शास्त्र विरूद्ध साधना की प्रेरणा भी काल ब्रह्म करता है
जैसे लिंग (शिवलिंग) को लिंगी में प्रवेश पत्थर की मूर्ति की पूजा काल ब्रह्म ने प्रारम्भ करवाई। इसी प्रकार शास्त्रविधि से भी भ्रमित यही करता है। प्रमाण:- श्री विष्णु पुराण तृतीय अंश अध्याय 17 श्लोक 1-44 तथा अध्याय 18 श्लोक 1-36 में।
काल जाल का अन्य प्रमाण:-
श्री विष्णु पुराण के तृतीय अंश के अध्याय 17 श्लोक 1 से 44 तथा अध्याय 18 श्लोक 1 से 36 में पृष्ठ 125 से 221 पर लिखा है कि देवता तथा दैत्य दोनों ही वैदिक धर्म अनुसार साधना करते थे। एक समय दोनों का सौ दिव्य वर्ष तक युद्ध हुआ। देवता पराजित हो गए। देवताओं ने क्षीर समुद्र के उत्तरीय तट पर जाकर तपस्या की और भगवान विष्णु की आराधना के लिए इस स्तव का गान किया। देवगण बोले- हम लोग लोक नाथ भगवान विष्णु की आराधना के लिए जिस वाणी का उच्चारण करते हैं, उससे वे आद्य-पुरूष श्री विष्णु भगवान प्रसन्न हों।(अध्याय 17/मन्त्रा 11) उस ब्रह्मस्वरूप को जो निराकार है। उस ब्रह्मस्वरूप को नमस्कार है। हे पुरूषोतम्! आप का जो क्रूरता ओर माया से युक्त घोर तमोमय रूप हैं, उस राक्षस स्वरूप को नमस्कार है।(20) जो कल्पान्त में समस्त भूतों अर्थात प्राणियों का भक्षण कर जाता है, आपके उस काल स्वरूप को नमस्कार है।(25) जो प्रलय काल में देवता आदि समस्त प्राणियों का भक्षण करके नृत्य करता है, आपके उस रूद्रस्वरूप को नमस्कार है।(26) विष्णु पुराण तृतीय अंश अध्याय 17 के श्लोक 11 से 34 तक स्त्रोत के समाप्त हो जाने पर देवताओं ने श्री हरि को हाथ में शंख चक्र, गदा लिए गरूड़ पर आरूढ़ समुख विराजमान देखा।(35) देवताओं की प्रार्थना सुनकर भगवान विष्णु ने अपने शरीर से (वचन शक्ति से) एक मायामोह को उत्पन्न किया तथा कहा कि वह माया मोह दैत्यों को वेद मार्ग की साधना से हटा कर मनमुखी साधना पर आरूढ़ कर देगा। जिस कारण से दैत्य भक्तिहीन हो जाऐंगें तब, तुम देवता उन्हें मार डालना। ऐसा ही हुआ, माया मोह ने सर्व दैत्यों (राक्षसों) को वैदिक मार्ग से विचलित करके मनमुखी साधना पर आरूढ़ कर दिया। कुछ पश्चात् देवता तपस्या करके (बैट्री चार्ज करके) दैत्यों के साथ युद्ध करने के लिए उपस्थित हुए। दैत्यों ने तपस्या करनी त्याग दी थी जिससे उनमें सिद्धि शक्ति नहीं रही। (उनकी बैट्री चार्ज नहीं हुई) इस कारण से देवताओं ने दैत्यों को मार डाला।
उपरोक्त विष्णु पुराण के उल्लेख का निष्कर्ष:-
काल ब्रह्म ने सर्व प्राणियों (देवताओं, ऋषियों, ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव तथा अन्य प्राणियों) को भ्रमित किया हुआ है। यह स्वयं ही अपने तीनों पुत्रों (ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव) का रूप धारण कर लेता है। उपरोक्त स्तोत्र में देवताओं ने श्री विष्णु की स्तुती करनी चाही है, कर रहे हैं काल ब्रह्म की। वह काल ब्रह्म ही विष्णु रूप धारण करके गरूड़ पर बैठ कर आश्वासन दे गया। अपने वचन से एक व्यक्ति उत्पन्न कर के माया मोह नाम रख कर राक्षसों के पास भेज दिया। जो दैत्यगण तपस्या अर्थात् हठयोग करते थे, उससे सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती थी। माया मोह ने वह साधना भी छुड़वा दी जिससे असुर गण सिद्धियों से रहित हो गए। देवता गण भी पहले दैत्यों से युद्ध करने के कारण सिद्धियाँ समाप्त कर चुके थे तथा हारकर जान बचाकर चले गए थे। फिर तपस्या की तथा सिद्धियाँ प्राप्त करके असुरों से युद्ध किया तथा विजय पाई। जब देवतागण राक्षसों से हारे थे, उस समय दैत्य भी वही साधना (तपस्या अर्थात् हठ योग) करते थे जो देवता करते थे। इससे सिद्ध हुआ कि भक्ति करने से भी देवता, दैत्यों से रद्दी (पिछड़े हुए) थे क्योंकि राक्षस वही साधना करके देवताओं पर विजय पाए थे जो देवतागण करते थे। वास्तव में शास्त्रविधि अनुसार साधना न देवता करते थे न दैत्य। केवल काल द्वारा बताई गई तपस्या (जो ब्रह्मा को जन्म के समय आकाशवाणी द्वारा काल ब्रह्म द्वारा कमल के फूल पर बताई थी, उस तपस्या) अर्थात् हठ योग को दोनों करते थे। दोनों ही सिद्धियाँ प्राप्त करते थे। जैसे शराब को देवता पीऐ चाहे दैत्य, दोनों को ही सरूर होगा। सिद्धियाँ प्राप्त होने पर प्राणी को अभिमान का नशा हो जाता है। फिर आपस में एक-दूसरे पर सिद्धियों का प्रयोग करके स्वयं के जीवन को नष्ट कर जाते हैं। यह सर्व काल ब्रह्म द्वारा फैलाया भयंकर जाल है जिसे तत्वज्ञान से ही समझा जा सकता है तथा इस जाल से निकला जा सकता है।
वर्तमान में कुछ पंथ हैं जो न तो देशी घी की ज्योति लगाने देते हैं, न गीता, वेद या स्वसम वेद वाणी का पाठ करने को बताते हैं, न वास्तविक नाम जाप को देते हैं। कहते हैं सन्त कुछ नाम जाप करने को दे दे, वही मोक्षदायक है। अढ़ाई घण्टे सुबह तथा कम से कम अढ़ाई घण्टे शाम को हठयोग करने को कहते हैं। यह मोक्ष मार्ग नहीं है। ये सन्त काल ब्रह्म द्वारा माया मोह की तरह भेजे गए हैं जिन्होंने वह साधना भी छुड़ा दी जिससे स्वर्ग तक जाने की भक्ति तो बनती थी। जैसे प्रतिदिन गीता, वेद या स्वसम वेद (कबीर वाणी या कबीर जी से परिचित सन्तों की वाणी) वाणी के पाठ से ज्ञान यज्ञ का फल मिलता है तथा देशी घी की ज्योति से हवन यज्ञ का फल मिलता है। दण्डवत् प्रणाम से प्रणाम यज्ञ का फल मिलता है। वे नकली पंथ सुना-सुनाया सतलोक-सतलोक तो कहते हैं परन्तु सतलोक में सतपुरूष निराकार बताते हैं। वहाँ प्रकाश ही प्रकाश है, आनन्द ही आनन्द है। आत्मा भी उस प्रकाश में ऐसे समा जाती है जैसे समुन्द्र में बूंद समा जाती है। ऐसा व्यर्थ ज्ञान अनुयाईयों को बता कर कहते हैं चलो सतलोक में, वहाँ आनन्द ही आनन्द है। विचार करें किसी लड़की को कोई मूर्ख कहे तेरी सगाई अमूक गाँव में कर दी है। वहाँ तेरा पति निराकार है। तेरे पति के घर में प्रकाश ही प्रकाश है, पति साकार नहीं है, वहाँ विवाह करवाकर जा, लड़की वहाँ आनन्द ही आनन्द है। उस मूर्ख से पूछे कि यदि पति ही साकार नहीं है तो उस कन्या का क्या उत्साह होगा विवाह करने व बिना पति वाले घर जाने का? कोई उमंग नहीं हो सकती।
ठीक इसी प्रकार जो गुरू जन सतपुरूष अर्थात् परमात्मा को निराकार कहते हैं तथा कहते हैं कि केवल प्रभु का प्रकाश ही देखा जा सकता है। वे भ्रमित कर रहे हैं। उनको कोई ज्ञान नहीं है। उनको परमात्मा प्राप्ति भी नहीं हुई है। उनसे कोई पूछे कि तुम कहते हो कि सतपुरूष (अविनाशी परमेश्वर) का केवल प्रकाश देखा जा सकता है क्योंकि सतपुरूष (सच्चा परमेश्वर) तो निराकार है। जैसे कोई अन्धा कहे कि सूर्य तो निराकार है, उसका केवल प्रकाश ही देखा जा सकता है। सूर्य बिना प्रकाश किसका देखा? जब सूर्य निराकार है तो प्रकाश काहे का? इसी प्रकार जो ज्ञान नेत्रहीन सन्त, ऋषि, महर्षि परमात्मा को निराकार कहते हैं तथा परमात्मा को सूर्य तुल्य प्रकाशमान कहते हैं तथा परमात्मा का प्रकाश देखा कहते हैं, वे सनीपात के ज्वर के रोगी की तरह बरड़ा रहे हैं, उन्हें यही नहीं पता कि वे क्या बोल रहे हैं। वे सर्व काल ब्रह्म के द्वारा भेजे गए मोहमाया जैसे भ्रमित करने वाले दूत हैं जिन्होंने भोली आत्माओं को उल्टा पाठ पढ़ाकर दिशाभ्रष्ट कर दिया है।