स्वसमवेद बोध

अध्याय स्वसमवेद बोध का सारांश

कबीर सागर में 32वां अध्याय ‘‘स्वसमवेद बोध‘‘ पृष्ठ 77 पर है। जैसा कि पूर्व में लिख आया हूँ कि कबीर सागर ग्रन्थ को काल द्वारा चलाए 12 कबीर पंथों के कुछ अनुयाईयों ने अपनी बुद्धि अनुसार कबीर ज्ञान से कुछ वाणी काटी हैं, कुछ मिलाई हैं। कुछ प्रकरण कांट-छांट करके लिखे हैं। यही दशा ‘‘स्वसमवेद बोध‘‘ में की है। इस अध्याय वाला ज्ञान पहले ‘‘अनुराग सागर‘‘ में ज्ञान प्रकाश, ज्ञान बोध, मुक्ति बोध में वर्णित है। कुछ ज्ञान जो परमेश्वर कबीर जी की लीला वाला है। वह कबीर चरित्र बोध में है, उसको वहाँ लिखेंगे।

कुछ ज्ञान जो ‘‘कलयुग में सर्व सृष्टि उपदेश लेकर भक्ति करेगी, सतयुग जैसा वातावरण होगा‘‘ है, इसका विवरण पहले भी अध्याय अनुराग सागर तथा कबीर बानी में आंशिक लिखा है। यहाँ पर शब्दार्थ करके लिखूंगा।

स्वसमबेद बोध पृष्ठ 77 से 86 तक शरीरों की सँख्या बताई है। तत्त्वों तथा उनकी प्रकृति का ज्ञान है।

शरीर पाँच बताए हैं:-

  1. स्थूल शरीर
  2. इसके अंदर सूक्ष्म यानि लिंग शरीर
  3. इसके अंदर कारण शरीर
  4. इसके अंदर महाकारण शरीर
  5. इसके अंदर कैवल्य शरीर है।

जीव के ऊपर इतने सुंदर शरीर (वस्त्र) डाल रखे हैं।

स्वस्मवेद बोध पृष्ठ 86 से 90 का सारांश:- इन पृष्ठों में प्रथम दीक्षा मंत्र बताए हैं।

‘‘यथार्थ पाँच नामों का ज्ञान‘‘

1,2,3,4,5

ये पाँच नाम गायत्री मंत्र के हैं जो प्रथम दीक्षा रूप में परमेश्वर कबीर जी प्रदान करते थे जो चूड़ामणी जी को यही मंत्र परमेश्वर कबीर जी ने दिए थे तथा आगे इन्हीं को दीक्षा रूप में देने का आदेश दिया था। ये मंत्र शरीर में बने कमलों में विराजमान पाँचों देवी-देवताओं के हैं।

  1. मूल कमल में गणेश देव हैं, इनका _ जाप है।
  2. अधिष्ठान यानि संत भाषा में स्वाद कमल में सावित्री-ब्रह्मा जी हैं, इनका _ नाम जाप है।
  3. नाभि कमल में लक्ष्मी-विष्णु जी हैं, इनका _ जाप है।
  4. हृदय कमल में पार्वती-शिव जी हैं, इनका _ जाप है।
  5. कण्ठ कमल में देवी दुर्गा जी हैं, इनका _ जाप है।

ये पाँच नाम हैं जो प्रथम दीक्षा रूप में परमेश्वर कबीर जी दिया करते थे। इन्हीं मंत्रों का संकेत श्री नानक देव साहेब जी ने अपनी अमृतवाणी में दिया है। एक पुस्तक जो गुरू अमर दास जी द्वारा ‘‘तेइये ताप‘‘ की कथा में लिखे हैं, बाद में इनको देवी-देवताओं के मंत्र पूजा जानकर त्याग दिया गया। यही समस्या धर्मदास जी की छठी पीढ़ी वाले के सामने टकसारी पंथ वाले (काल वाले कबीर पंथ के पाँचवें) ने पैदा करके ये वास्तविक मंत्र छुड़वा दिए थे और नकली पाँच नाम आदिनाम, अजरनाम, अमर नाम, पाताले सप्त सिंधु नाम आदि-आदि जो अध्याय ‘‘सुमरण बोध‘‘ पृष्ठ 22 पर अंकित है, दीक्षा में देने लगा।

परमेश्वर कबीर जी ने कहा था कि जिस समय कलयुग का दूसरा चरण भक्ति का चलेगा, तब सात नाम का प्रथम मंत्र दिया जाया करेगा और सतनाम तथा सारनाम देकर सर्व उपदेशियों को मुक्त करेंगे। जो तेरहवां कबीर पंथ चलेगा, तब सम्पूर्ण मंत्र उपदेशी को दिए जाएंगे। अब तक मूल ज्ञान तथा मूल शब्द यानि सार शब्द छुपाकर रखना था। प्रमाण कबीर बानी अध्याय में पृष्ठ 137 पर तथा अध्याय ‘‘जीव धर्म बोध‘‘ पृष्ठ 1937 पर कहा है।

धर्मदास तोहे लाख दुहाई। सार शब्द बाहर नहीं जाई।।
सार शब्द बाहर जो परि है। बिचली पीढ़ी (दूसरे चरण वाली) हंस नहीं तरि है।।
युगन-युगन तुम सेवा कीनी। ता पीछे हम इहां पग दीनी।।
कोटि जन्म भक्ति जब कीन्हा। सार शब्द तबही मैं दीन्हा।।
अंकूरी जीव होय जो कोई। सार शब्द का अधिकारी होई।।
सत्य कबीर प्रमाण बखाना। ऐसो कठिन है पद निर्वाणा।।

(यह वाणी जीव धर्म बोध पृष्ठ 1937 पर लिखा है।)
कबीर बानी अध्याय में पृष्ठ 137(983) पर:-

धर्मदास मेरी लाख दोहाई। मूल शब्द (सार शब्द) बाहर न जाई।।
पवित्र ज्ञान तुम जग में भाखो। मूल (तत्त्व) ज्ञान तुम गोई कर राखो।।
मूल ज्ञान जो बाहर परही। बिचले पीढ़ी हंस नहीं तरही।।
तेतीस अरब ज्ञान हम भाषा। मूल ज्ञान गोए हम राखा।।
मूल ज्ञान तुम तब लगि छिपाई। जब लग द्वादश पंथ मिटाई।।

उपरोक्त अमृतवाणी के प्रमाण से स्पष्ट हुआ कि मूल ज्ञान यानि तत्त्वज्ञान तथा सार शब्द अब छुपा कर रखना था। इसी पृष्ठ 137 (983) कबीर बानी में यह भी लिखा है:-

बारहवें पंथ प्रगट होव बानी। शब्द हमारे की निर्णय ठानी।।
अस्थिर घर का मर्म ना पावै। ये बारा पंथ हमीं को ध्यावैं।।
बारहे पंथ हम ही चलि आवैं। सब पंथ मिटा एक ही पंथ चलावैं।।

भावार्थ:- बारहवां पंथ संत गरीबदास जी का है। प्रमाण कबीर सागर में कबीर चरित्र बोध के पृष्ठ 1870 पर। संत गरीबदास जी का जन्म विक्रमी संवत् 1774 में सन् 1717 में) गाँव छुड़ानी में हुआ। फिर उनका पंथ चला। सन् 1988 में मुझ दास का आध्यात्मिक जन्म संत गरीबदास जी यानि बारहवें पंथ में हुआ अर्थात् स्वामी रामदेवानन्द जी गरीबदासिय (गरीबदास पंथी) संत से मुझे (रामपाल दास को) 17 फरवरी 1988 को दीक्षा प्राप्त हुई। अब तक मूल ज्ञान यानि तत्त्व ज्ञान तथा सार शब्द (मूल शब्द) छुपाकर रखना था। इससे सिद्ध है कि संत धर्मदास जी के पीढ़ी वालों के पास न तो तत्त्वज्ञान था और न सार शब्द। यह दशा सर्व कबीर पंथियों की है। अब जो नया तेरहवां पंथ चल रहा है, सर्व नाम तथा तत्त्वज्ञान सार्वजनिक किया जाएगा। सात नाम दिए जाएंगे। सात नाम तथा पाँच नामों का प्रमाण कबीर सागर में ज्ञान स्थिति बोध पृष्ठ 85 तथा पृष्ठ 86 परः-

पृष्ठ 85 पर:-

मूल शब्द गुप्त है सारा। बिरले पावैं शब्द हमारा।।
बिहंग शब्द बिहंग है बीरा। निज सो नाम ये कहै कबीरा।।
सातों नाल जो आय बिहंगा। बिहंग ताल आहि जल रंगा।।

पृष्ठ 86 पर:-

सोई सिद्ध संत है भाई। सोहं नाल चिन्ह जिन पाई।।
पाँच नाम ताही को परवाना। जो कोई साधु हृदय में आना।।
यही सप्त नाल हे सही। यही हंस नाम रिबही।।
सप्त नाल के सातों नामा। बीर बिहंग करै सब कामा।।

कबीर सागर में अनुराग सागर अध्याय में पृष्ठ 72 पर:-

पाँच शब्द कहि दल फेरा। पुरूष नाम लीन्हो तिहि बेरा।।

उपरोक्त अमृतवाणी में पाँच तथा सात नामों का संकेत है और स्वस्मबेद बोध पृष्ठ 86 पर प्रकट लिखे हैं जो रं=रम् तथा रौं=रौम् हैं। ये सांकेतिक हैं।

नामों का लाभ क्या है?

पृष्ठ 87 पर स्मस्मबेद बोध में सोहं नाम के जाप का लाभ बताया हैः-

सोहं बीज को अंकुर ज्ञाना। आल बाल भक्ति मय साना।।

भावार्थ:- सोहं मंत्र का जाप पूर्ण संत से लेकर करने से आलबाल अर्थात् औली-बौली यानि अथाह भक्ति जमा होती है। पृष्ठ 89 स्वस्मबेद बोध में लिखा है कि:-

ह्रीं (हरियम्) स्थिति बीज षष्ठ होई। आल बाल तिहि माया होई।।

भावार्थ:- हरियम् नाम के जाप से आलबाल यानि अथाह धन (माया) हो जाता है। आप जी को बताया है कि परमेश्वर जी ने स्पष्ट कर रखा है कि मूल ज्ञान पहले नहीं बताया। उसमें अधूरा ज्ञान बताया है। सार नाम तथा मूल ज्ञान अब स्पष्ट किया जा रहा है।

पृष्ठ 91 स्वस्मबेद बोध पर अस्पष्ट सत्यनाम भी लिखा है:-

जाते ओहं पुरूष भये अंशा। ओहं सोहं भये द्वै अंशा।।

पृष्ठ 92 से 107 तक सृष्टि रचना का अधूरा ज्ञान है। सृष्टि रचना का सम्पूर्ण ज्ञान पढ़ें इसी पुस्तक ‘‘कबीर सागर का सरलार्थ‘‘ के सारांश में पृष्ठ 603 से 670 तक।

पृष्ठ 105-106 पर बताया है कि:-

जीव जिस योनि से मानव शरीर प्राप्त करता है, उसका कैसा स्वभाव होता है? इसको पहले बताया जा चुका है।

स्मसमबेद बोध पृष्ठ 108 तथा 110 पर:-

काल जाल बताया है कि काल कैसे तीनों देवताओं से अपनी सृष्टि को चलवा रहा है? यह पहले के अध्यायों में वर्णन हो चुका है।

स्वसमबेद बोध पृष्ठ 111 पर:-

‘‘तप्त शिला पर जीवों से वार्ता‘‘

{वास्तव में ज्ञानी, जोगजीत तथा सहजदास रूप में परमेश्वर कबीर जी ही आए थे। वे स्वयं ही सत्य पुरूष हैं। यदि बार-बार कहते कि मैं ही परमात्मा हूँ तो धर्मदास जी को विश्वास नहीं होता। इसलिए घुमा-फिराकर धर्मदास जी की बुद्धि अनुसार पात्र बनाकर सत्य कथा सुनाई है।}

तप्त शिला यक नाम पुकारा। सब जिव पकरि ताहि परजारा।।
तप्त शिलापर जो जिव परही। हाय हाय करि चटपट करही।।
तड़फ तड़फ जिव तहँ रहिजाही। भूनि भूनि सब यमधारिखाही।।
केते युग जीवन धरि खायौ। जारी वारि के योनि भ्रमायौ।।
जरत जीव जब कीन पुकारा। काल देत है कष्ट अपारा।।
यमको कष्ट सहो नहिं जाई। हो साहिब दुःख टारो आई।।
यहि बिधि जिव कीन पुकारा। पुरूष दयाल दया उरधारा।।
तब पुरूष ज्ञानी को टेरो। ज्ञानी सुनिये आज्ञा मेरो।।

सत्य कबीर वचन

छंद-जब देखि जीवन कहँ बिकल तब दया पुरूष जनाइया।।
दया निधी सतपुरूष साहिब तबै मोहि बोलाइया।।
कह्यौ मोहि समुझाय बहुविधि जीव जाय चितावहो।।
तुव दरशते जिव होय शीतल जाय तपत बुझावहो।।
सोरठा-आज्ञा लीनी मानि, पुरूष सिखावन शिर धरयो।।
तत्क्षण कीन पयान, शीस नाय सतपुरूषको।।

चैपाई

आयो जहाँ काल जीव सतावै। काल निरंजन जीव नचावै।।
चटक चटक करे जीव तहँ भाई। ठाढ भयो मैं तहँ पुनि जाई।।
मोहि देखि जिव कीन पुकारा। हो साहिब मोहि लेव उबारा।।
तब हम सत्य शब्द गोहरावा। पुरूष शब्द ते जीव तप्त बुझावा।।
सब जीवन मिलि अस्तुति लाई। धन्य पुरूष यह तपन बुझाई।।
यमते छोरि लेहु मोहिं स्वामी। दया करो प्रभु अंतरयामी।।

सत्यकबीर वचन-चैपाई

तब हम कहा जीव समुझाई। जोर करो तो बचन नसाई।।
जब तुम जाय धरो नर देहा। तब तुम करिहो सत्य शब्द सनेहा।।
पुरूष नाम सुमिरन सहिदानी। बीरा सार करो परमानी।।
देह धरे सत शब्द समाई। तब हंसा सतलोकहि जाई।।
देह धरे कीने जहँ आसा। अन्तकाल लीनो तहँ बासा।।
अब तोहि कष्ट भयौ जिव आनी। ताते यहि बिधि बोलो बानी।।
जब तुम देह धरो जग जाई। बिसरे पुरूष काल धरि खाई।।

जीव वचन-चैपाई

बेद को मर्म विप्र नहीं जाना। तातें काल को निराकार बखाना।।
बेद कहैं कर्ता अन्य है भाई। ताका भेद काहु नहीं पाई।।
नेति-नेति बेद पुकारें। पंडित अपना मता प्रचारें।।
कहै जीव सुन पुरूष पुराना। देह धरे बिसरों नहिं ज्ञाना।।
पुरूष जानि सुमिरौं यमराई। वेद पुरान कहैं समुझाई।।
वेद पुरान कहै मत येहा। निराकार से कीजै नेहा।।
सुर नर मुनि तैंतीस क्रोरी। बंधे सबहि निरंजन डोरी।।
ताके मत कीने हम आसा। अब हमें जानि परा यमफांसा।।

ज्ञानी वचन-चैपाई

सुनो जीव यह छल यमकेरा। यह यमफन्दा कीन घनेरा।।
छंद-कला कला अनेक कीनो जीव कारन ठाठ हो।
वेद पुरानो शास्त्रा स्मृती याते रूँध्यो बाट हो।।
आप तनधरि प्रकट ह्नै यम सिफत आपन कीन हो।
नाना रूप धरि जीव बंधन दीन हो।।
सोरठा-कला कला परचण्ड, जीव परे बस कालके।
जन्म जन्म सहै दण्ड, सत्यनाम चीन्हे बिना।।
छन यक जीवनको सुख दैऊ। जिव बँध मेटि पुरूषपहँ गैऊ।।

अथ जीवमुक्तावना हेत सत्य कबीर को संसार में आगमन कथा-चैपाई

यहि विधि काल जक्त धरि खायौ। जिव नहिं कोई मुक्तिपद पायौ।।
तीनों पुर पसरा यमजाला। सकल जीव कहँ कीन बिहाला।।
कालके जाप करतें जीव न छूटे। बहुविधि योग युक्ति में जूटे।।
बिन सत शब्द न जीव उबारा। तब समरथ अस बचन उचारा।।

सत्य पुरूष वचन-चैपाई

कैल सकल जग धरि खाई। एको जीव लोक नहिं आई।
तातै समरथ मोहि फरमाई। साँचे जीव आन मुक्ताई।।
पुरूष वचन कीने तिहि बारा। ज्ञानी बेगि जाहु संसारा।।
प्रथमहि चल्यौ जीव के काजा। पुरूष प्रताप शीस पर छाजा।।
सतयुग सत्य सुकृत मोर नाऊँ। आज्ञा पुरूष जीव बर आऊँ।।
करि परनाम तब पगधारा। पहुँच्यौ आय धर्म दरबारा।।
द्वीप झांझरी नाम बखानी। कैल पुरूष की सो रजधानी।।
पगके देत झांझरी गाजा। कैल पुरूष बैठा तहँ राजा।।
गये झाझरी द्वीप मँजारा। गर्बित काल न बुद्धि विचारा।।
मोकहँ देखि धर्म ढिग आई। महाक्रोध बोले अतुराई।।
योगजीत इहवाँ कस आवो। सो तुम हम से बचन सुनावो।।

योगजीत वचन-चैपाई

तासो कह्यौ सुनो धर्मराई। जीवकाज संसार सिधाई।।
तुम तो कष्ट जिवनको दीना। तबहि पुरूष मोहि आज्ञा कीना।।
जीव चिताय लोक ले आवो। काल कष्टते जीव छोड़ावो।।
ताते मैं संसारहि आवो। देय परवाना जीव लोक पठावो।।

अथ कालपुरूष और सत्यकबीर का युद्धवर्णन-चैपाई

काल क्रोध करि वचन उचारा। भवसागरमें राज हमारा।।
तुम कस जिव मुक्तावन आवा।। मारों तोहि अबहि भलदावा।।
काल अनंत रूप तब धारा। योगजीत कह आनि ललकारा।।
महाभयंकर रूप काल बनावा। गज स्वरूप ह्नै सम्मुख धावा।।
सत्तरयुग हम सेवा कीना। पुरूष मोहि भवसागर दीना।।
परमपुरूष सेवा वस भैऊ। राज तिहूँ पुरको मोहिं दैऊ।।
तब तुम मारि निकारा मोही। योगजीत नहिं छोडो तोही।।
अस कहि धाय सुंड फटकारा। दंतसो योगजीत पर मारा।।
योगजीत कैल ही ललकारा। गहि कर सुंड दूर तिहि डारा।।
पुरूष प्रताप सुमिर मन माहीं। मारयो सत्य शब्द से ताहीं।।
ततछन ताहि दृष्टि पर हेरा। श्याम लिलार भयौ तिहिकेरा।।
पंख घात जिमि होयै पखेरू। तैसे कैल मही (पृथ्वी) पर हेरू।।
जब फटकार कर गहे डाला। भागा काल पैंठा पाताला।।
गयौ पाताल कूर्मके आगे। योगजीत गये पीछे लागे।।
बिनती करे कूर्म से जाई। राखो कूर्म शरन हम आई।।
योगजीत मोहि मारि निकारा। जिव ले जाय पुरूष दरबारा।।
युगन युगन हम सेवा कीना। पुरूष मोहि भवसागर दीना।।
एक पायँ हम ठाढे रहेऊ। तबहि पुरूष सेवा बस भैऊ।।
तीन लोक दीना मोहि विचारी। अब कस मोकहँ मारि निकारी।।
जाय कूर्मकी शरन जो परेऊ। तब ताते दाया उर धरेऊ।।

कूर्म वचन-चैपाई

तबै कूर्म उठि बिनती लाई। को तुम आहु कहाँ ते आई।।
अपनो नाम कहो मोहि स्वामी। पुरूष अंश तुम अंतरयामी।।

योगजीत वचन-चैपाई

तब हम कहा नाम मोर ज्ञानी। योगजीत हम अंश बखानी।।
समरथ बचन ताही में आवा। काल फाँस से जीवन मुक्तावा।।

कूर्म वचन

तबै कूर्म बोले अस बानी। बिनती एक सुनो हो ज्ञानी।।
जो तुम बिनती मानो मोरा। तौ हम तुमसे करें निहोरा।।
ज्ञानी तुम बड़े महाना। बड़े क्षमा करें नादान।।
गलती कैल करी बड़भारी। याको बकसो यह अर्ज हमारी।।
छोटन को उत्पात ही भावै। बड़न की बड़ाई क्षमा करावै।।
कूर्म जबै अस बिनती ठानी। ज्ञानी कैल दोहू मुख मानी।।
फिरके कैल झांझरी आनो। ज्ञानी कैलको बचन बखानो।।

निरंजन वचन

सोरठा-तुमहुँ करो बखशीश, पुरूष जो दीनो राज मोहि।
षोडशमें तुम ईश, ज्ञानी पुरूष एक सम।।

ज्ञानी वचन-चैपाई

ज्ञानी कहै सुनो धर्मराई। जीवनकहँ मैं आन बचाई।।
पुरूष आज्ञाते मैं चलि आवों। भवसागरते जीव मुक्तावों।।
पुरूष अवाज टार यहि बारी। तौ मैं तोकहँ देब निकारी।।

निरंजन वचन-चैपाई

धर्मराय अस बिनती ठानी। मैं सेवक दुतिया न मानी।।
ज्ञानी बिनती एक हमारा। सो न करो मोर होय बिगारा।।
पूरूष मोकहँ दीनो राजू। तुमहू देव होय तब काजू।।
बिनती एक करो हो ताता। दृढ़ करि जान्यौ हमरी बाता।।
सतयुग त्रेता द्वापर माहीं। तीनों युग जिव थोरे जाही।।
चैथा युग जब कलऊ आई। तब तुव शरन जीव बहु जाई।।
जो लेवै नाम तुम्हारा। वह जाए तुम्हरे दरबारा।।
जो कोई नाम हमारा लेवै। रह काल जाल जो हमकूँ सेवै।।
जोर ना करना तारण तरणा। आपन ज्ञान दे मुक्ति करना।।
त्रेतायुग में अंश राम जावै। समन्दर पर सेत बंधावै।।
समन्दर को राम धमकावै। ताका ओवल द्वापर में पावै।।
कृष्ण मोर अंश मंदिर बनवावै। समन्दर वाक तोड़ बगावै।।
समन्दर पर सेतु बादियो दाता। जगन्नाथ मंदिर थापियो ताता।।
ऐसे वचन हरि मोहि दीजै। तब संसार गौन तुम कीजै।।

ज्ञानी वचन-चैपाई

जो तें मांगा दिन्हा तोकूं। यह चाल काल लागत है मोकूं।।
तीनों युग जीव रहें भुलाई। चैथे युग देऊँ चिताई।।
जो जीव नाम मोर लेवैं। जावें लोक तो सिर पग देवैं।।
सबै जीव नाम रस लागैं। घर-घर ज्ञान ध्यान अनुरागैं।।

निरंजन वचन-चैपाई

जाना ज्ञानी कलयुग मंझारा। जीव ना माने कहा तुम्हारा।।
कहा तुमार जीव नहिं मानै। हमरी दिशभै बाद बखानै।।
मैं दृढ़ फंदा रच्यौ बनाई। जामें जीव परा अरूझाई।।
वेद शास्त्रा सुमिरन गुन नाना। पुत्र हैं तीन देव परधाना।।
देवल देव पाषान पुजाई। तीरथ व्रत जप तप मन लाई।।
यज्ञ होम अरू नियम अचारा। और अनेक फंद हम डारा।।
जब ज्ञानी जैहो संसारा। जीव न मानै कहा तुमारा।।

ज्ञानी वचन-चैपाई

ज्ञानी कहै सुनो धर्मराई। काटो फंद जीव ले जाई।।
जेतो फंद रची तुम भारी। सत्य शब्द ले सकल बिडारी।।
जिहि जिवको हम शब्द दृढै हैं। फंद तुम्हार सबै मुक्तैहैं।।
अरे काल परपंच पसारा। तीनो युग जीवन दुख डारा।।
बिनती तोरि लीन मैं मानी। मोकहँ ठगे काल अभिमानी।।
चैथा युग जब कलऊ आई। तब हम अपनो अंश पठाई।।
काल फन्द छूटे नर लोई। सकल सृष्टि परवानिक होई।।
घर घर देखो बोध विचारा। सत्य नाम सब ठौर उचारा।।
पांच हजार पांच सौ पांचा। तब यह वचन होयगा सांचा।।
कलियुग बीत जाय जब येता। सब जिव परम पुरूष पद चेता।।

(स्वसमबेद बोध पृष्ठ 171 से वाणी)

दोहा-पांच सहंस अरू पाँच सौ पाँच, जब कलियुग बीत जाय।
महापुरूष फरमान तब, जग तारन को आय।।
हिन्दु तुर्क आदिक सबै, जेते जीव जहान। सत्य नाम की साख गहि, पावैं पद निर्बान।।
यथा सरितगण आपही, मिलैं सिन्धु में धाय। सत्य सुकृत के मध्ये तिमि, सबही पंथ समाय।।
जब लगि पूरण होय नहीं, ठीके को तिथि वार। कपट चातुरी तबहिलों, स्वसमबेद निरधार।।
सबहिं नारि नर शुद्ध तब, जब ठीके का दिन आवन्त। कपट चातुरी छोड़ि के, शरण कबीर गहंत।।
एक अनेक ह्नै गयो, पुनि अनेक हों एक। हंस चलै सतलोक सब, सत्यनाम की टेक।।
घर घर बोध विचार हो, दुर्मति दूर बहाय। कलियुग में इक होय सब, बरते सहज सुभाय।।
कहा उग्र कहा छुद्र हो, हरै सबकी भव पीर (पीड़)। सो समान समदृष्टि है, समरथ सत्य कबीर।।

उपरोक्त वाणियों का सारांश है:-

परमेश्वर कबीर जी रूपान्तर करके प्रथम कलयुग में जीवों को सूक्ष्मवेद बोध कराने आए तो पहले तो काल निरंजन ने परमात्मा से झगड़ा किया। कहा कि एक जीव भी नहीं ले जाने दूँगा। परमेश्वर की शक्ति से डरकर कूर्म के पास भाग गया। परमात्मा भी जोगजीत रूप में वहीं पहुँच गए। कूर्म ने बीच-बचाव करके जान बचाई। फिर काल के निज द्वीप (झांझरी द्वीप) में दोनों आ गए। काल निरंजन ने चापलूसी करके प्रतिज्ञा करवाकर तीन युगों (सत्ययुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग) में कम जीव ले जाने और चैथे युग में जितने चाहो जीव ले जाने की अर्जी की जो परमात्मा ने स्वीकार कर ली। उसके तुरंत बाद अपनी चाल यानि छल-कपट को सार्वजनिक किया तथा कहा कि कलयुग में मैं अपने काल दूत प्रचारक भेजकर अपना अज्ञान प्रचार कर दूँगा। सब मंदिर, तीर्थों पर जाना, मूर्ति पूजा, व्रत रखना तथा देवी-देवताओं की पूजा, श्राद्ध, पितर पूजा, ऊत-भूत की पूजा और जंत्र-मंत्र पाखण्ड का ज्ञान देकर दृढ़ कर दूँगा। जब आप या आपका प्रचारक संत जाएगा, तब कोई जीव आपके ज्ञान को स्वीकार नहीं करेगा। हमारे पक्ष में होकर तुम्हारे साथ वाद-विवाद करेगा और आप एक पंथ कबीर नाम से चलाओगे। मैं 12 (द्वादश) पंथ कबीर नाम से चलाऊँगा और अनेक पंथ चलाऊँगा जो सतलोक की महिमा कहेंगे, परंतु नाम मेरे जाल में रहने वाले दान करेंगे। जिनका जाप करके मेरे लोक में ही रहे जाऐंगे। काल ने त्रेतायुग में समुद्र पर पुल तथा जगन्नाथ के मंदिर को द्वापर में रक्षा करने का वचन भी लिया था।

जब काल ने परमेश्वर कबीर जी से कहा कि मैं तेरे नाम से अनेकों पंथ चलाऊँगा, तुम्हारी बातों को कोई नहीं सुनेगा। तब परमेश्वर कबीर जी ने कहा था कि जब कलयुग 5505 (पाँच हजार पाँच सौ पाँच) वर्ष बीत जाएगा, तब मैं अपना अंश भेजूंगा, वह सर्व सृष्टि को भक्ति की प्रेरणा देकर मेरी भक्ति पर लगाएगा। उस समय मेरा (कबीर जी का) ज्ञान घर-घर में चलेगा। सर्व सृष्टि विकार रहित होकर दीक्षा लेकर कल्याण कराएगी। सत्ययुग जैसा वातावरण होगा, आपसी भाईचारा बनेगा। कोई चोर-लुटेरा, डाकू-शराबी, तम्बाकू सेवन करने वाला, माँस खाने वाला व्यक्ति नहीं होगा। माया (धन) के स्थान पर परमात्मा के धन को जोड़ने की होड़ लगेगी।

नोट:- उपरोक्त कबीर सागर की वाणियों में कुछ वाणियाँ आगे-पीछे लिखी हैं, यथार्थ ज्ञान में अध्याय ‘‘ज्ञान सागर‘‘ के सारांश में अनुराग सागर के पृष्ठ 60.67 तक के सारांश में पृष्ठ 82 से 88 तक पढ़ें।

स्वस्मबेद बोध पृष्ठ 122 से 136 पर:-

चारों युगों में प्रकट होने का ज्ञान है, परंतु आधा गलत लिखा है। यथार्थ ज्ञान इसी पुस्तक के पृष्ठ 473 से 573 तक कबीर चरित्र बोध बोध के सारांश में पढ़ें।

स्मस्मबेद बोध पृष्ठ 137 से 145 पर:-

कबीर परमेश्वर जी की लीलाओं का अधूरा तथा कुछ गलत ज्ञान है। यथार्थ ज्ञान पढ़ें कबीर चरित्र बोध में इसी पुस्तक कबीर सागर के पृष्ठ 473 से 573 तक।

स्मस्मबेद बोध पृष्ठ 146 से 151 पर तीर्थ-व्रत करना मना है। उनसे होने वाला क्षणिक लाभ तथा जीवन व्यर्थ होना बताया है जो पहले अध्यायों में लिखा जा चुका है।

स्मस्मबेद बोध पृष्ठ 152 से 153 तक धर्मदास के वंशों का वर्णन है जो कुछ ठीक अधिक गलत है। यथार्थ ज्ञान पढ़ें इसी पुस्तक ‘‘कबीर सागर का सरलार्थ’’ के पृष्ठ 138 से 152 तक अनुराग सागर के सारांश में।

स्मस्मबेद बोध पृष्ठ 153 स्वस्मबेद बोध पर फिर स्पष्ट किया है कि जब 13वीं पीढ़ी आएगी तो वह मुक्तामणी होगा। सर्व सृष्टि में कबीर धर्म का प्रचार होगा।

जब तेरही पीढ़ी चलि आवै। मुक्तामणी तबही प्रकटावै।।
धर्म कबीर होये प्रचारा। जहाँ तहाँ सतगुरू सुयश उचारा।।

भावार्थ:- उपरोक्त वाणी में मुक्तामणि को तेरहवां महंत बताया है। वह गलत है। वास्तव में परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि जब तेरहवां अंश मेरा प्रकट होगा, तब पूरे विश्व में मेरे ज्ञान का कबीर धर्म का प्रचार होगा, मेरी महिमा का प्रचार होगा।

विवेचन:- कबीर पंथियों ने कांट-छांट करके यथार्थता को समाप्त कर रखा है। फिर भी सच्चाई कहीं-कहीं से स्पष्ट हो जाती है। स्वस्मबेद बोध पृष्ठ 152 पर धर्मदास की बयालीस (42) पीढ़ी वालों के नाम भी लिखे हैं। परंतु उनमें तेरहवां नाम मुक्तामणि नहीं लिखा है। वहाँ पर उदै (उदित) नाम लिखा है। इससे सिद्ध है कि पृष्ठ 153 पर लिखा कि तेरी तेरहवीं पीढ़ी में मुक्तामणि आएगा, यह गलत है। पृष्ठ 152 पर धर्मदास जी की बयालीस पीढ़ी के नाम लिखे हैं। उनमें बयालीसवीं पीढ़ी वाले का नाम मुक्तामणि लिखा है।

स्मस्मबेद बोध पृष्ठ 154 पर सामान्य ज्ञान है।

स्मस्मबेद बोध पृष्ठ 155 पर 12 पंथों का नाम है।

स्वस्मबेद बोध पृष्ठ 156-157 पर सामान्य ज्ञान है।

स्मस्मबेद बोध पृष्ठ 158 से 159 पर श्री नानक देव जी को शरण में लेने का प्रकरण है।

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