अनुराग सागर पृष्ठ 10-14
अनुराग सागर पृष्ठ 10 तथा 11 का सारांश:-
(अनुराग सागर के पृष्ठ 10 से वाणी नं. 11 से 20 शुद्ध करके लिखी हैं।)
नाम महात्मय
जबलग ध्यान विदेह न आवे। तब लग जिव भव भटका खावे।।
ध्यान विदेह औ नाम विदेहा। दोइ लख पावे मिटे संदेहा।।
छन इक ध्यान विेदेह समाई। ताकी महिमा वरणि न जाई।।
काया नाम सबै गोहरावे। नाम विदेह विरले कोई पावै।।
जो युग चार रहे कोई कासी। सार शब्द बिन यमपुर वासी।।
नीमषार बद्री परधामा। गया द्वारिका का प्राग अस्नाना।।
अड़सठ तीरथ भूपरिकरमा। सार शब्द बिन मिटै न भरमा।।
कहँ लग कहों नाम पर भाऊ। जा सुमिरे जमत्रास नसाऊ।।
नाम पाने वाले को क्या मिलता है?
सार नाम सतगुरू सो पावे। नाम डोर गहि लोक सिधावे।।
धर्मराय ताको सिर नावे। जो हंसा निःतत्त्व समावे।।
सार शब्द क्या है?
(अनुराग सागर के पृष्ठ 11 से वाणी)
सार शब्द विदेह स्वरूपा। निअच्छर वहि रूप अनूपा।।
तत्त्व प्रकृति भाव सब देहा। सार शब्द नितत्त्व विदेहा।।
कहन सुनन को शब्द चैधारा। सार शब्द सों जीव उबारा।।
पुरूष सु नाम सार परबाना। सुमिरण पुरूष सार सहिदाना।।
बिन रसना के सिमरा जाई। तासों काल रहे मुग्झाई।।
सूच्छम सहज पंथ है पूरा। तापर चढ़ो रहे जन सूरा।।
नहिं वहँ शब्द न सुमरा जापा। पूरन वस्तु काल दिख दापा।।
हंस भार तुम्हरे शिर दीना। तुमको कहों शब्द को चीन्हा।।
पदम अनन्त पंखुरी जाने। अजपा जाप डोर सो ताने।।
सुच्छम द्वार तहां तब परसे। अगम अगोचर सत्पथ परसे।।
अन्तर शुन्य महि होय प्रकाशा। तहंवां आदि पुरूष को बासा।।
ताहिं चीन्ह हंस तहं जाई। आदि सुरत तहं लै पहुंचाई।।
आदि सुरत पुरूष को आही। जीव सोहंगम बोलिये ताही।।
धर्मदास तुम सन्त सुजाना। परखो सार शब्द निरबाना।।
सार शब्द (नाम) जपने की विधि गुरूगमभेद छन्द
अजपा जाप हो सहज धुना, परखि गुरूगम डारिये।।
मन पवन थिरकर शब्द निरखि, कर्म ममन मथ मारिये।।
होत धुनि रसना बिना, कर माल विन निर वारिये।।
शब्द सार विदेह निरखत, अमर लोक सिधारिये।।
सोरठा - शोभा अगम अपार, कोटि भानु शशि रोम इक।।
षोडश रवि छिटकार, एक हंस उजियार तनु।।
धर्मदास का आनन्दोद्गार
हे प्रभु तब चरण बलिहारी। किये सुखी सब कष्ट निवारी।।
चक्षुहीन जिमि पावे नैना। तिमि मोही हरष सुनत तव नैना।।
अनुराग सागर पृष्ठ 10-11 का भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने नाम की महिमा बताई है। कहा है कि हे धर्मदास! जब तक विदेह का ध्यान साधक को नहीं आता, तब तक जीव संसार में जन्म-मरण चक्र में भटकता रहता है। यहाँ पर विदेह का अर्थ है परमेश्वर। जैसे धर्मदास जी से परमेश्वर कबीर जी ने कहा था कि मेरे शरीर को परखकर ध्यान से देख, मेरा शरीर आप जैसा पाँच तत्त्व का नहीं है। धर्मदास जी ने हाथ-पैर पकड़कर दबाए तो रबड़ की तरह नरम थे। परमेश्वर ने कहा था कि मैं विदेही हूँ। (राजा जनक को भी विदेही कहा गया है।) विदेह का अर्थ सामान्य व्यक्ति के शरीर से भिन्न है। वह विदेह है। भावार्थ है कि जब तत्त्वज्ञान हो जाता है, तब उस विदेह परमेश्वर में ध्यान लगता है। उसको प्राप्त करने का नाम जाप मंत्र भी विदेह है यानि विलक्षण है। विदेह नाम को सारनाम, सार शब्द, अमर नाम भी कहते हैं। विदेह परमेश्वर में लगन लगे और नाम भी विदेह हो यानि उसी का सारनाम हो। जब इन दोनों को लख लेगा यानि जान लेगा, सत्य रूप में देख लेगा, तब शंका समाप्त होगी। उस विदेह परमेश्वर (सत्य पुरूष) का ध्यान एक क्षण भी हो जाए, उसकी इतनी कीमत है कि कही नहीं जा सकती। काया के नाम यानि देह धारी (माता के गर्भ से उत्पन्न) राम, कृष्ण, विष्णु, शिव आदि के नाम तो सब जाप करते हैं, परंतु विदेह परमात्मा का सारनाम कोई बिरला ही प्राप्त करता है।
जैसे कि किंवदन्ती (दंत कथा) है कि जो काशी नगर में मरता है, वह स्वर्ग जाता है। परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि चारों युग तक काशी में निवास करे, परंतु सार शब्द बिना काल के मुख में जाएगा। यदि कोई श्रद्धालु बद्रीनाथ, केदारनाथ आदि धामों पर जाता है, गया जी, द्वारिका, प्रयाग आदि तीर्थों में स्नान करता है, यदि कोई अड़सठ तीर्थों का भ्रमण करता है, यदि कोई (भू) भूमि की परिक्रमा कर लेता है। (गोवर्धन पर्वत की तो बहुत छोटी परिक्रमा है) यानि यदि कोई पृथ्वी की परिक्रमा भी क्यों न कर आए, वह भी व्यर्थ है क्योंकि सार शब्द के बिना जीव का भ्रम समाप्त नहीं होता अर्थात् सार शब्द से जीव का मोक्ष हो सकता है। अन्य उपरोक्त साधना शास्त्रा विरूद्ध होने के कारण मोक्षदायक नहीं हैं।
अनुराग सागर के पृष्ठ 11 का सारांश:-
सारशब्द (सार नाम) से लाभ
सारनाम पूर्ण सतगुरू से प्राप्त होता है। नाम प्राप्त करने से सतलोक की प्राप्ति होती है। धर्मराय (ज्योति स्वरूपी निरंजन अर्थात् काल ब्रह्म) भी सार शब्द प्राप्त भक्त के सामने नतमस्तक हो जाता है। सार शब्द की शक्ति के सामने काल ब्रह्म टिक नहीं पाता क्योंकि सार शब्द विदेह परमेश्वर कबीर जी का है। इसलिए सार शब्द ही निःअक्षर का स्वरूप है। यह सार नाम (विदेह नाम) अनूप यानि अद्भुत है। सार शब्द तो विदेह है क्योंकि यह विदेह परमेश्वर का जाप मंत्र है। कबीर परमेश्वर विदेह हैं। विदेह-विदेह में भी अंतर होता है। जैसे राजा जनक को भी विदेह कहा जाता है और कबीर परमेश्वर जी भी विदेही हैं। जैसे एक सोने का आभूषण दो कैरेट स्वर्ण से बना है। वह भी स्वर्ण आभूषण कहा जाता है। दूसरा 24 कैरेट स्वर्ण से बना है तो दोनों ही स्वर्ण आभूषण कहलाते हैं, परंतु मूल्य में अंतर बहुत होता है। इसलिए कहा है कि जो अन्य प्रभु हैं (श्री ब्रह्मा, श्री विष्णु, श्री शिव जी तथा राम-कृष्ण) वे सब पाँच तत्त्व के शरीर में हैं और परमेश्वर कबीर जी यानि सत्य पुरूष का शरीर निःतत्त्व यानि पाँच तत्त्व से रहित है। इसलिए विदेह परमात्मा का सार शब्द जाप मंत्र है। कहने को तो शब्द बहुत प्रकार के हैं, परंतु सार शब्द से जीव का उद्धार होता है। सतपुरूष का प्रवाना यानि दीक्षा मंत्र सार नाम है और उसका सुमरण भी सार यानि खास विधि से होता है। सार शब्द का जाप बिन जीभ के यानि सुरति-निरति से श्वांस द्वारा स्मरण होता है। यह भक्ति का सहज व यथार्थ मार्ग है और इस साधना को कोई शूरवीर ही करता है। इस साधना से काल मुरझा जाता है यानि काल ब्रह्म कमजोर (बलहीन) हो जाता है। हे धर्मदास! तेरे को सार शब्द की पहचान करा दी है और तेरे को हंस की पदवी प्राप्त करा दी है। सतलोक में जाने के पश्चात् कोई सुमरण जाप नहीं रहता, न वहाँ काल का जाल देखने को मिलता है। वहाँ पर पूर्ण वस्तु है अर्थात् सर्व वस्तुओं का भण्डार है, किसी चीज का अभाव नहीं है। सत्यलोक में एक अनन्त पंखुड़ियों वाला कमल है जो परमेश्वर का आसन है। उस अमर स्थान तथा अमर पुरूष को प्राप्त करने के लिए अजपा जाप की डोर तान दे अर्थात् सत्यलोक को प्राप्त करने के लिए श्वांस का बिना जीभ के मानसिक जाप किया जाता है, उसको निरंतर कर। जैसे बाण चलाने वाला निशाना लगाते समय तीर को तानकर (कसकर) छोड़ता है। ऐसे नाम के जाप को तान दे। जब अगम अगोचर अर्थात् सबसे ऊपर वाला सर्व श्रेष्ठ सत्य मार्ग परसे यानि प्राप्त हो जाए तो तब वह सूक्ष्म द्वार यानि भंवर गुफा का द्वार दिखाई देता है। अंतरिक्ष में सुन्न स्थान यानि एकांत लोक में प्रकाश दिखाई देता है। वहाँ पर परम पुरूष का निवास है। उस सार शब्द में सुरति (ध्यान) लगाकर वहाँ जाया जाता है। सारशब्द को पहचानकर उसमें सुरति लगाकर भक्त वहाँ जाता है। आदि सुरति अर्थात् सनातन शब्द का ध्यान सत्य पुरूष का है। उसके लिए हे जीव! सोहं शब्द का स्मरण करना, उसी को सोहं जाप कहते हैं। परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि हे धर्मदास! आप सज्जन संत हो, उस सार शब्द को परखो (जाँचो) जो निर्वाण यानि मोक्ष देने वाला है।
सार शब्द जपने की विधि
सारनाम का स्मरण बिना रसना (जीभ) के मन तथा पवन यानि श्वांस के द्वारा किया जाता है। यह अजपा (बिना जीभ से) जाप होता है। इस शब्द को निरखे अर्थात् शब्द की जाँच करे। फिर मन को सत्य ज्ञान का मंथन करके मारो यानि विषय विकारों को हटाओ। सार शब्द की साधना बिना जीभ के बिना आवाज किए की जाती है। इस जाप स्मरण के लिए कर यानि हाथ में माल उठाने की आवश्यकता नहीं यानि माला की आवश्यकता नहीं होती अर्थात् सार शब्द बिना हाथ में माला लिए निर वारिये यानि बिना माला के निर्वाह कीजिए। निर्वाह का यहाँ अर्थ है प्रयत्न। ऐसे सार शब्द और उसके स्मरण की विधि निरखकर यानि पहचान (जान) कर सत्यलोक जाईये। सत्यलोक में सत्यपुरूष जी के शरीर के एक रोम (बाल) का प्रकाश करोड़ सूर्यों के समान है। जो साधक मोक्ष प्राप्त करके सत्यलोक में चले गए या जो वहाँ के आदि वासी हैं, उनके शरीर का प्रकाश 16 सूर्यों के प्रकाश के समान है। सत्यलोक में परमेश्वर के शरीर की शोभा अपार है।
धर्मदास का आनंदोद्गार
धर्मदास जी ने परमेश्वर जी का धन्यवाद किया कि आप जी ने वास्तविक ज्ञान तथा जाप मंत्र देकर मेरा कष्ट समाप्त कर दिया। मैं आपकी बलिहारी जाऊँ। जैसे चक्षुहीन (अंधे) को आँखें मिल जाएं। उसी प्रकार आपके अमृत वचन सुनकर मुझे हर्ष हो रहा है। आपने मुझ पर अपार कृपा की है।
अनुराग सागर पृष्ठ 12 का सारांश
कबीर परमेश्वर जी के वचन
धर्मदास तुम अंस अंकुरी। मोहि मिलेउ कीन्हे दुख दूरी।।
जस तुम कीन्हे मोसंग नेहा। तजि धन धामरू सुत पितु गेहा।।
आगे शिष्य जो अस विधि करि हैं। गुरू चरण मन निश्चल धरि हैं।।
गुरू के चरण प्रीत चित धारै। तन मन धन सतगुरू पर वारै।।
सो जिव मोही अधिक प्रिय होई। ताकहँ रोकि सकै नहिं कोई।।
शिष्य होय सरबस नहीं वारे। हृदय कपट मुख प्रीति उचारे।।
सो जिव कैसे लोग सिधाई। बिन गुरू मिलै मोहि नहिं पाई।।
पृष्ठ 12 का भावार्थ:- इन चैपाईयों में परमेश्वर कबीर जी ने धर्मदास जी से कहा कि हे धर्मदास! आप हमारे अंकुरी हंस हो। {अंकुरी का अर्थ है जो पूर्व जन्म का उपदेशी होता है और वह किन्हीं कारणों से मुक्त नहीं हो पाता है। उसको अंकुरी हंस कहते हैं। जैसे चनों को पानी में भिगो दिया जाता है तो सुबह तक या एक-दो दिन में उनमें अंकुर निकल आते हैं। कुछ किसान चनों को बीजने से एक दिन पहले पानी छिड़क देते हैं। फिर वह अंकुरित चना शीघ्र उग जाता है। इसी प्रकार पूर्व का उपदेशी प्राणी (स्त्री-पुरूष) शीघ्र ज्ञान ग्रहण करके भक्ति पर लग जाता है। इसलिए परमेश्वर ने धर्मदास जी को अंकुरी हंस कहा है।} आप मेरे को मिले तो तेरा दुःख दूर कर दिया है। जैसे आपने मेरे साथ प्रेम भाव किया है। आपने अपने परिवार तथा धन को त्यागकर मेरे अंदर पूर्ण आस्था और सच्चा प्रेम किया है। भविष्य में यदि कोई भक्त मेरे भेजे अंश से जो सतगुरू होगा, उससे ऐसे ही भाव करेगा। मन को निश्चल करके गुरू के चरणों में धरेगा। जो सतगुरू के ऊपर तन-मन-धन न्यौछावर करेगा, वह जीव मेरे को अधिक प्रिय होगा। उसको सत्यलोक जाने से कोई नहीं रोक सकता। यदि शिष्य होकर समर्पित नहीं होता और हृदय में छल रखता है, ऊपर से दिखावा प्रेम करता है। वह प्राणी सत्यलोक कैसे जा सकेगा क्योंकि गुरू के मिले बिना यानि गुरू के साथ परमात्मा जैसा लगाव किए बिना मुझे (कबीर परमेश्वर जी) को नहीं प्राप्त कर सकता।
उदाहरण:- जैसे गणित के अंदर एक ऋण का प्रश्न आता है, उसमें मूलधन ज्ञात करना होता है। उसमें मानना होता है कि मान लो मूलधन सौ रूपये। वास्तविक मूलधन करोड़ों रूपये की राशि होती है। परंतु पहले सौ रूपये मूलधन माने बिना वह वास्तविक मूलधन नहीं मिल सकता। इसी प्रकार इस अंतिम वाणी का भावार्थ है।
धर्मदास वचन
यह तो प्रभु आप ही कीन्हा। नहीं मैं तो हतो बहुत मलीना।।
करके दया प्रभु आप ही आये। पकड़ि बांह प्रभु काल सों छुड़ाये।।
सृष्टि उत्पत्ति विषय प्रश्न तथा विवेचन
अब साहब मोंहि देउ बताई। अमर लोग सो कहां रहाई।।
लोक दीप मोहिं बरनि सुनावहु। तृषनावन्तको अमी पियावहुै।।
कौन द्वीप हंसको वासा। कौन द्वीप पूरूष रह वासा।।
भोजन कौन हंस तहँ करई। और बानी कहँ पुनि उच्चरई।।
कैसे पूरूष लोक रचि राखा। द्वीपहिं कर कैसे अभिलाखा।।
तीन लोक उत्पत्ती भाखो। वर्णहुसकल गोय जनि राखो।।
काल निरंजन केहि विधि भयऊ। कैसे षोडश सुत निर्मयऊ।।
कैसे चार खानि बिस्तारी। कैसे जीव कालवश डारी।।
कैसे कूर्म शेष उपराजा। कैसे मीन बराहहिं साजा।।
त्रय देवा कौन विधि भयऊ। कैसे महि अकाश निरमयऊ।।
चन्द्र सूर्य कहु कैसे भयऊ। कैसे तारागण सब ठयऊ।।
किहि विधि भइ शरीर की रचना। भाषो साहब उत्पत्ति बचना।।
भावार्थ:- धर्मदास जी ने परमेश्वर कबीर जी से विनयपूर्वक अति आधीन होकर प्रश्न किया कि हे परमेश्वर! कृपा करके मुझे यह बताईये कि वह अमर लोक कहाँ पर है?
धर्मदास जी ने वही भूमिका की जो श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 4 श्लोक 32 तथा 34 में कहा है। गीता ज्ञान दाता काल ब्रह्म ने कहा कि हे अर्जुन! यज्ञों यानि धार्मिक अनुष्ठानों का विस्तारपूर्वक ज्ञान (ब्रह्मणः मुखे) सच्चिदानंद घन परमेश्वर अपने मुख कमल से उच्चारण करके वाणी में बताता है। जिसे तत्त्वज्ञान कहते हैं। उसको जानकर सर्व पापों से मुक्त हो जाता है।(अध्याय 4 श्लोक 32) उस ज्ञान को तू तत्त्वदर्शी संतों के पास जाकर समझ। उनको दण्डवत् प्रणाम करने से वे परमात्म तत्त्व को भली-भांति जानने वाले ज्ञानी महात्मा तुझे तत्त्वज्ञान का उपदेश करेंगे।(अध्याय 4 श्लोक 34)
यहाँ पर दोनों ही अभिनय स्वयं परमेश्वर कबीर जी कर रहे हैं। वे सच्चिदानंद घन ब्रह्म भी हैं और उस समय तत्त्वदर्शी संत यानि सतगुरू का अभिनय भी कर रहे थे। धर्मदास जी अत्यधिक विनम्र व्यक्ति थे। सूक्ष्मवेद में कहा है:-
अति आधीन दीन हो प्राणी। वाकु कहना यह अकथ कहानी।।
जज्ञासु से कहिए ही कहिए। अन् ईच्छुक को भेद ना दीये।।
कबीर परमेश्वर जी ने कहा कि:-
धर्मदास तू अधिकारी पाया। ताते मैं कहि भेद सुनाया।।
धर्मदास जी ने विनम्र भाव से पूछा कि हे परमेश्वर! मुझे बताऐं वह अमर लोक कहाँ पर है? जो सत्यलोक और द्वीप आपने बताए हैं, उनको विस्तार से बताने की कृपा करें। किस द्वीप में हंस (मुक्त जीव) रहते हैं? परमेश्वर (सत्य पुरूष) का निवास किस लोक में है? सतलोक में जो भक्त रहते हैं, वे कैसा भोजन खाते हैं? कैसी भाषा बोलते हैं यानि प्यार से रहते हैं या यहाँ की तरह छल-कपट तथा गाली-गलौच करते हैं? परमेश्वर ने कैसे लोक की रचना कर रखी है? द्वीपों की रचना करने की कैसे अभिलाषा (प्रेरणा) हुई? तीन लोकों की रचना कैसे की, वह बताऐं? मेरे से कुछ न छुपाऐं। सब वृंतान्त सुनायें। काल निरंजन की उत्पत्ति कैसे हुई? सोलह पुत्रों की उत्पत्ति कैसे हुई? कैसे चार खानि बनाई? किस प्रकार जीव काल के जाल में फँसे? कूर्म तथा शेष की उत्पत्ति कैसे हुई? मीन, बरहा तीनों देवताओं (ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव) की उत्पत्ति कैसे हुई? कैसे मही (पृथ्वी) तथा आकाश रचे? सूर्य, चाँद तथा तारों की रचना कैसे की? हे परमात्मा! शरीर आदि की रचना सहित सर्व ज्ञान सुनाओ ताकि मेरे मन की शंका समाप्त हो जाए।
अनुराग सागर के पृष्ठ 13 का सारांश
छन्द
आदि उत्पत्ति कहो सतगुरू, कृपाकरी निजदास को।।
बचन सुधा सु प्रकाश कीजै, नाश हो यमत्रसको।।
एक एक विलोयबर्णहु, दास मोहि निज जानिकै।।
सत्य वक्ता सदगुरू तुम, कहूँ मैं निश्चय मानिकै।।
सोरठा-निश्चय बचन तुम्हार, मोहिं अधिक प्रियताहिते।।
लीला अगम अपार, धन्यभाग दर्शन दिये।।
भावार्थ:- धर्मदास जी ने कहा कि हे सतगुरू जी! आप सत्य वक्ता हैं। जो स्पष्ट वचन आपने कहे हैं, किसी ने नहीं कहे। मुझे अपना दास जानकर एक-एक वचन विलोकर यानि पूर्ण विस्तार से बताऐं। मेरे धन्य भाग हैं कि मुझे आपके दर्शन हुए।
कबीर वचन
धर्मदास अधिकारी पाया। ताते मैं कहि भेद सुनाया।।
अब तुम सुनहु आदिकी बीनी। भाषों उत्पत्ति प्रलय निशानी।।
सृष्टि के आदि में क्या था?
तब की बात सुनहु धर्मदासा। जब नहीं महि पाताल आकाशा।।
जब नहिं कूर्म बराह और शेषा। जब नहिं शारद गौरि गणेशा।।
जब नहिं हते निरंजन राया। जिन जीवन कह बांधि झुलाया।।
तेतिस कोटि देवता नाहीं। और अनेक बताऊ काहीं।।
ब्रह्मा विष्णु महेश न तहिया। शास्त्रा वेद पुराण न कहिया।।
तब सब रहे पुरूष के माहीं। ज्यों बट वृक्ष मध्य रह छाहीं।।
छन्द
आदि उत्पत्ति सुनहु धर्मनि, कोइ न जानत ताहिहो।।
सबहि भो बिस्तर पाछे, साख (गवाही) देउँ मैं काहि हो।।
बेद चारों नाहिं जानत, सत्य पुरूष कहानियाँ।।
वेद को तब मूल नाहीं, अकथकथा बखानियाँ।।
सोरठा-निराकरतै वेद, आदिभेद जाने नहीं।।
पण्डित करत उछेद, मते वेद के जग चले।।
भावार्थ:- अनुराग सागर के पृष्ठ 13 की 7वीं पंक्ति से 20वीं पंक्ति में अंकित चैपाईयों में परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि हे धर्मदास! तू इस तत्त्वज्ञान को सुनने का अधिकारी मिला है। इसलिए तेरे को यह ज्ञान बताया। अब तेरे को आदि यानि प्रारम्भ की रचना का ज्ञान करवाता हूँ।
सृष्टि की आदि में क्या था?
हे धर्मदास! उस समय की बात सुन, जिस समय न तो पृथ्वी थी, न आकाश तथा पाताल बने थे। न तब कूर्म, शेष, बराह थे, न शारदा, पावर्ती तथा गणेश की उत्पत्ति हुई थी। उस समय ज्योति स्वरूपी काल निरंजन भी नहीं जन्मा था जिसने जीवों को कर्मों के बंधन में बाँध रखा है। और क्या बताऊँ उस समय न तो तैंतीस करोड़ देवता थे, न ब्रह्मा, विष्णु, महेश का जन्म हुआ था। तब न चारों वेद थे, न पुराण आदि शास्त्रा थे।
तब सब रहे पुरूष के मांही। ज्यों वट वृक्ष मध्य रहे बीज में छुपाई।।
उस समय सर्व रचना परमेश्वर यानि सत्यपुरूष के अंदर थी। जैसे वट वृक्ष (बड़ का वृक्ष) बीज में (जो राई के दाने के समान होता है) छुपा होता है। ऐसे सर्व रचना परमेश्वर में बीज रूप में रखी थी। परमेश्वर को भगलीगर भी कहा जाता है। जैसे एक जादूगर (भगलीगर) अपने मुख में एक काँच की छोटी-सी गोली डालता है। फिर मुख से आधा किलोग्राम का पत्थर निकाल देता है। इसी प्रकार परमात्मा ने सर्व रचना अपने वचन से अपने शरीर के अंदर से बाहर निकाली है। हे धर्मनि! आदि यानि सर्वप्रथम वाली रचना सुनाता हूँ जिसको कोई नहीं जानता और जो मैं बताने जा रहा हूँ, उसका साखी यानि साक्षी (गवाह) किसे बनाऊँ क्योंकि सब उपरोक्त देवता तथा पृथ्वी-आकाश आदि-आदि बाद में उत्पन्न किए हैं। आदि की उत्पत्ति का स्पष्ट वर्णन वेदों में भी नहीं है। वेद भी सत्यपुरूष की सत्य कथा को नहीं जानते। जो चार वेद काल निरंजन (जिसे भूल से निराकार मानते हैं) के श्वांसों से निकले थे। काल ने वेद का सत्यज्ञान वाला भाग नष्ट कर दिया था। शेष भाग को ऋषि कृष्ण द्वैपायन (जिसे वेदव्यास कहते हैं) ने बेद को चार भागों में बाँटा तथा कागज के ऊपर लिखा। वेदों वाला अधूरा ज्ञान है। उसी ज्ञान को पंडितजन जनता में सुनाते हैं। जिस कारण से सर्व मानव वेदों के अनुसार साधना करने लगे हैं।
सृष्टि की उत्पत्ति - अनुराग सागर पृष्ठ 14
(अनुराग सागर के पृष्ठ 14 से वाणियाँ)
सृष्टि की उत्पत्ति (सत्य पुरूष द्वारा की गई रचना)
सत्य परूष जब गुप्त रहाये। कारण करण नहीं निरमाये।।1
समपुट कमल रह गुप्त सनेहा। पुहुप माहिं रह पुरूष विदेहा।।2
इच्छा कीन्ह अंश उपजाये। हंसन देखि हरष बहुपाये।।3
प्रथमहिं पुरूष शब्द परकाशा। दीप लोक रचि कीन्ह निवासा।।4
चारि कर सिंहासन कीन्हा। तापर पुहुप दीपकर चीन्हा।।5
पुरूष कला धरि बैठे जहिया। प्रगटी अगर वासना तहिया।।6
सहस अठासी दीप रचि राखा। पुरूष इच्छातैं सब अभिलाखा।।7
सबै द्वीप रह अगर समायी। अगर वासना बहुत सुहायी।।8
भावार्थ:- वाणी नं. 1:- सत्यपुरूष अर्थात् अविनाशी परमेश्वर गुप्त रहते थे। उस समय कुछ भी रचना नहीं की थी।
वाणी नं. 2:- एक असंख्य पंखुड़ी का कमल का फूल था। उसके ऊपर परमेश्वर विराजमान थे। परमात्मा विदेह हैं, निराकार नहीं हैं। विदेह का अर्थ शरीर रहित यहाँ नहीं है। जैसे धर्मदास जी को कबीर परमेश्वर जी ने कहा था कि मैं विदेह हूँ। इसलिए आपका भोजन नहीं खाऊँगा। धर्मदास जी ने कहा कि आप जी का शरीर मैं प्रत्यक्ष देख रहा हूँ। आप बातें कर रहे हो। वस्त्रा पहने हुए हो। आपकी एक जिंदा बाबा वाली वेशभूषा है। आप अपने आपको विदेह कह रहे हो। यह भेद समझाओ। कबीर परमेश्वर जी ने कहा कि हे धर्मदास! मेरे हाथों को छूकर देख। धर्मदास जी ने परमेश्वर जी के चरण छूए तो रूई जैसे नरम (मुलायम) थे। धर्मदास जी हैरान थे। तब परमेश्वर जी ने कहा कि हे धर्मदास! मेरा शरीर आप जैसा पाँच तत्त्व से (नर-मादा से) निर्मित नहीं है। इसलिए मैं विदेही हूँ यानि मेरा विलक्षण शरीर है। विदेही का अर्थ है भिन्न शरीर। जैसा कि वाणी नं. 2 में कहा है कि परमात्मा कमल पुष्प पर विराजमान थे।
वाणी नं. 3:- स्वेच्छा से अंश उत्पन्न किए। उनको देखकर अति प्रसन्न हुए।
वाणी नं. 4:- सर्व प्रथम (कमल पुष्प पर बैठे-बैठे) परमेश्वर ने एक वचन से सर्व लोकों तथा द्वीपों की रचना की। फिर उन लोकों में स्वयं निवास किया और द्वीपों में अपने अंश यानि वचन से उत्पन्न पुत्रों को रहने की आज्ञा दी।
सर्व प्रथम सत्य पुरूष जी ने ऊपर के चार अविनाशी लोकों की रचना की। 1) अकह (अनामी) लोक 2) अगम लोक 3) अलख लोक 4) सत्यलोक।
वाणी नं. 5:- चारिकर सिंहासन कीन्हा। तापर पुहुप द्वीपर कर चीन्हा।।
भावार्थ:- इन चारों लोकों की रचना करके परमेश्वर जी ने प्रत्येक लोक में कमल के फूल के आकार के सिंहासन की रचना की।
वाणी नं. 6:- उन चारों लोकों में एक-एक कमल पुष्पनुमा सिंहासन की रचना करके पुरूष (सत्य पुरूष) के रूप में यानि एक सम्राट के समान मुकुट पहनकर ऊपर छत्र तानकर महाराजाओं की तरह बैठ गए।
उसके पश्चात् आगे की रचना की इच्छा प्रकट हुई। फिर अठासी हजार द्वीपों की रचना की।
सोलह पुत्रों (सुतों) को उत्पन्न करना
दुजे शब्द भयेजु पुरूष प्रकाशा। निकसे कूर्मचरण गहि आशा।।9
तीजे शब्द भयेजु पुरूष उच्चारा। ज्ञान नाम सुत उपजे सारा।।10
टेकी चरण सम्मुख ह्नै रहेऊ। आज्ञा पुरूष द्वीप तिन्ह दएऊ।।11
चैथे शब्द भये पुनि जबहीं। विवेकनाम सुत उपजे तबहीं।।12
आप पुरूष किये द्वीप निवासा। पंचम शब्द सो तेज प्रकासा।।13
पांचवे शब्द जब पुरूष उच्चारा। काल निरंजन भी औतारा।।14
तेज अंगते काल ह्नै आवा। ताते जीवन कह संतावा।।15
जीवरा अंश पुरूष का आहिं। आदि अंत कोउ जानत नाहीं।।16
छठे शब्द पुरूष मुख भाषा, प्रगटे सहजनाम अभिलाषा।।17
सतयें शब्द भयो संतोषा। दीन्हो द्वीप पुरूष परितोषा।।18
अठयें शब्द पुरूष उचारा। सुरति सुभाष द्वीप बैठारा।।19
नवमें शब्द आनन्द अपारा। दशयें शब्द क्षमा अनुसारा।।20
ग्यारहें शब्द नाम निष्कामा। बारहें शब्द जलरंगी नामा।।21
तेरहें शब्द अचिंत सुत जाने। चैदहें शब्द सुत प्रेम बखाने।।22
पन्द्रहें शब्द सुत दीन दयाला। सोलहें शब्द में धैर्य रसाला।।23
सत्रहवें शब्द सुतयोग संतायन। एक नाल षोडषसुत पायन।।
शब्दहिते भयो सुतन अकारा। शब्दते लोक द्वीप विस्तारा।।
अग्र अभी दिव्य अंश अहारा। द्वीप द्वीप अंशन बैठारा।।
अंशन शोभा कला अनन्ता। होत तहां सुख सदा बसन्ता।।
अंशन शोभा अगम अपारा। कला अनन्त को वरणै पारा।।
सब सुत करें पुरूष को ध्याना। अमी अहार सदासुख माना।।
याही बिधि सोलह सुत भेऊ। धर्मदास तुम चितधरि लेऊ।।
द्वीप करी को अनंत शोभा, नहि बरणतसो बने।।
अमितकला अपार अद्भुत, सुनत शोभा को गिने।।
पुरके उजियार से सुन, सबै द्वीप अजो रहो।।
सत पुरूष रोम प्रकाश एकहि, चन्द्र सूर्य करोर हो।।
सोरठा-सतगुरू आँन धाम, शोकमोहदुःख तहँ नहीं।।
हंसन को विश्राम, पुरूष दरश अँचवन सुधा।।
भावार्थ:- पंक्ति नं. 9 में कहा कि परमात्मा ने दूसरे शब्द से कूर्म की उत्पत्ति की। फिर पंक्ति नं. 10 से 13 तक कहा है कि तीसरे शब्द से ज्ञान नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। चैथे शब्द से विवेक नामक, पाँचवे शब्द से तेज नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। इसके पश्चात् पंक्ति नं. 14, 15, 16 बनावटी यानि झूठी हैं क्योंकि पंक्ति नं. 13 में वाणी स्पष्ट करती है। आप पुरूष रहे द्वीप निवासा। पंचम शब्द तेज प्रकाश।।
भावार्थ है कि परमात्मा ने स्वयं अपने द्वीप में बैठे-बैठे वहाँ से पाँचवां शब्द उच्चारण करके पाँचवां पुत्र तेज उत्पन्न किया।
- पंक्ति नं. 14:- पाँचवे शब्द पुरूष उच्चारा। काल निरंजन भो अवतारा।।
- पंक्ति नं. 15:- तेज अंग ते काल ह्नै आया। ताते जीवन कहै सतावा।।
- पंक्ति नं. 16:- जीवरा अंश पुरूष का आही। आदि अंत कोई जानत नाहीं।।
भावार्थ: पंक्ति नं. 14 से 16 तक बनावटी वाणी बनाकर अज्ञानता स्पष्ट की है। जब 13वीं पंक्ति में स्पष्ट है कि पाँचवें शब्द से परमात्मा ने तेज की उत्पत्ति की। फिर पंक्ति नं. 14 से 16 में यह कहना कि तेज से काल निरंजन का जन्म हुआ, कितनी मूर्खता है। काल निरंजन को तेज का पुत्र सिद्ध कर दिया जो गलत है। इस प्रकार तो तेरह सुत बनते हैं जो गलत है। दूसरा प्रमाण यह है कि पंक्ति नं. 9 से 13 तथा 17 से 23 तक अनुराग सागर के पृष्ठ 14 में तथा पृष्ठ नं. 15 पर प्रथम पंक्ति में प्रत्येक पुत्र के विषय में एक-एक वचन से उत्पत्ति कही है। तो पंक्ति नं. 13 में स्पष्ट है तेज की उत्पत्ति पाँचवे शब्द से परमेश्वर जी ने की। फिर तेज से काल निरंजन की उत्पत्ति बताना बनावटी वाणी का प्रत्यक्ष प्रमाण है।
वास्तव में परमेश्वर जी ने 17 वचनों से रचना की जो प्रथम चरण में की थी। एक वचन से सर्व लोक तथा लोकों में भिन्न-भिन्न द्वीप बनाए। फिर 16 वचनों से 16 पुत्रों की रचना की। दूसरे चरण में अक्षर पुरूष को मान सरोवर में सोये हुए को जगाने तथा निकालने के लिए सत्यपुरूष जी ने अमृत जल से एक अण्डा वचन से बनाया तथा उस अण्डे में वचन से एक आत्मा प्रवेश की। अण्डे का आकार बहुत बड़ा था। उसको सरोवर के जल में छोड़ दिया। उसकी गड़गड़ाहट की आवाज सुनकर अक्षर पुरूष निन्द्रा से जागा और अण्डे की और कोप से देखा। उस क्रोध से अण्डा फूट गया। उसमें से ज्योति निरंजन यानि काल निरंजन निकला। उन दोनों (अक्षर पुरूष तथा काल निरंजन) जिनको गीता अध्याय 15 श्लोक 16 में क्षर पुरूष तथा अक्षर पुरूष कहा है) को अचिन्त के द्वीप में रहने की आज्ञा दी। फिर काल निरंजन ने तीन बार (सत्तर युग, सत्तर युग तथा 64 युग) तपस्या करके यह इक्कीस ब्रह्माण्ड का क्षेत्र प्राप्त किया। विस्तृत सृष्टि रचना कृपा पढ़ें इसी पुस्तक के पृष्ठ 603 से 670 तक। यदि प्रमाण देखना है तो कबीर सागर के अध्याय स्वस्मबेद बोध पृष्ठ 90 से 92 तक तथा सर्वज्ञ सागर के पृष्ठ 137 तथा अध्याय कबीर बानी के पृष्ठ 117, 119 तथा 123 पर पढ़ें। काल निरंजन की उत्पत्ति अण्डे से हुई थी।
अनुराग सागर पृष्ठ 12 से 68 का सारांश
अनुराग सागर अध्याय में पृष्ठ 12 से 68 तक सृष्टि की रचना तथा काल के साथ वार्ता संबंधी अमृत ज्ञान है। यथार्थ रूप से सृष्टि रचना का ज्ञान पढ़ें इसी पुस्तक में अंदर लिखे पृष्ठ 603 से 670 तक।