नकली संत की कथा
हरियाणा प्रांत के जीन्द जिले में एक पिण्डारा नामक तीर्थ है। वहां पर दो आश्रम हैं। एक समय वहां पर कोई पांच दिवसीय वार्षिक सतसंग उत्सव मनाया जा रहा था। उसमें यह दास भी श्रोता रूप में उपस्थित था। वहां पर 10-12 प्रवक्ता एक लम्बी स्टेज पर बैठे तथा प्रवचन शुरु हुए। सभी ने अपने-अपने विचार व्यक्त किए। एक महात्मा जिसकी जानकारी स्टेज सैक्रेटरी ने दी थी कि यह महापुरुष पहुँचे हुए विद्वान आत्मतत्व में प्रवेश हैं व गीता के मर्मज्ञ ज्ञाता हैं। उस महात्मा जी ने अपने वचन सुनाए। यह आत्मा अजर-अमर है। यह न मरती है और न जन्मती है और न ही सुख-दुःख का भोक्ता है। आत्मा को कोई कष्ट नहीं होता। यह अज्ञानी जन समूह अज्ञान वश दुःखी-सुखी होते हैं। जो भी कष्ट है वह शरीर को उसके कर्म का दण्ड होता है। मानो कोई हानि है तो तेरा क्या गया? इसलिए शोक क्या? तू क्या लेकर आया था जो तेरा नुकसान मानता है? लाभ होता है तो मेरा है ही नहीं। सुख-दुःख व लाभ-हानि को त्याग कर कर्म करो और कोई शारीरिक कष्ट है तो समझो शरीर ही दुःखी है। आपको क्या है? बस फिर आत्म तत्व में पहुँच गए। मुक्ति निश्चित है।
सर्व उपस्थित संगत उसकी विद्वता तथा ज्ञान के वचनों पर सबसे ज्यादा प्रभावित हो गई। उसने तीन दिन तक रात्रि व दिन के सतसंग ऐसे ही किये। उसने बताया कि मैंने देखा एक व्यक्ति रो रहा है। कारण पूछा तो बताया कि मेरे पैर में असहनीय पीड़ा हो रही है इसलिए रो रहा हूँ। वह संत कहता है कि मैंने उस मूर्ख को कहा- क्यों चिल्लाता है, अज्ञानी? यह कष्ट तो शरीर को है। तुझे क्या है? बस यह विचार कर। वह दुःखी व्यक्ति चुप हो गया। फिर नहीं रोया। दुःख का अंत हुआ। इसी प्रकार अज्ञान वश यह नादान प्राणी कष्ट पाता है। यही ज्ञान भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को श्री गीता जी के माध्यम से दिया है।
चौथे दिन रात्रि में भी उस महात्मा जी ने ऐसे ही ज्ञान योग से मुक्ति का मार्ग बताया।
सतसंग रात्रि का था जो रात्रि के 1 बजे समाप्त हो गया। रात्रि के दो बजे उसी महात्मा के पेट में दर्द हो गया। बुरी तरह रोने लगा - मर गया-मर गया की आवाज सुन कर काफी भक्त वृन्द वहां एकत्रित हुए। सलाह बनी की जल्दी ही जीन्द हाॅस्पिटल में ले चलो। दर्द जान लेवा लग रहा है। दूसरे आश्रम से कार मंगवाई। तुरंत हाॅस्पिटल में ले गए जो तीन कि.मी. पर ही था। सुबह 6 बजे वापिस आया। आराम हो गया। उसके पास अन्य महात्मा जो उनके सामने ज्ञान में फीके पड़ गए थे उस ज्ञानी पुरुष से कहने लगे संत जी आप कह रहे थे कि दुःख तो शरीर को होता है आत्मा को नहीं। फिर आप क्यों रो रहे थे? इस पर वह अज्ञानी महात्मा क्रोध वश बोला ‘‘ज्यादा मत बोलो, अपना काम करो।‘‘
यहां गरीबदास जी महाराज कहते हैं कि:-
गरीब, बीजक की बांता करैं, बीजक नाहीं हाथ। पृथ्वी डोबन उतरे, कह-कह मीठी बात।।
गरीब, बीजक की बातां कहै , बीजक नाहीं पास। औरों को प्रमोद ही, आपन चले निरास।।
कबीर, करनी तज कथनी कथें, अज्ञानी दिन रात। कुकर ज्यों भोंकत फिरें, सुनी सुनाई बात।।
वाणियों का भावार्थ:- तत्वज्ञानहीन व्यक्ति तो कहते हैं कि हम अध्यात्म ज्ञान के गूढ़ रहस्यों को जानते हैं, परंतु उनके पास बीजक यानि तत्वज्ञान नहीं है। वे जनता को अज्ञान भरी मीठी-मीठी बातें कहकर काल जाल में फाँस देते हैं। यह सब अज्ञानी वक्ता पृथ्वी को डुबोने यानि मानव का नाश करने के लिए उत्पन्न होते हैं। ये अन्य को मार्गदर्शन करते हैं, प्रवचन करते हैं, परंतु स्वयं भी भक्तिहीन होकर संसार से जाऐंगे। इनको भी निराशा ही हाथ लगेगी। वे सत्य भक्ति नहीं करते। केवल झूठा ज्ञान तथा सुना-सुनाया ज्ञान अन्य को प्रवचन करके बताते फिरते हैं। स्वयं अमल नहीं करते। ये कुत्तों की तरह केवल भौंकते फिरते हैं। जिस ज्ञान का कोई आधार नहीं है। केवल कहने मात्र से बात नहीं बनती। परमात्मा प्राप्ति तथा मुक्ति पाने के लिए शास्त्रानुकूल साधना करनी होती है। जिस कारण से प्रारब्धवश जीवन में आने वाला संकट टल जाता है। तब बात बनेगी, केवल ज्ञान कथने से नहीं।
अध्याय 2 के श्लोक 31 से 37 में कहा है कि क्षत्री का धर्म नहीं है कि युद्ध में कायरता दिखाए और फिर युद्ध में मर भी गया तो स्वर्ग का दरवाजा खुला है। जीत गया तो राज्य का सुख भोगेगा। ऐसा अवसर बड़े भाग्य से मिलता है। अर्जुन! तेरे तो दोनों हाथों में लड्डू हैं। क्षत्री की अपकीर्ति मरने से भी दुस्तर होती है। इसलिए अर्जुन मान जा मेरी बात, युद्ध करले। अध्याय 2 के श्लोक 38 में कहा है कि हार-जीत, दुःख-सुख, लाभ-हानि को समान समझ कर युद्ध कर तुझे पाप नहीं लगेंगे।
कृपया पाठक विचार करें- बिना लाभ-हानि के युद्ध हो सकता है? क्या आवश्यकता पड़ी छाती में तीर खाने की? फिर स्वयं काल भगवान लाभ-हानि का लालच भी लगा रहे हैं (अध्याय 2 के श्लोक 37 में कहा है कि या तो तू युद्ध में मारा जा कर स्वर्ग प्राप्त करेगा या जीत कर पृथ्वी का राज करेगा। गीता जी के अध्याय 2 के श्लोक 32 में कहा है कि अपने आप खुले हुए स्वर्ग के द्वार को भाग्यशाली क्षत्री ही प्राप्त करते हैं कि युद्ध में मर कर स्वर्ग प्राप्ति तो निश्चित है।) श्लोक 38 में लाभ-हानि को त्यागने को कहा है। काल ब्रह्म ने अपना स्वार्थ सिद्ध करने यानि महाभारत का युद्ध करवाने के लिए पूरा जोर लगाया। झूठ-सच का भी सहारा लिया।
विचारणीय विषय यह है कि यदि श्री कृष्ण जी यह ज्ञान कहते तो कालयवन के साथ युद्ध छोड़कर नहीं भागते क्योंकि वे भी क्षत्री थे। अपने क्षत्रिय धर्म को त्यागकर करोड़ों व्यक्तियों की जान बचा दी। कालयवन को मुचकन्द से मरवाकर जनहानि नहीं होने दी। यदि वे विचार करते कि मैं क्षत्री हूँ। आत्मा अमर है। ये सब मरेंगे तो फिर जन्म ले लेंगे, क्या हानि है तो सर्वनाश हो जाता। यह काल की चाल है जो युद्ध करवाना चाहता था। अध्याय 2 के श्लोक 45 का अनुवाद - हे अर्जुन! तीनों गुणों (रजगुण - ब्रह्मा, सतगुण - विष्णु, तमगुण - शिव) के द्वारा दिए जाने वाले लाभ के ज्ञान से तीनों गुणों से ऊपर उठकर हर्ष शोक आदि द्वन्द्वों से रहित स्थाई वस्तु पूर्ण परमात्मा में स्थित योग क्षेम को न चाहने वाला आत्म तत्व को जानने वाला हो।
अध्याय 2 के श्लोक 39 से 45 तक का अर्थ है समबुद्धि होकर कर्मबन्धन से मुक्त हो जा, ऐसे डगमग बुद्धि वाले कामयाब नहीं होते, राग-द्वेष मत रख तथा तीनों गुणों (ब्रह्मा-रजगुण, विष्णु-सतगुण, शिव-तमगुण की भक्ति) से भी रहित हो जा। योग क्षेम से भी रहित हो जा तथा पूर्ण परमात्मा के परायण (आश्रित) हो जा। नोट:- कृप्या गुणों को समझने के लिए पढ़ें इसी पुस्तक के पृष्ठ 309 पर।
जो व्यक्ति वेदों यानि ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद (वेदवाद रताः) की वाणी यानि मंत्रों पर वाद-विवाद करते रहते हैं। उनको वेदों का पूर्ण ज्ञान नहीं होता। वे संसारिक वस्तुओं की कामना करते रहते हैं। उनकी बुद्धि स्वर्ग से ऊपर कुछ नहीं मानती। वे जन्म-मरण के चक्र में रहते हैं। उनका चित तीनों गुणों (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिव) से मिलने वाले लाभ की वाणी यानि अज्ञान से हर लिया गया है। ऐसे व्यक्तियों की साधना में निश्चयात्मिक बुद्धि नहीं होती।