जिन्दा बाबा का दूसरी बार अन्तध्र्यान होना

(धर्मदास जी ने कहा):- हे जिन्दा! आप यह क्या कह रहे हो कि श्री विष्णु जी तीनों लोको में केवल एक विभाग के मंत्री हैं। आप गलत कह रहे हो। श्री विष्णुजी तो अखिल ब्रह्माण्ड के स्वामी हैं। ये ही श्री ब्रह्मा रुप में उत्पत्ति करते हैं। विष्णु रुप होकर संसार का पालन करते हैं तथा शिव रुप होकर संहार करते हैं। ये तो कुल के मालिक हैं, यदि फिर से आपने श्री विष्णु जी को अपमानित किया तो ठीक बात नहीं रहेगी।

परमेश्वर कबीर जी ने कहा:-

मूर्ख के समझावतें, ज्ञान गाँठि का जाय।
कोयला होत न उजला, भावें सौ मन साबुन लाय।।

इतना कहकर परमेश्वर जिन्दा रुपधारी अंतध्र्यान हो गए। दूसरी बार परमेश्वर को खोने के पश्चात् धर्मदास बहुत उदास हो गए। भगवान विष्णु में इतनी अटूट आस्था थी कि आँखों प्रमाण देखकर भी झूठ को त्यागने को तैयार नहीं थे।

कबीर, जान बूझ साची तजै, करे झूठ से नेह।
ताकि संगति हे प्रभु, स्वपन में भी ना देह।।

कुछ देर के पश्चात् धर्मदास की बुद्धि से काल का साया हटा और अपनी गलती पर विचार किया कि सब प्रमाण गीता से ही प्रत्यक्ष किए गए थे। जिन्दा बाबा ने अपनी ओर से तो कुछ नहीं कहा। मैं कितना अभागा हूँ कि मैंने अपने हठी व्यवहार से देव स्वरुप तत्वदर्शी सन्त को खो दिया। अब तो वे देव नहीं मिलेंगे। मेरा जीवन व्यर्थ जाएगा। यह विचार करके धर्मदास सिहर उठा अर्थात् भय से काँपने लगा। खाना भी कम खाने लगा, उदास रहने लगा तथा मन-मन में अर्जी लगाने लगा हे देव! हे जिन्दा बाबा! एक बार दर्शन दे दो। भविष्य में ऐसी गलती कभी नहीं करुँगा। मैं आपसे करबद्ध प्रार्थना करता हूँ। मुझ मूर्ख की औछी-मन्दी बातों पर ध्यान न दो। मुझे फिर मिलो गुसांई। आप का ज्ञान सत्य, आप सत्य, आप जी का एक-एक वचन अमृत है। कृपया दर्शन दो नहीं तो अधिक दिन मेरा जीवन नहीं रहेगा।

तीसरे दिन परमेश्वर कबीर जी एक दरिया के किनारे वृक्ष के नीचे बैठे थे। आसपास कुछ आवारा गायें भी उसी वृक्ष के नीचे बैठी जुगाली कर रही थीं। कुछ दरिया के किनारे घास चर रही थी। धर्मदास की दृष्टि दरिया के किनारे पिताम्बर पहने बैठे सन्त पर पड़ी, देखा आस-पास गायें चर रही है। ऐसा लगा जैसे साक्षात् भगवान कृष्ण अपने लोक से आकर बैठे हों। धर्मदास उत्सुकता से सन्त के पास गया तथा देखा यह तो कोई सामान्य सन्त है। फिर भी सोचा चरण स्पर्श करके फिर आगे बढूँगा। धर्मदास जी ने जब चरणों का स्पर्श किया, मस्तक चरणों पर रखा तो ऐसा लगा कि जैसे रुई को छुआ हो। फिर चरणों को हाथों से दबा-दबाकर देखा तो उनमें कहीं भी हड्डी नहीं थी। उपर चेहरे की ओर देखा तो वही बाबा जिन्दा उसी पहले वाली वेशभूषा में बैठा था। धर्मदास जी ने चरणों को दृढ़ करके पकड़ लिया कि कहीं फिर से न चले जाऐं और अपनी गलती की क्षमा याचना की। कहा कि हे जिन्दा! आप तो तत्वदर्शी सन्त हो। मैं एक भ्रमित जिज्ञासु हूँ। जब तक मेरी शंकाओं का समाधान नहीं होगा, तब तक मेरा अज्ञान नाश कैसे होगा? आप तो महाकृपालु हैं। मुझ किंकर पर दया करो। मेरा अज्ञान हटाओ प्रभु।

प्रश्न 34 (धर्मदास जी का):- हे जिन्दा! यदि श्री विष्णु जी पूर्ण परमात्मा नहीं है तो कौन है पूर्ण परमात्मा, कृप्या गीता से प्रमाण देना?

उत्तर:- कृप्या पढ़ें प्रश्न नं. 15 का उत्तर जो जिन्दा रुपधारी परमेश्वर ने धर्मदास को सुनाया।

प्रश्न 35:- धर्मदास जी ने पूछा कि क्या श्री विष्णु जी और शंकर जी की पूजा करनी चाहिए?

उत्तर:- (जिन्दा बाबा का):- नहीं करनी चाहिए।

प्रश्न 36 (धर्मदास जी का):- कृपया गीता से प्रमाणित कीजिए।

उत्तर:- कृपया पढ़ें प्रश्न नं. 17 का उत्तर। धर्मदास को प्रभु ने सुनाया, गीता शास्त्र से प्रत्यक्ष प्रमाण देखकर धर्मदास की आँखें खुली की खुली रह गई। जैसे किसी को सदमा लग गया हो। झूठ कह नहीं सकता, स्वीकार करने के लिए अभी वक्त लगेगा।

जिन्दा रुपधारी परमेश्वर ने धर्मदास को सम्बोधित करते हुए कहा कि हे वैष्णव महात्मा! कौन-सी दुनिया में चले गये, लौट आओ। मानो धर्मदास नींद से जागा हो। सावधान होकर कहा, कुछ नहीं-कुछ नहीं। कृप्या और ज्ञान सुनाओ ताकि मेरा भ्रम दूर हो सके। परमेश्वर कबीर जी ने सृष्टि की रचना धर्मदास जी को सुनाई, कृपया पढ़ें इसी पुस्तक के पृष्ठ 389 पर।

सृष्टि रचना सुनकर धर्मदास जी को ऐसा लगा मानो पागल हो जाऊँगा क्योंकि जो ज्ञान आजतक हिन्दू धर्मगुरुओं, ऋषियों, महर्षियों-सन्तों से सुना था, वह निराधार तथा अप्रमाणित लग रहा था। जिन्दा बाबा हिन्दू सद्ग्रन्थों से ही प्रमाणित कर रहे थे। शंका का कोई स्थान नहीं था। मन-मन में सोच रहा था कि कहीं मैं पागल तो नहीं हो जाऊँगा?

प्रश्न 37:- (धर्मदास जी का): हे जिन्दा! क्या हिन्दू धर्म के गुरुओं तथा ऋषियों को शास्त्रों का ज्ञान नहीं है?

उत्तर:- (जिन्दा महात्मा का):- क्या यह बताने की भी आवश्यकता शेष है?

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