वेदों में वर्णित साधना विधि से विकार नहीं मरते
एक समय एक चुणक नामक ऋषि वेदों तथा गीता जी के अध्याय 2 के श्लोक 55 से 68 तक वर्णित साधना विधि के (मतानुसार) अनुसार अपने मन व इन्द्रियों को काबू करके कई हजार वर्षों तक साधना करता रहा। उस समय वे महायोगी माने जाते थे। बहुत मृदुभाषी, दुःख-सुख में एक रस रहने वाले तथा केवल एक लंगोटी (कोपीन) व एक झोंपड़ी (कुटिया) में रहा करते थे। जो मिल जाता उसी में संतुष्ट रहते थे। पूर्ण सिद्धि युक्त महापुरुष माने जाते थे।
एक मानधाता चकवै (चक्रवर्ती) राजा था। (चक्रवर्ती राजा उसे कहते हैं जिसका सम्पूर्ण पृथ्वी पर राज्य हो)। मानधाता के मन में आई कि देखना चाहिए कि कोई छोटा राजा मेरे सामने सिर उठाने वाला तो नहीं हो गया है। इसके लिए राजा ने एक घोड़ा छोडा़, जिसके गले में एक लकड़ी का बोर्ड (फट्टी) लटकाया जिस पर यह लिख दिया कि यह घोड़ा राजा मानधाता चकवै (चक्रवर्ती) का है। जिस किसी राजा को महाराजा मानधाता की आधीनता स्वीकार नहीं है वह इस घोड़े को पकड़ कर बाँध ले उसको राजा के साथ युद्ध करना पड़ेगा। साथ में सैकड़ों सैनिक भी अन्य घोड़ों पर सवार हो कर उस घोड़े के साथ-2 चल दिए। घोड़ा सारी पृथ्वी पर घूमकर वापिस आ रहा था किसी ने उस घोड़े को पकड़ने का साहस नहीं किया। चूंकि राजा मानधाता के पास 72 क्षौहिणी (एक करोड़ 56 लाख 96 हजार) सेना थी। जब वे सैनिक तथा वही घोड़ा परम ऋषि चुणक के पास से निकलने लगे तो ऋषि ने सैनिकों से पूछा कि - कौन हो? कहाँ से आए हो और कहाँ जा रहे हो? यह खाली घोड़ा किस लिए है। इस पर कोई सवार क्यों नहीं? कृप्या बतलाईए। अभिमानी राजा के अभिमानी सैनिकों ने कहा तेरे मतलब की बात नहीं है। ऋषि जी बोले - राह-रस्ते व आने-जाने वालों से पूछ ही लिया करते हैं। बताईए क्या माजरा है? सैनिक कहने लगे यह राजा मानधाता चक्रवर्ती (चकवै) का घोड़ा है। इसको जो कोई पकड़ लेगा उसे राजा से युद्ध करना होगा। ऋषि ने पूछा क्या किसी ने नहीं पकड़ा? कुछ सैनिकों ने कहा कि सारी पृथ्वी पर किसी की हिम्मत ही नहीं पड़ी इसे पकड़ने की। कुछ दूसरों ने कहा कि कोई कैसे पकड़ेगा? राजा के पास 72 क्षोहिणी सेना है। चुणक ऋषि ने कहा कि यदि किसी ने भी नहीं बाँधा तो मैं बाँध लेता हूँ। यह कहते ही सैनिकों ने वह घोड़ा उसी वृक्ष से बाँध दिया जिसके नीचे ऋषि की कुटिया थी और कहा कि रे कंगाल, तेरे पास खाने के लिए तो अन्न (दाने) भी नहीं है और युद्ध करेगा राजा मानधाता चकवै से? क्यों तेरी सामत आई है। ऋषि बोला मेरे भाग्य में ऐसा ही है। जाओ कह दो अपने राजा से कि ऋषि युद्ध के लिए तैयार है। जब सैनिकों ने राजा से बताया कि आपका घोड़ा चुणक नाम के ऋषि ने बाँध लिया है और युद्ध के लिए तैयार है। राजा ने एक व्यक्ति को मारने के लिए 18 क्षौहिणी सेना भेजी। ऐसे अपनी सेना की 18-18 क्षौहिणी की चार टुकड़ियाँ बनाई। उधर चुणक ऋषि ने अपनी ब्रह्म (काल) साधना से प्राप्त सिद्धि से चार पुतलियाँ बनाई। ऋषि ने एक पुतली राजा की सेना पर छोड़ी जिसने 18 क्षौहिणी सेना को समाप्त कर दिया। ऐसे चारों पुतलियों ने 72 क्षौहिणी सेना का सर्व नाश कर दिया। (नोट:- एक क्षौहिणी में लगभग दो लाख अठारह हजार सैनिक होते हैं जिनमें से कुछ पैदल सैनिक, कुछ घोड़ों पर सवार, कुछ हाथियों पर सवार, कुछ रथों पर सवार होते हैं।)
पूर्ण ब्रह्म की साधना के अतिरिक्त परब्रह्म, ब्रह्म, अन्य श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी तथा श्री शिव जी देवताओं व अन्य देवी देवताओं की पूजा से जैसा कर्म किया है वैसा ही फल मिलता है, पुण्य भोग स्वर्ग में तथा पाप भोग नरक में तथा चैरासी लाख प्राणियों के शरीर में भी यातना सहनी पड़ती है। महर्षि चुणक जी ब्रह्म (काल) उपासक थे तथा वेदों में वर्णित विधि अनुसार साधना की। जिस कारण से पुण्यों का भोग महास्वर्ग (जो ब्रह्म लोक में बना है) में भोग कर पाप कर्मों का फल नरक तथा फिर पशु आदि के शरीर में भोगना पड़ेगा। जब यह चुणक ऋषि कुत्ता आदि बनेगा तो इसके सिर में जख्म होगा तथा कीड़े चलेंगे। जितने सैनिकों का वध वचन रूपी तीर से किया था वह अपना प्रतिशोध लेंगे। इसी लिए पवित्रा गीता अध्याय 7 श्लोक 18 में स्वयं गीता जी को बोलने वाला ब्रह्म (काल) ने कहा है कि ये ज्ञानी आत्मा उदार हैं जिनको वेद पढकर यह ज्ञान तो हो गया कि एक प्रभु की भक्ति से पूर्ण मोक्ष होगा परंतु तत्वदर्शी संत न मिलने से स्वयं निकाले निष्कर्ष के आधार पर कि ओ3म् नाम का जाप तथा पाँचों यज्ञ तथा घोर तप ही पूर्ण ब्रह्म की साधना मान ली। परंतु यह साधना केवल काल ब्रह्म तक की है। पूर्ण ब्रह्म (परम अक्षर ब्रह्म) की साधना तो तत्वदर्शी संत ही बताएगा (गीता अध्याय 4 श्लोक 34 तथा यजुर्वेद अध्याय 40 मन्त्र 10 व 13 में)। इसलिए वे उदार ज्ञानी आत्मा मेरी (ब्रह्म-काल कह रहा है) अति अश्रेष्ठ (अनुत्तमाम्) गति (मुक्ति) में ही आश्रित रही। विशेष:- अब पाठक वृन्द स्वयं विचार करें कि इतने अच्छे साधक दिखाई देने वाले ऋषि को क्या उपलब्धि हुई?
क्योंकि वेदों व गीता जी में ज्ञान तो श्रेष्ठ है कि जो साधक काम, क्रोध, मोह, लोभ, अहंकार, राग-द्वेष रहित हो जाता है वही पूर्ण मुक्त है। परंतु भक्ति की साधना केवल काल (ब्रह्म) प्राप्ति की है जिससे विकार रहित नहीं हो सकता। उस परमात्मा को प्राप्त होने योग्य ‘‘मन्त्र के जाप से हो सकता है। वह किसी शास्त्रा में नहीं है। वह मन्त्र केवल साहेब कबीर का पूर्ण संत ही बता सकता है। लाभ भी उसी संत से नाम लेने से होगा जिसे उपदेश देने का आदेश प्राप्त हो। फिर सारा जीवन गुरु मर्यादा में रह कर भक्ति करता हुआ सार नाम की प्राप्ति गुरु जी से करें। तब साधक सतलोक जा सकता है तथा विषयों (विकारों) को त्याग सकता है।
विशेष: ऋषि चुणक एक उदार ज्ञानी आत्मा परमात्मा को चाहने वाले थे। जैसा मार्गदर्शन अपने आप निष्कर्ष निकालने से शास्त्रों से हुआ तथा जैसा गुरु मिला उसके आधार पर वेदों में वर्णित मतानुसार हजारों वर्ष साधना की। फिर भी अभिमान (अहंकार) नहीं गया। मानधाता राजा का सर्वनाश किया तथा अपनी भक्ति की कमाई कम की और पाप के भागी बने। यह ब्रह्म साधना की घटिया गति (स्थिति) है। जिसका प्रमाण स्वयं ब्रह्म भगवान देते हैं (गीता जी के अध्याय 7 के श्लोक 18 में)। आदरणीय गरीबदास जी महाराज कहते हैं कि -
गरीब, बहतर क्षौणी खा गया, चुणक ऋषिश्वर एक। देह धारें जौरा फिरैं, सभी काल के भेख।।
भावार्थ:- चुणक ऋषि काल ब्रह्म की साधना से काल रूप हो गया। सिद्धियाँ प्राप्त की।
उससे बहत्तर क्षौहिणी यानि एक करोड़ 56 लाख 96 हजार सैनिकों को खा गया अर्थात् मार डाले। ये सिद्धि प्राप्त ऋषि मानव शरीर में जौरा यानि चलती-फिरती मृत्यु हैं। ये सब भेष यानि पंथ काल प्रेरित हैं। काल ब्रह्म इनको भ्रमित किए है।
जैसे गीता जी के अध्याय 14 के श्लोक 2 में कहा है कि मेरी भक्ति वेदों व गीता में वर्णित विधि से करता है वह मेरे भाव में ही भावित रहता है तथा मेरे जैसे गुणों वाला अर्थात् काल का दूसरा रूप हो जाता है जैसे चुणक ऋषि। पुनर् जन्म जब मानव का होता है तो वह साधक उसी भाव में भावित रहता है अर्थात् अन्य देवों की उपासना नहीं करता, फिर भी वेदों अनुसार मेरी साधना करता है। यह भी बहुत जन्मों के उपरान्त मेरी साधना पर लगता है, यही संकेत गीता अध्याय 7 श्लोक 19 में भी दिया है कि बहुत जन्म-जन्मान्तर के पश्चात् कोई ज्ञानी आत्मा जो पहले मेरे भाव में भावित था, मेरी साधना करता है और यह बताने वाला कि पूर्ण परमात्मा ही वासुदेव है अर्थात् सर्वव्यापक सर्व का पालन कत्र्ता वही पूजा के योग्य है, वह महात्मा तो अति दुर्लभ है।
- गीता अध्याय 2 श्लोक 69-72 का अनुवाद:- श्लोक 69 में कहा है कि रात्रि में दो प्रकार के व्यक्ति जागते हैं। एक तो संसारिक भोगों की इच्छा वाला सोते हुए भी स्वपन में उन्हीं में भटकता रहता है। दूसरा परमात्मा की भक्ति में लगा स्थिर बुद्धि वाला साधक रात्रि में स्वपन में भी परमात्मा का विचार रखता है।
भावार्थ:- जो संसारिक व्यक्ति भौतिक पदार्थों की प्राप्ति के लिए दिनभर भटकता है। संयमी साधक की इच्छा उन पदार्थों की नहीं होती। उसके लिए वह दिन भी रात्रि के समान है। अन्य लोग तो संसारिक पदार्थों की प्राप्ति के लिए सजग रहते हैं, परंतु स्थिर बुद्धि वाला उनसे मुख मोड़े रहता है। वह रात्रि में सोने के तुल्य विकारों से परे है, वह सोया हुआ है।
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श्लोक 70:- तत्वज्ञान से परिचित स्थिर बुद्धि वाले का विश्वास ऐसा अचल होता है जैसे जल से पूर्ण रूप से परिपूर्ण अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र में अनेकों नदियाँ समा जाती हैं। उनसे समुद्र विचलित नहीं होता। वैसे ही स्थिर बुद्धि वाले में भोग समा जाते हैं यानि गृहस्थी साधक संतान उत्पत्ति भी करता है, परंतु अन्य स्त्रिायों को माता, बहन-बेटी की दृष्टि से देखता है। अपने धर्म से गिरता नहीं। उसमें सब भोग समा जाते हैं। वही साधक शांति को प्राप्त हो जाता है। भोग-विलास में लिप्त साधक शांति नहीं प्राप्त कर सकता।
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श्लोक 71:- जो पवित्रात्मा सम्पूर्ण कामनाओं को त्यागकर ममता रहित, अहंका रहित और स्पृहा रहित यानि इच्छा रहित जीवन यापन करता है, वह शांति को प्राप्त होता है।
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श्लोक 72:- हे अर्जुन! यह उपरोक्त स्थिति परमात्मा प्राप्त साधक की स्थिति है। इस स्थिति को प्राप्त साधक अंत समय तक अज्ञानवश नहीं होता। अंत काल में भी इसी स्थिति में रहकर (ब्रह्म निर्वाणम् ऋच्छति) उस परमेश्वर के धाम को प्राप्त होता है।
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अध्याय 2 के श्लोक 69 से 72 में लिखा है कि रात्रि में दो प्रकार के प्राणी जागते हैं। एक विषयों का प्रेमी ख्काम (सैक्स) वश, चोर या ज्यादा धन इक्ट्ठा करने वाला, यानि विकारों में लीन जागता है। उसके लिए वह रात ही दिन के समान है। दूसरा परमात्मा पे्रमी जागता है। उसने उस रात का पूरा लाभ लिया। जैसे सर्व नदियाँ समुद्र में स्वतः गिर जाती हैं ऐसे ही दोनों प्रकार के प्राणी अपने बुरे व अच्छे कर्मों के आधार पर नरक तथा स्वर्ग में स्वतः चले जाते हैं। जो व्यक्ति परमात्म तत्व को जान चुका है वह विषय वासनाओं से रहित सुख-दुःख व लाभ-हानि में समान रहता है। जैसे समुद्र में नदियां गिर कर भी समुद्र को विचलित नहीं करती। इस प्रकार वह व्यक्ति सर्व इच्छा ममता व अहंकार रहित होकर ही शांति को प्राप्त होता है। जो साधक विषय विकार रहित होकर मन वश करके इन्द्रियों का दमन करे व काम क्रोध, मोह, लोभ, अहंकार को समाप्त करके अन्तिम समय (मृत्यु बेला) में भी विचलित नहीं होता, केवल वही प्राणी निर्वाण ब्रह्म (पूर्ण परमात्मा-पूर्ण ब्रह्म) को प्राप्त हो सकता है, अन्यथा क्षमता रहित होने से पूर्ण परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकता। सार: यह क्षमता न विष्णु में, न ब्रह्मा में, न शिव में। फिर परमात्मा प्राप्ति असम्भव।