जो धर्म नहीं करते वे चोर व पापी प्राणी हैं

गीता अध्याय 3 के श्लोक 12 का हिन्दी अनुवाद:- यज्ञ यानि धार्मिक अनुष्ठानों के द्वारा बढ़ाए हुए देवता तुम साधकों को इच्छित भोग यानि सुख पदार्थ बिना माँगे निश्चय ही देते रहेंगे। भावार्थ है कि भक्ति रूपी पौधे के मूल की सिंचाई करके पेड़ बना लेते हैं। शाखाऐं बढ़ जाती हैं। उन शाखाओं को अपने-आप फल लगते हैं। बिना माँगे ही सेवक को फल देते हैं। इस प्रकार पूर्ण परमात्मा रूपी मूल यानि जड़ की ईष्ट रूप में प्रतिष्ठित करके पूजा करने वाले के शास्त्र अनुकूल भक्ति कर्मों का फल तीनों देवता (श्री ब्रह्मा, श्री विष्णु तथा श्री शिव) ही बिना माँगे देते रहते हैं। जो धन कर्मानुसार मानव को मिला है, यदि उसमें से दान-धर्म नहीं करते यानि देवताओं को नहीं बढ़ाते यानि मूल मालिक को ईष्ट देव रूप में प्रतिष्ठित करके दान नहीं देते, अपितु स्वयं ही भोगते हैं। वह तो परमात्मा का चोर है।(3:12)

गीता अध्याय 3 श्लोक 13 का अनुवाद:- जैसे गीता अध्याय 3 के श्लोक 12 में कहा है कि यज्ञ (शास्त्रविधि से किए धार्मिक अनुष्ठान) से पुष्ट(इष्ट) देवता आपको सांसारिक सुविधा कर्मफल के आधार पर देते हैं। फिर जो उसका कुछ अंश धर्म में नहीं लगाते अर्थात् जो धर्म यज्ञ आदि नहीं करते वे (संविधान तोड़े हुए हैं) पापी हैं, चोर हैं। गीता अध्याय 3 के श्लोक 13 में वर्णन है कि यज्ञ में प्रतिष्ठित (पूर्ण परमात्मा) इष्टदेव को भोग लगाकर फिर भण्डारा करें। वे साधक यज्ञ के द्वारा होने वाले लाभ को प्राप्त हो जाएंगे। ख्सर्व पापों से मुक्त होने का अभिप्राय यह है कि जो यज्ञ नहीं करते वे पापी कहे हैं और जो शास्त्र विधि के अनुसार (मतानुसार) यज्ञ करते हैं वे उन सर्व पापों से बच जाते हैं जो यज्ञ न करने से लगने थे, यदि कोई यज्ञ आदि धार्मिक अनुष्ठान नहीं करता, वह तो चोर बताया है। प्रतिदिन या सत्संग के समय भोजन प्रसाद बनता है। सर्व प्रथम कुछ भोजन अलग निकाल कर पूर्ण परमात्मा को भोग लगाया जाना चाहिए। उसके पश्चात् शेष भोजन भण्डारा वितरित किया जाना चाहिए। प्रभु के भोग से बचा शेष भोजन व प्रसाद खाने वाले के कुछ पाप विनाश हो जाते हैं। इस प्रकार पूर्ण संत से उपदेश प्राप्त करके उसके बताए अनुसार सर्व भक्ति कार्य करने से साधक पूर्ण मुक्त हो जाता है।

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