सुल्तान बोध

अध्याय ‘‘सुल्तान बोध‘‘ का सारांश

कबीर सागर में 16वां अध्याय ‘‘सुल्तान बोध‘‘ पृष्ठ 37 (757) पर है।

‘‘सुल्तान‘‘ फारसी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है ‘‘राजा‘‘। एक अब्राहिम अधम नाम का राजा था। उसको ‘‘इब्राहिम अधम सुल्तान‘‘ कहा जाता था। उसके राज्य के व्यक्ति उसको ‘‘सुल्तान‘‘ कहा करते थे। उनका पूरा नाम नहीं लेते थे। जैसे उपायुक्त यानि डिप्टी कमीश्नर कार्यालय के अधिकारी व कर्मचारी आपस में एक-दूसरे को कोई कार्य करने को कहते हैं तो कहते हैं कि साहब ने कहा है। वे बार-बार उपायुक्त साहब या डी.सी. साहब नहीं कहते। उनके लिए साहब शब्द से स्पष्ट हो जाता है, किसका आदेश है? इसी प्रकार अब्राहिम अधम सुल्तान को सुल्तान शब्द से जाना जाने लगा था। पूर्व जन्म के भक्त ही राजपद, अधिकारी पद तथा धनपति बनते हैं। यह जीव जबसे सत्यपुरूष से बिछुड़कर काल ब्रह्म के जाल में फँसा है। उसके कुछ समय उपरांत इसको उस सुख की खोज है जो यह सत्यलोक में छोड़कर आया है। जैसे गाय या भैंस के बच्चे को उसकी माता के स्तनों का दूध पी रहे को हटाकर व्यक्ति अपने हाथ की ऊँगलियों को उसके मुख में डाल देता है। वह बच्चा माता का थन समझकर थनों को छोड़कर कुछ देर ऊँगलियों को चूसता है। दूध वाला स्वाद न आने के कारण कुछ देर में छोड़ देता है। फिर कभी रस्से के सिरे को, कभी माता के कान को मुख में देकर चूसता है, परंतु दूध वाला स्वाद तो दूध से ही मिलता है। यही दशा उन सब प्राणियों की है जो काल जाल में इक्कीस ब्रह्माडों में रह रहे हैं। उस सत्यलोक को प्राप्त करने का प्रयत्न कर रहे हैं, परंतु सत्य साधना न मिलने के कारण जन्म-मरण के चक्र में रह जाते हैं। परमेश्वर कबीर जी स्वयं सत्यपुरूष हैं। सत्यज्ञान सत्यभक्ति परमेश्वर स्वयं ही प्रकट होकर बताते हैं। सत्यपुरूष कबीर जी प्रत्येक युग में भिन्न नामों से प्रकट होते हैं। सत्ययुग में ‘‘सत्य सुकृत‘‘ नाम से, त्रेतायुग में ‘‘मुनीन्द्र‘‘ नाम से, द्वापर युग में ‘‘करूणामय नाम से‘‘, कलयुग में ‘‘कबीर नाम से‘‘ संसार में प्रकट होकर यथार्थ अध्यात्मिक ज्ञान तथा सत्य साधना मंत्रों का ज्ञान कराते हैं। कुछ भक्त परमेश्वर के ज्ञान को सुन-समझकर सत्य साधना करने लगते हैं, परंतु अज्ञानी संत तथा गुरू उनको भ्रमित कर सत्य साधना छुड़ाकर काल साधना पर पुनः दृढ़ कर देते हैं।

संत गरीबदास जी ने बताया कि मुझे परमेश्वर कबीर जी ने बताया कि:-

अनन्त कोटि बाजी तहाँ, रचे सकल ब्रह्मण्ड। गरीबदास मैं क्या करूँ, काल करै जीव खण्ड।।

भावार्थ:- परमात्मा कबीर जी ने बताया कि हे गरीबदास! मैं इतना समर्थ हूँ कि अनन्त जीवों की रचना तथा सब ब्रह्मण्डों की रचना मैंने की है। भोले जीव मुझे ठीक से न पहचानकर मुझे छोड़कर मेरे नाम को खण्ड करके काल के जाल में फँस जाते हैं। अब तुम ही बताओ, मैं क्या करूँ?

फिर कहा है:-

जो जन मेरी शरण है, ताका हूँ मैं दास। गेल-गेल लाग्या फिरूँ, जब तक धरती आकाश।।
गोता मारूँ स्वर्ग में, जा पैठूँ पाताल। गरीबदास खोजत फिरूँ, अपने हीरे मोती लाल।।

भावार्थ:- परमात्मा कबीर जी ने बताया है कि यदि कोई जीव किसी युग में मेरी दीक्षा ले लेता है। यदि वह पार नहीं हो पाता है तो उसको किसी मानुष जन्म में ज्ञान सुनाकर शरण में लूँगा। उसके साथ-साथ रहूँगा। मेरी कोशिश रहती है कि किसी प्रकार यह काल जाल से छूटकर सुखसागर सत्यलोक में जाकर सुखी हो जाए। मेरा प्रयत्न तब तक रहता है जब तक धरती और आकाश नष्ट नहीं होते यानि प्रलय नहीं होती। इसी प्रक्रिया के चलते अब्राहिम अधम सुल्तान की आत्मा पूर्व के कई जन्मों से परमेश्वर कबीर जी की शरण में रही थी। फिर काल ने खण्ड कर दिया। इसके पूर्व के कुछ जन्मों का विवरण इस प्रकार है जो पुराने कबीर सागर में है, वर्तमान वाले कबीर सागर से वह विवरण अज्ञानवश निकाल दिया गया है। कारण यह रहा है कि काल प्रेरणा से 12 पंथों के कबीर पंथी समझ नहीं सके। इसलिए उसको व्यर्थ जानकर ग्रन्थ से निकाल दिया।

सम्मन वाली आत्मा ही सुल्तान इब्राहिम था

जिस समय परमेश्वर कबीर जी काशी में प्रकट थे। उस समय दिल्ली के निवासी सम्मन मनियार, उसकी पत्नी नेकी तथा पुत्र शिव (सेऊ) ने परमेश्वर से दीक्षा ली थी। आर्थिक स्थिति कमजोर थी। परमात्मा के उपदेश का दृढ़ता से पालन करते थे। परमेश्वर पर पूर्ण विश्वास था। दोनों पति-पत्नी स्त्रिायों को चूड़ियाँ पहनाने का कार्य घर-घर जाकर करते थे। साथ में अपने गुरूदेव कबीर जी की महिमा भी किया करते थे। बताया करते थे कि हमारे सतगुरू देव जी ने राजा सिकंदर लोधी का असाध्य रोग आशीर्वाद मात्र से ठीक कर दिया। बादशाह सिकंदर ने स्वामी रामानन्द जी की गर्दन काट दी थी। उसको सतगुरू कबीर जी ने धड़ पर गर्दन जोड़कर जीवित कर दिया। एक कमाल नाम का लड़का मर गया था। उसके कबीले वालों ने अंतिम संस्कार रूप में दरिया में प्रवाह कर दिया था। शेखतकी जो राजा सिकंदर जी का धर्मगुरू है, उसको विश्वास नहीं था कि रामानंद जी की गर्दन काटने के पश्चात् भी कबीर जी ने जीवित कर दिया। वह राजा से कहता था कि कबीर जन्त्र-मन्त्र जानता है और कुछ नहीं है, मुर्दे कभी जिन्दे होते हैं। मेरे सामने कोई मुर्दा जिन्दा करे तो मानूँ। राजा सिकंदर को कबीर जी पर पूर्ण विश्वास था क्योंकि वह तो रोग से महादुःखी था तथा रामानन्द स्वामी जी को अपने हाथों से कत्ल किया था। उसके सामने कबीर जी ने जीवित किया था। उस दिन शेखतकी भी दरिया पर उपस्थित था। मुर्दे को देखकर कहा कि यदि मेरे सामने इस मुर्दे को जीवित कर दे तो मैं कबीर को अल्लाह का नबी मान लूँगा। कबीर जी ने कहा कि हे शेख जी! आप भी बड़े पहुँचे हुए पीर हो, आप कोशिश करो, बाद में कहोगे कि मैं भी कर देता। उपस्थित सर्व मन्त्रिायों और बादशाह ने भी यही कहा कि आप कौन-से छोटी हस्ती हो? कर दो काम। शेखतकी ने शर्म के मारे जन्त्र-मन्त्र किए, परंतु व्यर्थ। कहा कि मुर्दे जिन्दा नहीं हुआ करते। कबीर तो चाहता है कि मुर्दा बहकर दूर चला जाए और इज्जत रह जाए। वह चला गया मुर्दा। कबीर जी ने अपने हाथ का संकेत किया और कहा मुर्दा वापिस आओ। इन्जन वाली नौका के समान बालक का शव वापिस आ गया। कबीर जी ने कहा, हे जीवात्मा! जहाँ भी है, कबीर हुक्म से शव में प्रवेश कर और बाहर आओ। उसी समय वह 12 वर्षीय बालक जीवित होकर दरिया से बाहर आ गया। उपस्थित दर्शकों ने कहा, कबीर जी! कमाल कर दिया। बालक का नाम कमाल रख दिया। परमात्मा कबीर जी ने उस कमाल बालक को अपने घर बच्चे की तरह पाला। शेखतकी शर्म से पानी-पानी हो गया, परंतु माना नहीं। कहने लगा कि बालक को सदमा हुआ था। गलती से मृत मानकर जल प्रवाह कर दिया था। जब जानँू, मेरी बेटी कई दिनों से कब्र में दबा रखी है। वह मृत्यु को प्राप्त हो चुकी है। उसको कबीर जीवित कर दे। परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि दो दिन बाद तेरी बेटी को जीवित कर दूँगा। आसपास के गाँव तथा दिल्ली में मुनादी करा दो कि सब आकर देखें। ऐसा ही किया गया। कब्र तोड़ दी गई। कबीर परमेश्वर जी ने कहा, शेख जी! प्रयत्न करो, कहीं बाद में कहे कि लड़की सदमे में थी। उपस्थित जनता ने कहा कि कबीर जी! यदि शेख में शक्ति होती तो अपनी बेटी को कैसे मरने देता? आप कोशिश करो। कबीर जी ने कहा कि हे शेखतकी की बेटी! जीवित हो जा। लड़की जीवित नहीं हुई। ऐसा दो बार कहा। लड़की जीवित नहीं हुई। शेखतकी को अपनी बेटी के जीवित न होने का दुःख नहीं, कबीर जी की हार की खुशी मनाने लगा और ताली बजाते हुए नाचने लगा। कबीर जी ने कहा, हे जीवात्मा! जहाँ भी हो, कबीर हुक्म से अपने शरीर में प्रवेश कर और कब्र से बाहर आओ। कहने की देरी थी, उसी समय 12 वर्षीय कन्या के शरीर में हलचल हुई और लड़की उठकर बाहर आई और कबीर जी को दण्डवत् प्रणाम किया। परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि हे शेखतकी की बेटी! अपने पिता के साथ घर जाओ। शेखतकी ने भी बेटी का हाथ पकड़ा और घर चलने को कहा। कन्या का नाम कमाली रखा क्योंकि उपस्थित जनता ने कहा, कमाल है, कमाल है। इसलिए कमाली नाम रखा। कमाली ने कहा कि शेखतकी की ओर से तो मैं यमराज के पास जा चुकी थी। अब तो मैं अल्लाह अकबर की बेटी हूँ। यह कबीर स्वयं अल्लाह है। इस प्रकार लड़की ने कबीर परमेश्वर जी के आशीर्वाद से 1) घण्टे तक प्रवचन किए। अपने पूर्व के जन्मों की जानकारी दी कि एक बार मैं राबिया थी। उस समय 12 वर्ष की आयु में कबीर जी मिले थे। मैंने 4 वर्ष इनकी बताई साधना की थी। फिर अपने मुसलमान धर्म वाली साधना करने लगी थी जो व्यर्थ थी। फिर मैं बांसुरी लड़की बनी। मक्के में अपना शरीर भी काटकर अर्पित कर दिया था। अगले जन्म में मैंने वैश्या का जीवन जीया। उन चार वर्ष की सत्यभक्ति से मुझे 2) जन्म मनुष्य के मिले थे। अब मेरा कोई मानव जीवन शेष नहीं था। पशु की योनि में जाना था। उसी समय परमेश्वर कबीर जी धर्मराज के पास गए और मुझे छुड़ाकर लाए और शरीर में प्रवेश कर दिया। इनकी कृपा से मुझे मानव जीवन मिला है। अब मैं अपने वास्तविक पिता अल्लाह कबीर जी के साथ रहूँगी। कबीर जी ने कमाली को बेटी की तरह पाला और अपने घर पर रखा। उपस्थित लाखों की सँख्या में दर्शकों ने परमेश्वर कबीर जी से दीक्षा ली। सबको प्रथम 5 मन्त्र का उपदेश दिया। इस प्रकार कबीर जी के उस समय 64 लाख शिष्य हो गए थे। वे चमत्कार देखकर ही शरण में आए थे। दिल्ली नगर की स्त्रिायाँ उनसे ये अनोखी बातें सुनकर बाद में चर्चा करती थी कि क्या ये बातें सम्भव हो सकती हैं? कुछ तो कहती थी कि हमारे घर वाला भी उस समय वहीं उपस्थित था। जब शेख की लड़की कब्र से निकालकर जीवित की गई थी, परंतु मेरा पति इस बात से नाराज हुआ कि कबीर क्यों ले गया लड़की को? जिसकी बेटी थी, उसको सौंप देनी थी। भावार्थ है कि कुल मिलाकर वे स्त्रिायां अंदर से मजाक रूप में मानती थी, परंतु उनके सम्मुख चुप रह जाती थी। पाठको! कथा लम्बी है, विषय दूसरा बताना है। इसलिए संक्षिप्त में बताता हूँ। एक दिन कबीर जी अपने साथ शेख फरीद तथा कमाल को लेकर सम्मन के घर आ गए। घर पर शाम का अन्न नहीं था। सम्मन तथा लड़का सेऊ आटा चोरी करने गए तो सेऊ को सेठ ने पकड़ लिया। आटा लेकर सम्मन घर आ गया। लड़के को सेठ ने पकड़कर थांब से बाँध दिया। कहा कि कल नगर इकट्ठा करके तुम्हें राजा के पेश करूँगा। तुम्हारे गुरू को भी सजा दिलवाऊँगा। वही चोरी कराने आता है। नेकी (पत्नी सम्मन) ने कहा कि तलवार ले जाओ, पुत्र का सिर काट लाओ। सम्मन ने ऐसा ही किया। नेकी पहले नगर से आटा उधार लेने गई थी। कारण बताया था कि हमारे सतगुरू आए हैं, उनके साथ दो भक्त भी हैं। तीन सेर आटा उधार दे दो। इसके बदले मेरा चीर (चुन्नी) ले लो। चीर फटा हुआ था। इस कारण से किसी ने वह नहीं लिया। व्यंग्य करने लगी कि आपका गुरू तो मुर्दे जीवित कर देता है, क्या तीन सेर आटा पेश नहीं कर सकता? नेकी मन में महादुःखी हुई। तब उसी ने दोनों को चोरी करने रात्रि में भेजा था। सेऊ का कत्ल हुआ देख लाला जी को भय हो गया कि यह तेरे सिर लगाएंगे। उसने रातों-रात बच्चे के धड़ को दूर पजावे (मैदानी भट्ठे) में घसीटकर डाल दिया। नेकी ने कहा कि सेठ बच्चे के धड़ को कहीं फैंकेगा, आप उसकी घसीट के निशान के साथ वहाँ जाकर उठा लाओ। सम्मन ने वैसा ही किया। धड़ को पीछे कोठे में रखकर फटी बोरी डाल दी। सिर अलमारी के ताख में रखा था। नेकी ने सुबह वक्त से खाना बनाया ताकि सतगुरू जी जल्दी निकल जाएं। नगर में कोई इनकी इज्जत का दुश्मन न हो जाए। खाना तीन पत्तलों में यानि मिट्टी के दोनों में डालकर सतगुरू तथा भक्तों को प्रसाद के लिए प्रार्थना की। कबीर परमेश्वर जी ने कहा कि छः दोनों में प्रसाद डालो। सब मिलकर प्रसाद खाऐंगे। न चाहते हुए भी नेकी ने छः बर्तनों में खाना परोस दिया। पाँचों जने अपने-अपने दोनों पर खाने के लिए बैठ गए। सम्मन तथा नेकी चितिंत थे कि यदि गुरू जी को लड़के की मृत्यु का पता चल गया तो ये खाना नहीं खाएंगे, कल से भूखे हैं। इसलिए दिल करड़ा (मजबूत) किए थे, बता नहीं रहे थे।

उसी समय परमेश्वर कबीर जी ने कहा:-

आओ सेऊ जीम लो, यह प्रसाद प्रेम। शीश कटत हैं चोरों के, साधों के नित क्षेम।।
सेऊ धड़ पर शीश चढ़ा, बैठा पंगत माहीं। नहीं घर्रा गर्दन में, वो सेऊ अक नाहीं।।

सेऊ के धड़ पर शीश लगा और गर्दन पर कटने का निशान भी नहीं था। सेऊ जीवित होकर खाने की पंगत में बैठकर खाना खाने लगा।

।।जय हो परमेश्वर कबीर बन्दी छोड़ जी की।।

सम्मन वाली आत्मा नौशेर खान बना

नेकी और सेऊ तो उसी जन्म में मोक्ष प्राप्त कर गए, परंतु सम्मन के दिल पर ठेस लग गई कि यदि मेरे पास धन होता तो मुझे बेटा काटना ना पड़ता। परमात्मा ने उसी जन्म में सम्मन-नेकी-सेऊ को धन-धान्य से परिपूर्ण कर दिया था। वे निर्धन नहीं रहे थे। सम्मन दिल्ली का महान धनी व्यक्ति हो गया था, परंतु फिर भी मोक्ष की इच्छा नहीं बनी। जिस कारण से बेटे की कुर्बानी परमेश्वर रूप सतगुरू के लिए करने के कारण अगले जन्म में नौशेरखाँ शहर के राजा के घर जन्म लिया। राजा बना। 80 खजाने हीरे-मोतियों के भरे थे, परंतु दान नहीं करता था, न परमात्मा को याद करता था। परमेश्वर कबीर जी जिन्दा बाबा का वेश बनाकर नौशेरखान के बादशाह नौशेरखान के पास गए और दान करने का उपदेश दिया। राजा ने कहा, मैं निर्धन राजा हूँ। जिन्दा ने कहा कि आपके 80 खजानों को झंडे लगे हैं। यह राजा की पहचान होती थी कि जिसके पास जितने खजाने होते, उतने झण्डे खड़े किया करते।

राजा ने कहा, ये तो कोयले हैं। जिन्दा ने कहा कि जैसी तेरी नीयत है, कोयले हो जाएंगे। राजा ने खोलकर खजाने देखे तो सच में कोयले हो गए थे। राजा ने परमेश्वर के चरण पकड़कर क्षमा याचना की। परमेश्वर ने कहा कि यदि अधिक धन को दान करे तो ये फिर से हीरे-मोती बन जाएंगे। राजा ने कहा, जैसे आपकी आज्ञा, वही करूँगा। खजाने फिर से हीरों से भर गए। राजा नौशेरखान ने अधिक धन को दान किया। जिसके फलस्वरूप तथा पूर्व जन्म की भक्ति व संत सेवा के फलस्वरूप ईराक देश में बलख नामक शहर का राजा बना।

विस्तृत कथा आगे है:-

‘‘अब्राहिम सुल्तान की जन्म कथा‘‘

एक अधम शाह नाम का फकीर था। उसने बलख शहर से कुछ दूर एक कुटिया बना रखी थी। शहर में घूमने-फिरने आता था। एक दिन उसने बलख के बादशाह की इकलौती बेटी को देखा। वह युवा तथा सुंदर थी। अधम शाह के मन में दोष उत्पन्न हो गया और राजा के पास जाकर कहा कि इस लड़की का विवाह मेरे से कर दो। राजा हैरान रह गया। फकीर कहीं शाॅप न दे दे, इसलिए डर भी गया। अचानक हाँ या ना नहीं कह सका, कल आने को कहा। मंत्रियों को पता चला। एक राय बनी कि कल उसे कह देंगे कि राजा की लड़की से विवाह करने के लिए मोतियों का एक हार लाना पड़ता है या सौ मोती लाने होते हैं। अन्यथा विवाह नहीं होता। अगले दिन फकीर को यह शर्त बता दी गई। फकीर मोती लेने चला। किसी ने बताया कि मोती तो समुद्र में मिलते हैं। समुद्र के किनारे जाकर अपने करमण्डल (लोटे) से समुद्र का जल भरकर कुछ दूरी पर रेत में डालने लगा। कई दिन तक भूखा-प्यासा इसी प्रयत्न में लगा रहा। शरीर भी समाप्त होने को आया। जो भी देखता, वही कहता कि अल्लाह के लिए घर त्यागा था। अब नरक की तैयारी कर रहा है। समुद्र कभी खाली नहीं हो सकता। भक्ति कर। परमात्मा जिंदा बाबा के वेश में वहाँ प्रकट हुए तथा अधम शाह से पूछा कि क्या कर रहे हो? उसने बताया कि राजा की लड़की से विवाह करना है। उसके लिए मोतियों की शर्त रखी है। मोती समुद्र में बताए हैं। समुद्र खाली करके मोती लेकर जाऊँगा। जिन्दा ने कहा कि समुद्र खाली नहीं हो सकता। आप भूखे-प्यासे मर जाओगे। आप जिस मोक्ष के उद्देश्य के लिए घर से निकले हो। मोक्ष प्राप्ति के लिए प्रयत्न करो तो कुछ बात बने। आपने जीवन को नष्ट करने की योजना बना ली है। अधम शाह ने कहा कि आपकी शिक्षा की मुझे कोई आवश्यकता नहीं है। मैं अपना कार्य कर रहा हूँ, तुम अपना करो। कबीर परमेश्वर जी ने कहा है किः-

विकार मरे मत जानिया, ज्यों भूभल (राख) में आग। जब करेल्लै धधकहीं, कोई बचै सतगुरू शरण लाग।।

चुटकुला:- एक 70-75 वर्ष का वृद्ध शराब पीकर मार्ग में खड़ा-खड़ा झूझ रहा था। उसके हाथ का डोगा (सहारे के लिए डण्डा) जमीन पर गिर गया। वह डोगा उठाने में असमर्थ था क्योंकि वह गिर जाता। फिर उठना मुश्किल हो जाता। एक भद्र पुरूष उसी रास्ते से आया। वृद्ध ने उसे लड़खड़ाती आवाज में कहा कि मेरा डोगा उठाकर मुझे दे दो। यात्राी को समझते देर नहीं लगी। कहा, हे दादा जी! आप अपनी आयु की ओर देखो। इस आयु में शराब पीना शोभा नहीं देता। पोते-पोतियों वाले हो। उन पर क्या प्रभाव पड़ेगा? यह बात सुनकर वृद्ध ने कहा कि शिक्षा बिना बात ना रह ही, क्या आज तक कोई मेरे को यह शिक्षा देने वाला नहीं मिला होगा? यदि डोगा उठाना है तो उठा नहीं तो जा। यही दशा अधम शाह फकीर की थी। परमात्मा ने देखा कि भक्त तो मरेगा। समुद्र की झाल मारी, हजारों मोती रेत में पड़े थे। या अल्लाह कहकर अधम शाह ने हजारों मोती चद्दर में बाँध लिए और राजा के दरबार में जाकर रख दिए और कहा कि आप अपने वायदे अनुसार शहजादी का विवाह मेरे से कर दो। मंत्रियों ने सिपाहियों को आज्ञा दी कि इसको डण्डे मारो और मारकर जंगल में डाल आओ। ऐसा ही किया गया। परमात्मा की कृपा से वह मरा नहीं। कुछ दिन में चलने-फिरने लगा। कुछ दिन के पश्चात् राजा की लड़की मर गई। उसको कब्र में दबाकर चार पहरेदार छोड़ दिए कि कोई जंगली जानवर शव को खराब न कर दे। अधम शाह को पता चला। वह रात्रि को कब्र के पास गया। पहरेदार गहरी नींद में सोए थे। अधम शाह कब्र को खोदकर शव को निकालकर, कब्र को उसी तरह ठीक करके लड़की के शव को अपनी कुटिया में उठा ले गया। उसी रात्रि में बंजारों का काफिला रास्ता भूलकर उसी जंगल में चला गया। कुटिया में दीपक जल रहा था। लड़की का शव कफन में लिपटा दीवार के सहारे रखा जैसे लड़की पलाथी लगाकर बैठी हो। सर्दी का मौसम था। अग्नि लेने के लिए काफिले के दो व्यक्ति कुटिया पर गए। आवाज सुनकर अधम शाह डर गया कि राजा के आदमी आ गए। वह कुटिया के पीछे जाकर एक गुफा में छिप गया जिसमें वह साधना किया करता था। काफिले के व्यक्तियों ने मृत जवान लड़की को दीवार के सहारे बैठा देखा तो डर के मारे उलटे पैरों काफिले में जाकर बताया। एक वैद्य भी काफिले में रहता था। कई व्यक्ति तथा वैद्य वहाँ गये तो लड़की को देखते ही वैद्य ने कहा कि यह लड़की मरी नहीं है, इसको सदमा लगा है। उपचार कर सकता हूँ। काफिले के मालिक ने कहा कि आप उपचार करो। यदि लड़की स्वस्थ हो गई तो इसी से पूछेंगे कि कौन है तेरा पिता या पति कहाँ है? पहले लड़की के नग्न शरीर के ऊपर चद्दर डाली। फिर वैद्य ने हाथ की नस में चीरा देकर अशुद्ध रक्त निकाला। लड़की कुछ ही मिनटों में सचेत हो गई। बोली कि मैं यहाँ कैसे आयी हूँ। अधम शाह फकीर ने दीपक की रोशनी में देखा कि ये राजा के आदमी नहीं हैं। शहजादी भी जीवित हो गई है। वह काफिले के व्यक्तियों के पास आया और सारी दास्तां बताई जो लड़की ने भी सुनी। लड़की को काफिले के व्यक्तियों ने समझाया कि यदि आपको यह फकीर कब्र से निकालकर नहीं लाता तो आप तो संसार से चली गई होती। अब आपको चाहिए कि इस फकीर के साथ अल्लाह की रजा मानकर रहें। लड़की ने हाँ कर दी। उन व्यक्तियों ने दोनों का विवाह कर दिया, निकाह पढ़ दिया। काफिले के मालिक ने कहा कि यदि आप हमारे साथ चलना चाहें तो हम आपकी सेवा करेंगे, कोई कष्ट नहीं होने देंगे। गृहस्थी बना फकीर बोला कि हमारे को यहीं रहना है। मैं आपका अहसान कभी नहीं भूल सकूँगा। आप मेरे लिए अल्लाह का स्वरूप बनकर आए हो। हम दोनों की मौत होनी थी। आपने हमारे जीवन की रक्षा की है। उनको वहीं छोड़कर काफिले के व्यक्ति चले गए। कुछ दिन पश्चात् लड़की ने एक सुंदर पुत्रा को जन्म दिया। उसका नाम ‘‘इब्राहिम‘‘ रखा। चार वर्ष का बच्चा होने के पश्चात् बलख शहर के मौलवी के पास पढ़ने के लिए प्रवेश दिलाया। प्रतिदिन अधम बेटे को मौलवी के पास सुबह छोड़ आता, शाम को ले आता। एक दिन बलख का राजा उस मौलवी के पास गया। वह विधार्थियों को इनाम देता था। गरीब बच्चों को कपड़े बाँटता था। अधम शाह फकीर के लड़के को देखकर राजा हैरान रह गया। उसकी सूरत राजा की मृत लड़की से मिलती थी। राजा ने मौलवी से पूछा कि यह बच्चा किसका है? मौलवी ने बताया कि एक फकीर जंगल से आता है, उसका बालक है। सुबह छोड़कर जाता है, शाम को ले जाता है। हमने अधिक पूछताछ नहीं की। लड़का भी उठकर राजा से लिपट गया। राजा ने उसे गोद में उठा लिया और चल पड़ा। मौलवी से कहा कि इसका पिता आए तो महल में भेज देना, वहाँ से ले जाएगा। राजा ने रानी को वह बालक दिखाया, वह तो देखते ही अपनी बेटी को याद करके मूर्छित होकर पृथ्वी के ऊपर गिर गई। सचेत होने पर बालक को सीने से लगाया। खाना खीर-हलवा स्वयं बनाकर खिलाया। रानी ने कहा कि यह तो अपनी लड़की से मिलती शक्ल का है। इतने में फकीर मौलवी के पास जाकर राजा के महल में चला गया। राजा ने नौकरों को बोल रखा था कि इस लड़के का पिता आए तो उसे रोकना नहीं, महल में आदर के साथ लेकर आना है। उसी फकीर को देखकर राजा ने कहा कि यह बालक किसका है? फकीर ने बताया कि यह मेरा लड़का है। आपकी लड़की से उत्पन्न हुआ है। राजा ने कहा कि फकीर होकर झूठ बोलना ठीक नहीं होता। फकीर ने सर्व कथा बताई। राजा को विश्वास नहीं हुआ। फकीर को साथ लेकर नौकरों के साथ पहले लड़की की कब्र को खोदा, वहाँ शव नहीं था। फकीर की कुटिया पर गए। उनकी लड़की कई स्थानों से फटे और पैबन्द लगे वस्त्रा पहने बैठी थी। अपने माता-पिता को देखते ही दौड़कर पिता-माता से बारी-बारी सीने से लगी। लड़की तथा फकीर को उनकी आज्ञा से तथा बच्चे को लेकर महल में आए। अधम को अपना उतराधिकारी नियुक्त कर दिया। जिस कारण से शाह कहा जाने लगा। उसका नाम ‘अधम’ था। कुछ दिन रहकर अधम शाह को राज-ठाठ अच्छे नहीं लगे। वह उनसे प्रेम से विदाई लेकर कुटिया में चला गया और कभी-कभी लड़के तथा पत्नी से मिल जाता था। कुछ वर्षों के पश्चात् अधम शाह फकीर की मुत्यु हो गई। उसकी समाधि कुटिया में बना दी। आसपास सुंदर बगीची बनाई गई। वहाँ मेले लगने लगे। बालक इब्राहिम नाना जी के राज्य का उतराधिकारी बनाया गया।

विचारणीय विषय:- भक्ति के लिए भक्त का शरीर स्वभाव बहुत सहयोगी होता है। अच्छे माता-पिता से मिले जन्म से बच्चे के शरीर में माता-पिता का स्वभाव भी साथ रहता है। इब्राहिम जिस जन्म में सम्मन मनियार था। उसने अपने लड़के की कुर्बानी सतगुरू की सेवा के लिए दी थी। कुछ कारण ऐसा बना था जो आप जी ने सुल्तान बोध के प्रारम्भ में पढ़ा। परमेश्वर जी यानि सतगुरू कबीर जी ने वह लड़का जीवित कर दिया था। वही सम्मन फिर राजा बना। भक्ति नहीं की। अबकी बार उस आत्मा को ऐसे पिता से शरीर दिया जो जन्म से परमात्मा पर समर्पित थे। सम्मन की आत्मा को मोक्ष दिलाने के लिए परमेश्वर जी ने अधम शाह में विवाह की प्रेरणा प्रबल की। लड़की को सदमा, समुद्र से मोती, बंजारों का काफिला रास्ता भूलकर कुटिया पर आना, लड़की को जीवित करना। इब्राहिम का जन्म अधम शाह से पाक आत्मा लड़की से होना जो एक फकीर के साथ रहकर साध्वी जीवन जी रही थी। उच्च विचार बने थे। संसार की कोई बुराई लड़की को नहीं लगी थी। सतगुरू के लिए अपने पुत्रा सेऊ (शिव) का बलिदान तथा नौशेरखान रूप में दान किए खजाने यानि अरबों रूपये। उस दान का फल भी उस जीव को देना था। उसके लिए परमेश्वर कबीर जी ने यह लीला की थी। आदम शाह फकीर का दादा उसी बलख शहर का राजा था जिसका राज्य अब्राहिम के नाना जी के पिता ने लड़ाई करके छीन लिया था। फिर वही राज्य उसी वंश के अब्राहिम को मिला। आदम शाह भी भक्ति से भटकने के कारण पशु की योनि में जन्मा। कबीर परमेश्वर जी ने कहा है कि:-

ये सब खेल हमारे किए। हम से मिले जो निश्चय जीये।।
जोजन मेरी शरण है, उसका हूँ मैं दास। गेल गेल लाग्या फिरूँ, जब तक धरती आकाश।।

सुल्तान को शरण में लेना

अगले जन्म में नौशेरखान फिर राजा बना। इराक के अंदर एक बलख नाम का शहर था। उस शहर में उसकी राजधानी थी। राजा का नाम अब्राहिम अधम सुल्तान था। उस आत्मा ने सम्मन के जीवन में जो श्रद्धा से भक्ति की थी। उसके कारण मानव जीवन मिलते आ रहे थे तथा जो दान किया था, उसके प्रतिफल में राजा बनता रहा। उसका सबसे बड़ा दान तीन सेर आटा था जो बेटे की कुर्बानी देकर किया था। उसी कारण से वह धनी राजा बनता रहा। कुछ नौशेरखान के जीवन में कबीर परमेश्वर जी ने कारण बनाकर दान करवाया। जिस कारण से भी बलख का धनी राजा बना। अठारह लाख घोड़े थे। अन्य हीरे-मोतियों की कमी नहीं थी। एक जोड़ी जूतियों के ऊपर अढ़ाई लाख के हीरे लगे होते थे। कहते हैं 16 हजार स्त्रिायों रखता था। ऐश (मौज) करता था। शिकार करने जाता, बहुत जीव हिंसा करता था। एक दिन राजा के महल के पास किसी भक्त के घर कुछ संत आए थे। उन्होंने सत्संग किया। राजा ने रात्रि में अपने घर की छत के ऊपर बैठकर पूरा सत्संग सुना। परमात्मा की भक्ति की प्रबल पे्ररणा हुई। सुबह अपने मंत्रियों से कहा कि किसी अच्छे संत का पता करो। मुझे मिलाओ। एक ढ़ोंगी बाबा बड़ा प्रसिद्ध था। राजा को उसके पास ले जाया गया। राजा उसके बताए मार्ग से भक्ति करने लगा। राजा की ऊँगली में एक बहुमूल्य छाप (अंगूठी) थी। ढ़ोंगी बाबा दिखावा तो करता था कि वह धन को हाथ नहीं लगाता। लगता था कि बड़ा त्यागी और बैरागी है, परंतु था धूर्त। सुल्तान भी उससे प्रभावित था। उस बाबा ने अपने निजी सेवक से कहा कि जिस सुनार ने राजा अब्राहिम की अँगूठी बनाई है, उस सुनार से वैसी ही अँगूठी नकली हीरों तथा मोतीयुक्त नकली सोने की बनवा ला। नकली अँगूठी बिल्कुल वैसी ही बन गई। एक दिन राजा संत के पास गया। संत ने नौका विहार की इच्छा की। अब्राहिम अधम सुल्तान ने नौका विहार का प्रबन्ध करवाया। सरोवर के मध्य में जाकर बाबा ने कहा, राजन्! आपकी अँगूठी अति सुन्दर है, दिखाना जरा। राजा ने अँगूठी निकालकर संत जी को दे दी, वह बाबा देखने लगा। नजर बचाकर अँगूठी बदल दी। राजा ने कहा कि आप चाहें तो अँगूठी ले लें या और बनवा दूँ। बाबा ने कहा, अरे! साधु-संतों के लिए तो यह मिट्टी है मिट्टी। यह कहकर नकली अँगूठी सरोवर में फैंक दी। राजा को पूरा भरोसा हो गया कि वास्तव में साधु त्यागी और बैरागी है। कुछ दिन बाद उस ढ़ोंगी बाबा की पोल खुल गई। उसके राजदार शिष्य ने राजा को बताया कि आपकी अँगूठी ऐसे-ऐसे बाबा ने ठगी है। वह उसके पास है। जब राजा ने वह अँगूठी उसी बाबा की कुटिया में जमीन में दबी पाई तो बहुत दुःख हुआ और साधु-संतों से विश्वास उठ गया। उस ढ़ोंगी को जेल में डाल दिया। फिर तो राजा ने अपने राज्य के सब संत-महात्माओं को बुला-बुलकार उनसे प्रश्न किया कि यदि आपने खुदा को पाया है तो मुझे भी मिला दो। इसका उत्तर किसी के पास नहीं था। एक संत ने कहा कि आप एक गिलास दूध का मंगवाऐं दूध का गिलास नौकर ने लाकर दे दिया। संत ने दूध में उंगली डाली और राजा से कहा, राजन्! आपके दूध में घी नहीं है। राजा ने कहा, दूध से घी प्राप्त करने की विधि है। पहले दूध को गर्म करके ठण्डा किया जाता है। फिर जमाया जाता है, दही बनती है। फिर बिलोया जाता है। तब घी निकलता है। उस संत जी ने कहा, सुल्तान जी! जिस प्रकार दूध से घी प्राप्त करने की विधि है। वैसे ही मानव शरीर से परमात्मा प्राप्ति की विधि है। उस विधि से परमात्मा प्राप्त होता है। गुरू बनाओ, साधना करो। राजा के मन में घृणा थी गुरू के प्रति। वह सबको उसी दृष्टिकोण से देख रहा था। सब महात्माओं को जेल में डाल दिया। सबसे चक्की चलवाई जा रही थी। सब साधु परमात्मा के लिए ही तो घर-परिवार त्यागकर निकले होते हैं। भक्ति मार्ग सही नहीं मिलने के कारण महिमा की चाह स्वतः हो जाती है। अधिक शिष्य बनाना। अच्छा-बड़ा आश्रम बनाना, यह धुन लग जाती है, परंतु परमेश्वर की अच्छी आत्माऐं होती हैं। वे परमेश्वर के लिए प्रयत्नशील होने से परमात्मा की उन पर रजा रहती है। उनको सत्यज्ञान देने के लिए वेश बदलकर परमात्मा उनको समझाते हैं, परंतु काल के जाल में अँधे होकर नहीं मानते। परमात्मा सबका पिता है। वह बालक जानकर क्षमा करता रहता है। फिर भी उनकी सहायता करते रहते हैं।

लीला नं. 1:- जेल में दुःखी भक्तों की पुकार सुनकर उनको छुड़ाने के लिए तथा अपने परम भक्त सम्मन को काल के जाल से निकालने के लिए परमेश्वर कबीर जी एक भैंसे के ऊपर बैठकर सुल्तान अधम के राज दरबार (कार्यालय) में पहुँच गए। साधु वेश में परमेश्वर को देखकर अब्राहिम सुल्तान ने पूछा, आप किसलिए आए हो? परमेश्वर जी ने कहा कि आपके प्रश्न का उत्तर देने आया हूँ। अब्राहिम ने प्रश्न किया कि मुझे बताओ खुदा कैसा है? खुदा से आप मिले हैं तो मुझे भी मिलाओ। कबीर जी ने भैंसे से कहा कि बता दे भैंसा! अल्लाह कैसा है? कहाँ है? खुदा की कसम सच कहना। भैंसा मनुष्य की तरह बोला, कहा कि अब्राहिम मेरे ऊपर बैठा यह अल्लाहु अकबर है। सुल्तान को भैंसे को बोलते देखकर आश्चर्य हुआ और प्रभावित भी हुआ। सोचने लगा कि यह कोई सेवड़ा हो सकता है। परमेश्वर भैंसे सहित अन्तध्र्यान हो गये। अब्राहिम को चक्कर आ गया। परमात्मा जेल के सामने खड़े हो गए। सिपाहियों को आदेश था कि कोई भी साधु मिले, उसको जेल में डाल दे। उन्होंने परमात्मा को जेल में बंद कर दिया। सिपाहियों ने कहा कि चक्की चलाओ। अन्य सब साधु भी चक्की चलाकर आटा पीस रहे थे, रो रहे थे। कबीर जी ने सिपाहियों से कहा कि हम बन्दी एक काम करेंगे, एक सिपाही करेंगे। हम चक्की चलाएंगे तो चक्की में कनक (गेहूँ, चना, बाजरा) सिपाही डालेंगे। या हम कनक डालेंगे, तुम चक्की चलाओ। सिपाहियों ने क्रोधित होकर कहा कि हम कनक डालेंगे, तुम चक्की चलाओ। कबीर जी ने कहा कि सब संत खड़े हो जाओ। यह कहकर अपनी चक्की को डण्डा लगाया। उसी समय सब (360) चक्की अपने आप चलने लगी। परमात्मा ने कहा, सिपाही भाई डालो कनक, पीसो जितना चाहिए। साधुओं से कहा कि आँखें बंद करो। सबने आँखें बंद कर ली। फिर परमेश्वर जी ने कहा कि आँखें खोलो। आँखें खोली तो सब जेल से बाहर बलख शहर से दूर जंगल में खड़े थे। कबीर जी ने कहा कि आप इस राजा के राज्य को त्यागकर दूर चले जाओ। सर्व भक्त जन परमेश्वर को प्रणाम तथा धन्यवाद करके भाग चले। दूर चले गए। राजा को पता चला कि एक सिद्ध फकीर आया था। सब कैदियों को छुड़ाकर ले गया। जाते दिखाई नहीं दिए। एक चक्की को डण्डा लगाया, सब (360) चक्कियाँ चलने लगी हैं। राजा जेल में गया। चलती चक्कियों को देखकर हैरान रह गया। फिर चक्कियाँ बंद हो गई। राजा विचारों में खो गया।

लीला नं. 2:- कुछ दिनों के पश्चात् परमेश्वर कबीर जी एक ऊँट चराने वाले ग्रामीण जैसे वेश बनाकर हाथ में लंबी लाठी लेकर राजा के निवास के ऊपर छत पर प्रकट हो गए। रात्रि का समय था। राजा सो रहा था। परमेश्वर ने छत के ऊपर लाठी को जोर-जोर से मारना शुरू किया। सुल्तान अब्राहिम नींद से जागा। नौकरों को डाँटा, यह कौन शोर कर रहा है? लाओ पकड़कर। नौकर ऊपर गए। एक ऊँटों को चराने वाले को छत पर से पकड़कर सुल्तान के समक्ष लाए। राजा ने पूछा, तू कौन है? मेरे महल की छत पर क्या कर रहा है? परमेश्वर जी ने कहा कि मैं ऊँटवाल हूँ। मेरा एक ऊँट गुम हो गया है। उसको छत पर खोज रहा था। मैं एक कारवांन हूँ। सुल्तान अधम ने कहा कि हे भोले बन्दे! छत के ऊपर ऊँट कैसे चढ़ सकता है? यह तो कभी हुआ न होगा। कहीं जंगल में ऊँट को खोज। परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि हे अब्राहिम! जैसे ऊँट छत के ऊपर नहीं होता, न छत के ऊपर कभी मिलता है, ऊँट को जंगल में खोजना चाहिए। इसी प्रकार परमात्मा राजगद्दी पर बैठकर ऐशो-आराम (मौज-मस्ती) करने से नहीं, वह संतों में मिलता है। इतना कहकर कबीर परमेश्वर जी अंतध्र्यान हो गए। सुल्तान अधम मूर्छित होकर जमीन पर गिर गए। मन्त्रिायों तथा रानियों ने एक झाड़-फूँक करने वाला बुलाया। उसने राजा की दांई बाजू पर ताबीज बाँध दिया और कहा कि इसके ऊपर भूत-प्रेत का साया है, ठीक हो जाएगा। राजा का मन राज-काज में नहीं लग रहा था। उदास रहने लगा। राजा ने कुछ संतों को फिर से कैद कर रखा था। परमेश्वर फिर से जेल में गए। उसी तरह उनको भी जेल से निकाला। अबकी बार सब कैदियों से कहा कि तुम सब खड़े होकर आँखें बंद करो। कुछ देर अल्लाह का चिंतन करो। उसके पश्चात् चक्की चलाएंगे। चक्की आसानी से चलेंगी। सब बंदी खड़े होकर अल्लाह का चिंतन आँखें बंद करके करने लगे। परमेश्वर ने एक चक्की को डण्डा (सोटी) लगाया। सर्व चक्कियां चलने लगी। परमात्मा कबीर जी ने कहा कि आँखें खोलो। सबने आँखें खोली तो अपने को बलख नगर से दूर जेल से बाहर जंगल में खड़े पाया। परमेश्वर ने कहा कि फिर से इस सुल्तान के राज्य की सीमा में मत आना। उसके पश्चात् राजा ने साधु-संतों को कैद में डालना बंद कर दिया था, परंतु डर के मारे कोई भी साधु-महात्मा उसके राज्य में नहीं आते थे। कबीर परमेश्वर जी भी यही चाहते थे कि ये नकली गुरू यहाँ न आऐं। कहीं राजा को भ्रमित करके मेरे से दूर न कर दें। इसलिए उनको इस विधि से दूर रखना था। कुछ समय उपरांत राजा सामान्य हो गया और ऐसो-आराम में खो गया।

लीला नं. 3:- परमात्मा कबीर जी अपने गुण अनुसार फिर एक लीला करने आए। एक यात्री (मुसाफिर) का रूप बनाकर काख में कपड़ों की पोटली, ग्रामीण वेशभूषा में शाम के समय सुल्तान के निवास में आए। सुल्तान घर के द्वार पर आँगन में कुर्सी पर बैठा था। राजा ने पूछा कि आप यहाँ किसलिए आए हो? परमात्मा कबीर जी ने कहा कि मैं एक यात्री हूँ। रात्रि में आपकी धर्मशाला (सराय) में रूकना है। एक रात का भाड़ा (किरवाया) बता, कितना लेगा। अब्राहिम अधम सुल्तान हँसा और कहा कि हे भोले मुसाफिर, यह सराय नहीं है। यह तो मेरा महल है। मैं नगरी का राजा हूँ। परमात्मा बन्दी छोड़ दया के सागर ने प्रश्न किया आपसे पहले इस महल में कौन रहता था? सुल्तान अब्राहिम अधम ने उत्तर दिया कि मेरे बाप-दादा आदि रहते थे।

प्रश्न प्रभु काः- वे कहाँ हैं? मैं उन्हें देखना चाहता हूँ। उत्तर सुल्तान काः- वे तो अल्लाह को प्यारे हुए। परमात्मा ने प्रश्न किया कि आप कितने दिन इस महल में रहोगे। उत्तर के स्थान पर सुल्तान ने चिंतन किया और कहा कि मुझे भी मरना है। परमेश्वर ने कहा कि हे भोले प्राणी! यह सराय (धर्मशाला) नहीं तो क्या है?

तेरे बाप-दादा पड़ पीढ़ी। वे बसे इसी सराय में गीद्यी।।
ऐसे ही तू चल जाई। तातें हम महल सराय बताई।।
अब तू तख्त बैठकर भूली। तेरा मन चढ़ने को सूली।।

इतना कहकर परमात्मा गुप्त हो गए। सुल्तानी को मूर्छा आ गई। बहुत देर में होश में आया। अन्य मौलवी बुलाया। उसने बांयी बाजु पर ताबीज बाँधकर झाड़फूँक की, कहा कि अब कुछ नहीं होगा। चला गया।

लीला नं. 4:- कुछ दिन बाद राजा सामान्य होकर फिर मौज-मस्ती करने लगा। दिन के समय राजा अब्राहिम अपने नौलखा (जिसमें नौ लाख फलदार पेड़ भिन्न-भिन्न प्रकार के लगाए जाते थे, उसको नौलखा बाग कहते थे।) बाग में सोया करता था। उसके बिस्तर को नौकरानियाँ बिछाया करती थी। फूलों के गुलदस्ते चारों ओर रखा करती थी। नौकरानियों की पोषाक रानियों से भिन्न होती थी। सब बांदियों की पोषाक एक जैसी होती थी। दीन दयाल कबीर जी ने उस अपनी प्यारी आत्मा सम्मन के जीव को काल जाल से निकालने के लिए क्या-क्या उपाय करने पड़ रहे हैं। एक दिन परमेश्वर कबीर जी ने नौकरानी का वेश बनाया। स्त्री रूप धारण किया। बाग में राजा का बिस्तर (सेज) बिछाया। फूलों के गुलदस्ते अत्यंत सुन्दर तरीके से लगाए और स्वयं उस सेज पर लेट गए। राजा अब्राहिम आया तो देखा, एक बांदी (खवासी) मेरी सेज पर सो रही है। इसको मेरा जरा-सा भी भय नहीं है। सुल्तान ने उसी समय कोड़ा उठाकर लेटे हुए परमेश्वर की कमर पर तीन बार मारा। तीन निशान कमर पर बन गए, खाल उतर गई। बांदी वेश में परमेश्वर ने पलंग से नीचे उतरकर एक बार रोने का अभिनय किया और फिर जोर-जोर से हँसने लगे। दासी को इतनी चोट लगने के पश्चात् भी हँसते देखकर अब्राहिम आश्चर्य में पड़ गया। वह विचार कर रहा था कि बांदी को तो बेहोश हो जाना चाहिए था या मर जाना चाहिए था। राजा ने दासी वेश धारी परमात्मा का हाथ पकड़ा और पूछा कि हँस किसलिए रही है? परमात्मा ने कहा कि मैं इस बिस्तर पर एक घड़ी (22 मिनट) लेटी हूँ, विश्राम किया है। एक घड़ी के विश्राम का दण्ड मुझे तीन कोड़े मिला है। मेरे शरीर का चाम भी उतर गया है। मैं इसलिए हँस रही हूँ कि जो इस गंदी सेज पर दिन-रात सोता है, उसका क्या हाल होगा? मुझे तेरे ऊपर तरस आ रहा है भोले प्राणी!

मैं एक घड़ी सेज पर सोई। ताते मेरा यह हाल होई।।
जो सोवै दिवस और राता। उनका क्या हाल विधाता।। गैब भये ख्वासा। सुल्तानी भये उदासा।।
यह कौन छलावा भाई। याका भेद समझ ना आई।।

यह दृश्य देखकर सुल्तान अधम अचेत हो गया। उठा तब सोचा कि यह क्या हो रहा है? मैं समझ नहीं पा रहा हूँ।

लीला नं. 5:- कुछ समय के पश्चात् मन्त्रिायों-रानियों ने कहा कि राजा को शिकार करने ले जाओ। कई दिनों तक जंगल में रहो। इनके मन की चिंता कम हो जाएगी। ऐसा ही किया गया। पहले दिन ही दोपहर तक कोई जानवर नहीं मिला। राजा को यह सब अच्छा नहीं लगा। जंगल में तो मृगों के झुण्ड के झुण्ड चलते हैं। आज एक हिरण भी नहीं आया है। अचानक एक हिरण दिखाई दिया। राजा ने कहा कि यह हिरण बचकर नहीं जाना चाहिए। जिसके पास से निकल गया, उसकी खैर नहीं। देखते-देखते हिरण राजा के घोड़े के नीचे से निकलकर जंगल की और दौड़ लिया। राजा ने शर्म के मारे घोड़ा पीछे-पीछे दौड़ाया। दूर जाकर हिरण जंगल में छिप गया। राजा तथा घोड़े को बहुत प्यास लगी थी। जान जाने वाली थी। अल्लाह से जीवन रक्षार्थ जल की याचना की। वापिस अपने पड़ाव की ओर चला। पड़ाव एक घण्टा दूर था। वहाँ तक जीवित बचना कठिन था। कुछ दूर चलकर दाऐं-बायें देखा तो एक जिन्दा फकीर बैठा दिखाई दिया। पास में स्वच्छ जल का छोटा जलाशय था। उसके चारों ओर फलदार वृक्ष थे। मधुर फल लगे थे। राजा को जीवन की किरण दिखाई दी। जल पीया, कुछ फल खाए। घोड़े को पानी पिलाया। वृक्ष से बाँध दिया। जिन्दा बाबा की ओर देखा तो उनके पास तीन सुंदर कुत्ते बँधे थे। एक कुत्ते बाँधने की सांकल (चैन=लोहे की बेल) साथ में रखी थी। सुल्तान ने फकीर को सलाम वालेकम किया। फकीर ने भी उत्तर में वालेकम सलाम बोला। राजा ने कहा, हे फकीर जी! आप तीन कुत्तों का क्या करोगे? इनमें से दो मुझे दे दो। फकीर जी ने कहा, ये कुत्ते मैं किसी को नहीं दे सकता। इनको मैंने पाठ पढ़ाना है। ये तीनों बलख शहर के राजा रहे हैं। मैं इनको समझाता था कि तुम अल्लाह को याद किया करो। इस संसार में सदा नहीं रहोगे। मरकर कुत्ते का जीवन प्राप्त करोगे। अब तुम नान पुलाव-काजू-किशमिश, मनुखा दाख, खीर, हलवा, फल खा रहे हो। यह आपके पूर्व जन्मों के पुण्यों तथा भक्ति का फल मिला है। यदि इस मानव जीवन में भक्ति नहीं करोगे तो कुत्ते आदि के प्राणियों के जीवन में कष्ट उठाओगे। खाने को यह अच्छा भोजन नहीं मिलेगा। झूठे टुकड़े खाया करोगे। टट्टी खाया करोगे, गंदा पानी नाली का पीया करोगे। जब राजा थे, तब इन्होंने मेरी बातों पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया। ये सोचते थे कि यह फकीर मूर्ख है। राज्य को कौन संभालेगा? रानियों का क्या होगा? अब ये तीनों कुत्ते बने हैं। देखो! मैंने काजू-बादाम, किशमिश मिलाकर बनाया हलवा-खीर इनके सामने रखा है। इनको खाने नहीं देता हूँ। दिखाता हूँ। जब ये खाने की कोशिश करते हैं तो मैं इनको पीटता हूँ। यह कहकर परमेश्वर जी ने जो एक लोहे की बेल खाली रखी थी। उठाकर कुत्तों को मारना शुरू किया। कुत्ते चिल्लाने लगे। परमेश्वर बोले कि खालो न हलवा खिलाऊँ तुमको। झूठा-सूखा टुकड़ा डालूंगा। ऐ घोड़े वाले भाई! यह जो खाली बेल रखी है, यह बताऊँ किसलिए है? जो बलख शहर का राजा अब्राहिम अधम है। वह भी संसार तथा राज्य की चकाचैंध में अँधा होकर अल्लाह को भूल गया है। अब उसको याद नहीं कि मरकर कुत्ता भी बनूंगा। उसको बहुत बार समझाया है कि भक्ति करले, इन महल रूपी सराय में सदा नहीं रहेगा, परंतु उसको खुदा का कोई खौफ नहीं है। वह तो खुद खुदा बनकर निर्दोष फकीरों को दण्डित कर रहा है। मैं तो यहाँ दूर बैठा हूँ। इसलिए बचा हूँ। वह राजा मरेगा, भक्ति बिना कुत्ता बनेगा। उसको लाकर इस सांकल से बाँधूंगा। जिन्दा फकीर के मुख से ये वचन सुनकर कुत्तों के रूप में अपने पूर्वजों की दुर्दशा देखकर अब्राहिम काँपने लगा और बोला कि हे फकीर जी! बलख शहर का राजा मैं ही हूँ। मुझे क्षमा करो। यह कहकर फकीर के चरणों में गिर गया। कुछ देर पश्चात् उठा तो देखा, वहाँ पर न जिन्दा बाबा था, न जलाशय, न बाग था, न कुत्ते थे। सुल्तानी इसको स्वपन भी नहीं मान सकता था क्योंकि घोड़े के पैर अभी भी भीगे थे। कुछ फल तोड़कर रखे थे, वे भी सुरक्षित थे। सुल्तान को समझते देर नहीं लगी। घोड़े पर चढ़ा और पड़ाव पर आया। मुख से नहीं बोल पाया। हाथ से संकेत किया कि सामान बाँधो और लौट चलो शहर को। कुछ मिनटों में काफिला बलख शहर को चल पड़ा।

लीला नं. 6:- घर में एक कमरे में बैठकर रोने लगा। रानियों ने, मंत्रियों ने समझाना चाहा कि यह तो वैसे ही होता रहता है। मुख्य रानियाँ कह रही थी कि ऐसी बात तो स्त्रिायों के साथ होती हैं, आप तो मर्द हैं। हिम्मत रखो। आप तो प्रजा के पालक हो। इतने में एक कुत्ता आया। उसके सिर में जख्म था। उसमें कीट (कीड़े) नोच रहे थे। कुत्ता बोला, हे अब्राहिम! मैं भी राजा था। जितने प्राणी शिकार में मारे तथा एक राजा के साथ युद्ध में जीव मारे, वे आज अपना बदला ले रहे हैं। मेरे सिर में कीड़े बनकर मुझे नोंच रहे हैं। मैं कुछ करने योग्य नहीं हूँ। यही दशा तेरी होगी। अपना भविष्य देख लो। तेरे पीछे-पीछे खुदा भटक रहा है। तू परिवार-राज्य मोह में अपना जीवन नष्ट कर रहा है। यह लीला भी स्वयं परमेश्वर कबीर जी ने की थी। यह अंतिम झटका था अब्राहिम को दलदल से निकालने का। उसी रात्रि में मुख पर काली स्याही लेपकर एक अलफी के स्थान पर एक शाॅल, फिर एक तकिया, एक लोटा, एक पतला गद्दा यानि बिछौना लेकर घर से कमद के रास्ते पीछे से उतरकर चल पड़ा। (कमद=एक मोटा रस्सा जिसको दो-दो फुट पर गाँठें लगा रखी होती थी जिसके द्वारा छत से आपत्ति के समय उतरते थे।)

लीला नं. 7:- रास्ते में एक मालिन बाग के बाहर बेर बेच रही थी। सुल्तान को भूख लगी थी। सारी रात पैदल चला था। मालन से बेरों का भाव पूछा तो मालिन ने बताया कि एक आने के सेर। (एक रूपये में 16 आने होते थे। एक सेर यानि एक किलोग्राम) राजा के पास आना नहीं था। उसने जो जूती पहन रखी थी, उन दोनों की कीमत उस समय 2) लाख रूपये थी। उनके ऊपर हीरे-पन्ने जड़े थे। राजा ने कहा कि मेरे पास एक आना या रूपया नहीं है। ये जूती हैं, इनकी कीमत अढ़ाई लाख रूपये है। ये दोनों ले लो, मुझे भूख लगी है, एक सेर बेर तोल दो। मालिन एक सेर बेर तोलकर अब्राहिम के शाॅल के पल्ले में डालने लगी तो एक बेर नीचे गिर गया। उस बेर को उठाने के लिए मालिन ने भी हाथ बढ़ाया और अब्राहिम ने भी मालिन के हाथ से बेर छीनना चाहा। दोनों अपना बेर होने का दावा करने लगे। उसी समय परमेश्वर कबीर जी प्रकट हुए और कहने लगे, हे गंवार! यह तो मूर्ख है जिसको इतना भी विवेक नहीं कि एक बेर के पीछे उस व्यक्ति से उलझ रही है जिसने अढ़ाई लाख की जूती छोड़ दी। हे मूर्ख! ढ़ाई लाख की जूती छोड़ रहा है और एक पैसे के बेर के ऊपर झगड़ा कर रहा है। ये कैसा त्याग है तेरा? विवेक से काम ले। यह कहकर परमात्मा ने सुल्तान अधम के मुख पर थप्पड़ मारा और अंतध्र्यान हो गए।

जीवन की यात्रा ऐसे भी हो सकती है:- सुल्तान आगे चला तो देखा कि एक निर्धन व्यक्ति एक डले के ऊपर सिर रखकर जमीन पर सो रहा है। उसी समय तकिया तथा बिछौना फैंक दिया। आगे देखा कि एक व्यक्ति नदी से हाथों से जल पी रहा था। लोटा भी फैंक दिया।

काल की भूल-भुलईया में फँसे व्यक्ति को समझाना:- रास्ते में वर्षा होने लगी। शीतल वायु बहने लगी। अब्राहिम ने एक झौंपड़ी देखी जो एक किसान की थी। उसके पास दो बीघा जमीन बिना सिंचाई की थी। एक बूढ़ी गाय जो चार-पाँच बार प्रसव कर चुकी थी। एक काणी स्त्री थी। शीतल वायु के कारण उत्पन्न ठण्ड से बचने के लिए अब्राहिम अधम सुल्तान उस झौंपड़ी के पीछे लेट गया। रात्रि में दोनों पति-पत्नी बातें कर रहे थे कि वर्षा अच्छी हो गई है। गाय का चारा पर्याप्त हो जाएगा। अपने खाने के लिए भी अच्छी फसल पकेगी। अपने ऐसे ठाठ हो जाएंगे, ऐसे तो बलख बुखारे के बादशाह के भी नहीं हैं। अब्राहिम अधम सुल्तान यह सब वार्ता सुनकर उनकी बुद्धि पर पत्थर गिरे जानकर उनको भविष्य के दुःखों से अवगत कराने के उद्देश्य से सूर्योदय तक वहीं पर ठहरा रहा। सुबह उठकर उनकी झौंपड़ी के द्वार पर खड़ा होकर प्रणाम किया। दोनों पति-पत्नी झौंपड़ी से बाहर आए। अब्राहिम उनको भक्ति करने तथा माया से मुख मोड़ने का ज्ञान देने लगा। कहा कि आपके पास तो एक गाय है, एक स्त्री है। दो बीघा जमीन है। आप इसी से चिपके बैठे हो। इसे बलख के बादशाह से भी अधिक ठाठ मान रहे हो। यह तो कुछ दिनों का मेला है। तुमको गुरू जी से उपदेश दिला देता हूँ, तुम्हारा जीवन धन्य हो जाएगा। मैं ही अब्राहिम अधम हूँ। मैं उस राज्य को छोड़कर परमात्मा की प्राप्ति के लिए चला हूँ। उन्होंने कहा कि हमें तो लगता नहीं कि आप बलख शहर के राजा हो। यदि ऐसा है तो तेरे जैसा मूर्ख व्यक्ति इस पृथ्वी पर नहीं है। आपकी शिक्षा की हमें आवश्यकता नहीं है। सुल्तान ने कहा कि:-

गरीब, रांडी (स्त्री) ढांडी (गाय) ना तजैं, ये नर कहिये काग। बलख बुखारा त्याग दिया, थी कोई पिछली लाग।।

इसके पश्चात् अब्राहिम अधम पृथ्वी का सुल्तान तो नहीं रहा, परंतु भक्ति का सुल्तान बन गया। भक्त राज बन गया। इसलिए उसको सुल्तान या प्यार में सुल्तानी नाम से प्रसिद्धि मिली। आगे की कथा में इसको केवल सुल्तान नाम से ही लिखा-कहा जाएगा। जैसे धर्मदास जी को धनी धर्मदास कहा जाने लगा था। वे भक्ति के धनी थे। वैसे सांसारिक धन की भी कोई कमी नहीं थी। सुल्तान को परमेश्वर मिले और प्रथम मंत्र दिया और कहा कि बाद में तेरे को सतनाम, फिर सार शब्द दूंगा।

कबीर सागर के अध्याय ‘‘सुल्तान बोध‘‘ में पृष्ठ 62 पर प्रमाण है:-

प्रथम पान प्रवाना लेई। पीछे सार शब्द तोई देई।।
तब सतगुरू ने अलख लखाया। करी परतीत परम पद पाया।।
सहज चैका कर दीन्हा पाना (नाम)। काल का बंधन तोड़ बगाना।।

विचार करें:- उस समय अब्राहिम के पास न तो आरती चैंका करने को धन था, न अन्य सुविधा थी। यह वास्तविक कबीर जी की दीक्षा की विधि है। जो आरती चैका, उसमें लाखों या हजारों का सामान, नारियल आदि का कोई प्रावधान नहीं है। वह तो बाद में कोई पाठ कराना चाहे तो कराए अन्यथा दीक्षा विधि केवल मंत्रित जल तथा मीठे पदार्थ (मीश्री-चीनी, गुड़, बूरा, शक्कर) से दी जा सकती है। सत्य नाम तथा सार शब्द में पान (पेय पदार्थ) नहीं दिया जाता। केवल दीक्षा मंत्र बताए-समझाए जाते हैं। संत गरीबदास जी (गाँव-छुड़ानी, जिला-झज्जर, हरियाणा प्रान्त) को परमेश्वर कबीर जी मिले थे। उनको दिव्य दृष्टि प्रदान की थी। उसी के आधार से संत गरीबदास जी ने बताया है कि:-

गरीब, हम सुल्तानी नानक तारे, दादू कूं उपदेश दिया।
जाति जुलाहा भेद न पाया, काशी माहें कबीर हुआ।।
गरीब, अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड का, एक रति नहीं भार।
सतगुरू पुरूष कबीर हैं, कुल के सिरजनहार।।

"अब्राहिम अधम सुल्तान के विषय में संत गरीबदास जी के विचार"

कबीर परमेश्वर जी ने अपने शिष्य गरीबदास जी को बताया कि:-

अमर लोक से सतगुरू आए, रूप धरा करवांना।
ढूँढ़त ऊँट महल पर डोलैं, बूझत शाह ब्याना।।(टेक)
हम कारवान होय आये। महलौं पर ऊंट बताये।।(1)
बोलैं पादशाह सुलताना। तूं रहता कहां दिवाना।।(2)
दूजैं कासिद गवन किया रे। डेरा महल सराय लिया रे।।(3)
जब हम महल सराय बताई। सुलतानी कूं तांवर आई।।(4)
अरे तेरे बाप दादा पड़ पीढी। ये बसे सराय में गीदी।।(5)
ऐसैं ही तूं चलि जाई। यौं हम महल सराय बताई।।(6)
अरे कोई कासिद कूं गहि ल्यावै। इस पंडित खांनें द्यावै।।(7)
ऊठे पादशाह सुलताना। वहां कासिद गैब छिपाना।।(8)
तीजै बांदी होय सेज बिछाई। तन तीन कोरडे़ खाई।।(9)
तब आया अनहद हांसा। सुलतानी गहे खवासा।।(10)
मैं एक घड़ी सेजां सोई। तातैं मेरा योह हवाल होई।।(11)
जो सोवैं दिवस रू राता। तिन का क्या हाल बिधाता।।(12)
तब गैबी भये खवासा। सुलतानी हुये उदासा।।(13)
यौह कौन छलावा भाई। याका कछु भेद न पाई।।(14)
चैथे जोगी भये हम जिन्दा। लीन्हें तीन कुत्ते गलि फंदा।।(15)
दीन्ही हम सांकल डारी। सुलतानी चले बाग बाड़ी।।(16)
बोले पातशाह सुलताना। कहां सैं आये जिन्द दिवाना।।(17)
ये तीन कुत्ते क्या कीजै। इनमंे सैं दोय हम कूं दीजै।।(18)
अरे तेरे बाप दादा है भाई। इन बड़ बदफैल कमाई।।(19)
यहां लोह लंगर शीश लगाई। तब कुत्यौं धूम मचाई।।(20)
अरे तेरे बाप दादा पड़ पीढी। तूं समझै क्यूं नहीं गीदी।।(21)
अब तुम तख्त बैठकर भूली। तेरा मन चढने कूं शूली।।(22)
जोगी जिन्दा गैब भया रे। हम ना कछु भेद लह्या रे।।(23)
बोले पादशाह सुलताना। जहां खड़े अमीर दिवाना।।(24)
येह च्यार चरित्रा बीते। हम ना कछु भेद न लीते।।(25)
वहां हम मार्या ज्ञान गिलोला। सुलतानी मुख नहीं बोला।।(26)
तब लगे ज्ञान के बानां। छाड़ी बेगम माल खजाना।।(27)
सुलतानी जोग लिया रे। सतगुरु उपदेश दिया रे।।(28)
छाड्या ठारा लाख तुरा रे। जिसे लाग्या माल बुरा रे।।(29)
छाड़े गज गैंवर जल हौडा। अब भये बाट के रोड़ा।।(30)
संग सोलह सहंस सुहेली। एक सें एक अधिक नवेली।।(31)
गरीब, अठारह लाख तुरा जिन छोड़े, पद्यमनी सोलह सहंस।
एक पलक में त्याग गए, सो सतगुरू के हैं हंस।।(32)
रांडी-ढ़ांडी ना तजैं, ये नर कहिए काग।
बलख बुखारा त्याग दिया, थी कोई पिछली लाग।।(33)
छाड़े मीर खान दीवाना, अरबों खरब खजाना।।(34)
छाडे़ हीरे हिरंबर लाला। सुलतानी मोटे ताला।।(35)
जिन लोक पर्गंणा त्यागा। सुनि शब्द अनाहद लाग्या।।(36)
पगड़ी की कौपीन बनाई। शालौं की अलफी लाई।।(37)
शीश किया मुंह कारा। सुलतानी तज्या बुखारा।।(38)
गण गंधर्व इन्द्र लरजे। धन्य मात पिता जिन सिरजे।।(39)
भया सप्तपुरी पर शांका। सुलतानी मारग बांका।।(40)
जिन पांचैं पकड़ि पछाड्या। इनका तो दे दिया बाड़ा।।(41)
सुनि शब्द अनाहद राता। जहां काल कर्म नहीं जाता।।(42)
नहीं कच्छ मच्छ कुरंभा। जहां धौल धरणि नहीं थंभा।।(43)
नहीं चंद्र सूर जहां तारा। नहीं धौल धरणि गैंनारा।।(44)
नहीं शेष महेश गणेशा। नहीं गौरा शारद भेषा।।(45)
जहां ब्रह्मा बिष्णु न बानी। नहीं नारद शारद जानी।।(46)
जहां नहीं रावण नहीं रामा। नहीं माया का बिश्रामा।।(47)
जहां परसुराम नहीं पर्चा। नहीं बलि बावन की चर्चा।।(48)
नहीं कंस कान्ह कर्तारा। नहीं गोपी ग्वाल पसारा।।(49)
यौंह आँवन जान बखेड़ा। यहाँ कौंन बसावै खेड़ा।।(50)
जहाँ नौ दशमा नहीं भाई। दूजे कूं ठाहर नाँही।।(51)
जहां नहीं आचार बिचारा। ना कोई शालिग पूजनहारा।।(52)
बेद कुराँन न पंडित काजी। जहाँ काल कर्म नहीं बाजी।।(53)
नहीं हिन्दू मुसलमाना। कुछ राम न दुवा सलामा।।(54)
जहाँ पाती पान न पूजा। कोई देव नहीं है दूजा।।(55)
जहाँ देवल धाम न देही। चीन्ह्यो क्यूं ना शब्द सनेही।।(56)
नहीं पिण्ड प्राण जहां श्वासा। नहीं मेर कुमेर कैलासा।।(57)
नहीं सत्ययुग द्वापर त्रोता। कहूं कलियुग कारण केता।।(58)
यौह तो अंजन ज्ञान सफा रे। देखो दीदार नफा रे।।(59)
निःबीज सत निरंजन लोई। जल थल में रमता सोई।।(60)
निर्भय निरगुण बीना। सोई शब्दअतीतं चीन्हा।।(61)
अडोल अबोल अनाथा। नहीं देख्या आवत जाता।।(62)
हैं अगम अनाहद सिंधा। जोगी निरगुण निरबंधा।।(63)
कछु वार पार नहीं थाहं। सतगुरु सब शाहनपति शाहं।।(64)
उलटि पंथ खोज है मीना। सतगुरु कबीर भेद कहैं बीना।।(65)
यौह सिंधु अथाह अनूपं। कछु ना छाया ना धूपं।।(66)
जहां गगन धूनि दरबानी। जहां बाजैं सत्य सहिदानी।।(67)
सुलतान अधम जहां राता। तहां नहीं पांच तत का गाता।।(68)
जहां निरगुण नूर दिवाला। कछु न घर है खाला।।(69)
शीश चढाय पग धरिया। यौह सुलतानी सौदा करिया।।(70)
सतगुरु जिन्दा जोग दिया रे। सुलतानी अपन किया रे।।(71)
कहैं दास गरीब गुरु पूरा। सतगुरु मिले कबीरा।।(72)

‘‘अब्राहिम अधम सुल्तान की परीक्षा‘‘

सुल्तान अधम ने एक साधु की कुटिया देखी जो कई वर्षों से उस स्थान पर साधना कर रहा था। अब्राहिम उसके पास गया। वह साधक बोला कि यहाँ पर मत रहना, यहाँ कोई खाना-पानी नहीं है। आप कहीं और जाइये। सुल्तान अब्राहिम बोला कि मैं तेरा मेहमान बनकर नहीं आया। मैं जिसका मेहमान (परमात्मा का मेहमान) हूँ, वह मेरे रिजक (खाने) की व्यवस्था करेगा। इन्सान अपनी किस्मत साथ लेकर आता है। कोई किसी का नहीं खाता है। हे बेइमान! तू तो अच्छा नागरिक भी नहीं है। तू चाहता है परमात्मा से मिलना। नीयत ठीक नहीं है तो इंसान परमार्थ नहीं कर सकता। बिन परमार्थ परमात्मा नहीं मिलता। जिसने जीवन दिया है, वह रोटी भी देगा। अब्राहिम थोड़ी दूरी पर जाकर बैठ गया। शाम को आसमान से एक थाल उतरा जिसमें भिन्न-भिन्न प्रकार की सब्जी, हलवा, खीर, रोटी तथा जल का लोटा था। थाली के ऊपर थाल परोस (कपडे़ का रूमाल) ढ़का था। अब्राहिम ने थाली से कपड़ा उठाया और पुराने साधक को दिखाया। उस पुराने साधक के पास आसमान से दो रोटी वे भी जौ के आटे की और एक लोटा पानी आए। यह देखकर पुराना साधक नाराज हो गया कि हे प्रभु! मैं तेरा भेजा हुआ भोजन नहीं खाऊँगा। आप तो भेदभाव करते हो। मुझे तो सूखी जौ की रोटी, अब्राहिम को अच्छा खाना पुलाव वाला भेजा है। परमात्मा ने आकाशवाणी की कि हे भक्त! यह अब्राहिम एक धनी राजा था। इसके पास अरब-खरब खजाना था। इसकी 16 हजार रानियां थी, बच्चे थे। अमीर मंत्राी तथा दीवान थे। नौकर-नौकरानियां थी। यह मेरे लिए ऐसे ठाठ छोड़कर आया है। इसको तो क्या न दे दूँ। तू अपनी औकात देख, तू एक घसियारा था। सारा दिन घास खोदता था। तब एक टका मिलता था। सिर पर गट्ठे लेकर नित बोझ मरता था। न बीबी (स्त्राी) थी, न माता थी, न कोई पिता तेरा सेठ था। तुझको मैं पकी-पकाई रोटियां भेजता हूँ। तू फिर भी नखरे करता है। यदि तू मेरी रजा में राजी नहीं है तो कहीं और जा बैठ। यदि भक्ति से विमुख हो गया तो तेरा घास खोदने का खुरपा और बाँधने की जाली, ये रखी जा खोद घास और खा। यदि (परमात्मा से) कुछ हासिल करना है तो मेरी रजा से बाहर कदम मत रखना। भक्त में यदि कुब्र (अभिमान) है तो वह परमात्मा से दूर है। यदि बंदगान (भगवान के भक्त) में इज्जत (आदर, सम्मान आधीनी) है तो वह हक्क (परमेश्वर) के करीब है।

सुल्तान अधम ने परमेश्वर से अर्ज की कि हे दाता! मैं मेहनत करके निर्वाह करूँगा। आपकी भक्ति भी करूँगा। आप यह भोजन न भेजो। रूखी-सूखी खाकर मैं आपके चरणों में बना रहना चाहता हूँ। यह भोजन आप भेज रहे हो। यह खाकर तो मन में दोष आएंगे, कोई गलती कर बैठूंगा। यह अर्ज वह पुराना भक्त भी सुन रहा था। उसकी गर्दन नीची हो गई। परमात्मा से अर्ज की, प्रभु! मेरी गलती को क्षमा करो। मैं आपकी रजा में प्रसन्न रहूँगा। उस दिन से अब्राहिम जंगल से लकड़ियां तोड़कर लाता, बाजार में बेचकर खाना ले जाता। आठ दिन तक उसी को खाता और भक्ति करता था।

‘‘भक्त हो नीयत का पूरा‘‘

कुछ वर्ष पश्चात् अब्राहिम भ्रमण पर निकला। एक सेठ का बाग था। उसको नौकर की आवश्यकता थी। सुल्तान को पकड़कर बाग की रखवाली के लिए रख दिया। एक वर्ष पश्चात् सेठ बाग में आया। उसने अब्राहिम से अनार लाने को कहा। अनार लाकर सेठ को दे दिए। अनार खट्टे थे। सेठ ने कहा कि तेरे को एक वर्ष में यह भी पता नहीं चला कि मीठे अनार कैसे होते हैं? सुल्तान ने कहा कि सेठ जी! आपने मेरे को बाग की सुरक्षा के लिए रखा है, बाग उजाड़ने के लिए नहीं। यदि रक्षक ही भक्षक हो जाएगा तो बात कैसे बनेगी? मैंने कभी कोई फल खाया ही नहीं तो खट्टे-मीठे का ज्ञान कैसे हो सकता है? सेठ ने अन्य नौकरों से पूछा तो नौकरों ने बताया कि यह नौकर तो जो रोटी मिलती है, बस वही खाकर बाग के चारों ओर कुछ बड़बड़ करता घूमता रहता है। हमने गुप्त रूप से भी देखा है। इसने कभी कोई फल नहीं तोड़कर खाया है, न नीचे पड़ा उठाया है। किसी नौकर ने बताया कि यह बलख शहर का राजा है। मैंने 10 वर्ष पहले इसको जंगल में शिकार के समय देखा था। जब मैंने इससे पूछा कि लगता है आप बलख शहर के सुल्तान अब्राहिम अधम हो। पहले तो मना किया, फिर मैंने बताया कि आपको शिकार के समय जंगल में देखा था। आपकी सेना में मेरा साला याकूब बड़ा अधिकारी है। उसने बताया कि राजा ने सन्यास ले लिया है। उसका बेटा गद्दी पर बैठा है। तब इसने कहा कि किसी को मत बताना। सेठ ने चरणों में गिरकर क्षमा याचना की और ढे़र सारा धन देकर कहा कि आप यह धन लेकर अपना निर्वाह करो, भक्ति भी करो। मेरे घर रहो या बाग में महल बनवा दूँ, यहाँ रहकर भक्ति करो। सुल्तान धन्यवाद कहकर चल पड़ा।

‘‘दास की परिभाषा‘‘

एक समय सुल्तान एक संत के आश्रम में गया। वहाँ कुछ दिन संत जी के विशेष आग्रह से रूका । संत का नाम हुकम दास था। बारह शिष्य उनके साथ आश्रम में रहते थे। सबके नाम के पीछे दास लगा था। फकीर दास, आनन्द दास, कर्म दास, धर्मदास। उनका व्यवहार दास वाला नहीं था। उनके गुरू एक को सेवा के लिए कहते तो वह कहता कि धर्मदास की बारी है, उसको कहो, धर्मदास कहता कि आनन्द दास का नम्बर है। उनका व्यवहार देखकर सुल्तानी ने कहा किः-

दासा भाव नेड़ै नहीं, नाम धराया दास। पानी के पीए बिन, कैसे मिट है प्यास।।

सुल्तानी ने उन शिष्यों को समझाया कि मैं जब राजा था, तब एक दास मोल लाया था। मैंने उससे पूछा कि तू क्या खाना पसंद करता है। दास ने उत्तर दिया कि दास को जो खाना मालिक देता है, वही उसकी पसंद होती है। आपकी क्या इच्छा होती है? आप क्या कार्य करना पसंद करते हो? जिस कार्य की मालिक आज्ञा देता है, वही मेरी पसंद है। आप क्या पहनते हो? मालिक के दिए फटे-पुराने कपड़े ठीक करके पहनता हूँ। उसको मैंने मुक्त कर दिया। धन भी दिया। उसी की बातों को याद करके मैं अपनी गुरू की आज्ञा का पालन करता हूँ। अपनी मर्जी कभी नहीं चलाता। जो प्रभु देता है, उसकी आज्ञा जानकर खाता हूँ। मैं अपने को दास मानकर सेवा करता हूँ। परमात्मा को प्रसन्न करने के लिए गुरूदेव को प्रसन्न करना अनिवार्य होता है। उसके पश्चात् वे सर्व शिष्य दास भाव से रहकर अपने गुरू जी की आज्ञा का पालन करने लगे तथा आपस में अच्छा व्यवहार करने लगे। अपना जीवन सफल किया।

‘‘सुल्तानी को सार शब्द कैसे प्राप्त हुआ?‘‘

परमेश्वर कबीर जी एक आश्रम बनाकर रहने लगे। नाम जिन्दा बाबा से प्रसिद्ध थे। सुल्तानी को प्रथम मंत्र दीक्षा के कुछ महीनों के पश्चात् सतनाम की (दो अक्षर के मंत्र की) दीक्षा दी जिसमें एक ‘‘ओम्‘‘ मंत्र है तथा दूसरा उपदेश के समय बताया जाता है। दर्शन के लिए सुल्तान अनेकों बार आता रहा। सत्यनाम के पश्चात् योग्य होने पर सार शब्द साधक को दीक्षा में दिया जाता है। एक वर्ष के पश्चात् सुल्तान अधम ने अपने गुरू की कुटिया में जाकर सारनाम की दीक्षा के लिए विनम्र प्रार्थना की तो परमेश्वर जी ने कहा कि एक वर्ष के पश्चात् ठीक इसी दिन आना, सारनाम दूंगा। दर्शनार्थ कभी-भी आ सकते हो। सुल्तान अब्राहिम अधम ठीक उसी दिन सारनाम लेने के लिए गुरू जी की कुटिया में गया तो गुरू जी ने कहा कि ठीक एक वर्ष पश्चात् इसी दिन आना, सारनाम दूँगा। ऐसे करते-करते ग्यारह (11) वर्ष निकाल दिए। बीच-बीच में भी सतगुरू के दर्शन करने आता था, परंतु सारनाम के लिए निश्चित दिन ही आना होता था। जब ग्यारहवें वर्ष सुल्तानी सारशब्द के दीक्षार्थ आ रहा था तो एक मकान के साथ से रास्ता था। उस मकान की मालकिन ने छत से कूड़ा बुहारकर गली में डाला तो गलती से भक्त के ऊपर गिर गया। सुल्तान इब्राहिम के ऊपर कूड़ा गिरा तो वह ऊँची आवाज में बोला, क्या तुझे दिखाई नहीं देता? गली में इंसान भी आते-जाते हैं? यदि मैं आज राज्य त्यागकर न आया होता तो तेरी देही का चाॅम उधेड़ देता । उस बहन ने क्षमा याचना की और कहा, हे भाई! मेरी गलती है, मुझे पहले गली में देखना चाहिए था। आगे से ध्यान रखँूगी। वह मकान वाली बहन भी जिन्दा बाबा की भक्तमति थी। उसने जब इब्राहिम को आश्रम में देखा तो गुरू जी से पूछा, हे गुरूदेव! वह जो भक्त बैठा है एकान्त में, क्या वह कभी राजा था? जिन्दा बाबा ने पूछा, क्या बात है बेटी? यहाँ तो राजा और रंक में कोई भेद नहीं है। आपने यह प्रश्न किस कारण से किया? यह पहले बलख शहर का राजा था। इसको मैंने ज्ञान समझाया तो इसने राज्य त्याग दिया और मेहनत करके लकड़ियां बेचकर निर्वाह करता है, भक्ति भी करता है। उस बहन ने बताया कि मेरे से गलती से सूखा कूड़ा छत से फैंकते समय इसके ऊपर गिर गया तो यह बहुत क्रोधित हुआ और बोला कि यदि मैंने राज्य न त्यागा होता तो तेरी खाल उतार देता। सत्संग के पश्चात् सार शब्द लेने वालों को बुलाया गया। जब सुल्तान अब्राहिम की बारी आई तो गुरू जी ने कहा कि अभी तो आप राजा हो, सार शब्द तो बच्चा! दास को मिलता है जिसने शरीर को मिट्टी मान लिया है। सुल्तानी ने कहा, गुरूदेव! राज्य को त्यागे तो वर्षों हो चुके हैं। गुरू महाराज जी ने कहा, मुझसे कुछ नहीं छुपा है। तूने जैसा राज्य त्यागा है। राज भाव नहीं त्यागा है। आप एक वर्ष के पश्चात् इसी दिन सारनाम के लिए आना। एक वर्ष के पश्चात् फिर सुल्तानी आ रहा था। उसी मकान के साथ से आना था। गुरू जी ने उसी शिष्या से कहा कि कल वह राजा सारशब्द लेने आएगा। तेरे मकान के पास से रास्ता है, और कोई रास्ता कुटिया में आने का नहीं है। अबकी बार उसके ऊपर पानी में गोबर-राख घोलकर बाल्टी भरकर उसके ऊपर डालना। फिर उसकी क्या प्रतिक्रिया रहे, वह मुझे बताना। उस बहन ने ऐसा ही किया। बहन ने साथ-साथ यह भी कहा कि हे भाई! धोखे से गिर गया। मैं धोकर साफ कर दूँगी। आप यहाँ तालाब में स्नान कर लो। सुल्तान ने कहा कि बहन मिट्टी के ऊपर मिट्टी ही तो गिरी है, कोई बात नहीं, मैं स्नान कर लेता हूँ, कपड़े धो लेता हूँ। उस शिष्या ने गुरूदेव को सुल्तानी की प्रक्रिया बताई, तब उसको सारशब्द दिया और कहा, बेटा! आज तू दास बना है। अब तेरा मोक्ष निश्चित है।

इसलिए भक्तजनों को इस कथा से शिक्षा लेनी चाहिए। सारशब्द प्राप्ति के लिए शीघ्रता न करें। अपने अंदर सब विकारों को सामान्य करें। विवेक से काम लें, मोक्ष निश्चित है।

‘‘राजा बड़ा है या भक्त राज‘‘

एक बार सुल्तान अधम अपने बलख शहर के बाहर एक तालाब पर जाकर बैठ गया। उसका पुत्र राजा था। पता चला तो हाथी पर चढ़कर बैंड-बाजे के साथ तालाब पर पहुँचा। पिता जी से घर चलने को कहा। सुल्तान ने साफ शब्दों में मना कर दिया। लड़के ने कहा कि आपने यह क्या हुलिया बना रखा है? आप यहाँ ठाठ से रहो। आप भिखारी बनकर कष्ट उठा रहे हो। मेरी आज्ञा से आज सब कुछ हो जाता है। सुल्तान ने कहा कि जो परमात्मा कर सकता है, वह राजा नहीं कर सकता। लड़के ने कहा कि आप आज्ञा दो, वही कर दूँगा। आपको हमारे पास रहना होगा। सुल्तानी ने कहा कि ठीक है, स्वीकार है। मैं हाथ से कपड़े सीने की एक सूई इस तालाब में डालता हूँ। यह सूई जल से निकालकर मेरे को लौटा दे। राजा ने सिपाहियों, गोताखोरों तथा जाल डालने वालों को बुलाया। सब प्रयत्न किया, परंतु व्यर्थ। लड़के ने कहा, पिताजी! एक सूई के बदले हजार सूईयाँ ला देता हूँ। क्या आपका अल्लाह यह सूई निकाल देगा? तब सुल्तान ने कहा कि हे पुत्र! यदि मेरा अल्लाह यही सूई निकाल देगा तो क्या तुम भक्ति करोगे? क्या सन्यास ले लोगे? लड़के ने कहा कि आप पहले यह सूई अपने प्रभु से निकलवाओ, फिर सोचँूगा। इब्राहिम ने कहा कि परमात्मा की बेटी मछलियों! मुझ दास की एक सूई आपके तालाब में गिर गई है। मेरी सूई निकालकर मुझे देने की कृपा करें। कुछ ही क्षणों के उपरांत एक मछली मुख में सूई लिए इब्राहिम के पास किनारे पर आई। इब्राहिम ने सूई पकड़ ली और मछलियों का हाथ जोड़कर धन्यवाद किया। तब सुल्तानी ने कहा, बेटा! देख परमात्मा जो कर सकता है, वह मानव चाहे राजा भी क्यों न हो, नहीं कर सकता। अब क्या भक्ति करेगा? पुत्र ने कहा कि भगवान ने आपको सूई ही तो दी है, मैं तो आपको हीरे-मोती दे सकता हूँ। भक्ति तो वृद्धावस्था में करूंगा। भक्त इब्राहिम उठकर चल पड़ा। अपनी गुफा में चला गया।

‘‘विकार जैसे काम, मोह, क्रोध, वासना नष्ट नहीं होते, शांत हो जाते हैं‘‘

विकार मरे ना जानियो, ज्यों भूभल में आग। जब करेल्लै धधकही, बचे सतगुरू शरणा लाग।।

एक समय इब्राहिम सुल्तान मक्का में गया हुआ था। उनका उद्देश्य था कि भ्रमित मुसलमान श्रद्धालु मक्का में हज के लिए या वैसे भी आते रहते हैं। उनको समझाना था। उनको समझाने के लिए वहाँ कुछ दिन रहे। कुछ शिष्य भी बने। किसी हज यात्री ने बलख शहर में जाकर बताया कि इब्राहिम मक्का में रहता है। छोटे लड़के ने पिता जी के दर्शन की जिद की तो उसकी माता-लड़का तथा नगर के कुछ स्त्री-पुरूष भी साथ चले और मक्का में जाकर इब्राहिम से मिले। इब्राहिम अपने शिष्यों को शिक्षा देता था कि बिना दाढ़ी-मूछ वाले लड़के तथा परस्त्री की ओर अधिक देर नहीं देखना चाहिए। ऐसा करने से उनके प्रति मोह बन जााता है। अपने लड़के को देखकर इब्राहिम पर रहा नहीं गया, एकटक बच्चे को देखता रहा। लड़के की आयु लगभग 13 वर्ष थी। शिष्यों ने कहा कि गुरूदेव आप हमें तो शिक्षा देते हो कि बिना दाढ़ी-मूछ वाले बच्चे की ओर ज्यादा देर नहीं देखना चाहिए, स्वयं देख रहे हो। इब्राहिम ने कहा, पता नहीं मेरा आकर्षण इसकी ओर क्यों हो रहा है? उसी समय एक वृद्ध ने कहा, राजा जी! यह आपकी रानी है और यह आपका पुत्र है। आप राज्य त्यागकर आए, उस समय यह गर्भ में था। आपसे मिलने आए हैं। उसी समय लड़का पिता के चरणों को छूकर गोदी में बैठ गया। इब्राहिम की आँखों में ममता के आँसूं छलक आए। परमेश्वर की ओर से आकाशवाणी हुई कि हे सुल्तानी! तेरे को मेरे से प्रेम नहीं रहा। अपने परिवार से प्रेम है। अपने घर चला जा। उसी समय इब्राहिम को झटका लगा तथा आँखें बंद करके प्रार्थना की कि हे परमात्मा! मेरे वश से बाहर की बात है, या तो मेरी मृत्यु कर दो या इस लड़के की। उसी समय लड़के की मृत्यु हो गई। इब्राहिम उठकर चल पड़ा। बलख से आए व्यक्ति लड़के के अंतिम संस्कार करने की तैयारी करने लगे। परमात्मा पाने के लिए भक्त को प्रत्येक कसौटी पर खरा उतरना पड़ता है। तब सफलता मिलती है। उस लड़के के जीव को परमात्मा ने तुरंत मानव जीवन दिया और अपने भक्त के घर में लड़के को उत्पन्न किया। बचपन से ही उस आत्मा को परमात्मा का मार्ग मिला। एक बार सब भक्त बाबा जिन्दा के आश्रम में सत्संग में इकट्ठे हुए। वह लड़का उस समय 4 वर्ष की आयु का था। परमेश्वर की कृपा से उसका बिस्तर तथा इब्राहिम का बिस्तर साथ-साथ लगा था। इब्राहिम को देखकर लड़का बोला, पिताजी! आप मुझे मक्का में क्यों छोड़ आए थे? मैं अब भक्त के घर जन्मा हूँ। देख न अल्लाह ने मुझे आप से फिर मिला दिया। यह बात गुरू जी जिन्दा बाबा (परमेश्वर कबीर जी) के पास गई तो जिन्दा बाबा ने बताया कि यह इब्राहिम का लड़का है जो मक्का में मर गया था। अब परमात्मा ने इस जीव को भक्त के घर जन्म दिया है। इब्राहिम को लड़के के मरने का दुःख बहुत था, परंतु किसी को साझा नहीं करता था। उस दिन उसने कहा, कृपासागर! तू अन्तर्यामी है। आज मेरा कलेजा (दिल) हल्का हो गया। मेरे मन में रह-रहकर आ रहा था कि परमात्मा ने यह क्या किया? इसकी माँ घर पर किस मुँह से जाएगी? आज मेरी आत्मा पूर्ण रूप से शांत है। जिन्दा बाबा ने उस लड़की पूर्व वाली माता यानि इब्राहिम की पत्नी को संदेश भिजवाया कि वह आश्रम आए। लड़के तथा उसके नए माता-पिता तथा इब्राहिम को भी बुलाया। उस लड़के को पहले वाली माता से मिलाया। लड़का देखते ही बोला, अम्मा जान! आप मेरे को मक्का छोड़कर चली गई। वहाँ पर अल्लाह आए, देखो ये बैठे (जिन्दा बाबा की ओर हाथ करके बोला) और मेरे को साथ लेकर इनके घर छोड़ गए। मैं इस माई के पेट में चला गया। फिर मेरा जन्म हुआ। अब मैं दीक्षा ले चुका हूँ। प्रथम मंत्र का जाप करता हूँ। हे माता जी! आप भी गुरू जी से दीक्षा ले लो, कल्याण हो जाएगा। इब्राहिम की पत्नी ने दीक्षा ली और कहा कि इस लड़के को मेरे साथ भेज दो। परमेश्वर कबीर जी (जिन्दा बाबा) ने कहा कि यदि उस नरक में (राज की चकाचैंध में) रखना होता तो इसकी मृत्यु क्यों होती? अब तो आप आश्रम आया करो और महीने में सत्संग में बच्चे के दर्शन कर जाया करो। इब्राहिम को उस लड़के में अपनापन नहीं लगा क्योंकि वह किसी अन्य के शरीर से जन्मा था। परंतु उसके भ्रम, मन की मूर्खता का नाश हो गया। जो वह मन-मन में कहा करता कि अल्लाह ने यह नहीं करना चाहिए था। अब उसे पता चला कि परमात्मा जो करता है, अच्छा ही करता है। भले ही उस समय अपने को अच्छा न लगे। अल्लाह के सब जीव हैं, वह सबके हित की सोचता है। हम अपने-अपने हित की सोचते हैं। रानी को भी उस लड़के में वह भाव नहीं था, परंतु आत्मा वही थी। इसलिए माता वाली ममता दिल में जाग्रत थी। इसलिए उसको देखकर शांति मिलती थी। यह कारण बनाकर परमेश्वर जी ने उस रानी का भी उद्धार किया और बालक का भी।

‘‘भक्त तरवर (वृक्ष) जैसे स्वभाव का होता है‘‘

एक बार एक समुद्री जहाज में एक सेठ व्यापार के लिए जा रहा था। उसके साथ रास्ते का खाना बनाने वाले तथा मजाक-मस्करा करके दिल बहलाने वालों की पार्टी भी थी। लम्बा सफर था। महीना भर लगना था। मजाकिया व्यक्तियों को एक ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता थी जिसके ऊपर सब मजाक की नकल झाड़ सकें। खोज करने पर इब्राहिम को पाया और पकड़कर ले गए। सोचा कि इस भिखारी को रोटियाँ चाहिए, मिल जाएंगी। समुद्र में दूर जाने के पश्चात् सेठ के लिए मनोरंजन का प्रोग्राम शुरू हुआ। इब्राहिम के ऊपर मजाक झाड़ रहे थे। कह रहे थे कि एक इस (इब्राहिम) जैसा मूर्ख था। वह वृक्ष की उसी डाली पर बैठा था जिसे काट रहा था। गिरकर मर गया। हा-हा करके हँसते थे। इस प्रकार बहुत देर तक ऐसी अभद्र टिप्पणियाँ करते रहे।

इब्राहिम बहुत दुःखी हुआ। सोचा कि महीनों का दुःख हो गया। न भक्ति कर पाऊँगा, न चैन से रह पाऊँगा। उसी समय आकाशवाणी हुई कि हे भक्त इब्राहिम! यदि तू कहे तो इन मूर्खों को मार दूँ। जहाज को डुबो दूँ, तुझे बचा लूँ। ये तेरे को तंग करते हैं। यह आकाशवाणी सुनकर जहाज के सब व्यक्ति भयभीत हो गए। इब्राहिम ने कहा, हे अल्लाह! यह कलंक मेरे माथे पर न लगा। ये बेखबर हैं। इतने व्यक्तियों के मारने के स्थान पर मुझे ही मार दे या इनको सद्बुद्धि दे दो, ये आपकी भक्ति करके अपने जीव का कल्याण कराऐं। जहाज मालिक सहित सब यात्रियों ने इब्राहिम से क्षमा याचना की तथा परमात्मा का ज्ञान सुना। आदर के साथ अपने साथ रखा। भक्ति करने के लिए जहाज में भिन्न स्थान दे दिया। इब्राहिम ने उन सबको सत्यज्ञान समझाकर आश्रम में लाकर गुरू जी से दीक्षा दिलाई।

इब्राहिम स्वयं दीक्षा दिया करता था। जब जिन्दा बाबा यानि परमेश्वर कबीर जी को किसी ने इब्राहिम की उपस्थिति में बताया कि हे गुरूदेव! इब्राहिम दीक्षा देता है। तब परमेश्वर जी ने बताया कि हे भक्त! आप गलती कर रहे हो। आप अधिकारी नहीं हो। उस दिन के पश्चात् इब्राहिम ने दीक्षा देनी बंद की तथा अपने सब शिष्यों को पुनः गुरू जी से उपदेश दिलाया। क्षमा याचना की, स्वयं भी अपना नाम शुद्ध करवाया। भविष्य में एसी गलती नहीं की।

कबीर सागर के अध्याय ‘‘सुल्तान बोध’’ का सारांश सम्पूर्ण हुआ।

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