भक्त परमार्थी होना चाहिए

जैसे गाय स्वयं तो जंगल में खेतों में घास खाकर आती है। स्वयं जल पीती है। मानव को अमृत दूध पिलाती है। उसके दूध से घी बनता है। गाय सुत यानि गाय का बच्छा हल में जोता जाता है। इंसान का पोषण करता है। गाय का गोबर भी मनुष्य के काम आता है। मृत्यु उपरांत गाय के शरीर के चमड़े से जूती बनती हैं जो मानव के पैरों को काँटों-कंकरों से रक्षा करती है। मानव जन्म प्राप्त प्राणी परमार्थ न करके भक्ति से वंचित रहकर पाप करने में अनमोल जीवन नष्ट कर जाता है। माँसाहारी नर राक्षस की तरह गाय को मारकर उसके माँस को खा जाता है। महापाप का भागी बनता है। इस सम्बन्ध की परमेश्वर कबीर जी की निम्न वाणी पढ़ें:-

‘‘परमार्थी गऊ का दृष्टांत‘‘

गऊको जानु परमार्थ खानी। गऊ चाल गुण परखहु ज्ञानी।।
आपन चरे तृण उद्याना। अँचवे जल दे क्षीर निदाना।।
तासु क्षीर घृत देव अघाहीं। गौ सुत नर के पोषक आहीं।।
विष्ठा तासु काज नर आवे। नर अघ कर्मी जन्म गमावे।।
टीका पुरे तब गौ तन नासा। नर राक्षस गोतन लेत ग्रासा।।
चाम तासु तन अति सुखदाई। एतिक गुण इक गोतन भाई।।

‘‘परमार्थी संत लक्षण‘‘

गौ सम संत गहै यह बानी। तो नहिं काल करै जिवहानी।। नरतन लहि अस बु़द्धी होई। सतगुरू मिले अमर ह्नै सोई।। सुनि धर्मनि परमारथ बानी। परमारथते होय न हानी।। पद परमारथ संत अधारा। गुरू सम लेई सो उतरे पारा।। सत्य शब्द को परिचय पावै। परमारथ पद लोक सिधावै।। सेवा करे विसारे आपा। आपा थाप अधिक संतापा।। यह नर अस चातुर बुद्धिमाना। गुन सुभ कर्म कहै हम ठाना।। ऊँचा कर्म अपने सिर लीन्हा। अवगुण कर्म पर सिर दीन्हा।। तात होय शुभ कर्म विनाशा। धर्मदास पद गहो विश्वासा।। आशा एक नामकी राखे। निज शुभकर्म प्रगट नहिं भाखे।। गुरूपद रहे सदा लौ लीना। जैसे जलहि न विसरत मीना।। गुरू के शब्द सदा लौ लावे। सत्यनाम निशदिन गुणगावे।। जैसे जलहि न विसरे मीना। ऐसे शब्द गहे परवीना।। पुरूष नामको अस परभाऊ। हंसा बहुरि न जगमहँ आऊ।। निश्चय जाय पुरूष के पासा। कूर्मकला परखहु धर्मदासा।।

भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने धर्मदास जी के माध्यम से मानव मात्र को संदेश व निर्देश दिया है। कहा है कि मानव को गाय की तरह परमार्थी होना चाहिए। जिनको सतगुरू मिल गया है, वे तो अमर हो जाएंगे। घोर अघों (पापों) से बच जाएंगे, सेवा करें तो अपनी महिमा की आशा न करें। यदि अपने आपको थाप (मान-बड़ाई के लिए अपने आपको महिमावान मान) लेगा तो उसको अधिक कष्ट होगा। शुभ कर्म नष्ट हो जाएंगे।

उपदेशी केवल एक नाम की आशा रखे। मान-बड़ाई की चाह हृदय से त्याग दे। अपने शुभ कर्म (दान या अन्य सेवा) किसी के सामने न बताए। गुरू जी के पद (चरण) यानि गुरू की शरण में ऐसे रहे जैसे जल में मीन रहती है। मछली एक पल भी पानी के बिना नहीं रह सकती। तुरंत मर जाती है। ऐसे गुरू की शरण को महत्त्व देवे। गुरू जी द्वारा दिए शब्द यानि जाप मंत्र (सतगुरू शब्द) जो सत्यनाम है यानि वास्तविक भक्ति मंत्र में सदा लीन रहे जो पुरूष (परमात्मा) का भक्ति मंत्र है, उसका ऐसा प्रभाव है, उसमें इतनी शक्ति है कि साधक पुनः संसार में जन्म-मरण के चक्र में नहीं आता। वह वहाँ चला जाता है जो सनातन परम धाम, जहाँ परम शांति है। जहाँ जाने के पश्चात् साधक कभी लौटकर संसार में नहीं आता। यही प्रमाण श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में है। गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि हे अर्जुन! तू सर्वभाव से उस परमेश्वर की शरण में जा, उस परमेश्वर की कृपा से ही तू परम शांति को तथा सनातन परम धाम (शाश्वतम् स्थानम्) को प्राप्त होगा।(अध्याय 18 श्लोक 62)

गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि तत्त्वज्ञान प्राप्ति के पश्चात् परमेश्वर के उस परम पद की खोज करनी चाहिए जहाँ जाने के पश्चात् साधक लौटकर कभी संसार में नहीं आता। जिस परमेश्वर ने संसार रूपी वृक्ष की रचना की है, उसी की भक्ति करो।(अध्याय 15 श्लोक 4)

गीता ज्ञान दाता ने अपनी नाशवान अर्थात् जन्म-मरण की स्थिति गीता अध्याय 2 श्लोक 12, अध्याय 4 श्लोक 5, 9 में तथा अध्याय 10 श्लोक 2 में स्पष्ट ही रखी है कि अर्जुन! तेरे और मेरे बहुत जन्म हो चुके हैं, तू नहीं जानता, मैं जानता हूँ। पाठकजनो! गीता से स्पष्ट हुआ कि गीता ज्ञान दाता (काल ब्रह्म है जो श्री कृष्ण जी के शरीर में प्रवेश करके बोल रहा था) नाशवान है, जन्म-मरण के चक्र में है तो उसके उपासक की भी यही स्थिति होती है। इसलिए गीता अध्याय 18 श्लोक 62 तथा अध्याय 15 श्लोक 4 में वर्णित लाभ प्राप्त नहीं हो सकता। दूसरी बात यह सिद्ध होती है कि गीता ज्ञान दाता से कोई अन्य समर्थ तथा सर्व लाभदायक परमेश्वर है जिसकी शरण में जाने के लिए गीता ज्ञान दाता यानि काल ब्रह्म ने कहा है। वह परमेश्वर कबीर बन्दी छोड़ जी हैं। उन्होंने अपनी महिमा स्वयं ही कही है जो आप जी कबीर सागर में पढ़ रहे हैं। परमेश्वर ने अनुराग सागर पृष्ठ 13 पर कहा कि सत्य पुरूष द्वारा रची सृष्टि के विषय में बताई कथा का साक्षी किसको बनाऊँ क्योंकि सबकी उत्पत्ति बाद में हुई है। पहले अकेले सतपुरूष थे। यहाँ पर विवेक करने की बात यह है कि कबीर जी को ज्ञान कहाँ से हुआ? जब सृष्टि रचना के समय कोई नहीं था। इससे स्वसिद्ध है कि ये स्वयं पूर्ण परमात्मा सृष्टि के सृजनहार हैं। जिन महान आत्माओं को परमेश्वर कबीर जी मिले हैं, उन्होंने भी यही साक्ष्य दिया है कि:-

गरीब, अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड का, एक रति नहीं भार।
सतगुरू पुरूष कबीर हैं, कुल के सिरजनहार।।

भावार्थ इस वाणी से ही स्पष्ट है।

‘‘कूर्म कला परखो धर्मदासा‘‘ का भावार्थ है कि जैसे कूर्म यानि कच्छवा आपत्ति के समय अपने मुख तथा पैरों को अपने अंदर छुपाकर निष्क्रिय हो जाता है। आपत्ति टलने के तुरंत पश्चात् अपने मार्ग पर चल देता है। इसी प्रकार भक्त को चाहिए कि यदि सांसारिक व्यक्ति आपके भक्ति मार्ग में बाधा उत्पन्न करे तो उसको उलटकर जवाब न देकर अपनी भक्ति को छुपाकर सुरक्षित रखे। सामान्य स्थिति होते ही फिर उसी गति से साधना करे। इस प्रकार करने से ‘‘निश्चय जाय पुरूष के पासा‘‘ वह साधक परमात्मा के पास अवश्य चला जाएगा। अनुराग सागर पृष्ठ 163 (281) पर:-

सोरठा:- हंस तहां सुख बिलसहीं, आनन्द धाम अमोल। पुरूष तनु छवि निरखहिं, हंस करें किलोल।।

भावार्थ:- उपरोक्त ज्ञान के आधार से साधना करके साधक अमर धाम में चला जाता है। वहाँ पर आनन्द भोगता है। वह सतलोक बेसकीमती है। वहाँ पर सत्यपुरूष के शरीर की शोभा देखकर आनन्द मनाते हैं।

दीक्षा लेकर नाम का स्मरण करना अनिवार्य है:-

अध्याय ‘‘बीर सिंह बोध‘‘ पृष्ठ 123 पर:-

राजा बीर सिंह की एक छोटी रानी सुंदरदेई थी। उसने भी परमेश्वर कबीर जी से दीक्षा ले रखी थी। उसने सत्संग बहुत सुने थे। विश्वास कम था, नाम की कमाई यानि साधना नहीं करती थी। जब रानी का अंतिम समय आया तो यम के दूत राजभवन में प्रवेश कर गए। फिर यमदूत रानी के शरीर में प्रवेश कर गए और अंतिम श्वांस का इंतजार करने लगे। उस समय रानी सुंदरदेई के शरीर में बेचैनी हो गई। यमदूत दिखाई देने लगे। राजा ने रानी से पूछा कि क्या बात है? रानी

ने कहा कि मुझे राजपाट, महल, आभूषण, कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा है। रानी ने कहा कि साधु-भक्तों को बुलाकर परमात्मा की चर्चा कराओ। साधु तथा भक्त आकर परमात्मा की चर्चा तथा भक्ति करने लगे। उससे कोई लाभ नहीं हुआ। रानी के शरीर में कष्ट और बढ़ गया। अर्ध-अर्ध यानि आधा श्वांस चलने लगा। श्वांस खींच-खींचकर आने-जाने लगा। हृदय कमल को त्यागकर जीव भयभीत होकर त्रिकुटी की ओर भागा। यम दूतों ने चारों ओर से घेर लिया। चारों यमदूतों ने जीव को घेरकर कहा कि आप चलो! हरि (प्रभु) ने तुम्हें बुलाया है। तब रानी के जीव को सत्संग वचन याद आए। उसने यमदूतों से कहा कि हे बटपार! हे जालिमों! तुम यहाँ कैसे आ गए? हमारा सतगुरू हमारा मालिक है। आप हमें नहीं ले जा सकते। मेरे सतगुरू धनी (मालिक) ने मुझे नाम दिया है। मेरे गुरूजी आएंगे तो मैं जाऊँगी। यह बात सुनकर यम के दूत बोले कि यदि आपका कोई खसम (धनी) है तो उसको बुलाओ, नहीं तो हमारे साथ परमात्मा के दरबार में चलो। जीव ने कहा कि:-

धरनी (पृथ्वी) आकाश से नगर नियारा। तहाँ निवाजै धनी हमारा।।
अगम शब्द जब भाखै नाऊं। तब यम जीव के निकट नहीं आऊं।।

भावार्थ:- पहले तो रानी को विश्वास नहीं हो रहा था कि जो सतगुरू जी सत्संग में ज्ञान सुना रहे हैं, वह सत्य है। वह सोचती थी कि यह केवल कहानी है क्योंकि सब नौकर-नौकरानी आज्ञा मिलते ही दौड़े आते थे। मनमर्जी का खाना खाती थी, सुंदर वस्त्रा, आभूषण पहनती थी। उसने सोचा था कि ऐसे ही आनन्द बना रहेगा। यह तो पूर्व जन्म की बैटरी चार्ज थी। वर्तमान में चार्जर मिला (नाम मिला) तो चालू नहीं किया यानि साधना नहीं की। जब बैटरी की चार्जिंग समाप्त हो जाती है, बैटरी डाउन हो जाती है तो सर्व सुविधाऐं बंद हो जाती हैं। फिर न पंखा चलता है, न बल्ब जगता है। बटन दबाते रहो, कोई क्रिया नहीं होती। इसी प्रकार जीव का पूर्व जन्म की भक्ति का धन यानि चार्जिंग समाप्त हो जाती है तो सर्व सुविधाऐं छीन ली जाती हैं। जीव को नरक में डाल दिया जाता है, तब उसको अक्ल आती है। उस समय वक्त हाथ से निकल चुका होता है। केवल पश्चाताप और रोना शेष रह जाता है। रानी सुंदरदेई ने सत्संग सुन रखा था। पूर्ण सतगुरू से दीक्षा ले रखी थी। नाम की कमाई नहीं की थी। वह गुरूद्रोही नहीं हुई थी। गुरू निंदा नहीं करती थी। रानी ने सतगुरू को याद किया कि हे सतगुरू! हे मेरे धनी! मेरे को यमदूतों ने घेर रखा है। मुझ दासी को छुड़ावो। मैंने आपकी दीक्षा ले रखी है। आज मुझे पता चला कि ऐसी आपत्ति में न पति, न पत्नी, ने बेटा-बेटी, भाई-बहन, राजा-प्रजा कोई सहायक नहीं होता। रानी के जीव ने हृदय से सतगुरू को पुकारा। तुरंत सतगुरू कबीर जी वहाँ उपस्थित हुए। रानी ने दौड़कर सतगुरू देव जी के चरण लिए। उसी समय यमदूत भागकर हरि यानि धर्मराज के पास गए और बताया कि उसका सतगुरू आया तो वहाँ पर प्रकाश हो गया। जीव ने सत सुकृत नाम जपा था। उसको इतना ही याद था। इस कारण से उसको यमदूतों से छुड़वाया तथा पुनः जीवन बढ़ाया। तब रानी ने दिल से भक्ति की। फिर सतगुरू कबीर जी ने पुनः सतनाम, सारनाम दिया, उसकी कमाई की। संसार असार दिखाई देने लगा। राज, धन, परिवार पराया दिखाई दे रहा था। जाने का समय निकट लग रहा था। इस कारण से रानी ने तन-मन-धन सतगुरू चरणों में समर्पित करके भक्ति की तो सत्यलोक में गई। वहाँ परमेश्वर (सत्य पुरूष) ने रानी के जीव के सामने अपने ही दूसरे रूप सतगुरू से प्रश्न किया कि हे कड़िहार! (तारणहार) मेरे जीव को यमदूतों ने कैसे रोक लिया? सतगुरू रूप में कबीर जी ने कहा कि हे परमेश्वर! इसने दीक्षा लेकर भक्ति नहीं की। इस कारण से इसको यमदूतों ने घेर लिया था। मैंने छुड़वाया। परमेश्वर कबीर जी ने जीव से कहा कि आपने भक्ति क्यों नहीं की? सत्यलोक में कैसे आ गई?

सिर नीचा करके जीव ने कहा कि पहले मुझे विश्वास नहीं था। फिर यमदूतों की यातना देखकर मुझे आपकी याद आई। आपका ज्ञान सत्य लगा। आपको पुकारा। आपने मेरी रक्षा की। फिर मेरे को वापिस जीवन दिया गया। तब मैंने दिलोजान से आपकी भक्ति की। पूर्ण दीक्षा प्राप्त करके आपकी ही कृपा से गुरू जी के सहयोग से मैं यहाँ आपके चरणों में पहुँच पाई हँू। सत्यलोक में जाकर भक्त अन्य भक्तों के पास भेज दिया जाता है। संुदर अमर शरीर मिलता है। बहुत बड़ा आवास महल मिलता है। विमान आँगन में खड़ा है। सिद्धियां आदेश का इंतजार करती हैं। तुरंत विद्युत की तरह सक्रिय होती हैं जैसे बिजली का बटन (switch) दबाते ही बिजली से चलने वाला यंत्र तुरंत कार्य करने लगता है। ऐसे वहाँ पर वचन का बटन (switch) है। जो वस्तु चाहिए बोलिये। वस्तु-पदार्थ आपके पास उपस्थित होगा। जैसे भोजन खाने की इच्छा होते ही आपके भोजनस्थल पर गतिविधि प्रारम्भ हो जाएंगी, थाली-गिलास रखे जाएंगे। कुछ देर में खाने की इच्छा बनी तो सिद्धि से उठकर रसोई में रखे जाएंगे। मिनट पश्चात् इच्छा हुई तो भी उसी समय व्यवस्था हो जाएगी। घूमने की इच्छा हुई तो विमान में गतिविधि महसूस होगी। विमान के निकट जाते ही द्वार खुल जाएगा। विमान स्टार्ट हो जाएगा। जहाँ जिस द्वीप में जाने की इच्छा होगी, विचार करने पर विमान उसी ओर उड़ चलेगा। इच्छा करते ही ताजे-ताजे फल वृक्षों से तोड़कर लाकर आपके समक्ष रख दिए जाएंगे। सत्यलोक की नकल यह काल लोक है। इसी तरह स्त्राी-पुरूष परिवार हैं। सत्यलोक में दो तरह से संतानों की उत्पत्ति होती है। शब्द से तथा मैथुन से। वह हंस पर निर्भर करता है। वचन से संतानोपत्ति वाला क्षेत्र सतपुरूष के सिंहासन के चारों ओर है। नर-नारी से परिवार वाला क्षेत्र उसके बाद में है। वचन से संतान उत्पन्न करने वाले केवल नर ही उत्पन्न करते हैं। सत्यलोक में वृद्धावस्था नहीं है। नर-नारी वाले क्षेत्र में लड़के तथा लड़कियां दोनों उत्पन्न करते हैं। विवाह करते हैं केवल वचन से। जो बच्चे उत्पन्न होते हैं, वे काल लोक से मुक्त होकर गए जीव जन्म लेते हैं। फिर कभी नहीं मरते, न वृद्ध होते। जो सत्यलोक में मुक्त होकर जाते हैं, उनको सर्वप्रथम सत्यपुरूष जी के दर्शन कराए जाते हैं। उस समय उसका वही स्वरूप रहता है जैसा पृथ्वी से आता है, परंतु वृद्ध नीचे से गया तो वहाँ सतपुरूष के सामने उसी अवस्था व स्वरूप में जाता है। उसका प्रकाश सोलह सूर्यों के प्रकाश जितना हो जाता है। उसके पश्चात् उसको उस स्थान पर भेजा जाता है जो सबसे भिन्न है। वहाँ जाते ही उसका स्वरूप तो वैसा ही रहता है, लेकिन उसके शरीर का प्रकाश सोलह सूर्यों जैसा हो जाता है, परंतु यदि वृद्ध नीचे से गया है तो युवा अवस्था हो जाती है। जवान है तो जवान ही रहता है, बालक है तो बालक ही रहता है। वहाँ पर कुछ को सत्य पुरूष के वचन से स्त्राी-पुरूष का शरीर मिलता है। कुछ बीज रूप में सतपुरूष द्वारा बनाए जाते हैं जिनका फिर एक बार किसी के घर सत्यलोक में जन्म होगा, परिवार बनेगा। उस स्थान पर वे हंस एक बार जन्म लेंगे जो काल लोक तथा अक्षर लोक से मुक्त होकर जाते हैं। एकान्त स्थान पर रखे जाते हैं। वे दोनों क्षेत्रों में जन्म लेते हैं। (वचन से उत्पन्न होने वाले तथा स्त्राी-पुरूष से जन्म लेने वाले में) स्त्राी-पुरूष से उत्पत्ति की औसत अधिक होती है। यह औसत 10/90 होती है। यह 10% वचन से उत्पत्ति, 90% विवाह रीति से उत्पत्ति होती है।

सत्यलोक में स्त्राी तथा नर के शरीर का प्रकाश सोलह सूर्यों के प्रकाश के समान होता है। मीनी सतलोक, मानसरोवर पहले हैं। वहाँ दोनों के शरीर का प्रकाश चार सूर्यों के समान होता है। फिर आगे जाते हैं। जब परब्रह्म के लोक में बने अष्ट कमल के पास पहुँचते हैं तो हंस तथा हंसनी यानि नर-नारी के शरीर का प्रकाश 12 सूर्यों के प्रकाश के समान हो जाता है। फिर सत्यलोक में बनी भंवर गुफा में प्रत्येक के शरीर का प्रकाश सोलह सूर्यों के समान हो जाता है।

प्रमाण कबीर सागर अध्याय ‘‘मोहम्मद बोध‘‘ पृष्ठ 20, 21 तथा 22 पर दश मुकामी रेखताः-

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