भक्त के 16 गुण (आभूषण)
परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि हे धर्मदास! भवसागर यानि काल लोक से निकलने के लिए भक्ति की शक्ति की आवश्यकता होती है। परमात्मा प्राप्ति के लिए जीव में सोलह (16) लक्षण अनिवार्य हैं। इनको आत्मा के सोलह सिंगार (आभूषण) कहा जाता है।
- ज्ञान 2. विवेक 3. सत्य 4. संतोष 5. प्रेम भाव 6. धीरज 7. निरधोषा (धोखा रहित) 8. दया 9. क्षमा 10. शील 11. निष्कर्मा 12. त्याग 13. बैराग 14. शांति निज धर्मा 15. भक्ति कर निज जीव उबारै 16. मित्र सम सबको चित धारै।
भावार्थ:- परमात्मा प्राप्ति के लिए भक्त में कुछ लक्षण विशेष होने चाहिऐं। ये 16 आभूषण अनिवार्य हैं।
- तत्त्वज्ञान
- विवेक
- सत्य भाषण
- परमात्मा के दिए में संतोष करे और उसको परमेश्वर की इच्छा जाने
- प्रेम भाव से भक्ति करे तथा अन्य से भी मृदु भाषा में बात करे
- धैर्य रखे, सतगुरू ने जो ज्ञान दिया है, उसकी सफलता के लिए हौंसला रखे फल की जल्दी न करे
- किसी के साथ दगा (धोखा) नहीं करे
- दया भाव रखे
- भक्त तथा संत का आभूषण क्षमा भी है। शत्राु को भी क्षमा कर देना चाहिए
- शील स्वभाव होना चाहिए।
- भक्ति को निष्काम भाव से करे, सांसारिक लाभ प्राप्ति के उद्देश्य से नहीं करे
- त्याग की भावना बहुत अनिवार्य है
- बैराग्य होना चाहिए। संसार को असार तथा अपने जीवन को अस्थाई जानकर परमात्मा के प्रति विशेष लगाव होना मोक्ष में अति आवश्यक है
- भक्त का विशेष गुण शांति होती है, यह भी अनिवार्य है
- भक्ति करना यानि भक्ति करके अपने जीव का कल्याण कराऐं
- प्रत्येक व्यक्ति के साथ मित्र के समान व्यवहार करना चाहिए।
ये उपरोक्त गुण होने के पश्चात् सत्यलोक जाया जाएगा। इनके अतिरिक्त गुरू की सेवा, गुरू पद्यति में विश्वास रखे। परमात्मा की भक्ति और संत समागम करना अनिवार्य है।
अनुराग सागर के पृष्ठ 156 तथा पृष्ठ 157 का सारांश:-
इन पृष्ठों पर भी यही ज्ञान है और विषय-विकार त्यागना चाहिए, तब भक्ति सफल होगी।
अनुराग सागर के पृष्ठ 158-159 का सारांश:-
परमेश्वर ने बताया है कि उपदेशी को चाहिए कि 15वें दिन कोई धार्मिक अनुष्ठान यानि पाठ कराना चाहिए। यदि 15 दिन में नहीं करा सकता है तो महीने में अवश्य कराए। निर्धन के लिए कहा है कि यदि कोई रंक हो तो वर्ष में दो बार कराए या वर्ष में एक बार अवश्य कराए। यदि वर्ष में नहीं कराएगा तो वह भक्त साकट (भक्तिभाव हीन) कहलावेगा। एक वर्ष में भी पाठ करवाए तो उसके जीव को मोक्ष में धोखा नहीं।
कबीर नाम श्रद्धा से जपे यानि गर्व के साथ कबीर जी का नाम ले। शर्म नहीं करे कि यह भी कोई परमात्मा का नाम है। ऐसे कहने वालों से डरे नहीं, शर्मावै नहीं और इसके साथ-साथ तेरा (धर्मदास) नाम भी आदर से कहे।
भावार्थ है कि आदरणीय धर्मदास के साथ परमात्मा रहे, उनको सत्यलोक लेकर गए, अपना यथार्थ परिचय दिया। धर्मदास जी ने अपने आँखों देखा, कानों परमेश्वर से सुना आध्यात्मिक ज्ञान कबीर सागर, कबीर बानी, कबीर बीजक, कबीर शब्दावली को लिखकर मानव समाज पर महान उपकार किया है। इसलिए धर्मदास जी की महिमा भी करनी चाहिए।
भक्त को चाहिए कि भक्ति-साधना तथा मर्यादा का पालन अन्तिम श्वांस तक करे। जैसे शूरवीर युद्ध के मैदान में या तो मार देता है या स्वयं वीरगति को प्राप्त हो जाता है। वह पीछे कदम नहीं हटाता। संत तथा भक्त का रणक्षेत्र भक्ति मन्त्र जाप तथा मर्यादा है। जो शिष्य गुरू से विमुख हो जाता है। नाम खण्डित कर देता है तो स्वाभाविक ही वह गुरू में कुछ दोष निकालेगा। जिस कारण से नरक में अग्नि कुण्ड में गिरेगा। यदि गुरू विमुख होकर भक्ति छोड़ देता है तो उसको भी बहुत हानि होती है।
उदाहरणः- जैसे इन्वर्टर को चार्जिंग पर लगा रखा है, वह चार्ज हो रहा है। यदि बीच में चार्जर निकाल लिया जाए तो वह इन्वर्टर जितना चार्ज हो गया था, उतनी देर लाभ देगा। फिर अचानक सर्व सुविधाऐं बंद हो जाएंगी। इसी प्रकार उस शिष्य की दशा जानें। गुरू शरण में रहकर मर्यादा में रहते हुए जितने दिन भक्ति की वह शक्ति आत्मा में जमा हो गई, उतनी आत्मा चार्ज हो गई। जिस दिन गुरू जी से विमुख हो गया, उसी दिन से भक्ति की शक्ति आनी बंद हो जाती है। यदि गुरू विमुख (गुरू से विरोध करके गुरू त्याग देना) होकर भी उसी गुरू द्वारा बताई गई साधना मन्त्र आदि करता है तो कोई लाभ नहीं होता। जैसे बिजली का कनैक्शन कट जाने के पश्चात् पंखे, मोटर, बल्ब के स्विच (बटन) दबाते रहो, न पंखा चलेगा, न बल्ब जलेगा। यही दशा गुरू विमुख साधक की होगी। फिर नरक का भागी होगा। कबीर परमेश्वर जी ने कहा है कि:-
कबीर, मानुष जन्म पाकर खोवै, सतगुरू विमुखा युग-युग रोवै।
कबीर, गुरू विमुख जीव कतहु न बचै। अग्नि कुण्ड में जर-बर नाचै।।
कोटि जन्म विषधर को पावै। विष ज्वाला सही जन्म गमावै।।
बिष्टा (टट्टी) मांही क्रमि जन्म धरई। कोटि जन्म नरक ही परही।।
भावार्थ:- गुरू को त्याग देने वाला जीव बिल्कुल नहीं बचेगा। नरक स्थान पर अग्नि के कुण्डों में जल-बल (उबल-उबल) कर कष्ट पाएगा। वहाँ अग्नि के कष्ट से नाचेगा यानि उछल-उछलकर अग्नि में गिरेगा।
फिर करोड़ों जन्म विषधर (सर्प) की जूनी (शरीर) प्राप्त करेगा। सर्प के अपने अन्दर के विष की गर्मी बहुत परेशान करती है। गर्मी के मौसम में सर्प उस विष की उष्णता से बचने के लिए शीतलता प्राप्त करने के लिए चन्दन वृक्ष के ऊपर लिपटे रहते हैं। फिर वही गुरू विमुख यानि गुरू द्रोही बिष्टा (टट्टी-गुह) में कीड़े का जन्म प्राप्त करता है। इस प्रकार गुरू से दूर गया प्राणी महाकष्ट उठाता है। यदि गुरू नकली है तो उसको त्यागकर पूर्ण गुरू की शरण में चले जाने से कोई पाप नहीं लगता।
कबीर गुरू दयाल तो पुरूष दयाल। जेहि गुरू व्रत छुए नहीं काल।।
भावार्थ:- हे धर्मदास! यदि गुरू शिष्य के प्रति दयाल है यानि गुरू के दिल में शिष्य की अच्छी छवि है, मर्यादा में रहता है तो परमात्मा भी उस भक्त के ऊपर प्रसन्न है। अन्यथा उपरोक्त कष्ट शिष्य को भोगने पड़ेंगे।
पृष्ठ 160 का सारांश:-
इस पृष्ठ पर कुछ गुरू महिमा है तथा कोयल की चाणक्य नीति का ज्ञान है।