सांसारिक चीं-चूं में ही भक्ति करनी पड़ेगी
एक थानेदार घोड़ी पर सवार होकर अपने क्षेत्र में किसी कार्यवश जा रहा था। ज्येष्ठ (June) का महीना, दिन के एक बजे की गर्मी। हरियाणा प्रान्त। एक किसान रहट से फसल की सिंचाई कर रहा था। बैलों द्वारा कोल्हू की तरह रहट को चलाया जाता था। बाल्टियों की लड़ी (chain) जो पूली (चक्री) के ऊपर चलती थी जिससे कूंए से पानी निकलकर खेत में जाने वाली नाली में गिरता था। रहट के चलने से जोर-जोर की चीं-चूं की आवाज हो रही थी। दरोगा तथा घोड़ी दोनों प्यास से व्याकुल थे। थानेदार ने पानी पीने तथा घोड़ी को पिलाने के लिए रहट की ओर प्रस्थान किया। रहट से हो रही जोर-जोर की चीं-चूं की आवाज से घोड़ी फड़क (डरकर दूर भाग) गई। थानेदार ने किसान से कहा कि इस चीं-चूं को बंद कर। किसान ने बैलों को रोक दिया। रहट चलना बंद हो गया। कूंए से पानी निकलना बंद हो गया। जो पानी पहले निकला था, उसे जमीन ने अपने अंदर समा लिया। दरोगा घोड़ी को निकट लाया तो देखा कि नाली में पानी नहीं था। दरोगा ने कहा, हे किसान! पानी निकाल। किसान ने बैल चला दिए, रहट से चीं-चूं की आवाज और पानी दोनों चलने लगे। घोड़ी फिर फड़क गई और एक एकड़ (200 फुट) की दूर पर जाकर रूकी। दरोगा ऊपर बैठा था। दरोगा ने फिर कहा कि किसान! शोर बंद कर। किसान ने बैल रोक दिए, पानी नाली से जमीन में जाते ही समाप्त था। घोड़ी को निकट लाया, पानी नहीं मिला तो फिर पानी निकालने का आदेश दिया। रहट चलते ही घोड़ी दौड़ गई। किसान ने कहा कि दरोगा जी! इस रहट की चीं-चूं में ही पानी पीना पड़ेगा, नहीं तो दोनों मरोगे। दरोगा घोड़ी से उतरा, लगाम पकड़कर धीरे-धीरे घोड़ी को निकट लाया, चलते रहट में ही दोनों ने पानी पीया और जीवन रक्षा की। इसलिए सांसारिक कार्यों को करते-करते ही भक्ति, दान-धर्म, स्मरण करना पड़ेगा, अवश्य कीजिए।
अब भक्ति से क्या होगा? आयु तो थोड़ी-सी शेष है।
जिला जींद में गाँव ‘मनोरपुर’ में भक्त रामकुमार जी के घर तीन दिन का पाठ तथा सत्संग हो रहा था। गाँव में पुरूष सत्संग को पाखण्ड मानते हैं क्योंकि पुराने जमाने में सत्संग का आयोजन वृद्ध स्त्रिायाँ करती थी। रात्रि में सत्संग करती थी, दिन में पुत्रवधु को भाई-भतीजों की गालियों से कोसती (बद्दुआ देती) थी। कोई-कोई तो दूसरे के बिटोड़े से गोसे (उपले) तक चुरा लेती थी। कभी पकड़ी जाती थी तो बदनामी होती थी। इसी तरह की घटनाओं से सत्संग नाम से लोगों को एलर्जी थी। भक्त रामकुमार जी के पूरे परिवार ने दीक्षा ले रखी थी। उनको पता था कि यह सत्संग भिन्न है। जब रामकुमार जी के पिता जी को पता चला कि हमारे घर में बड़ा बेटा सत्संग करा रहा है तो बहुत बेइज्जती मानी और सोचा कि गाँव क्या कहेगा? इसलिए वह वृद्ध तीन दिन तक अपने बड़े बेटे के घर पर नहीं आया। छोटे बेटे के घर चैबारे में रहा। दिन में खेतों में चला जाए, रात्रि में चैबारे में हुक्का पीवे और दुःख मनावै कि ये कैसे दिन देख रहा हूँ।
रात्रि में दास (लेखक) ने सत्संग किया। लाऊड स्पीकर लगा रखा था। रामकुमार के लड़के को पता था कि दादा जी ऊपर चैबारे में है। उसने एक स्पीकर का मुख दादा जी के चैबारे की ओर कर दिया। सत्संग का वचन सुनना वृद्ध की मजबूरी बन गई। दो दिन सत्संग सुनकर वृद्ध तीसरे दिन पाठ के भोग पर रामकुमार जी के घर आ गया। रामकुमार जी की पत्नी ने बताया कि मैंने सोचा था कि बूढ़ा बात बिगाड़ने आया है। महाराज जी को गलत बोलेगा। पाठ का भोग लगने के पश्चात् रामकुमार जी के पिता जी मेरे सामने बैठ गए और कहने लगे, महाराज जी! मैं तो इस सत्संग से घना नाराज था, परंतु दो दिन आपकी बात सुनी, मेरे को झंझोड़कर रख दिया। मैंने तो मनुष्य जीवन का पूरा ही नाश कर दिया। मैंने आठ एकड़ जमीन और मोल ली, दोनों बेटों को पाला-पोसा, दिन-रात खेती के काम में लगा रहा। आपके विचारों से पता चला है कि मैंने तो जीवन नाश कर दिया। अब 75 वर्ष की आयु हो चुकी है। अब भक्ति से क्या बनेगा? यह बात कहकर वह वृद्ध रोने लगा। हिचकी लग गई। मैंने उसे सांत्वना देते हुए कहा कि आप विश्वास करो अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है। एक उदाहरण तो गुरू जी से इस दास (रामपाल दास) ने सुना था। बताया कि जैसे कूंए में बाल्टी छूट गई हो और उसकी नेजू (रस्सी जो बाल्टी से बाँधी जाती है, जिससे बाल्टी द्वारा कूंए से पानी निकाला जाता है। पुराने समय में कूंए लगभग 100-150 फुट गहरे होते थे।) भी कूंए में जा रही हो। यदि दौड़कर नेजू को पकड़ने की कोशिश करने से नेजू की पूँछ (अंतिम सिरा) भी हाथ में आ जाए तो कुछ भी नहीं गया। बाल्टी भी मिल गई और पानी भी प्राप्त हो गया। यदि यह विचार करे कि बाल्टी तो गई, जाने दे तो मूर्खता है। इसी प्रकार आपकी आयु रूपी नेजू की पुछड़ी (म्दक) बची है। अब दीक्षा लेकर सर्व नशा त्यागकर मर्यादा में रहकर साधना करो, मोक्ष हो जाएगा। उसी समय उस भक्तात्मा ने दीक्षा ली और पूरी लगन के साथ भक्ति की। वह 85 वर्ष की आयु में शरीर त्यागकर गया। जीवन सफल किया। वह हुक्का पीता था। उसी दिन त्याग दिया और आजीवन हाथ भी नहीं लगाया। रामकुमार के छोटे भाई के परिवार ने भी नाम लिया। वृद्ध भक्त उनको स्वयं लेकर सत्संग आता था। भक्ति करने को कहता था। गाँव मनोरपुर के लोग आश्चर्यचकित थे कि इतना हुक्का पीने वाले ने कैसे हुक्का छोड़ दिया? हुक्का पीने वालों के पास भी नहीं बैठता। एकै चोट सिधारिया जिन मिलन दा चाह।
हरियाणवी कहावत है कि:-
घाम का और ज्ञान का चमका-सा लाग्या करै।
शब्दार्थ:- भावार्थ है कि भादुआ के महीने में धूप (घाम) का जोर अधिक होता है। खेत में काम करने वालों को घाम मार जाता है। (घाम मारना = धूप से शरीर में हानि होना, जिस कारण से शरीर में गर्मी बढ़ जाती है, ज्वर हो जाता है। इसको कहते हैं घाम मार गया।) वह व्यक्ति वैद्य को कहता था कि मुझे तो पता भी नहीं चला कब घाम मार गया। वैद्य कहता था कि घाम का तो चमका-सा लगता है यानि अचानक प्रभाव पड़ जाता है। इसी प्रकार जिनको ज्ञान का प्रभाव होना हो तो एक-दो बिंदु पर ही ज्ञान हो जाता है, भक्ति पर लग जाता है।