कबीर वट की अद्भुत कथा
गुजरात प्रान्त में भरूंच शहर के पास एक अंकलेश्वर गाँव है। उस के पास ‘‘शुक्ल तीर्थ‘‘ नाम का गाँव था जिसमें ब्राह्मण जाति के लोग निवास करते थे। वर्तमान में वहाँ गाँव नहीं है क्योंकि नर्मदा नदी ने इसको चारों ओर से घेर कर अंकलेश्वर गाँव से सम्पर्क समाप्त कर दिया। जिस कारण से वहां जाने के लिए नौका का प्रयोग होने लगा। गाँव कहीं ओर स्थान पर जा बसा।
उस समय वि.सं. 1465 (सन् 1408) में इस शुक्ल तीर्थ गाँव में दो ब्राह्मण सगे भाई रहते थे। जिनके नाम थे बड़े का नाम जीवा तथा छोटे का नाम ‘‘तत्वा‘‘ (दत्ता भी कहते थे) था। जीवा को एक लड़की संतान रूप में प्राप्त थी तथा तत्वा को एक लड़का था। जीवा तथा तत्वा प्रभु प्रेमी भक्त आत्माऐं थी, इनको सत्संग से पता चला कि गुरू के बिना मोक्ष नहीं हो सकता। फिर यह भी निश्चय हुआ कि पूर्ण गुरू के बिना मोक्ष नहीं हो सकता है। दोनांे भाइयों ने बहुत सत्संग ऋषि-मण्डलेश्वरों के सुने। जिस भी संत का सत्संग सुनते थे तो लगता था कि यह पूर्ण गुरू है। फिर अन्य का सत्संग सुनते थे तो लगता था कि यह पूर्ण गुरू है। दोनों ने विचार किया कि पूर्ण गुरू की पहचान कैसे करें। जिसका भी सत्संग सुनते हैं वही पूर्ण लगता है। उन्होंने निर्णय किया कि एक वट वृक्ष (बड़ पेड़) की सूखी टहनी लाकर मिट्टी में गाड़ेंगे और इसमें संतांे के चरण धोकर चरणामृत इस सूखी टहनी के गड्ढ़े में डालेंगे। जिस सन्त के चरणामृत से यह डार हरी-भरी हो जाएगी। वह पूर्ण सन्त होगा। कई वर्षों तक यह परीक्षा जारी रही। परन्तु निराशा ही हाथ लगी। हताश होकर मान बैठे कि पृथ्वी पर वर्तमान में कोई पूर्ण सन्त है ही नहीं। कबीर परमेश्वर जी उस शुक्ल तीर्थ गाँव में गए। सन्त वेश में परमेश्वर को तत्वा ने देखा और अपने बड़े भाई जीवा को बताया। जीवा ने कहा कि यह सड़क-छाप सन्त है। इससे क्या लाभ होगा? जब बड़े-बड़े मण्डलेश्वरों से कुछ नहीं हुआ। दत्ता के अधिक आग्रह पर (कि कहते हैं भगवान न जाने किस वेश में मिल जाए) कबीर परमेश्वर जी को अपने घर पर बुला लिया। सर्व प्रथम चरण धोकर चरणामृत को तत्वा ने सूखी डार लगे गड्ढे़ में डाला, तुरंत ही हरी-भरी हो गई।
insert pic here (वट वृक्ष की सूखी टहनी चरणामृत से हरी-भरी हो गई)
पूर्ण सतगुरू को प्राप्त करके दोनों भाई गद्गद् हो गए तथा दीक्षा ग्रहण की। दोनों ने परमेश्वर कबीर जी से करबद्ध होकर प्रार्थना की कि हे प्रभु! आप हमें पहले क्यों नहीं मिले, हमारा बहुत जीवन व्यर्थ हो गया। कबीर परमेश्वर जी ने उत्तर दियाः- हे जीवा-तत्वा! मैं पहले भी आ सकता था। मेरे चरणामृत से सूखी लकड़ी भी हरी हो जानी थी। परन्तु आप को भ्रम रह जाता कि यह तो एक गलियारों में घूमने वाला संत है। हो सकता है कि जिनके बड़े-बड़े मठ बने हैं, लाखों भक्त हैं, उनके पास इससे भी अधिक भक्ति शक्ति होगी। आप वहाँ फिर भी भटकते। यह मन का स्वभाव है।
मेरे से दीक्षा लेकर आप के मन में यह शंका आने मात्र से आप नाम रहित हो जाते। वहाँ जाने से तो भक्ति नाश ही हो जाता। इसलिए मैं उस समय आप को मिला हूँ कि आप निश्चल मन से भक्ति करके मोक्ष प्राप्त कर सकोगे। परमेश्वर कबीर जी ने फिर कहा हे जीवा दत्ता! पूर्ण सन्त की यही पहचान नहीं होती।
प्रश्न:- हे परमेश्वर पूर्ण गुरू के लक्षण बताने की कृपा करें।
उत्तर:- परमेश्वर कबीर जी ने उत्तर दिया:-
‘‘गुरु के लक्षण (पहचान)’’
परमेश्वर कबीर जी ने ‘‘कबीर सागर’’ के अध्याय ‘‘जीव धर्म बोध’’ में पृष्ठ 1960(2024) पर गुरू के लक्षण बताऐ हैं।
चौपाई
गुरू के लक्षण चार बखाना। प्रथम वेद शास्त्र का ज्ञाना(ज्ञाता)।।
दूसरा हरि भक्ति मन कर्म बानी। तीसरा सम दृष्टि कर जानी।।
चौथा बेद विधि सब कर्मा। यह चारि गुरू गुन जानों मर्मा।।
भावार्थ:- जो गुरू अर्थात् परमात्मा कबीर जी का कृपा पात्र दास गुरू पद को प्राप्त होगा, उसमें चार गुण मुख्य होंगे।
‘‘प्रथम बेद शास्त्र का ज्ञाना (ज्ञाता)’’
1 वह सन्त वेदों तथा शास्त्रों का ज्ञाता होगा। वह सर्व धर्मों के शास्त्रों को ठीक-ठीक जानेगा।
‘‘दूसरा हरि भक्ति मन कर्म बानी’’
2 वह केवल ज्ञान-ज्ञान ही नहीं सुनाऐगा, वह स्वयं भी परमात्मा की भक्ति मन कर्म वचन से करेगा।
‘‘तीसरे समदृष्टि करि जानी’’
3 सर्व अनुयाइयों के साथ समान व्यवहार करेगा, वह समदृष्टि वाला होगा। आप देखते हैं कि आश्रम में सर्व श्रद्धालुओं को एक समान खाना-पीना, एक समान बैठने का स्थान। सन्त रामपाल दास जी के माता-पिता, बहन-भाई, बच्चे जब कभी आश्रम में आते हैं साधारण भक्त की तरह आश्रम में रहते हैं।
‘‘चौथा बेद विधि सब कर्मा‘‘
4 चौथा लक्षण गुरू का बताया है कि वह सन्त वेदों में वर्णित भक्ति विधि अनुसार साधना अर्थात् प्रार्थना (स्तुति) यज्ञ अनुष्ठान तथा मंत्र बताएगा। जब ब्राह्मणों को पता चला कि जीवा-तत्वा ने कबीर जुलाहा काशी वाले से दीक्षा लेकर धर्म नष्ट कर दिया है तो उनको जाति से बाहर कर दिया। दोनों के लड़का-लड़की जवान हो गए। उनका विवाह नहीं हो पा रहा था। जब परमेश्वर कबीर जी को पता चला तो जीवा-तत्वा को एक युक्ति बताई। युक्ति अनुसार अफवाह फैला दी कि जीवा की लड़की का तत्वा के लड़के से विवाह होने जा रहा है। तब सर्व ब्राह्मणों ने मिलकर कहा कि तुम पड़ो भाड़ में। हम दोनों बच्चों के साथ ऐसा नहीं होने देंगे। हम अपने यहाँ ले जाकर इनका विवाह अलग ब्राह्मणों के लड़के-लड़की से मर्यादा से करेंगे। ऐसा ही हो गया। कुछ दिन के पश्चात् पूरे शुक्ल तीर्थ गाँव के ब्राह्मणों ने ज्ञान को समझ कर परमेश्वर कबीर जी से दीक्षा प्राप्त करके अपना जीवन धन्य किया।
कबीर परमेश्वर के चरणामृत से वह वट वृक्ष (बड़ पेड़) की सूखी लकड़ी हरी होकर कुछ समय उपरान्त वह वट वृक्ष के रूप में फैलने लगी। इस घटना का शुक्ल तीर्थ के लोगों पर बहुत प्रभाव पड़ा था। जब वह गाँव कहीं ओर जा बसा तब वह वट वृक्ष (बड़ का पेड़) 8.9 एकड़ में फैल गया। वर्तमान में उसको कांट-छांट कर वहाँ खेती योग्य जमीन बना ली है।
insert pic here ‘‘वट वृक्ष का वर्तमान चित्र‘‘
परंतु वर्तमान में भी वह वट वृक्ष दो-तीन एकड़ में फैला है। उस की देख-रेख के लिए वहाँ एक कबीर आश्रम भी बना है। सतगुरू रामपाल जी महाराज के साथ कुछ भक्त सन् 2000 में आँखों देखकर आए हैं।