भोग लगाने की विधि

।।अथ शब्द।।

मोकूं कहां ढूंढे रे बंदे, मैं तो तेरे पास में।।टेक।।
ना तीरथ में ना मूरत में, ना एकान्त निबास में।
ना मन्दिर में, ना मस्जिद में, ना काशी कैलाश में।।1।।
ना मैं जप में ना मैं तप में, ना व्रत उपवास में।
ना मैं क्रिया करम में रहता, ना मैं योग सन्यास में।।2।।
नहीं प्राण में नहीं पिण्ड में, ना ब्रह्मण्ड आकाश में।
ना मैं त्रिकुटि भंवर गुफा में, सब श्वासनकेश्वास में।।3।।
खोजी होय तुरंत मिल जाउं,एक पल ही की तलाश में।
कहै कबीर सुनो भई साधो, मैं तो हूं बिश्बास में।।4।।
मस्तक लाग रही म्हारे, गुरु चरणन की धूर।।टेक।।
जब यह धूल चढी मस्तक पै, दुविधा होगई दूर।
इड़ा पिंगला ध्यान धरत हैं, सुरती पहुंची दूर।।1।।
यह संसार विघन की घाटी, निकसत बिरला शूर।
प्रेम भक्ति गुरु रामानन्द लाये, करी कबीरा भरपूर।।2।।

।।अथ राग धनासरी।।

तुहीं मेरे बेदं तुहीं मेरे नादं। तुहीं मेरे अंत राम तुहीं मेरे आदं।।1।। तुहीं मेरे तिलकं तुहीं मेरे माला। तुहीं मेरे ठाकुर राम रूप बिशाला।।2।। तुहीं मेरे बागं तुहीं मेरे बेला। तुहीं मेरे पुष्प राम रूप नबेला।।3।। तुहीं मेरे तरबर तुहीं मेरे साखा। तुहीं मेरे बानी राम तुहीं मेरे भाषा।।4।। तुहीं मेरे पूजा तुहीं मेरे पाती। तुहीं मेरे देवल राम मैं तेरा जाती।।5।। तुहीं मेरे पाती तुहीं मेरे पूजा। तुहीं तेरे तीरथ राम और नहीं दूजा।।6।। तुहीं मेरे कलबिरछ और कामधैंना। तुहीं मेरे राजाराम तुहीं मेरे सैंना।।7।। तुहीं मेरे मालिक तुहीं मेरे मोरा। तुहीं मेरे सुलतान राम तुहीं है उजीरा।।8।। तुहीं मेरे मुदरा तुहीं मेरे सेली। तुहीं मेरे मुतंगा राम तुही मेरा बेली।।9।। तुहीं मेरे चीपी तुहीं मेरे फरुवा। मैं तेरा चेला राम तुहीं मेरा गुरुवा।।10।। तुही मेरे कौसति तुहीं मेरे लालं। तुहीं मेरे पारस राम तुहीं मेरे मालं।।11।। तुहीं मेरे हीरा तुहीं मेरे मोती। तुहीं बैरागर राम जगमग जोती।।12।। तुहीं मेरे पौहमी धरनि अकाशा। तुहीं मेरे कूरंभ राम तुहीं है कैलासा।।13।। तुहीं मेरे सूरजि तुहीं मेरे चंदा। तुहीं तारायन राम परमानंदा।।14।। तुहीं मेरे पौंना तुहीं मेरे पांनी। तेरी लीला राम किनहूं न जानी।।15।। तुहीं मेरे कारतगस्वामी गणेशा। तेरा ही ध्यान राम धारौं हमेशा।।16।। तुहीं मेरे लछमी तुहीं मेरे गौरा। तुहीं सावित्री राम ॐ अंग तोरा।।17।। तुहीं मेरे ब्रह्मा शेष महेशा। तुहीं मेरे बिष्णु राम जै जै आदेशा।।18।। तुहीं मेरे इन्द्र तुहीं है कुबेरा। तुहीं मेरे बरुण राम तुहीं धरम धीरा।।19।। तुहीं मेरे सरबंग सकल बियापी। तैंहीं आपनी राम थापनि थापी।।20।। तुहीं मेरे पिण्डा तुहीं मेरे श्वासा। तेरा ही ध्यान राम धरे गरीबदासा।।21।।1।।

।। रूमाल का शब्द।।

द्रोपद सुता कुं दीन्हें लीर, जाके अनन्त बढ़ाये चीर।
रुकमणी कर पकड़ा मुसकाई, अनन्त कहा मोकुं समझाई।
दुशासन कुं द्रोपदी पकरी, मेरी भक्ति सकल में सिखरी।
जो मेरी भक्ति पछौड़ी होई, हमरा नाम ने लेवै कोई।
तन देही से पासा डारि, पहुँचे सुक्ष्म रुप मुरारी।
खैंचत - खैंचत खैंच कसीशा, सिर पर बैठे हैं जगदीशा।
संखों चीर पिताम्बर झीनें, द्रोपदी कारण साहिब कीन्हें।
संखों चीर पिताम्बर डारे, दुशासन से योधा हारे।
द्रुपद सुता कैं चीर बढ़ाऐ, संख असंखों पार न पाये।
नित बुन कपड़ा देते भाई, जाकै नौ लख बालद आई।
अवगत केशो नाम कबीर, तातैं टूटैं जम जंजीर।

।। शब्द।।

अब रस गोरस का सुनौं बियाना। खीर खांड साहिब दरबाना।।
मोहनभोग मानसी पूजा। मेवा मिसरी का है कूजा।।
लड्डू जलेबी लाड कचौरी। खुरमें भोगैं आत्म बौरी।।
दही बडे नुकती प्रसादं। पूरी मांडे आदि अनादं।।
धोवा दाल मुनक्का दाखं। गिरी छुहारे मेवा भाखं।।
निमक नून और घृत कहावैं। दूध दही तो सबमन भावैं।।
शक्कर गुड की होत पंजीरी। मांहि जमायन घालैं पीरी।।
जीरा हींग मिरच होहिं लाला।जब यौह कहिये अजब मसाला।।
छाहि छिकनिया चिन्तामणी। गोरस पिया त्रिभुवन धणी।।
पापड बीनि मसाले सारे। छत्तीसौं बिंजन अधिकारे।।
सहत आम नींबू नौरंगी। बदरी बेरं तूत सिरंगी।।
येता भोग भुगावै कोई। परमात्म कै चढै रसोई।।
दास गरीब अन्न की महिमा, तीन लोक मैं जाका रहमा।।

।। शब्द।।

आज मिलन बधाईयां जी संगते भोग गुरां नूं लग्या।
सुख देना दुःख मेटना - ताजा राखे तन।
सुर तेतीसौं खुश किए - नमस्कार तोहे अन्न।
अन्न जल साहिब रूप है, खुध्या तृषा जाये।
चारों युग प्रवान हैं, आत्म भोग लगाए।
जो अपने सो और के, एकै पीर पिछान।
भुख्या भोजन देत हैं, पहुँचेगें प्रवान।।
लख चौरासी जीव का, भोजन बसै अकाश।
कर्ता बरषै नीर होये, पूरै सब की आश।
देते को हर देत हैं, जहां तहां से आन।
अण देवा मांगत फिरैं, साहिब सुनैं ना कान।
धर्म तो धसकै नहीं, धसकै तीनों लोक।
खैरायत में खैर है, किजै आत्म पोष।
एक यज्ञ है धर्म की, दूजी यज्ञ है ध्यान।
तीजी यज्ञ है हवन की, चौथी यज्ञ प्रणाम।
खुल्या भण्डारा गैब का, बिन चिठ्ठी बिन नाम।
गरीब दास मुक्ता तुलै, धन केसो बलि जांव।।

सतपुरुष रूप बन्दी छोड़ कबीर साहिब व उन्हीं के अवतार बन्दी छोड़ गरीबदास जी महाराज आपका भोग प्रसाद तैयार है। आप अपनी पवित्र रसना से इसे पवित्र तथा स्वीकार कीजिए, बन्दी छोड़। और किसी पाठी द्वारा पाठ्यक्रम में अशुद्धि रही हो या किसी सेवक द्वारा सेवा में कमी रही हो तो हमें तुच्छ बुद्धि जीव मान कर माफ करना।

।। सत साहिब।।

।।शब्द।।

आज लग्या साहिब को भोग, दीन के टुकड़े पानी का।
कोई जग्या पूर्बला भाग,सफल हुआ दिन जिन्दगानी का।टेक।
व्यंजन छतिसों यह नहीं चावैं,जो मिल जावै रुचि रुचि पावैं।
प्रसाद अलूणा ये खा जावैं, भाव ले देंख प्राणी का।1।
सम्मन जी ने भोग लगाया, सिर लड़के का काट कै लाया।
बन्दीछोड़ ने तुरन्त जिवाया, पाया फल संत यजमानि का।2।
जिन भक्तोंके यह भोग लगजाए,उनके तीनों ताप नसाए।
कोटि तीर्थ का फल वो पाए, लाभ यह संतोंकी वाणीका।3।
संतों की वाणी है अनमोल, इसे ना समझ सकैं अनबोल।
साहिब ने भेद दिया सब खोल,अपनी सत्यलोक राजधानी का।4।
बली राजा ने धर्म किया था, हरि ने आ के दान लिया था।
पाताल लोक का राज दिया था,ऊँचा है दर्जा दानीका।5।
धर्म दास ने यज्ञ रचाई, बिन दर्शन नहीं जीऊं गुसाईं।
दर्शन दे कर प्यास बुझाई, भाव लिया देख कुर्बानी का।6।
रह्या क्यों मोह ममता में सोय, जगत में जीवन है दिन दोय।
पता ना आवन होकै ना होय, तेरे इस स्वांस सैलानि का।7।
जीव जो ना सतसंग में आया, भेद ना उसे भजन का पाया।
गरीब दास को भी बावला बताया,
क्या कर ले इस दुनिया स्यानि का।8।
साध संगत से भेद जो पाया,
गुरु रामदेवानन्द जी ने सफल बनाया।
संत रामपाल को राह दिखाया, श्री धाम छुड़ानी का।9।

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