वासुदेव की परिभाषा
गीता अध्याय 3 श्लोक 14.15 में कहा है कि सम्पूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं। अधिक जानकारी पृष्ठ 215.216 पर है, वहाँ से पढे़। यहाँ पर केवल इस विषय को लेते हैं।
फिर कहा है कि ब्रह्म अर्थात् क्षर पुरूष की उत्पत्ति अविनाशी परमात्मा से हुई है जिसके विषय में गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में कहा है। इससे सिद्ध है कि “सर्वगतम् ब्रह्म” = सर्वव्यापी परम अक्षर ब्रह्म अर्थात् वासुदेव सदा ही यज्ञों में प्रतिष्ठित है।
विचार करें:- सर्वगतम् ब्रह्म का अर्थ है सर्वव्यापी परम अक्षर परमात्मा। (गीता अध्याय 3 श्लोक 15)
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श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी तथा श्री शिव जी तीनों देवता एक ब्रह्माण्ड में बने तीनों लोकों (स्वर्ग लोक, पृथ्वी लोक, पाताल लोक) में केवल एक-एक विभाग अर्थात् गुण के प्रधान हैं। ये सर्वगतम् ब्रह्म अर्थात् सर्वव्यापी परमात्मा = वासुदेव नहीं हैं।
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ब्रह्म अर्थात् क्षर पुरूष:- यह केवल 21 ब्रह्माण्डों का प्रभु है। यह भी सर्वव्यापी अर्थात् वासुदेव नहीं है।
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अक्षर पुरूष:- यह केवल 7 शंख ब्रह्माण्डों का प्रभु है, यह भी सर्वव्यापी अर्थात् वासुदेव नहीं है।
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परम अक्षर ब्रह्म:- यह सर्व ब्रह्माण्डों का स्वामी है, सर्व का धारण-पोषण करने वाला है, यह वासुदेव है।
विशेष:- अधिक जानकारी के लिए पढ़ें इसी पुस्तक के “सृष्टि रचना” अध्याय में।
जैसा कि आप जी को पूर्व में बताया है कि परम अक्षर ब्रह्म स्वयं पृथ्वी पर प्रकट होकर अच्छी आत्माओं को मिलते हैं। उनको तत्वज्ञान बताते हैं। इसी विधानानुसार वही परमात्मा सन्त गरीबदास जी को (गाँव = छुड़ानी, जिला-झज्जर, प्रांत-हरियाणा) सन् 1727 में मिले थे। एक जिन्दा महात्मा की वेशभूषा में थे। गरीब दास जी की आत्मा को उस सनातन परम धाम में ले गए थे। फिर ऊपर के सर्व ब्रह्माण्डों तथा प्रभुओं की स्थिति बताकर तत्वज्ञान से परीचित कराकर वापिस शरीर में छोड़ा था। उस समय सन्त गरीब दास जी की आयु 10 वर्ष थी। उस दिन सन्त गरीबदास जी को मृत जानकर चिता पर रखकर अन्तिम संस्कार की तैयारी कर रहे थे। उसी समय उनकी आत्मा को शरीर में प्रवेश करा दिया। जीवित होने पर सर्व कुल के लोगों की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। उसके पश्चात् सन्त गरीबदास जी ने एक अनमोल ग्रन्थ की रचना की। उसमें आँखों देखा तथा स्वयं परमात्मा द्वारा बताए ज्ञान को बताया जो एक गोपाल दास नामक दादू पंथी साधु ने लिखा था। जो वर्तमान में प्रिंट करा रखा है।
पंजाब प्रान्त में लुधियाना शहर के पास एक वासीयर गाँव है। उसमें एक प्रभु प्रेमी व्यक्ति रामराय उर्फ झूमकरा रहता था। उसने सन्त गरीब दास जी की महिमा सुनी तो दर्शनार्थ गाँव छुड़ानी में चला आया। सन्त गरीबदास जी ने यह ज्ञान सुनाया जो इस दास (संत रामपाल दास) को सन्त गरीब दास से प्राप्त हुआ है जो आप जी को इस पुस्तक तथा अन्य पुस्तकों के द्वारा सुनाया है। उस रामराय ने प्रश्न किया कि हे महात्मा जी! यह ज्ञान तो आज तक किसी ने नहीं बताया। सन्त गरीब दास जी ने वाणी के द्वारा बताया।
कोट्यों मध्य कोई नहीं राई झूमकरा, अरबों में कोई गरक सुनो राई झूमकरा।। अनुवाद व भावार्थ:- सन्त गरीबदास जी ने बताया कि यह ज्ञान करोड़ों में किसी के पास नहीं मिलेगा, अरबों में किसी एक के पास मिलेगा। वह संत सर्व ज्ञान सम्पन्न सम्पूर्ण साधना के मन्त्रों से गरक अर्थात् परिपूर्ण होता है। प्रिय पाठको! वह संत वर्तमान में बरवाला जिला-हिसार वाला है। ज्ञान समझो और लाभ उठाओ।
प्रश्न:- प्राचीन काल से चली आ रही भक्ति की साधना को आप गलत कैसे कह सकते हो? जैसे तप सर्व ऋषिजन किया करते थे, हम सर्व हिन्दू समाज में देख रहे हैं - सब हरे कृष्णा, हरे राम, राधे-राधे श्याम मिला दे, ओम नमः शिवाय, ओम नमो भगवते वासुदेवायः नमः, जय सियाराम, राधे श्याम, ओम तत् सत्, में से कोई एक मन्त्र का जाप करते आ रहे हैं। वर्तमान में भी कर रहे हैं। श्री रामचन्द्र जी, श्री कृष्ण जी को हम पूर्ण परमात्मा मानते हैं, इसलिए इनके नाम जपते हैं। आप इन नाम जाप मन्त्रों को व्यर्थ जाप बताते हैं, स्पष्टीकरण दें।
उत्तर:- प्राचीन काल में यदि यह साधना होती और ये मन्त्र होते तो श्री मद्भगवत गीता अध्याय 4 श्लोक 1.2 में गीता ज्ञान दाता ये नहीं कहते कि यह योग अर्थात् जो भक्ति विधि मैं गीता ज्ञान में बता रहा हूँ, यह अब लुप्त प्रायः हो गया है, नष्ट हो गया है। यह ज्ञान तथा भक्ति मैंने सूर्यदेव से कही था, फिर मनु को सूर्य ने, मनु ने अपने पुत्र इक्ष्वाकु को कहा, फिर कुछ राज ऋषियों ने जाना। अब बहुत समय से अर्थात् द्वापर से बहुत समय पहले से ही लुप्त था तथा मनु, इक्ष्वाकु आदि-आदि सर्व सत्ययुग के प्रथम चरण में हुए थे। यदि आप श्री रामचन्द्र जी पुत्र राजा दशरथ तथा श्री कृष्ण चन्द्र पुत्र श्री वासुदेव को पूर्ण परमात्मा मानते हैं। इसलिए इनके नाम हरे राम, हरे कृष्ण, आदि-आदि जाप करते हैं और इन्हीं से मोक्ष मानते हैं तो श्रीमद्भगवत गीता मे वर्णित यथार्थ प्राचीन योग अर्थात् भक्ति की विधि के विपरीत होने से व्यर्थ हैं। शास्त्रविधि त्यागकर मनमाना आचरण हुआ। जिस कारण से उपरोक्त प्रश्न में लिखे अन्य मन्त्र भी शास्त्र प्रमाणित नहीं हैं, इसलिए व्यर्थ हैं। गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में कहा है कि जो पुरूष शास्त्रविधि को त्यागकर मनमाना आचरण करते हैं। उनको न तो सुख प्राप्त होता है, न सिद्धि प्राप्त होती है, न उनकी गति होती है अर्थात् व्यर्थ साधना है। (गीता अध्याय 16 श्लोक 23)
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गीता अध्याय 16 श्लोक 24 में कहा है कि इससे तेरे लिए अर्जुन, कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण हैं। भावार्थ है कि जो भक्ति की विधि प्रमाणित शास्त्रों में (चारों वेदों = ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद तथा इन्हीं चारों वेदों का सारांश श्री मद्भगवत गीता तथा सूक्ष्मवेद = जो परमात्मा स्वयं ने अपने मुख से बोला था। ये भक्ति के ज्ञान तथा समाधान के प्रमाणित शास्त्र हैं) वर्णित नहीं है, वह शास्त्रविरूद्ध साधना है। इसलिए भक्ति के कौन-से कर्म करने चाहिए और कौन-से नहीं करने चाहिए, उनके लिए शास्त्रों को ही आधार मानों। शास्त्रों में वर्णित भक्ति विधि को अपनाओ और सब त्याग दो।
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श्री राम जी का जन्म त्रेतायुग के अन्तिम चरण में हुआ था। श्री कृष्ण जी का जन्म द्वापरयुग के अन्तिम चरण में हुआ था। सत्ययुग से ही मानव भक्ति करता आ रहा है। उस समय कौन राम थे? आप कहोगे कि श्री विष्णु जी तो सत्ययुग से भी पहले के हैं और श्री राम, श्री कृष्ण भी स्वयं श्री विष्णु जी ही थे। सत्ययुग में भी प्रमाण है कि महर्षि बाल्मिकी जी राम-राम नाम जपते थे, वे विष्णु-विष्णु नहीं जपते थे। इससे सिद्ध हुआ कि श्री विष्णु जी, श्री राम, श्री कृष्ण जी से भिन्न कोई “राम” अर्थात् “मालिक” है। उस राम का जाप करना चाहिए जो गीता अध्याय 7 श्लोक 29 में है। जिसके विषय में कहा है कि “तत् ब्रह्म” को जानने वाले केवल जरा अर्थात् वृद्ध अवस्था तथा मृत्यु से छुटकारा पाने के लिए ही भक्ति करते हैं। अर्जुन ने गीता अध्याय 8 श्लोक 1 में प्रश्न किया कि वह “तत् ब्रह्म” क्या है?
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गीता ज्ञान दाता ने गीता अध्याय 8 श्लोक 3 में उत्तर दिया कि वह “परम अक्षर ब्रह्म“ है। गीता अध्याय 8 के ही श्लोक 5, 7 में गीता दान दाता ने अपनी भक्ति करने को कहा है जिसका जाप मन्त्र गीता अध्याय 8 के ही श्लोक 13 में बताया है। (ओम् इति एकाक्षरम् ब्रह्म व्याहरन् माम् अनुस्मरन्.......)
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गीता अध्याय 8 के ही श्लोक 8, 9, 10 में गीता ज्ञान दाता ने अपने से अन्य उस तत् ब्रह्म अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म की भक्ति करने को कहा है। उसकी भक्ति का नाम जाप मन्त्र गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में बताया हैः-
ऊँ तत् सत् इति निर्देशः ब्रह्मणः त्रिविधः स्मृृतः।
ब्राह्मणाः तेन वेदाः च यज्ञाः च विहिताः पुरा।।
सरलार्थ:- ब्रह्मणः = सच्चिदानन्द घन ब्रह्म अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म की भक्ति का ॐ, तत्, सत् मन्त्र के स्मरण का (निर्देशः) आदेश है। जो (त्रिविधः) तीन प्रकार से (स्मृतः) स्मरण के लिए कहा है (ब्राह्मणाः) विद्वान् अर्थात् तत्वदर्शी सन्त (तेन) उस (वेदाः) ज्ञान के आधार से भक्ति करते थे (च) और (यज्ञाः) धार्मिक यज्ञों का अनुष्ठान (च) और अन्य भक्ति कर्म (पुरा) सृष्टि की आदि अर्थात् सृष्टि के प्रारम्भ में (विहिता) किए जाते थे।
श्रीमद् भगवत गीता से सिद्ध हुआ कि गीता ज्ञान दाता से अन्य कोई पूर्ण परमात्मा है जो श्री विष्णु जी, श्री ब्रह्मा जी तथा श्री शिव जी से भी भिन्न है। जिसके विषय में गीता अध्याय 15 श्लोक 1, 4, 17 में तथा गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में तथा और अनेकों स्थानों पर गीता में कहा गया है, वह पूर्ण परमात्मा है। गीता अध्याय 15 श्लोक 16 में दो पुरूष बताए हैं। दोनों नाशवान बताए हैं। उनके अन्तर्गत जितने प्राणी हैं, वे भी नाशवान हैं। (1) (क्षर पुरूष है, यह केवल इक्कीस ब्रह्माण्डों का प्रभु है, (2) अक्षर पुरूष यह 7 शंख ब्रह्माण्ड का प्रभु है। ये दोनों ही पूर्ण परमात्मा नहीं हैं। (गीता अध्याय 15 श्लोक 16)
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गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि उत्तमः पुरूषः तूः अन्यः अर्थात पुरूषोतम तो कोई ऊपर वर्णित दोनों पुरूषों (क्षर पुरूष तथा अक्षर पुरूष) से भिन्न है जिसको (परमात्मा इति उदाहृतः) परमात्मा कहा गया है। (यः लोकत्रयम्) जो तीनों लोकों में (आविश्य विभर्ति) प्रवेश करके धारण-पोषण करता है, (अव्ययः ईश्वरः) अविनाशी परमेश्वर है। (गीता अध्याय 15 श्लोक 17)
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पूर्ण परमात्मा परम अक्षर ब्रह्म है सिद्ध हुआ। उसकी भक्ति का मन्त्र ॐ, तत्, सत् है, यह भी सिद्ध हुआ। ॐ, तत्, सत्, जो तीन मन्त्र हैं, ये उपरोक्त तीनों प्रभुओं (ॐ = क्षर पुरूष अर्थात् क्षर ब्रह्म गीता ज्ञान दाता का, तत् = यह सांकेतिक है जो इसी पुस्तक में पूर्व में विवरण है, वहाँ पढ़ें, यह तत् नाम जाप = अक्षर पुरूष का है)सत् = यह भी सांकेतिक है, अधिक विस्तार पूर्व में दिए प्रकरण में इसी पुस्तक में पढ़ें। यह सत् मन्त्र परम अक्षर ब्रह्म) का है। श्री मद्भगवत गीता में ये पूर्ण मोक्ष प्राप्ति के सांकेतिक मन्त्र हैं। जो आज तक (सन् 2012 तक) किसी ने नहीं स्पष्ट किए। आप जी जो हरि ओम, तत् सत् जाप करते हैं, वह भी व्यर्थ है क्योंकि आप जी को तत् तथा सत् के वास्तविक मन्त्रों का ज्ञान नहीं है।
उदाहरण:- एक धनी व्यक्ति ने अपने धन को अपने घर में गढ्ढ़ा खोदकर दबा दिया। उस स्थान का केवल धनी व्यक्ति को ही पता था। उस धनी व्यक्ति ने एक बही (पैड) में सांकेतिक स्थान लिख दिया। धनी व्यक्ति की मृत्यु अचानक हो गई। पिता का संस्कार करके पुत्रों ने वह पैड उठाई जिसमें पिता जी कहता था कि इस बही में धन कहाँ है, यह लिखा है। जिसे पिता जी किसी को नहीं दिखाते थे।
धनी व्यक्ति के मकान के आगे आँगन था, उस आंगन के एक कोने में मन्दिर बना था। बही (पैड) में लिखा था कि चाँदनी चौदस रात्रि 2 बजे सारा धन मन्दिर के गुम्बज में दबा रखा है। लड़कों ने मन्दिर का गुम्बज रात्रि के 2 बजे फोड़कर धन खोजा, कुछ नहीं मिला। बच्चों को बड़ा दुःख हुआ। एक दिन उनके पिता का मित्र दूसरे गाँव से शोक व्यक्त करने आया। बच्चों ने यथास्थान पर धन न मिलने की चिंता जताई। उस धनी के मित्र ने वह बही मँगाई और व्याख्या पढ़ी तो कहा कि मन्दिर के गुम्बज का पुनः निर्माण कराओ। वैसा ही कराना। मैं फिर किसी दिन आऊँगा, तब धन वाला स्थान बताऊँगा। वह व्यक्ति चांदनी चौदस को आया। रात्रि के दो बजे जिस स्थान पर मन्दिर के गुम्बज की चा ँद की रोशनी से छाया थी, उस स्थान पर खुदाई कराई। सारा धन जो बही में लिखा था, वह मिल गया। बच्चे खुश तथा धनी हुए।
आप जी जो हरि ॐ तत् सत् का जाप कर रहे हो। आप मन्दिर का गुम्बज खोद रहे हो, कुछ भी हाथ नहीं आएगा। यथास्थान वास्तविक मन्त्र मेरे (सन्त रामपाल दास के) पास हैं। उनको ग्रहण करके भक्ति धनी तथा सुखी होओ।
प्रश्न:- राधा जी गाँव-बरसाना (उत्तर प्रदेश) नजदीक वृन्दावन की रहने वाली थी। वहाँ के व्यक्ति “राधे-राधे” नाम जपते हैं। सुबह-सुबह या कभी-कभी आपस में मिलते हैं तो वे राम-राम नहीं बुलाते। वे कहते हैं, चाचा राधे-राधे। चाचा कहता है कि बेटा राधे-राधे। क्या वे मूर्ख हैं?
उत्तर:- तत्वज्ञान के अभाव से लोकवेद को सत्य ज्ञान मानकर यह शास्त्रविरूद्ध मन्त्रों का जाप चल रहा है। वैसे तो आप जी को पूर्व में स्पष्ट कर ही दिया है कि गीता अध्याय 16 श्लोक 23.24 में कहा है कि जो शास्त्रविधि को त्यागकर मनमाना आचरण करते हैं अर्थात् जो नाम जाप शास्त्रों में नहीं हैं, उनका जाप करते हैं, उनको न सुख प्राप्त होता है, न सिद्धि प्राप्त होती है, न उनकी गति होती है अर्थात् व्यर्थ जाप साधना है। इससे तेरे लिए अर्जुन कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण हैं। यह पहले बता चुका हूँ। अब बात है कि चाचा-भतीजा राधे-राधे शब्द क्यों उच्चारण करते हैं। आप जानते हैं कि राधा जी कौन थी? राधा भगवान श्री कृष्ण जी की प्रेमिका थी। उस समय बरसाना गाँव के व्यक्ति राधा जी को कुल्टा, बदचलन, निर्लज आदि-आदि विशेषणों से सम्बोधित करते थे। कहते थे यह दूसरे गाँव के नंद बाबा के लड़के से छिप-छिपकर मिलने जाती है, इसे अपने घर पर भी न आने देना। बेटियों पर गलत प्रभाव पडे़गा। श्रीमान् जी! अब उसी बरसाना के व्यक्ति राधा जी के लिए स्वयं (स्त्री-पुरूष, युवतियाँ) कहते हैं कि राधे-राधे श्याम मिला दे, जैसा कि आप जी ने पूर्व के प्रश्न में बताया था कि हम यह नाम भी जाप करते हैं। अब न राधा जी हैं और न श्री कृष्ण जी। अब बड़बड़ा रहे हैं सनिपात के ज्वर के रोगी की तरह राधे-राधे श्याम मिला दे। यही स्थिति अन्य मन्त्रों की हैं जो आपने पूर्व प्रश्न में कहे हैं, उनकी जानो। वे भी शास्त्र प्रमाणित न होने से व्यर्थ हैं।
अब आपके इस प्रश्न का उत्तर बताता हूँ कि चाचा भी कहता है राधे-राधे, भतीजा भी कहता है राधे-राधे। आपको भी पता है कि राधा जी श्री कृष्ण जी की प्रेमिका थी। आपको यह भी पता है कि जब रूकमणी जी को श्री कृष्ण जी भगाकर रथ में बैठाकर लाने लगा तो रूकमणी जी का भाई अपनी बहन को छुड़ाने के लिए घोड़े पर सवार होकर पीछे दौड़ा था। श्री कृष्ण जी ने पहले तो उसे पीटा था। फिर रथ के पीछे बाँधकर घसीटा था। रूकमणी जी भी श्री कृष्ण जी की प्रेमिका थी। उनके बीच में रूकमणी का भाई आया था। उसकी क्या दशा की थी। श्री कृष्ण जी ने रूकमणी की प्रार्थना पर रूकमणी के भाई की जान बख्सी थी। यदि आज भगवान कृष्ण वर्तमान में होते, राधा भी होती और बरसाना वाले चाचा-भतीजा आपस में ये शब्द बोलते कि ’राधे-राधे’ तो क्या श्री कृष्ण जी पसन्द करते? कभी नहीं, चाचा-भतीजा दोनों को रथ से बाँधकर घसीटते। यदि आप किसी की प्रेमिका का नाम लेकर बड़बड़ाओगे तो प्रेमी के ऊपर कैसी गुजरेगी? यदि ताकतवर होगा तो मुँह फोड़ देगा, कमजोर होगा तो रोएगा। उसकी जान को कोसेगा, क्या वह प्रसन्न होगा? नहीं। इसलिए ये नाम जो शास्त्र प्रमाणित नहीं हैं, उनका जाप व्यर्थ है। शास्त्र प्रमाणित नाम मेरे पास हैं। आओ और अपना कल्याण कराओ।
प्रश्न:- आपने प्रश्न (पूर्ण गुरू की क्या पहचान है?) के उत्तर में एक स्थान पर लिखा है कि प्रमाणित हुआ कि ॐ (ओम्) नाम का जाप शास्त्र प्रमाणित है। (काल ब्रह्म की पूजा करनी चाहिए या नहीं?) के उत्तर में बहुत सारे ऋषियों की पूजा को शास्त्रविधि त्यागकर मनमाना आचरण कही है जो ॐ (ओम्) नाम का जाप करते थे।
उत्तर:- वे ऋषि जी ओम् (ॐ) नाम के जाप के साथ हठ करके घोर तप भी करते थे। जिस कारण से उनकी साधना को शास्त्र विरूद्ध कहा है। ओम् (ॐ) नाम का जाप शास्त्र प्रमाणित तो है, परंतु मोक्षदायक नहीं है जिससे अनुत्तम गति (मुक्ति) प्राप्त होती है। इसलिए उन ऋषियों की पूजा विधि शास्त्रविरूद्ध है। वेद तथा गीता में उस पूर्ण परमात्मा की भक्ति करने को कहा है। उसकी भक्ति न करके मनमानी पूजा शास्त्रविरूद्ध है।
प्रश्न:- महर्षि बाल्मिकी जी तो सत्ययुग में हुए थे, वे भी राम-राम जपते थे। क्या यह मन्त्र भी शास्त्र प्रमाणित नहीं हैं?
उत्तर:- पूर्व में बताया है कि गीता अध्याय 4 श्लोक 1-2 में गीता ज्ञान दाता ने बताया है कि यह ज्ञान मैंने सूर्य को सुनाया था। उसने अपने पुत्र मनु जी को सुनाया। फिर कुछेक राजऋषियों को प्राप्त हुआ। सत्ययुग के प्रारम्भ में ही ये सब सूर्य, मनु व राजर्षि हुए हैं। उनके बाद यह ज्ञान नष्ट हो गया था। महर्षि बाल्मिकी जी को सप्त ऋषि मिले थे। उन्होंने तपस्या करके सिद्धियाँ प्राप्त की थी। वही हठयोग करके तप विधि महर्षि बाल्मिकी जी को उन्होंने बता दी। जिस हठ योग तप को महर्षि बाल्मिकी जी ने तन-मन से श्रद्धा से किया। कुछ समय उपरान्त शरीर के ऊपर के भाग (सिर) में से आवाज सुनाई दी थी। वह थी “राम-राम”। उसी शब्द का उच्चारण महर्षि बाल्मिकी जी तपस्या के दौरान करने लगे। सुनने वाले को ऐसा लगता है जैसे ये मरा, मरा बोल रहे हैं, वास्तव में राम-राम का ही उच्चारण करते थे। उनको तपस्या का परिणाम मिला, उनमें सिद्धियाँ प्रवेश हो गईं। उनकी दिव्य दृष्टि खुल गई। जिस कारण से उन्होंने श्री रामचन्द्र जी के जन्म से हजारों वर्ष पूर्व ही रामायण अर्थात् श्री रामचन्द्र जी के जन्म की जीवन की सर्व घटनाऐं लिख दी थी, ग्रन्थ का नाम है “बाल्मिकी रामायण” जो संस्कृत भाषा में लिखी गई थी। राम-राम के जाप से कोई आध्यात्मिक लाभ नहीं होता। परंतु परमात्मा का बोधक शब्द होने से उच्चारण करने से परमात्मा की भूल नहीं पड़ती। इसलिए राम-नाम के उच्चारण का प्रचलन हिन्दू धर्म में प्राचीन समय से है। जैसे स्वामी रामानन्द जी राम-राम शब्द से सम्बोधित करते थे। उसके शिष्य भी एक-दूसरे को राम-राम से सम्बोधित करते थे, परन्तु जाप मन्त्र “¬” था। इसी प्रकार हम कबीर पंथी “सत साहेब” बुलाते हैं। हमारा जाप मन्त्र अन्य है। उसी भक्ति से भगवान तक जाया जाता है। सूक्ष्म वेद में कहा है:-
सतगुरू मिले तो इच्छा मेटै, पद मिल पदै समाना।
चल हंसा उस लोक पठाऊँ, जो अजर अमर अस्थाना।
चार मुक्ति जहाँ चम्पी करती, माया हो रही दासी।
दास गरीब अभय पद परसै, मिलै राम अविनाशी।।