नकली नामों से मुक्ति नहीं

एक सुशिक्षित सभ्य व्यक्ति मेरे पास आया। वह उच्च अधिकारी भी था तथा किसी अमुक पंथ व संत से नाम भी ले रखा था व प्रचार भी करता था वह मेरे (संत रामपाल दास) से धार्मिक चर्चा करने लगा। उसने बताया कि ‘‘मैंने अमुक संत से नाम ले रखा है, बहुत साधना करता हूँ। उसने कहा मुझे पाँच नामों का मन्त्र (उपदेश) प्राप्त है जो काल से मुक्त कर देगा।‘‘ मैंने (रामपाल दास ने) पूछा कौन-2 से नाम हैं। वह भक्त बोला यह नाम किसी को नहीं बताने होते। उस समय मेरे पास बहुत से हमारे कबीर साहिब के यथार्थ ज्ञान प्राप्त भक्त जन भी बैठे थे जो पहले नाना पंथों से नाम उपदेशी थे। परंतु सच्चाई का पता लगने पर उस पंथ को त्याग कर इस दास (रामपाल दास) से नाम लेकर अपने भाग्य की सराहना कर रहे थे कि ठीक समय पर काल के जाल से निकल आए। पूरे परमात्मा (पूर्ण ब्रह्म) को पाने का सही मार्ग मिल गया। नहीं तो अपनी गलत साधना वश काल के मुख में चले जाते।

उन्हीं भक्तों में से एक ने कहा कि मैं भी पहले उसी पंथ से नाम उपदेशी (नामदानी) था। यही पाँच नाम मैंने भी ले रखे थे परंतु वे पाँचों नाम काल साधना के हैं, सतपुरुष प्राप्ति के नहीं हैं। वे पाँचों नाम मैंने ख्भक्त जो दूसरे पंथ से आया था अब कबीर साहिब के अनुसार इस दास (रामपाल दास) से नाम ले रखा है कह रहा है उस अमुक संत-पंथ के उपदेशी सभ्य व्यक्ति को, भी ले रखे थे। वे नाम हैं - 1. ज्योति निंरजन 2. औंकार 3. रंरकार 4. सोहं 5. सत्यनाम।

तब मैंनें उस पुण्यात्मा को समझाया कि आप जरा विचार करो। संतमत सतसंग साहिब कबीर से चला है। साहिब कबीर स्वयं पूर्ण परमात्मा हैं। उन्होंने ही इस काल लोक में आकर अपनी जानकारी आप ही देनी पड़ी। क्योंकि काल ने साहिब कबीर का ज्ञान गुप्त कर रखा है। चारों वेदों, अठारह पुराणों, गीता जी व छः शास्त्रों में केवल ब्रह्म (काल ज्योति निंरजन) की उपासना की जानकारी है। सतपुरुष की उपासना का ज्ञान नहीं है।

एक तुलसी दास जी हाथ रस वाले (जिनको उस तुलसी दास जिसने रामायण का हिन्दी निरूपण किया का अवतार मानते हैं) ने कबीर सागर, कबीर वाणी साखी व बीजक पढ़ा। फिर उसने उसमें से यही पाँच नाम निकाल लिए। वास्तव में इन पाँच नामों में सतनाम की जगह ‘शक्ति‘ शब्द है। परंतु तुलसी दास (हाथरस वाले) ने शक्ति शब्द की जगह सतनाम जोड़ कर पाँच नाम का मन्त्र बनाकर काल साधना ही समाज में प्रवेश कर दी। अपने द्वारा रची घट रामायण प्रथम भाग पृष्ठ 27 पर स्वयं इन्हीं पाँचों नामों को काल के नाम कहा है तथा सत्यनाम तथा आदिनाम (सारनाम) बिना सत्यलोक प्राप्ति नहीं हो सकती, कहा है। इन्हीं पाँचों नामों को कबीर साहिब ने भी काल साधना के बताए हैं। इन्हीं पाँचों नामों को लेकर बड़े-2 भक्तजन समूह इकत्रित हो गए जो मुक्त नहीं हो सकते और कबीर साहेब ने कहा है कि इनसे न्यारा नाम सत्यनाम है उसका जाप पूरे अधिकारी गुरु से लेकर पूरा जीवन गुरु मर्यादा में रहते हुए सार नाम की प्राप्ति पूरे गुरु से करनी चाहिए।

सतनाम के प्रमाण के लिए कबीर पंथी शब्दावली (पृष्ठ नं. 266-267) से सहाभार

अक्षर आदि जगतमें, जाका सब विस्तार।
सतगुरु दया सो पाइये, सतनाम निजसार।।112।।
सतगुरुकी परतीति करि, जो सतनाम समाय।
हंस जाय सतलोक को, यमको अमल मिटाय।।117।।

वह सतनाम-सारनाम उपासक सतलोक चला जाता है। उसका पुनर्जन्म नहीं होता। हम सबने कबीर साहिब के ज्ञान को पुनः पढ़ना चाहिए तथा सोचना चाहिए कि सतलोक प्राप्ति केवल कबीर साहिब के द्वारा दिए गए मन्त्र से होगी।

धर्मदास को सतनाम कबीर साहेब ने दिया

जो मन्त्र (नाम) साहिब कबीर ने धर्म दास जी को दिया। प्रमाण:--

कबीर पंथी शब्दावली (पृष्ठ नं. 284.285) से सहाभार (चैका आरती)

प्रथमहिं मंदिर चैक पुराये। उत्तम आसन श्वेत बिछाये।
हंसा पग आसन पर दीन्हा। सतकबीर कही कह लीन्हा।।
नाम प्रताप हंस पर छाजे। हंसहि भार रती नहिं लागे।।
कहै कबीर सुनो धर्मदासा। ऊँ-सोहं शब्द प्रगासा।।
(कबीर शब्दावली से लेख समाप्त)

यही प्रमाण ‘‘कबीर सागर‘‘ के अध्याय ‘‘ज्ञान बोध‘‘ के पृष्ठ 39-40 (903-904), ‘‘कबीर बानी‘‘ पृष्ठ 105-106 (969-970) तथा ‘‘सुमिरन बोध‘‘ 2 (1764) तथा पृष्ठ 15.16 (1807-1808) पर है।

नोट:- कृपया उपरोक्त प्रमाणों की फोटोकापियां पढ़ें इसी पुस्तक के पृष्ठ 88 से 94 तक।

ऊपर के शब्द चैका आरती में साहेब कबीर ने धर्मदास जी को सत्यनाम दिया। वह इस प्रकार है: -

‘‘कहै कबीर सुनो धर्मदासा, ऊँ सोहं शब्द प्रगासा‘‘

यह ‘‘ऊँ-सोहं‘‘ सत्यनाम स्वयं साहेब कबीर ने धर्मदास जी को दिया। इससे प्रमाणित है कि इस नाम के जाप से जीवात्मा सार शब्द पाने योग्य बनेगी। यदि सार शब्द पाने के योग्य नहीं बना तथा सतगुरु ने सारशब्द नहीं दिया तो आपका जीवन व्यर्थ गया। चूंकि सत्यनाम (ऊँ-सोहं) से आप कई मानव शरीर भी पा सकते हो। स्वर्ग में भी वर्षों तक रह सकते हो, यह इतना उत्तम नाम है। परंतु सार शब्द मिले बिना सतलोक प्राप्ति नहीं अर्थात् पूर्ण मुक्ति नहीं।

सतनाम का गरीबदास जी महाराज की वाणी में प्रमाण

गरीबदास जी महाराज कहते हैं कि:

ऊँ सोहं पालड़ै रंग होरी हो, चैदह भवन चढावै राम रंग होरी हो।
तीन लोक पासंग धरै रंग होरी हो, तो न तुलै तुलाया राम रंग होरी हो।।

इसका अर्थ है सत्यनाम (ऊँ-सोहं) यदि भक्त आत्मा को मिल गया, वह (स्वाँसांे से सुमरण होता है) एक स्वाँस-उस्वाँस भी इस मन्त्र का जाप हो गया तो उसकी कीमत इतनी है कि एक स्वाँस-उस्वाँस ऊँ-सोहं के मन्त्र का एक जाप तराजू के एक पलड़े में त्र दूसरे पलड़े में चैदह भुवनों को रख दें तथा तीन लोकों को तुला की त्राुटि ठीक करने के लिए अर्थात् पलड़े समान करने के लिए रख दे तो भी एक स्वाँस का (सत्यनाम) जाप की कीमत ज्यादा है अर्थात् बराबर भी नहीं है। पूर्ण संत से उपदेश प्राप्त करके नाम जाप करने से लाभ होगा अर्थात् बिना गुरु बनाए स्वयं सत्यनाम जाप व्यर्थ है। जैसे रजिस्ट्री पर तहसीलदार हस्ताक्षर करेगा तो काम बनेगा, कोई स्वयं ही हस्ताक्षर कर लेगा तो व्यर्थ है। इसी का प्रमाण साहेब कबीर देते हैं -

कबीर, कहता हूँ कही जात हूँ, कहूँ बजा कर ढोल।
स्वाँस जो खाली जात है, तीन लोक का मोल।।
कबीर, स्वाँस उस्वाँस में नाम जपो, व्यर्था स्वाँस मत खोय।
न जाने इस स्वाँस को, आवन होके न होय।।

इसलिए यदि गुरु मर्यादा में रहते हुए सत्यनाम जपते-2 भक्त प्राण त्याग जाता है, सारनाम प्राप्त नहीं हो पाता, उसको भी सांसारिक सुख सुविधाएँ, स्वर्ग प्राप्ति और लगातार कई मनुष्य जन्म भी मिल सकते हैं और यदि पूर्ण संत न मिले तो फिर चैरासी लाख जूनियों व नरक में चला जाता है। यदि अपना व्यवहार ठीक रखते हुए गुरु जी को साहेब का रूप समझ कर आदर करते हुए सतनाम प्राप्त कर लेता है व प्राणी जीवन भर मन्त्र का जाप करता हुआ तथा गुरु वचन में चलता रहेगा। फिर गुरु जी सारनाम देगें। वह सत्यलोक अवश्य जाएगा। जो कोई गुरु वचन नहीं मानेगा, नाम लेकर भी अपनी चलाएगा, वह गुरु निन्दा करके नरक में जाएगा और गुरु द्रोही हो जाएगा। गुरु द्रोही को कई युगों तक मानव शरीर नहीं मिलता। वह चैरासी लाख जूनियों में भ्रमता रहता है।

कबीर साहिब ने सत्यनाम गरीबदास जी ख्छुड़ानी (हरियाणा) वाले, को दिया, घीसा संत जी (खेखड़े वाले) को दिया, नानक जी (तलवंडी जो अब पाकिस्तान में है) को दिया।

श्री नानक साहेब की वाणी में सतनाम का प्रमाण

प्रमाण के लिए पंजाबी गुरु ग्रन्थ साहिब के पृष्ठ नं. 59-60 पर सिरी राग महला 1 (शब्द नं. 11)

बिन गुर प्रीति न ऊपजै हउमै मैलु न जाइ।। सोहं आपु पछाणीऐ सबदि भेदि पतीआइ।। गुरमुखि आपु पछाणीऐ अवर कि करे कराइ।। मिलिआ का किआ मेलीऐ सबदि मिले पतीआइ।। मनमुखि सोझी न पवै वीछुड़ि चोटा खाइ।। नानक दरु घरु एकु है अवरु न दूजी जाइ।।

नानक साहेब स्वयं प्रमाणित करते हैं कि शब्दों (नामों) का भिन्न ज्ञान होने से विश्वास हुआ कि सच्चा नाम ‘सोहं‘ है। यही सतनाम कहलाता है। पूर्ण गुरु के शिष्य की भ्रमणा मिट जाती है। वह फिर और कोई करनी (साधना) नहीं करता। मनमुखी (मनमानी साधना करने वाला) साधक या जिसको पूरा संत नहीं मिला वह अधूरे गुरु का शिष्य पूर्ण ज्ञान नहीं होने से जन्म-मरण लख चैरासी के कष्टों को उठाएगा। नानक साहेब कहते हैं कि पूर्ण परमात्मा कुल का मालिक एक अकाल पुरुष है तथा एक घर (स्थान) सतलोक है और दूजी कोई वस्तु नहीं है।

प्राण संगली-हिन्दी - के पृष्ठ नं. 84 पर राग भैरव - महला 1 - पौड़ी नं. 32

साध संगति मिल ज्ञानु प्रगासै। साध संगति मिल कवल बिगासै।। साध संगति मिलिआ मनु माना। न मैं नाह ऊँ-सोहं जाना।। सगलभवन महि एको जोति। सतिगुर पाया सहज सरोत।। नानक किलविष काट तहाँ ही। सहजि मिलै अंमिृत सीचाही।।32।।

नानक साहेब कह रहे हैं कि नामों में नाम ‘‘ऊँ-सोहं‘‘ यही सतनाम है। इसी से पाप कटते हैं। (किलविष कटे ताहीं)

सहज समाधी से अमृत (पूर्ण परमात्मा का पूर्ण आनन्द) प्राप्त हुआ अर्थात् केवल ऊँ-सोहं के जाप से पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति संभव है अन्यथा नहीं। नानक साहेब उसी ‘‘ऊँ-सोहं‘‘ के नाम के जाप को अजपा जाप कह रहे हैं। इसी का प्रमाण कबीर साहेब तथा गरीबदास जी महाराज व धर्मदास जी ने दिया है। क्योंकि यह सर्व पुण्य आत्मा साहेब कबीर के शिष्य थे।

पंजाबी गुरु ग्रन्थ साहिब के पृष्ठ नं. 1092-1093 पर राग मारू महला 1 - पौड़ी नं. 1

गुरमति अलखु लखाईऐ ऊतम मति तराहि।।
नानक सोहं हंसा जपु जापहु त्रिभवण तिसै समाहि।।

जो इन सर्व संतों की वाणी (ग्रन्थों) में प्रमाण है तथा कबीर पंथी शब्दावली में सत्यनाम ‘ऊँ-सोहं‘ के जाप का प्रमाण है। वह भी पूरे संत जिसको नाम देने का अधिकार हो, से ही लेना चाहिए।

प्रमाण:- कबीर पंथी शब्दावली (पृष्ठ नं. 220) से सहाभार

बहुत गुरु संसार रहित, घर कोइ न बतावै।
आपन स्वारथ लागि, सीस पर भार चढावै।।
सार शब्द चीन्हे नहीं, बीचहिं परे भुलाय।
सत्त सुकृत चीन्हे बिना, सब जग काल चबाय।।18।।
अजर अमर विनसे नहीं, सुखसागरमें बास।
केवल नाम कबीर है, गावे धनि धर्मदास।।20।।

धर्मदास जी कहते हैं कि संसार में गुरुओं की कमी नहीं। मान बड़ाई, स्वार्थ के लिए गुरु बन कर अपने सिर पर भार धर रहे हैं। सार शब्द जब तक प्राप्त नहीं होता वह गुरु नरक में जाएगा। जिसे गुरुदेव जी ने नाम-दान देने की अनुमति नहीं दे रखी तथा अपने आप गुरु बन कर नाम देता है वह काल का दूत है। काल के मुख में ले जाएगा। परमात्मा का मुख्य नाम एक ही है उसका भेद किसी बिरले को है। बाकी सब डार (देवी-देवताओं, ब्रह्मा, विष्णु, महेश, माता, ब्रह्म) पर ही लटक रहे हैं।

समै - कबीर, बेद हमारा भेद है, हम नहीं बेदों माहिं।
जौन बेद में हम रहैं, वो बेद जानते नाहीं।
विशेष प्रमाण के लिए कबीर पंथी शब्दावली पृष्ठ नं. 51
ऊँ-सोहं, सोहं सोई। ऊँ - सोहं भजो नर लोई।।

धर्मदास को सत्य शब्द (सत्यनाम) सुनाया सतगुरु सत्य कबीर। कबीर साहेब ने धर्मदास को सत्य शब्द (सत्यनाम) दिया वह ‘ऊँ-सोहं‘ है तथा इसका भजन करना। फिर बाद में सार शब्द दिया और कहा कि ‘‘धर्मदास तोहे लाख दोहाई। सार शब्द कहीं बाहर न जाई।।‘‘ यह इतना कीमती नाम है कि किसी काल के उपासक के हाथ न लग जाए। इसलिए गरीबदास जी ने कहा है -

गरीब, सोहं शब्द हम जग में लाए। सार शब्द हम गुप्त छुपाए।।

कबीर साहेब कहते हैं - इसी शब्द रमैणी में -

शब्द-शब्द बहु अंतरा, सार शब्द मथि लीजै।
कहैं कबीर जहाँ सार शब्द नहीं, धिक जीवन सो जीजै।।

संतो शब्दई शब्द बखाना ।।शब्द।।

संतो शब्दई शब्द बखाना।।टेक।।
शब्द फांस फँसा सब कोई शब्द नहीं पहचाना।।
प्रथमहिं ब्रह्म स्वं इच्छा ते पांचै शब्द उचारा।
सोहं, निरंजन, रंरकार, शक्ति और ओंकारा।।
पांचै तत्व प्रकृति तीनों गुण उपजाया।
लोक द्वीप चारों खान चैरासी लख बनाया।।
शब्दइ काल कलंदर कहिये शब्दइ भर्म भुलाया।।
पांच शब्द की आशा में सर्वस मूल गंवाया।।
शब्दइ ब्रह्म प्रकाश मेंट के बैठे मूंदे द्वारा।
शब्दइ निरगुण शब्दइ सरगुण शब्दइ वेद पुकारा।।
शुद्ध ब्रह्म काया के भीतर बैठ करे स्थाना।
ज्ञानी योगी पंडित औ सिद्ध शब्द में उरझाना।।
पाँचइ शब्द पाँच हैं मुद्रा काया बीच ठिकाना।
जो जिहसंक आराधन करता सो तिहि करत बखाना।।
शब्द निरंजन चांचरी मुद्रा है नैनन के माँही।
ताको जाने गोरख योगी महा तेज तप माँही।।
शब्द ओंकार भूचरी मुद्रा त्रिकुटी है स्थाना।
व्यास देव ताहि पहिचाना चांद सूर्य तिहि जाना।।
सोहं शब्द अगोचरी मुद्रा भंवर गुफा स्थाना।
शुकदेव मुनी ताहि पहिचाना सुन अनहद को काना।।
शब्द रंरकार खेचरी मुद्रा दसवें द्वार ठिकाना।
ब्रह्मा विष्णु महेश आदि लो रंरकार पहिचाना।।
शक्ति शब्द ध्यान उनमुनी मुद्रा बसे आकाश सनेही।
झिलमिल झिलमिल जोत दिखावे जाने जनक विदेही।।
पाँच शब्द पाँच हैं मुद्रा सो निश्चय कर जाना।
आगे पुरुष पुरान निःअक्षर तिनकी खबर न जाना।।
नौ नाथ चैरासी सिद्धि लो पाँच शब्द में अटके।
मुद्रा साध रहे घट भीतर फिर ओंधे मुख लटके।।
पाँच शब्द पाँच है मुद्रा लोक द्वीप यमजाला।
कहैं कबीर अक्षर के आगे निःअक्षर उजियाला।।

जैसा कि इस शब्द ‘‘संतो शब्दई शब्द बखाना‘‘ में लिखा है कि सभी संत जन शब्द की महिमा गाते हैं। महाराज कबीर साहिब ने बताया है कि शब्द सतपुरुष का भी है जो कि सतपुरुष का प्रतीक है व निरंजन (काल) का प्रतीक भी शब्द ही है। जैसे शब्द ज्योति निरंजन यह चांचरी मुद्रा को प्राप्त करवाता है, इसको गोरख योगी ने बहुत अधिक तप करके प्राप्त किया जो कि आम (साधारण) व्यक्ति के बस की बात नहीं है और फिर गोरख नाथ काल तक ही साधना करके सिद्ध बन गए। मुक्त नहीं हो पाए। जब कबीर साहिब ने सार नाम दिया तब काल से छुटकारा गोरख नाथ जी का हुआ। इसीलिए ज्योति निरंजन नाम का जाप करने वाले काल जाल से नहीं बच सकते अर्थात् सत्यलोक नहीं जा सकते। शब्द ओंकार (ओ3म) का जाप करने से भूंचरी मुद्रा की स्थिति में साधक आ जाता है। जो कि वेद व्यास ने साधना की और काल जाल में ही रहा। सोहं नाम के जाप से अगोचरी मुद्रा की स्थिति हो जाती है और काल के लोक में बनी भंवर गुफा में पहुंच जाते हैं। जिसकी साधना सुखदेव ऋषि ने की और केवल स्वर्ग तक पहुँचा। शब्द रंरकार खैचरी मुद्रा दसमें द्वार (सुष्मणा) तक पहुंच जाते हैं। ब्रह्मा विष्णु महेश तीनों ने ररंकार को ही सत्य मान कर काल के जाल में उलझे रहे। शक्ति (श्रीयम्) शब्द ये उनमनी मुद्रा को प्राप्त करवा देता है जिसको राजा जनक ने प्राप्त किया परंतु मुक्ति नहीं हुई। कई संतों ने पांच नामों में शक्ति की जगह सत्यनाम जोड़ दिया है जो कि सत्यनाम भी कोई जाप नहीं है। ये तो सच्चे नाम की तरफ ईशारा है जैसे सत्यलोक को सच्च खण्ड भी कहते हैं ऐसे ही सत्यनाम व सच्चा नाम है। सत्यनाम जाप करने का नहीं है। अकाल मूरत, शब्द स्वरूपी राम, सतपुरुष ये नाम मुक्ति प्राप्त करने के नहीं हैं क्योंकि ये तो पूर्ण ब्रह्म परमात्मा के पर्यायवाची शब्द हैं जैसे अकाल मूरत वह परमात्मा जिसका काल न हो (अविनाशी)। सतपुरुष वह सच्चा परमात्मा जिसका नाश न हो (अविनाशी)। शब्द स्वरूपी राम वह परमात्मा जिसका असली रूप शब्द है और शब्द खण्ड नहीं होता व नाश में नहीं आता (अविनाशी)। उस परमात्मा को जो अविनाशी है जिसको शब्द स्वरूपी राम, अकाल मूरत व सतपुरुष आदि नामों से जाना जाता है, को तो पाना है। यह तो इस प्रकार है जैसे जल के तीन पर्यायवाची नाम जैसे - जल-पानी-नीर। ऐसे कहते रहने से जल प्राप्त नहीं हो सकता उसके लिए हैंड पम्प लगाना पड़ता है तब पानी प्राप्त होता है।

सार शब्द बिना सतनाम भी व्यर्थ।।

उसके लिए सत्यनाम सच्चा नाम देने वाला गुरु मिले और स्वांस द्वारा अजपा-जाप हो। स्वांस उस्वांस रूपी बोकी लगे और फिर उसमें सार नाम रूपी नलका लगाया जाए तो पानी प्राप्त हो अर्थात् वह अकाल मूर्ति (सतपुरुष) प्राप्त होवै। कई भक्तों ने बताया कि गरीबदास जी महाराज के अनुयाई संत भी केवल ओ3म-सोहं या केवल सोहं या ओ3म भागवदे वासुदेवाय नमः आदि-आदि नाम देते हैं जो कि मुक्ति के नहीं हैं। क्योंकि गरीबदास जी महाराज जी ने कहा है कि:-- सोहं अक्षर खण्ड है भाई, तातें निःक्षर रहो लौ लाई। सोहं में थे ध्रु प्रहलादा, ओ3म सोहं वाद विवादा।। अर्थात् सोहं मन्त्र का जाप करने वाले प्रहलाद भी मुक्त नहीं हुए। जैसा कि शब्द ‘कोई है रे परले पार का, भेद कहै झनकार का‘ में लिखा है कि वारिही (उरली) काल लोक में ही रहे।बन्दीछोड़ गरीब दास जी महाराज अपनी वाणी में लिखते हैं किः

गरीब, सोहं ऊपर और है, सत सुकृत एक नाम।
सब हंसों का बंस है, नहीं बसती नहीं ठाम।।
गरीब, सतगुरु सोहं नाम दे, गुझ बीरझ विस्तार।
बिन सोहं सीझे नहीं, मूल मन्त्र निजसार।।
गरीब, नामा छीपा ओ3म तारी, पीछे सोहं भेद विचारी।
सार शब्द पाया जद् लोई, आवागवन बहुर न होई।।
गरीब,सोहं शब्द हम जग में लाए,सार शब्द हम गुप्त छिपाए।।

महाराज गरीबदास जी कहते हैं कि नामदेव संत ओ3म जाप करते थे इसके बाद कबीर साहिब की कृप्या से सोहं का ज्ञान हुआ फिर भी मुक्ति नहीं होनी थी। जब सार नाम कबीर साहिब ने दिया तब उसकी मुक्ति हुई। फिर नामदेव जी ने खुशी में यह शब्द गाया --

नामदेव जी की वाणी में सतनाम का प्रमाण

एजी-एजी साधो, सार शब्द मोहे पाया।
कलह कल्पना मन की मेटी, भय और कर्म नशाया।।टेक।।
रूप न रेख कछु वाके, सोहं ध्यान लगाया।
अजर अमर अविनाशी देखे, सिंधु सरोवर न्हाया।।1।।
शब्द ही शब्द भया उजियारा, सतगुरु भेद बताया।
अपने को आपे में पाया, न कहीं गया न आया।।2।।
ज्यों कामनी कंठ का हीरा, आभूषण विसराया।
संग की सहेली भेद बताया, जीव का भरम नशाया।।3।।
जैसे मृग नाभी कस्तूरी, बन-बन डोलत धाया।
नासा स्वांस भई जब आगे, पलट निरंतर आया।।4।।
कहा कहूं वा सुख की महिमा, गूंगे को गुड़ खाया।
‘नामदेव‘ कहै गुरु कृपा से, ज्यों का त्यों दर्शाया।।5।।
कबीर, सोहं सोहं जप मुवे वृथा जन्म गवांया।
सार शब्द मुक्ति का दाता, जाका भेद नहीं पाया।।

कई भक्तों ने बताया कि हमारे गुरुदेव जी केवल राधा स्वामी नाम देते हैं जबकि यह नाम कबीर साहिब ने कहीं भी अपने शास्त्र में वर्णन नहीं कर रखा। न ही किसी अन्य शास्त्र (वेद-गीता जी आदि) में प्रमाण है। इसलिए शास्त्र से विपरीत साधना होने से नरक प्राप्ति है। वाणी है:--

कबीर, दादू धारा अगम की, सतगुरु दई बताय।
उल्टताही सुमरण करै, स्वामी संग मिल जाय।।

टिप्पणी:-- कहते हैं कि कबीर साहिब ने दादू साहिब को कहा कि धारा शब्द का उल्टा राधा बनाओ और स्वामी के साथ मिला लो यह राधा स्वामी मन्त्र हो गया। प्रथम तो यह वाणी दादू साहिब की है न कि कबीर साहिब की। और इस साखी का अर्थ बनता है कि दादू साहिब कहते हैं कि मेरे सतगुरु (कबीर साहिब) ने मुझे तीन लोक से आगे (अगम) की धारा (विधि) बताई कि तीन लोक की साधना को छोड़ कर (उल्ट कर) जो सत्यनाम व सारनाम दिया है वह आपको सतपुरुष से मिला देगा। इसीलिए भक्तजनों मनुष्य जन्म का मिलना अति दुर्लभ है। इसको अनजान साधनाओं में नहीं खोना चाहिए। पूरे गुरु की तलाश करें जो कि आज के दिन मेरे पूज्य गुरुदेव स्वामी रामदेवानन्द जी महाराज की कृप्या से यह दोनों मन्त्र उपलब्ध हैं जिनकी विधि पूर्वक गुरु मर्यादा में रह कर साधना (जाप) करने से बड़े सहजमय सतपुरुष प्राप्ति हो जाती है।

नकली गुरु को त्याग देना पाप नहीं

यह सारी सच्चाई समझ कर वह पुण्य आत्मा काफी प्रभावित हुआ तथा कहा कि आपके द्वारा बताया गया ज्ञान सही है और हमारी साधना ठीक नहीं है। वह लगातार तीन बार सतसंग सुनने आया तथा कहा कि दिल तो कहता है कि मैं भी नाम ले लूं लेकिन मेरे सामने एक दीवार खड़ी है।

1 एक तो कहते हैं गुरु नहीं बदलना चाहिए, पाप होता है।

2 दूसरे मैंने लगभग 400-500 (चार सौ-पांच सौ) भक्तों को इसी पंथ के संत से उपदेश दिलवा रखा हैं वे मुझे अपना सरदार तथा पूर्ण ज्ञान युक्त समझते हैं। अब मुझे शर्म लगती है कि वे क्या कहेंगें? अर्थात् मुझे धिक्कारेंगे।

मैंने (संत रामपाल दास ने) उस भक्त आत्मा को बताया:-- कबीर साहिब व सर्व संत यही कहते हैं कि झूठे गुरु को तुरंत त्याग दे।

प्रमाण के लिए कबीर पंथी शब्दावली पृष्ठ नं. 263 से सहाभार --

झूठे गुरु के पक्ष को, तजत न कीजै बार। राह न पावै शब्द का, भटकै द्वारहिं द्वार।।

जैसे एक वैद्य (डाॅक्टर) से इलाज नहीं हो तो दूसरा वैद्य (डाॅक्टर) ढूंढना चाहिए। गलत डाॅ. के आश्रित रह कर अपने प्राण नहीं गंवाने चाहिए। दूसरा आपने उनको स्पष्ट बताना चाहिए कि अपनी साधना ठीक नहीं है। आप भी यहां से दोबारा नाम ले लो तथा उन 400-500 प्राणियों का भी उद्धार करवाओ। इस पर वह ज्ञानी पुरुष जो प्रवक्ता भी बना हुआ था बोला कि मैं गुरु नहीं बदल सकता। मेरा मान घट जाएगा तथा वे लोग मुझे बुरा-भला कहेंगे। बेशक नरक में जाऊँ, मैं मार्ग नहीं बदल सकता। इस प्रकार जीव कहीं मान वश तो कहीं अज्ञान वश काल के जाल में फंसा ही रहता है। इस से आप भक्त जन गीता जी के ज्ञान को समझें तथा कबीर साहिब का उपदेश मुझ दास से प्राप्त करके कल्याण करवाऐं।

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