा क्या है

उदाहरणार्थ स्वर्ग को एक होटल (रेस्टोरेंट) जानों। जैसे कोई धनी व्यक्ति गर्मियों के मौसम में शिमला या कुल्लु मनाली जैसे शहरों में ठण्डे स्थानों पर जाता है। वहाँ किसी होटल में ठहरता है। जिसमें कमरे का किराया तथा खाने का खर्चा अदा करना होता है। दो या तीन महीने में बीस या तीस हजार रूपये खर्च करके वापिस अपने कर्म क्षेत्र में आना होता है। फिर दस महीने मजदूरी मेहनत करो। फिर दो महीने अपनी ही कमाई खर्च कर वापिस आओ। यदि किसी वर्ष कमाई अच्छी नहीं हुई तो उस दो महीने के सुख को भी तरसो।

ठीक इसी प्रकार स्वर्ग जानों:- इस पृथ्वी लोक पर साधना करके कुछ समय स्वर्ग रूपी होटल में चला जाता है। फिर अपनी पुण्य कमाई खर्च करके वापिस नरक तथा चैरासी लाख प्राणियों के शरीर में कष्ट पाप कर्म के आधार पर भोगना पड़ता है।

जब तक तत्वदर्शी संत नहीं मिलेगा तब तक उपरोक्त जन्म-मृत्यु तथा स्वर्ग-नरक व चैरासी लाख योनियों का कष्ट बना ही रहेगा। क्योंकि केवल पूर्ण परमात्मा का सतनाम तथा सारनाम ही पापों को नाश करता है। अन्य प्रभुओं की पूजा से पाप नष्ट नहीं होते। सर्व कर्मों का ज्यों का त्यों (यथावत्) फल ही मिलता है।

इसीलिए गीता अध्याय 8 श्लोक 16 में कहा है कि ब्रह्मलोक (महास्वर्ग) तक सर्वलोक नाशवान हैं। जब स्वर्ग-महास्वर्ग ही नहीं रहेंगे तब साधक का कहां ठीकाना होगा, कृपया विचार करें।

प्रश्न - क्या गीता जी का नित्य पाठ करने का कोई लाभ नहीं ? जो दान करते हैं जैसे कुत्ते को रोटी, भूखे को भोजन, चिटियों को आटा, तीर्थों पर भण्डारा आदि करते हैं, क्या यह भी व्यर्थ है ?

उत्तर - धार्मिक सद्ग्रन्थों के पठन-पाठन से ज्ञान यज्ञ का फल मिलता है। यज्ञ का फल कुछ समय स्वर्ग या जिस उद्देश्य से किया उसका फल मिल जाता है, परन्तु मोक्ष नहीं। नित्य पाठ करने का मुख्य कारण यह होता है कि सद्ग्रन्थों में जो साधना करने का निर्देश है तथा जो न करने का निर्देश है उसकी याद ताजा रहे। कभी कोई गलती न हो जाए। जिस से हम वास्तविक उद्देश्य त्याग कर गफलत करके शास्त्रा विधि त्याग कर मनमाना आचरण (पूजा) न करने लग जाऐं तथा मनुष्य जीवन के मुख्य उद्देश्य की याद बनी रहे कि मनुष्य जीवन का मूल उद्देश्य आत्म कल्याण ही है जो शास्त्रा अनुकूल साधना से ही संभव है।

जैसे एक जमींदार को वृद्धावस्था में पुत्र की प्राप्ति हुई। किसान ने सोचा जब तक बच्चा जवान होगा, अपने खेती-बाड़ी के कार्य को संभालने योग्य होगा, कहीं मेरी मृत्यु न हो जाए। इसलिए किसान ने अपना अनुभव लिख कर छोड़ दिया तथा अपने पुत्र से कहा कि पुत्र जब तू जवान हो, तब अपने खेती-बाड़ी के कार्य को समझने के लिए इस मेरे अनुभव के लेख को प्रतिदिन पढ़ लेना तथा अपनी कृषि करना। पिता जी की मृत्यु के उपरान्त किसान का पुत्र प्रतिदिन पिता जी के द्वारा लिखे अनुभव के लेख को पढ़ता। परन्तु जैसा उसमें लिखा है वैसा कर नहीं रहा है। वह किसान का पुत्र क्या धनी हो सकता है ? कभी नहीं। वैसे ही करना चाहिए जो पिता जी ने अपना अनुभव लेख में लिखा है।

ठीक इसी प्रकार पवित्र गीता जी के पाठ को तो श्रद्धालु नित्य कर रहे हैं परन्तु साधना सद्ग्रन्थ के विपरीत कर रहे हैं। इसलिए गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 के अनुसार व्यर्थ साधना है।

जैसे तीनों गुणों (रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी, तमगुण शिव जी) की पूजा गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15 तथा 20 से 23 में मना है तथा श्राद्ध निकालना अर्थात् पितर पूजा, पिण्ड भरवाना, फूल (अस्थियां) उठा कर गंगा में क्रिया करवाना, तेरहवीं, सतरहवीं, महीना, छःमाही, वर्षी आदि करना गीता अध्याय 9 श्लोक 25 में मना है। व्रत रखना गीता अध्याय 6 श्लोक 16 में मना है। लिखा है कि हे अर्जुन ! योग (भक्ति) न तो बिल्कुल न खाने वाले (व्रत रखने वाले) का सिद्ध होता है, ... अर्थात् व्रत रखना मना है।

भूखों को भोजन देना, कुत्तों आदि जीव-जन्तुओं व पशुओं को आहार कराना आदि बुरा नहीं है, परन्तु पूर्ण संत के माध्यम से उनकी आज्ञा अनुसार दान तथा यज्ञ आदि करना ही पूर्ण लाभदायक है।

जैसे एक कुत्ता कार के अंदर मालिक वाली सीट पर बैठकर यात्रा करता है। कुत्ते का ड्राईवर मनुष्य होता है। उस पशु को आम मनुष्य से भी अधिक सुविधाऐं प्राप्त होती हैं। अलग से कमरा, पंखा तथा कुलर लगा होता है आदि-आदि।

जब वह नादान प्राणी मनुष्य शरीर में था, दान भी किया परन्तु मनमाना आचरण (पूजा) के माध्यम से किया जो शास्त्रा विधि के विपरीत होने के कारण लाभदायक नहीं हुआ। प्रभु का विधान है कि जैसा भी कर्म प्राणी करेगा उसका फल अवश्य मिलेगा। यह विधान तब तक लागू है जब तक तत्वदर्शी संत पूर्ण परमात्मा का मार्ग दर्शक नहीं मिलता।

जैसा कर्म प्राणी करता है वैसा ही फल प्राप्त होता है। इस विद्यान के अनुसार वह तीर्थों तथा धामों पर या अन्य स्थानों पर भण्डारे द्वारा तथा कुत्ते आदि को रोटी डालने के कर्म के आधार पर कुत्ते की योनी में चला गया। वहाँ पर भी किया कर्म मिला। कुत्ते के जीवन में अपनी पूर्व जन्म की शुभ कर्म की कमाई को समाप्त करके गधे की योनी में चला जाएगा। उस गधे के जीवन में सर्व सुविधाऐं छीन ली जायेंगी। सारा दिन मिट्टी, कच्ची-पक्की ईंटे ढोएगा। तत्पश्चात् अन्य प्राणियों के शरीर में कष्ट उठाएगा तथा नरक भी भोगना पड़ेगा। चैरासी लाख योनियों का कष्ट भोग कर फिर मनुष्य शरीर प्राप्त करता है। फिर क्या जाने भक्ति बने या न बने। जैसे धाम तथा तीर्थ पर जाने वाले के पैरों नीचे या जिस सवारी द्वारा जाता है उसके पहियों के नीचे जितने भी जीव जंतु मरते हैं उनका पाप भी तीर्थ व धाम यात्री को भोगना पड़ता है। जब तक पूर्ण संत जो पूर्ण परमात्मा की सत साधना बताने वाला नहीं मिले तब तक पाप नाश (क्षमा) नहीं हो सकते, क्योंकि ब्रह्मा, विष्णु, महेश, ब्रह्म (क्षर पुरुष/काल) तथा परब्रह्म (अक्षर पुरुष) की साधना से पाप नाश (क्षमा) नहीं होते, पाप तथा पुण्य दोनों का फल भोगना पड़ता है। यदि वह प्राणी गीता ज्ञान अनुसार पूर्ण संत की शरण प्राप्त करके पूर्ण परमात्मा की साधना करता तो या तो सतलोक चला जाता या दोबारा मनुष्य शरीर प्राप्त करता। पूर्व पुण्यों के आधार से फिर कोई संत मिल जाता है। वह प्राणी फिर शुभ कर्म करके पार हो जाता है।

इसलिए उपरोक्त मनमाना आचरण लाभदायक नहीं है।

प्रश्न - गीता अध्याय 3 श्लोक 35 तथा अध्याय 18 श्लोक 47 में कहा है कि अच्छी प्रकार आचरण में लाये हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में मरना भी कल्याण कारक है, दूसरे का धर्म भय को देने वाला है। इससे सिद्ध होता है कि जो भी जैसी पूजा करता है उसे त्यागना नहीं चाहिए। अपने धर्म में मरना भी कल्याण कारक है।

उत्तर - यदि गीता अध्याय 3 श्लोक 35 तथा अध्याय 18 श्लोक 47 का अर्थ यही है कि जो जैसी पूजा करता है करता रहे, उसे मत त्यागो तो पवित्र श्रीमद् भगवद् गीता जी के ज्ञान की क्या आवश्यकता थी ? एक श्लोक बहुत था। श्री गीता जी के इन श्लोकों का भावार्थ सही है, परन्तु अनुवाद कर्ताओं ने विपरीतार्थ किया है। कृपया निम्न पढ़ें उपरोक्त दोनों श्लोकों का वास्तविक अर्थ -

अध्याय 3 का श्लोक 35

श्रेयान्, स्वधर्मः, विगुणः, परधर्मात्, स्वनुष्ठितात्,
स्वधर्मे, निधनम्, श्रेयः, परधर्मः, भयावहः।।

अनुवाद: (विगुणः) गुणरहित अर्थात् शास्त्रा विधि त्याग कर (स्वनुष्ठितात्) स्वयं मनमाना अच्छी प्रकार आचरणमें लाये हुए (परधर्मात्) दूसरोंकी धार्मिक पूजासे (स्वधर्मः) अपनी शास्त्रा विधि अनुसार पूजा (श्रेयान्) अति उत्तम है। शास्त्रानुकूल (स्वधर्मे) अपनी पूजा में तो (निधनम्) मरना भी (श्रेयः) कल्याणकारक है और (परधर्मः) दूसरेकी पूजा (भयावहः) भयको देनेवाली है।

अध्याय 18 का श्लोक 47

श्रेयान्, स्वधर्मः, विगुणः, परधर्मात्, स्वनुष्ठितात्,
स्वभावनियतम्, कर्म, कुर्वन्, न, आप्नोति, किल्बिषम्।।

अनुवाद: (विगुणः) गुण रहित (स्वनुष्ठितात्) स्वयं मनमाना अर्थात् शास्त्रा विधि रहित अच्छी प्रकार आचरण किए हुए (परधर्मात्) दूसरेके धर्म अर्थात् धार्मिक पूजा से (स्वधर्मः) अपना धर्म अर्थात् शास्त्रा विधि अनुसार धार्मिक पूजा (श्रेयान्) श्रेष्ठ है (स्वभावनियतम्) स्वयं ही अपने स्वभाव अनुसार बनाए मनमाने आचरण से (कर्म) भक्ति कर्म (न) मत (कुर्वन्) करो (किल्बिषम्) जिससे पापको (आप्नोति) प्राप्त होता है।

विशेष: इसी का प्रमाण गीता अ. 17 के श्लोक 1 से 6 में स्पष्ट है।

उपरोक्त श्लोकों में स्पष्ट है कि अपनी शास्त्रा विधि अनुसार साधना श्रेष्ठ है चाहे दूसरों की चमक-धमक वाली साधना कितनी ही सुनियोजित लगे, वह हानिकारक होती है।

जैसे माता का जागरण करने वाले बहुत सुरीली आवाज में गाना गाकर माता की स्तुति मन घडंत कविताओं द्वारा पूरे साज-बाज के साथ करते हैं। उस (स्वनुष्ठितात्) स्वयं निर्मित शास्त्रा विधि रहित साधना पर आकर्षित होकर अपनी शास्त्रा अनुकूल साधना नहीं त्यागनी चाहिए। जैसे कोई साधक सत साधना पर लगता है तो वह पूर्व की शास्त्रा विरुद्ध पुजाओं को त्याग देता है, जैसे पितर पूजा, मन्दिर आदि में जाना आदि। तब अन्य शास्त्रा विधि विरुद्ध साधना करने वाले कहते हैं कि आपने सर्व पूर्व पूजाऐं त्याग दी हैं। आप से सर्व देव रुष्ट हो जायेंगे। एक व्यक्ति ने ऐसा ही किया था, उसका इकलौता पुत्र मर गया। इस तरह यह दूसरों की शास्त्रा विरूद्ध साधना भय पैदा करती हैं, परन्तु अपनी शास्त्रा अनुकूल साधना को अन्तिम स्वांस तक करते रहना ही कल्याणकारक है।

प्रश्न - मैं गीता अध्याय 6 श्लोक 10 से 15 में वर्णित विधि अनुसार एक आसन पर बैठकर सिर आदि अंगों को सम करके ध्यान करता हूँ, एकादशी का व्रत भी रखता हूँ इस प्रकार शान्ति को प्राप्त हो जाऊँगा।

उत्तर - कृप्या आप गीता अध्याय 6 श्लोक 16 को भी पढ़े जिसमें लिखा है कि हे अर्जुन यह योग (साधना) न तो अधिक खाने वाले का, न बिल्कुल न खाने (व्रत रखने) वाले का सिद्ध होता है। न अधिक जागने वाले का न अधिक श्यन करने (सोने) वाले का सिद्ध होता है न ही एक स्थान पर बैठकर साधना करने वाले का सिद्ध होता है। गीता अध्याय 6 श्लोक 10 से 15 तक वर्णित विधि का खण्डन गीता अध्याय 3 का श्लोक 5 से 9 में किया है कि जो मूर्ख व्यक्ति समस्त कर्म इन्द्रियों को हठपूर्वक रोक कर अर्थात् एक स्थान पर बैठकर चिन्तन करता है वह पाखण्डी कहलाता है। इसलिए कर्मयोगी (कार्य करते-2 साधना करने वाला साधक) ही श्रेष्ठ है। वास्तविक भक्ति विधि के लिए गीता ज्ञान दाता प्रभु (ब्रह्म) किसी तत्वदर्शी की खोज करने को कहता है (गीता अध्याय 4 श्लोक 34) इस से सिद्ध है गीता ज्ञान दाता (ब्रह्म) द्वारा बताई गई भक्ति विधि पूर्ण नहीं है। इसलिए गीता अध्याय 6 श्लोक 10 से 15 तक ब्रह्म (क्षर पुरुष-काल) द्वारा अपनी साधना का वर्णन है तथा अपनी साधना से होने वाली शान्ति को अति घटिया (अनुत्तमाम्) गीता अध्याय 7 श्लोक 18 में कहा है। उपरोक्त अध्याय 6 श्लोक 10 से 15 में कहा हैकि मन और इन्द्रियों को वश में रखने वाला साधक एक विशेष आसन तैयार करे। जो न अधिक ऊंचा हो, न अधिक नीचा। उस आसन पर बैठ कर चित तथा इन्द्रियों को वश में रखकर मन को एकाग्र करके अभ्यास करे। सीधा बैठकर ब्रह्मचर्य का पालन करता हुआ मन को रोक कर प्रयाण होवे। इस प्रकार साधना में लगा साधक मुझमें रहने वाली (निर्वाणपरमाम्) अति बेजान अर्थात् बिल्कुल मरी हुई (नाम मात्र) शान्ति को प्राप्त होता है। इसीलिए गीता अध्याय 7 श्लोक 18 में अपनी साधना से होने वाली गति (लाभ) को अति घटिया (अनुत्तमाम्) कहा है। इसी गीता अध्याय 18 श्लोक 62 तथा अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है कि हे अर्जुन ! तू परम शान्ति तथा सतलोक को प्राप्त होगा, फिर पुनर् जन्म नहीं होता, पूर्ण मोक्ष प्राप्त हो जाता है। मैं (गीता ज्ञान दाता प्रभु) भी उसी आदि नारायण पुरुष परमेश्वर की शरण हूँ, इसलिए दृढ़ निश्चय करके उसी की साधना व पूजा करनी चाहिए।

अपनी साधना के अटकल युक्त ज्ञान के आधार पर बताए मार्ग को अध्याय 6 श्लोक 47 में भी स्वयं (युक्ततमः मतः) अर्थात् अज्ञान अंधकार वाले विचार कहा है। अन्य अनुवाद कर्ताओं ने ‘मे य ुक्ततमः मतः‘ का अर्थ ‘परम श्रेष्ठ मान्य है‘ किया है, जबकि करना था कि यह मेरा अटकल लगाया अज्ञान अंधकार के आधार पर दिया मत है। क्योंकि यथार्थ ज्ञान के विषय में किसी तत्वदर्शी सन्त से जानने को कहा है (गीता अध्याय 4 श्लोक 34 मंे) वास्तविक अनुवाद गीता अध्याय 6 श्लोक 47 का -

अध्याय 6 का श्लोक 47

योगिनाम्, अपि, सर्वेषाम्, मद्गतेन, अन्तरात्मना,
श्रद्धावान्, भजते, यः, माम्, सः, मे, युक्ततमः, मतः।।

अनुवाद: मेरे द्वारा दिए भक्ति विचार जो अटकल लगाया हुआ उपरोक्त श्लोक 10 से 15 में वर्णित पूजा विधि जो मैंने अनुमान सा बताया है, पूर्ण ज्ञान नहीं है, क्योंकि (सर्वेषाम्) सर्व (योगिनाम्) साधकों में (यः) जो (श्रद्धावान्) पूर्ण आस्था से (अन्तरात्मना) सच्ची लगन से (मद्गतेन्) मेरे द्वारा दिए भक्ति मत के अनुसार (माम्) मुझे (भजते) भजता है (सः) वह (अपि) भी (युक्ततमः) अज्ञा अंधकार से जन्म-मरण स्वर्ग-नरक वाली साधना में ही लीन है। यह (मे) मेरा (मतः) विचार है।

इसी का प्रमाण पवित्र गीता अध्याय 7 श्लोक 18 में तथा गीता अध्याय 5 श्लोक 29 तथा गीता अध्याय 6 श्लोक 15 में स्पष्ट है। इसीलिए गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में कहा है कि हे भारत, तू सर्व भाव से उस परमात्मा की शरण में जा, उसकी कृपा से ही तू परमशान्ति को तथा सनातन परम धाम अर्थात् सतलोक को प्राप्त होगा। गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है कि जब तुझे गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में वर्णित तत्वदर्शी संत मिल जाए उसके पश्चात उस परमपद परमेश्वर को भली भाँति खोजना चाहिए, जिसमें गए हुए साधक फिर लौट कर इस संसार में नहीं आते अर्थात् जन्म-मृत्यु से सदा के लिए मुक्त हो जाते हैं। जिस परमेश्वर ने संसार रूपी वृक्ष की रचना की है, मैं भी उसी आदि पुरुष परमेश्वर की शरण में हूँ। उसी की भक्ति करनी चाहिए।

गीता अध्याय 3 श्लोक 5 से 9 में भी गीता अध्याय 6 श्लोक 10 से 15 के ज्ञान को गलत सिद्ध किया है। अर्जुन ने पूछा प्रभु मन को रोकना बहुत कठिन है। भगवान ने उत्तर दिया अर्जुन मन को रोकना तो वायु को रोकने के समान है। फिर यह भी कहा है कि निःसंदेह कोई भी व्यक्ति किसी भी समय क्षण मात्र भी कर्म किए बिना नहीं रहता। जो महामूर्ख मनुष्य समस्त कर्म इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन से कुछ न कुछ सोचता रहता है। इसलिए एक स्थान पर हठयोग करके न बैठ कर सांसारिक कार्य करते-करते (कर्मयोग) साधना करना ही श्रेष्ठ है। कर्म न करने अर्थात् हठ योग से एक स्थान पर बैठ कर साधना करने की अपेक्षा कर्म करते-करते साधना श्रेष्ठ है। एक स्थान पर बैठ कर साधना (अकर्मणा) करने से तेरा जीवन निर्वाह कैसे होगा ? शास्त्रा विधि त्याग कर साधना (हठयोग एक आसन पर बैठकर) करने से कर्म बन्धन का कारण है, दूसरा जो शास्त्रा अनुकूल कर्म करते-करते साधना करना ही श्रेष्ठ है। इसलिए सांसारिक कार्य करता हुआ साधना कर। गीता अध्याय 8 श्लोक 7 में कहा है कि युद्ध भी कर, मेरा स्मरण भी कर, इस प्रकार मुझे ही प्राप्त होगा। गीता अध्याय 7 श्लोक 18 में तथा अध्याय 18 श्लोक 62 में कहा है कि परन्तु मेरी साधना से होने वाली (गति) लाभ अति घटिया (अनुत्तमाम्) है। इसलिए उस परमेश्वर की शरण में जा जिसकी कृपा से तू परमशान्ति तथा (शाश्वतम् स्थानम्) सतलोक को प्राप्त होगा। उस परमेश्वर की भक्ति विधि तथा पूर्ण ज्ञान (तत्वज्ञान) किसी तत्वदर्शी संत की खोज करके उससे पूछ, मैं (गीता ज्ञान दाता ब्रह्म/क्षर पुरुष) भी नहीं जानता। प्रश्न - गीता अध्याय 15 श्लोक 18 में कहा है कि मैं लोक में, वेद में पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध हूँ। इस से तो यही सिद्ध हुआ कि गीता ज्ञान दाता प्रभु ही सर्व शक्ति मान है तथा गीता अध्याय 12 पूर्ण ही गीता ज्ञान दाता की ही महिमा कह रहा है। उत्तर - गीता जी में गीता ज्ञान दाता प्रभु अपनी साधना तथा समर्थता भी कह रहा है तथा साथ-साथ उस पूर्ण परमात्मा की महिमा भी कह रहा है तथा उस परमेश्वर की साधना के लिए तत्वदर्शी संत की ओर संकेत भी कर रहा है। गीता अध्याय 12 पूरा ब्रह्म (क्षर पुरुष - काल) की महिमा से परिपूर्ण है तथा गीता अध्याय 13 सारा उस पूर्ण परमात्मा अर्थात् आदि पुरुष परमेश्वर की महिमा से परिपूर्ण है। गीता अध्याय 15 श्लोक 1 से 4 तथा 16 से 17 में पूर्ण परमात्मा तथा परब्रह्म, ब्रह्म आदि का निर्णायक ज्ञान है।

गीता अध्याय 15 श्लोक 16 में कहा है कि पृथ्वी तत्व से निर्मित लोक (ब्रह्म के इक्कीस ब्रह्मण्ड तथा परब्रह्म के सात संख ब्रह्मण्ड पृथ्वी तत्व से बने होने के कारण एक लोक भी कहा जाता है) में दो प्रभु है। एक क्षर पुरुष अर्थात् ब्रह्म, दूसरा अक्षर पुरुष अर्थात् परब्रह्म। इन दोनों प्रभुओं के अन्तर्गत जितने भी प्राणी हैं उनका तथा इन दोनों प्रभुओं के स्थूल शरीर तो नाशवान हैं तथा जीवात्मा अविनाशी कही गई है।

गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में कहा है कि वास्तव में पुरुषोत्तम अर्थात् सर्व शक्तिमान परमेश्वर तो उपरोक्त दोनों से अन्य ही है, जो परमात्मा कहा जाता है। जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है। वह वास्तव में अविनाशी परमेश्वर कहा जाता है।

गीता अध्याय 15 के ही श्लोक 18 में गीता ज्ञान दाता (क्षर पुरुष - ब्रह्म) अपनी स्थिति बताते हुए कह रहा है कि मुझे तो लोकवेद (दंत कथा) के आधार से पुरुषोत्तम कहते हैं, क्योंकि मैं अपने इक्कीस ब्रह्मण्डों में जितने भी प्राणी मेरे आधीन हैं, वे चाहे स्थूल शरीर में नाशवान है, चाहे आत्मा रूप में अविनाशी हैं, मैं उनसे उत्तम (श्रेष्ठ) हूँ। इसलिए मैं लोकवेद के आधार से पुरुषोत्तम प्रसिद्ध हूँ। वास्तव में पुरुषोत्तम तो कोई और ही परमेश्वर है जो गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में कहा है।

प्रश्न - गीता अध्याय 10 श्लोक 2 में तथा 3 में कहा है कि मेरी उत्पत्ति को कोई नहीं जानता। जो मुझे अनादि अजन्मा तत्व से जानता है वह सर्व पापों से मुक्त हो जाता है। इससे स्पष्ट है कि ब्रह्म का जन्म नहीं है तथा सर्व पाप नष्ट कर देता है।

उत्तर - गीता अध्याय 10 श्लोक 2 को पुनर् पढ़ें जिसमें कहा है कि मेरी उत्पत्ति को न देवता (ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव आदि) तथा न महर्षि जानते हैं क्योंकि वे सर्व मुझ से उत्पन्न हुए हैं।

इस श्लोक से स्वतः सिद्ध है कि गीता ज्ञान दाता प्रभु की उत्पत्ति अर्थात् जन्म तो हुआ है परन्तु काल (ब्रह्म) से उत्पन्न देवता तथा ऋषिजन नहीं जानते, क्योंकि वे काल से उत्पन्न हुए हैं। जैसे पिता के जन्म के विषय में बच्चे नहीं जानते, परन्तु पिता का पिता अर्थात् दादा जी ही बताता है। पूर्ण परमात्मा ने स्वयं काल लोक में प्रकट होकर ब्रह्म की उत्पत्ति के विषय में बताया है। कृपया पढ़ें सृष्टि रचना इसी पुस्तक ‘‘ज्ञान गंगा’‘ के पृष्ठ 22-74 तक।

गीता अध्याय 10 श्लोक 3 का अनुवाद गलत किया है। जैसे गीता अध्याय 2 श्लोक 12 तथा अध्याय 4 श्लोक 5 में अपने आप को नाशवान तथा जन्म-मृत्यु को बार-बार प्राप्त होने वाला कहा है तथा अध्याय 2 श्लोक 17 तथा अध्याय 8 श्लोक 3, 8 से 10 तथा 20 व अध्याय 15 श्लोक 4, 16-17 में किसी अन्य अविनाशी अनादि परमात्मा के विषय में कहा है।

इसलिए गीता अध्याय 10 श्लोक 3 में कहा है कि जो मनुष्यों में विद्वान अर्थात् तत्वदर्शी संत मुझे तथा उस अनादि, वास्तव में जन्म रहित, सर्व लोकों के महेश्वर अर्थात् परमेश्वर को तत्व से जानता है वह तत्वदर्शी संत सत ज्ञान उच्चारण करता है, जिससे सत साधना करके पाप से मुक्त हो जाता है। इसी का प्रमाण गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में भी है।

कृपया पढ़ें गीता अध्याय 10 श्लोक 3 का यथार्थ अनुवाद -

अध्याय 10 का श्लोक 2

न, मे, विदुः, सुरगणाः, प्रभवम्, न, महर्षयः,
अहम्, आदिः, हि, देवानाम्, महर्षीणाम्, च, सर्वशः।।

अनुवाद: (मे) मेरी (प्रभवम्) उत्पतिको (न) न (सुरगणाः) देवतालोग जानते हैं और (न) न (महर्षयः) महर्षिजन ही (विदुः) जानते हैं, (हि) क्योंकि (अहम्) मैं (सर्वशः) सब प्रकारसे (देवानाम्) देवताओंका (च) और (महर्षीणाम्) महर्षियोंका भी (आदिः) आदि अर्थात् उत्पत्ति का कारण हूँ।

अध्याय 10 का श्लोक 3

यः, माम्, अजम्, अनादिम्, च, वेत्ति, लोकमहेश्वरम्,
असम्मूढः, सः, मत्र्येषु, सर्वपापैः,प्रमुच्यते।।

अनुवाद: (यः) जो विद्वान व्यक्ति (माम्) मुझको (च) तथा (अनादिम्) सदा रहने वाले अर्थात् पुरातन (अजम्) जन्म न लेने वाले (लोक महेश्वरम्) सर्व लोकों के महान ईश्वर अर्थात् सर्वोंच्च परमेश्वर को (वेत्ति) जानता है (सः) वह (मत्र्येषु) शास्त्रों को सही जानने वाला अर्थात् वेदों के अनुसार ज्ञान रखने वाला (असम्मूढः) अर्थात् तत्वदर्शी विद्वान् (सर्वपापैः) सम्पूर्ण पापोंको (प्रमुच्यते) विस्तृत वर्णन के साथ कहता है अर्थात् वही सृष्टि ज्ञान व कर्मों का सही वर्णन करता है अर्थात् अज्ञान से पूर्ण रूप से मुक्त कर देता है। जिस कारण तत्वदर्शी सन्त द्वारा बताई वास्तविक साधना के आधार पर भक्ति करने वाले के सर्व पाप नष्ट हो जाते हैं।

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