श्राद्ध-पिण्डदान करें या न करें
वाणी सँख्या 3:- जीवित बाप से लठ्ठम-लठ्ठा, मूवे गंग पहुँचईयाँ।
जब आवै आसौज का महीना, कऊवा बाप बणईयाँ।।3।।
भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने लोकवेद (दंत कथा) के आधार से चल रही पितर तथा भूत पूजा पर शास्त्रोक्त तर्क दिया है। कहा है कि शास्त्रोक्त अध्यात्म ज्ञान के अभाव से बेटे अपने पिता से किसी न किसी बात पर विरोध करते हैं। पिता जी अपने अनुभव के आधार से बेटे से अपने व्यवसाय में टोका-टाकी कर देते हैं। पिता जी को पता होता है कि इस कार्य में पुत्र को हानि होगी। परंतु पुत्र पिता की शिक्षा कम बाहर के व्यक्तियों की शिक्षा को अधिक महत्व देता है। उसे ज्ञान नहीं होता कि पिता जैसा पुत्र का हमदर्द कोई नहीं हो सकता। पुत्र को जवानी और अज्ञानता के नशे के कारण शिष्टाचार का टोटा हो जाता है। पिता को पता होता है कि बेटा इस कार्य में हानि उठाएगा। परंतु पुत्र पिता की बात नहीं मानता है। उल्टा पिता को भला-बुरा कहता है। पिता अपने पुत्र के नुकसान को नहीं देख सकता। वह फिर उसको आग्रह करता है कि पुत्र! ऐसा ना कर। जिस कारण से जवानी के नशे से हुई सभ्यता की कमी के कारण इतने निर्लज्ज हो जाते हैं, कई पुत्रों को देखा है जो पिता को डण्डों से पीट देते हैं। वही होता है जो पिता को अंदेशा था। पिता फिर समझाता है कि आगे से ऐसा ना करना। यह हानि तो धीरे-धीरे पूरी हो जाएगी। पिता-पिता ही होता है। वह पुत्र-पुत्रु को सुखी देखना चाहता है। आगे चलकर जो पिता भक्ति नहीं कर रहा था, उसे कोई न कोई रोग वृद्ध अवस्था में अवश्य घेर लेता है। संतान बहुत कम है जो पिता को वह प्रेम दे जो माता-पिता अपने पुत्र तथा पुत्रवधु से अपेक्षा किया करते हैं। वर्तमान में वृद्धों की बेअदबी किसी से छिपी नहीं है। माता-पिता वृद्धाश्रमों या अनाथालयों में जीवन के शेष दिन पूरे कर रहे हैं या घर पर पुत्र व पुत्रवधु के कटु वचन (कड़वे बोल) पीकर जीवन के दिन गिन रहे हैं। कबीर जी ने कहा है कि:-
वृद्ध हुआ जब पड़ै खाट में, सुनै वचन खारे। कुत्ते तावन का सुख भी कोन्या, छाती फूकन हारे।।
शब्दार्थ:- वृद्ध अवस्था में शरीर निर्बल हो जाता है। आँखों की रोशनी कम हो जाती है। जिस कारण से वृद्ध पिता-माता अधिक समय चारपाई पर व्यतीत करते हैं। एक स्त्री अपनी सासू माँ से यह कहकर कुऐं या नल से पानी लेने चली गई कि आप ध्यान रखना। कहीं कुत्ता घर में घुसकर नुकसान न कर दे। वृद्धा को दिखाई कम देता था। कुत्ता अंदर घर में घुस गया, एक लोटा दो किलो दूध से भरा रखा था। उसको पी गया और गिरा गया। वृद्धा को दिखाई नहीं दिया। पुत्रवधु आई और कुत्ते द्वारा किए नुकसान से क्रोधित होकर बोली कि तुम्हारा (सास-ससुर का) तो इतना भी सुख नहीं रहा कि कुत्तों से घर की रक्षा कर सको। तुमने मेरी छाती जला दी यानि व्यर्थ का अनाज का खर्च पुत्रवधु को लग रहा था। जिस कारण कटी-जली बातें कही थी। सास-ससुर को अपने ऊपर व्यर्थ का भार मान रही थी। कबीर जी ने बताया है कि यह दशा उन व्यक्तियों की होती है जो परमात्मा को कभी याद नहीं करते जो गुरू धारण करके सत्य भक्ति नहीं करते।
अब वाणी सँख्या 3 का शब्दार्थ पूरा करता हूँ।
अंध श्रद्धा भक्ति वाले जब तक माता-पिता जीवित रहते हैं, तब तक तो उनको प्यार व सम्मान के साथ कपड़ा-रोटी भी नहीं देते। झींकते रहते हैं। (सब नहीं।) मृत्यु के उपरांत श्रद्धा दिखाते हैं। उसके शरीर को चिता पर जला दिया जाता है। कुछ हड्डियाँ बिना जली छोटी-छोटी रह जाती हैं। शास्त्र नेत्रहीन गुरूओं से भ्रमित पुत्र उन अस्थियों को उठाकर हरिद्वार में हर की पौड़ियों पर अपने कुल के पुरोहित के पास ले जाता है। उस पुरोहित द्वारा शास्त्रविरूद्ध साधना के आधार से मनमाना आचरण करके उन अस्थियों को पवित्र गंगा दरिया में प्रवाह किया जाता है। जो धनराशि पुरोहित माँगे, खुशी-खुशी दे देता है। कारण यह होता है कि कहीं पिता या माता मृत्यु के उपरांत प्रेत बनकर घर में न आ जाऐं। इसलिए उनकी गति करवाने के लिए कुलगुरू पंडित जी को मुँह माँगी धनराशि देते हैं कि पक्का काम कर देना। फिर पुरोहित के कहे अनुसार अपने घर की चोखट में लोहे की मेख (मोटी कील) गाड़ दी जाती है कि कहीं पिता जी-माता जी की गति होने में कुछ त्रुटि रह जाए और वे प्रेत बनकर हमारे घर में न घुस जाऐं।
कबीर परमेश्वर जी ने बताया है कि जीवित पिता को तो समय पर टूक (रोटी) भी नहीं दिया जाता। उसका अपमान करता है। (सभी नहीं, अधिकतर) मृत्यु के पश्चात् उसको पवित्र दरिया में बहाकर आता है। कितना खर्च करता है। अपने माता-पिता की जीवित रहते प्यार से सेवा करो। उनकी आत्मा को प्रसन्न करो। उनकी वास्तविक श्रद्धा सेवा तो यह है।
कबीर जी जो स्पष्ट करना चाहते हैं कि आध्यात्मिक ज्ञान न होने के कारण अंध श्रद्धा भक्ति के आधार से सर्व हिन्दू समाज अपना अनमोल जीवन नष्ट कर रहा है। जैसे मृत्यु के उपरांत अपने पिता जी की अस्थियाँ गंगा दरिया में पुरोहित द्वारा क्रिया कराकर पिता जी की गति करवाई।
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फिर तेरहवीं या सतरहवीं यानि मृत्यु के 13 दिन पश्चात् की जाने वाली क्रिया को तेरहवीं कहा जाता है। सतरह दिन बाद की जाने वाली लोकवेद धार्मिक क्रिया सतरहवीं कहलाती है। महीने बाद की जाने वाली महीना क्रिया तथा छः महीने बाद की जाने वाली छःमाही तथा वर्ष बाद की जाने वाली बर्षी क्रिया (बरसौदी) कही जाती है। लोकवेद (दंत कथा) बताने वाले गुरूजन उपरोक्त सब क्रियाऐं करने को कहते हैं। ये सभी क्रियाऐं मृतक की गति के उद्देश्य से करवाई जाती हैं।
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सूक्ष्मवेद में इस शास्त्र विरूद्ध धार्मिक क्रियाओं यानि साधनाओं पर तर्क इस प्रकार किया है कि घर के सदस्य की मृत्यु के पश्चात् ज्ञानहीन गुरूजी क्या-क्या करते-कराते हैं:-
कुल परिवार तेरा कुटम्ब-कबीला, मसलित एक ठहराई।
बांध पींजरी (अर्थी) ऊपर धर लिया, मरघट में ले जाई।
अग्नि लगा दिया जब लम्बा, फूंक दिया उस ठांही।
पुराण उठा फिर पंडित आए, पीछे गरूड़ पढ़ाई।
प्रेत शिला पर जा विराजे, पितरों पिण्ड भराई।
बहुर श्राद्ध खाने कूं आए, काग भए कलि माहीं।
जै सतगुरू की संगति करते, सकल कर्म कटि जाई।
अमरपुरी पर आसन होता, जहाँ धूप न छांई।
शब्दार्थ:- कुछ व्यक्ति मृत्यु के पश्चात् उपरोक्त क्रियाऐं तो करते ही हैं, साथ में गरूड़ पुराण का पाठ भी करते हैं। परमेश्वर कबीर जी ने सूक्ष्मवेद (तत्वज्ञान) की वाणी में स्पष्ट किया है कि लोकवेद (दंत कथा) के आधार से ज्ञानहीन गुरूजन मृतक की आत्मा की शांति के लिए गरूड़ पुराण का पाठ करते हैं। गरूड़ पुराण में एक विशेष प्रकरण है कि जो व्यक्ति धर्म-कर्म ठीक से नहीं करता तथा पाप करके धन उपार्जन करता है, मृत्यु के उपरांत उसको यम के दूत घसीटकर ले जाते हैं। ताम्बे की धरती गर्म होती है, नंगे पैरों उसे ले जाते हैं। उसे बहुत पीड़ा देते हैं। जो शुभ कर्म करके गए होते हैं, वे स्वर्ग में हलवा-खीर आदि भोजन खाते दिखाई देते हैं। उस धर्म-कर्महीन व्यक्ति को भूख-प्यास सताती है। वह कहता है कि भूख लगी है, भोजन खाऊँगा। यमदूत उसको पीटते हैं। कहते हैं कि यह भोजन खाने के कर्म तो नहीं कर रखे। चल तुझे धर्मराज के पास ले चलते हैं। जैसा तेरे लिए आदेश होगा, वैसा ही करेंगे। धर्मराज उसके कर्मों का लेखा देखकर कहता है कि इसे नरक में डालो या प्रेत व पितर, वृक्ष या पशु-पक्षियों की योनि दी जाती हैं। पितर योनि भूत प्रजाति की श्रेष्ठ योनि है। यमलोक में भूखे-प्यासे रहते हैं। उनकी तृप्ति के लिए श्राद्ध निकालने की प्रथा शास्त्रविरूद्ध मनमाने आचरण के तहत शुरू की गई है। कहा जाता है कि एक वर्ष में जब आसौज (अश्विन) का महीना आता है तो भादवे (भाद्र) महीने की पूर्णमासी से आसौज महीने की अमावस्या तक सोलह श्राद्ध किए जाऐं। जिस तिथि को जिसके परिवार के सदस्य की मृत्यु होती है, उस दिन वर्ष में एक दिन श्राद्ध किया जाए। ब्राह्मणों को भोजन करवाया जाए। जिस कारण से यमलोक में पितरों के पास भोजन पहुँच जाता है। वे एक वर्ष तक तृप्त रहते हैं। कुछ भ्रमित करने वाले गुरूजन यह भी कहते हैं कि श्राद्ध के सोलह दिनों में यमराज उन पितरों को नीचे पृथ्वी पर आने की अनुमति देता है। पितर यमलोक (नरक) से आकर श्राद्ध के दिन भोजन करते हैं। हमें दिखाई नहीं देते या हम पहचान नहीं सकते।
भ्रमित करने वाले गुरूजन अपने द्वारा बताई शास्त्रविरूद्ध साधना की सत्यता के लिए इस प्रकार के उदाहरण देते हैं कि रामायण में एक प्रकरण लिखा है कि वनवास के दिनों में श्राद्ध का समय आया तो सीता जी ने भी श्राद्ध किया। भोजन खाते समय सीता जी को श्री रामचन्द्र जी पिता दशरथ सहित रघुकुल के कई दादा-परदादा दिखाई दिए। उन्हें देखकर सीता जी को शर्म आई। इसलिए मुख पर पर्दा (घूंघट) कर लिया।
विचार करो पाठकजनो:- श्री रामचन्द्र के सर्व वंशज प्रेत-पितर बने हैं तो अन्य सामान्य नागरिक भी वही क्रियाऐं कर रहे हैं। वे भी नरक में पितर बनकर पितरों के पास जाऐंगे। इस कारण यह शास्त्रविधि विरूद्ध साधना है जो पूरा हिन्दू समाज कर रहा है। श्रीमद्भगवत गीता के अध्याय 9 का श्लोक 25 भी यही कहता है कि जो पितर पूजा (श्राद्ध आदि) करते हैं, वे मोक्ष प्राप्त नहीं कर पाते, वे यमलोक में पितरों को प्राप्त होते हैं।
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जो भूत पूजा (अस्थियाँ उठाकर पुरोहित द्वारा पूजा कराकर गंगा में बहाना, तेरहवीं, सतरहवीं, महीना, छःमाही, वर्षी आदि-आदि) करते हैं, वे प्रेत बनकर गया स्थान पर प्रेत शिला पर बैठे होते हैं।
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कुछ व्यक्तियों को धर्मराज जी कर्मानुसार पशु, पक्षी, वृक्ष आदि-आदि के शरीरों में भेज देता है।
परमात्मा कबीर जी समझाना चाहते हैं कि हे भोले प्राणी! गरूड़ पुराण का पाठ उसे मृत्यु से पहले सुनाना चाहिए था ताकि वह परमात्मा के विधान को समझकर पाप कर्मों से बचता। पूर्ण गुरू से दीक्षा लेकर अपना मोक्ष करता। जिस कारण से वह न प्रेत बनता, न पितर बनता, न पशु-पक्षी आदि-आदि के शरीरों में कष्ट उठाता। मृत्यु के पश्चात् गरूड़ पुराण के पाठ का कोई लाभ नहीं मिलता।
सूक्ष्मवेद (तत्वज्ञान) में तथा चारों वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद) तथा इन चारों वेदों के सारांश गीता में स्पष्ट किया है कि उपरोक्त आन-उपासना नहीं करनी चाहिए क्योंकि ये शास्त्रों में वर्णित न होने से मनमाना आचरण है जो गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में व्यर्थ बताया है। शास्त्रोक्त साधना करने का आदेश दिया है। सर्व हिन्दू समाज उपरोक्त आन-उपासना करते हैं जिससे भक्ति की सफलता नहीं होती। जिस कारण से नरकगामी होते हैं तथा प्रेत-पितर, पशु-पक्षी आदि के शरीरों में महाकष्ट उठाते हैं।
कबीर जी के वकील (लेखक) का उद्देश्य किसी की साधना की आलोचना करना नहीं है, अपितु आप जी को सत्य साधना का ज्ञान करवाकर इन कष्टों से बचाना है।
प्रसंग चल रहा है कि जो शास्त्रविरूद्ध साधना करते हैं, उनके साथ महाधोखा हो रहा है। बताया है कि:-
- मृतक की गति (मोक्ष) के लिए पहले तो अस्थ्यिाँ उठाकर गुरूजी के द्वारा पूजा करवाकर गंगा दरिया में प्रवाहित की और बताया गया कि इसकी गति हो गई।
- उसके पश्चात् तेरहवीं, सतरहवीं, महीना, छःमाही, वर्षी आदि-आदि क्रियाऐं उसकी गति करवाने के लिए कराई।
- पिण्डदान किया गति करवाने के लिए।
- श्राद्ध करने लगे, उसे यमलोक में तृप्त करवाने के लिए।
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श्राद्धों में गुरू जी भोजन बनाकर सर्वप्रथम कुछ भोजन छत पर रखता है। कौआ उस भोजन को खाता है। पुरोहित जी कहता है कि देख! तेरा पिता कौआ बनकर भोजन खा रहा है। कौए के भोग लगाने से श्राद्ध की सफलता बताते हैं।
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परमेश्वर कबीर जी ने यही भ्रम तोड़ा है। कहा है कि आपके तत्वज्ञान नेत्रहीन (अंधे) धर्मगुरूओं ने अपने धर्म के शास्त्रों को ठीक से नहीं समझ रखा। आप जी को लोकवेद (दन्तकथा) के आधार से मनमानी साधना कराकर आप जी का जीवन नष्ट कर रहे हैं।
कबीर जी ने कहा है कि विचार करो। उपरोक्त अनेकों पूजाऐं कराई मृतक पिता की गति कराने के लिए, अंत में कौआ बनवाकर दम लिया। अब श्राद्धों का आनंद गुरू जी ले रहे हैं। वे गुरू जी भी नरक तथा पशु-पक्षियों की योनियों को प्राप्त होंगे। यह दास (रामपाल दास) परमात्मा कबीर जी द्वारा बताए तत्वज्ञान द्वारा समझाकर सत्य साधना शास्त्रविधि अनुसार बताकर आप तथा आपके अज्ञानी धर्मगुरूओं का कल्याण करवाने के लिए यह परमार्थ कर रहा है। मेरे अनुयाई इसी दलदल में फँसे थे। इसी तत्वज्ञान को समझकर शास्त्रों में वर्णित सत्य साधना को अपनी आँखों देखकर अकर्तव्य साधना त्यागकर कर्तव्य शास्त्रोक्त साधना करके अपना तथा परिवार के जीवन को धन्य बना रहे हैं। ये दान देते हैं। फिर इन पुस्तकों को छपवाकर आप तक पहुँचाने के लिए पुस्तक बाँटने की सेवा निस्वार्थ निःशुल्क करते हैं। ये आपके हितैषी हैं। परंतु आप पुस्तक को ठीक से न पढ़कर इनका विरोध करते हैं, प्रचार में बाधा डालकर महापाप के भागी बनते हैं।
आप पुस्तक को पढ़ें तथा शांत मन से विचार करें तथा पुस्तकों में दिए शास्त्रों के अध्याय तथा श्लोकों का मेल करें। फिर गलत मिले तो हमें सूचित करें, आपकी शंका का समाधान किया जाएगा।
- श्राद्ध आदि-आदि शास्त्रविरूद्ध क्रियाऐं झूठे गुरूओं के कहने से करके अपना जीवन नष्ट करते हैं। यदि सतगुरू (तत्वदर्शी संत) का सत्संग सुनते, उसकी संगति करते तो सर्व पापकर्म नष्ट हो जाते। सत्य साधना करके अमर लोक यानि गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में कहे (शाश्वतं स्थानं) सनातन परम धाम में आप जी का आसन यानि स्थाई ठिकाना होता जहाँ कोई कष्ट नहीं। वहाँ पर परम शांति है क्योंकि वहाँ पर कभी जन्म-मृत्यु नहीं होता। गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में भी इस सनातन परम धाम को प्राप्त करने को कहा है। उसके लिए गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में तत्वदर्शी संतों से शास्त्रोक्त ज्ञान व साधना प्राप्त करने को कहा है। वह तत्वदर्शी संत वर्तमान (इक्कीसवीं सदी) में यह दास (रामपाल दास) है। आओ और अपना कल्याण करवाओ।
भूत पूजा तथा पितर पूजा क्या है? यह आप जी ने ऊपर (पहले) पढ़ा। इन पूजाओं के निषेध का प्रमाण पवित्र गीता शास्त्र के अध्याय 9 श्लोक 25 में लिखा है जो आप जी को पहले वर्णन कर दिया है कि भूत पूजा करने वाले भूत बनकर भूतों के समूह में मृत्यु उपरांत चले जाऐंगे। पितर पूजा करने वाले पितर लोक में पितर योनि प्राप्त करके पितरों के पास चले जाऐंगे। मोक्ष प्राप्त प्राणी सदा के लिए जन्म-मरण से मुक्त हो जाता है।
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प्रेत (भूत) पूजा तथा पितर पूजा उस परमेश्वर की पूजा नहीं है। इसलिए गीता शास्त्र अनुसार व्यर्थ है।
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वेदों में भूत-पूजा व पितर पूजा यानि श्राद्ध आदि कर्मकाण्ड को मूर्खों का कार्य बताया है।
पवित्र मार्कण्डेय पुराण में प्रमाण:-