पवित्र वेदों में कविर्देव अर्थात् कबीर परमेश्वर का प्रमाण

कविर्देव अपने ज्ञान का संदेशवाहक बनकर स्वयं ही आता है तथा अपना स्वस्थ ज्ञान (वास्तविक तत्वज्ञान) स्वयं ही कराता है।

स्वयं कविर्देव (कबीर परमेश्वर) जी ने अपनी अमृतवाणी में कहा है-

(कबीर सागर के अध्याय ‘‘अगम निगम बोध‘‘ पृष्ठ 12 पर)

बेद मेरा भेद है, मैं ना बेदन के मांहीं।
जौन बेद से मैं मिलूं, वह बेद जानते नांहीं।

शब्द:- अविगत से चल आए, कोई मेरा भेद मर्म नहीं पाया। (टेक)
न मेरा जन्म न गर्भ बसेरा, बालक हो दिखलाया।
काशी नगर जल कमल पर डेरा, वहाँ जुलाहे ने पाया।।
मात-पिता मेरे कुछ नाहीं, ना मेरे घर दासी(पत्नी)।
जुलहा का सुत आन कहाया, जगत करें मेरी हाँसी।।
पाँच तत्व का धड़ नहीं मेरा, जानुं ज्ञान अपारा।
सत्य स्वरूपी (वास्तविक) नाम साहेब(पूर्ण प्रभु) का सोई नाम हमारा।।
अधर द्वीप (ऊपर सत्यलोक में) गगन गुफा में तहां निज वस्तु सारा।
ज्योत स्वरूपी अलख निरंजन (ब्रह्म) भी धरता ध्यान हमारा।।
हाड़ चाम लहु ना मेरे कोई जाने सत्यनाम उपासी।
तारन तरन अभय पद दाता, मैं हूँ कबीर अविनाशी।।

उपरोक्त शब्द में कबीर परमेश्वर कह रहे हैं कि न तो मेरी कोई पत्नी है, न ही मेरा पाँच तत्व का (हाड-चाम, लहू अर्थात् नाड़ियों के जोड़-जुगाड़ वाली काया) शरीर है, मैं स्वयंभू हूँ तथा काशी के लहरतारा नामक तालाब के जल में कमल के फूल पर स्वयं प्रकट होकर बालक रूप बनाया था। वहाँ से मुझे नीरू नामक जुलाहा उठा कर ले गया था। जो वास्तविक नाम परमेश्वर का अर्थात् मेरा है(वेदों में कविर्देव, गुरु ग्रन्थ साहेब में हक्का कबीर तथा र्कुआन शरीफ में अल्लाह कबीरन्) वही नाम मेरा है, मैं ऊपर ऋतधाम में रहता हूँ तथा आप का भगवान ज्योति निरंजन (ब्रह्म) भी मेरी पूजा करता है। कबीर सागर अध्याय “ज्ञान बोध” (बोध सागर):

पृष्ठ 29 -- नहीं बाप ना माता जाए, अविगत से हम चल आए।
कल युग में कांशी चल आए, जब हमरे तुम दर्शन पाए।।

पृष्ठ 36 -- भग की राह हम नहीं आए, जन्म मरण में नहीं समाए।
त्रिगुण पांच तत्व हमरे नांही, इच्छा रूपी देह हम आहीं।।

प्रमाण - 1. पवित्र यजुर्वेद अध्याय 29 मंत्र 25:-

समिद्धोऽअद्य मनुषो दुरोणे देवो देवान्यजसि जातवेदः।
आ च वह मित्रमहश्चिकित्वान्त्वं दूतः कविरसि प्रचेताः।।25।।

समिद्धः-अद्य-मनुषः-दुरोणे-देवः-देवान्-यज्-असि- जात-वेदः-आ- च-वह-मित्रमहः-चिकित्वान्-त्वम्-दूतः- कविर्-असि-प्रचेताः।

अनुवाद - (अद्य) आज अर्थात् वर्तमान में (दुरोणे) शरीर रूप महल में दुराचार पूर्वक (मनुषः) झूठी पूजा में लीन मननशील व्यक्तियों को (समिद्धः) लगाई हुई आग अर्थात् शास्त्र विधि रहित वर्तमान पूजा जो हानिकारक होती है, अग्नि जला कर भस्म कर देती है ऐसे साधक का जीवन शास्त्रविरूध साधना नष्ट कर देती है। उसके स्थान पर (देवान्) देवताओं के (देवः) देवता (जातवेदः) पूर्ण परमात्मा सतपुरुष की वास्तविक (यज्) पूजा (असि) है। (आ) दयालु , (मित्रमहः) जीव का वास्तविक साथी पूर्ण परमात्मा के (चिकित्वान्) स्वस्थ ज्ञान अर्थात् यथार्थ भक्ति को (दूतः) संदेशवाहक रूप में (वह) लेकर आने वाला (च) तथा (प्रचेताः) बोध कराने वाला (त्वम्) आप (कविर्देव अर्थात् कबीर परमेश्वर) कबीर (असि) है।

भावार्थ:- जिस समय भक्त समाज को शास्त्रविधि त्यागकर मनमाना आचरण (पूजा) कराया जा रहा होता है। उस समय कविर्देव (कबीर परमेश्वर) तत्व ज्ञान को प्रकट करते हैं।

जिन-जिन पुण्यात्माओं ने परमात्मा को प्राप्त किया उन्होंने बताया कि कुल का मालिक एक है। वह मानव सदृश तेजोमय शरीर युक्त है। जिसके एक रोम कूप का प्रकाश करोड़ सूर्य तथा करोड़ चन्द्रमाओं की रोशनी से भी अधिक है। उसी ने नाना रूप बनाए हैं। परमेश्वर का वास्तविक नाम अपनी-अपनी भाषाओं में कविर्देव (वेदों में संस्कृत भाषा में) तथा हक्का कबीर (श्री गुरु ग्रन्थ साहेब में पृष्ठ नं. 721 पर क्षेत्रीय भाषा में) तथा सत् कबीर (श्री धर्मदास जी की वाणी में क्षेत्रीय भाषा में) तथा बन्दी छोड़ कबीर (सन्त गरीबदास जी के सद्ग्रन्थ में क्षेत्रीय भाषा में) कबीरा, कबीरन् व खबीरा या खबीरन् (श्री कुरान शरीफ़ सूरत फुर्कानि नं. 25, आयत नं. 19, 21, 52, 58, 59 में क्षेत्रीय अरबी भाषा में)। इसी पूर्ण परमात्मा के उपमात्मक नाम अनामी पुरुष, अगम पुरुष, अलख पुरुष, सतपुरुष, अकाल मूर्ति, शब्द स्वरूपी राम, पूर्ण ब्रह्म, परम अक्षर ब्रह्म आदि हैं, जैसे देश के प्रधानमंत्री का वास्तविक शरीर का नाम कुछ और होता है तथा उपमात्मक नाम प्रधान मंत्री जी, प्राइम मिनिस्टर जी अलग होता है। जैसे भारत देश का प्रधानमंत्री जी अपने पास गृह विभाग रख लेता है। जब वह उस विभाग के दस्त्तावेजों पर हस्त्ताक्षर करता है तो वहाँ गृहमंत्री की भूमिका करता है तथा अपना पद भी गृहमंत्री लिखता है, हस्त्ताक्षर वही होते हैं। इसी प्रकार ईश्वरीय सत्ता को समझना है। जिन सन्तों व ऋषियों को परमात्मा प्राप्ति नहीं हुई, उन्होंने अपना अन्तिम अनुभव बताया है कि प्रभु का केवल प्रकाश देखा जा सकता है, प्रभु दिखाई नहीं देता क्योंकि उसका कोई आकार नहीं है तथा शरीर में धुन सुनना आदि प्रभु भक्ति की उपलब्धि है।

आओ विचार करें - जैसे कोई अंधा अन्य अंधों में अपने आपको आँखों वाला सिद्ध किए बैठा हो और कहता है कि रात्री में चन्द्रमा की रोशनी बहुत सुहावनी मन भावनी होती है, मैं देखता हूँ। अन्य अन्धे शिष्यों ने पूछा कि गुरु जी चन्द्रमा कैसा होता है। चतुर अन्धे ने उत्तर दिया कि चन्द्रमा तो निराकार है वह दिखाई थोड़े ही दे सकता है। कोई कहे सूर्य निराकार है वह दिखाई नहीं देता रवि स्वप्रकाशित है इसलिए उसका केवल प्रकाश दिखाई देता है। गुरु जी के बताये अनुसार शिष्य 2) घण्टे सुबह तथा 2) घण्टे शाम आकाश में देखते हैं। परन्तु कुछ दिखाई नहीं देता। स्वयं ही विचार विमर्श करते हैं कि गुरु जी तो सही कह रहे हैं, हमारी साधना पूरी 2) घण्टे सुबह 2) घण्टे शाम नहीं हो पाती। इसलिए हमंे सूर्य तथा चन्द्रमा का प्रकाश दिखाई नहीं दे रहा। चतुर गुरु जी की व्याख्या पर आधारित होकर उस चतुर अन्धे की (ज्ञानहीन) व्याख्या के प्रचारक करोड़ों अंधे (ज्ञानहीन) हो चुके हों। फिर उन्हें आँखों वाला (तत्वदर्शी सन्त) बताए कि सूर्य आकार में है और उसी से प्रकाश निकल रहा है। इसी प्रकार चन्द्रमा से प्रकाश निकल रहा है नेत्रहीनों! चन्द्रमा के बिना रात्री में प्रकाश कैसे हो सकता है? जैसे कोई कहे कि ट्यूब लाईट देखी, फिर कोई पूछे कि ट्यूब कैसी होती है जिसकी आपने रोशनी देखी है? उत्तर मिले कि ट्यूब तो निराकार होने के कारण दिखाई नहीं देती। केवल प्रकाश देखा जा सकता है। विचार करें:- ट्यूब बिना प्रकाश कैसा ?

यदि कोई कहे कि हीरा स्वप्रकाशित होता है। फिर यह भी कहे कि हीरे का केवल प्रकाश देखा जा सकता है, क्योंकि हीरा तो निराकार है, वह दिखाई थोड़े ही देता है, तो वह व्यक्ति हीरे से परिचित नहीं है। फोकट जौहरी बना है। जो परमात्मा को निराकार कहते हैं तथा केवल प्रकाश देखना तथा धुन सुनना ही प्रभु प्राप्ति मानते हैं वे पूर्ण रूप से प्रभु तथा भक्ति से अपरिचित हैं। जब उनसे प्रार्थना की कि कुछ नहीं देखा है तुमने, अपने अनुयाइयों को भ्रमित करके दोषी हो रहे हो। न तो आपके गुरुदेव के तत्वज्ञान रूपी नेत्र हैं और न ही आपको। इसलिए दुनियाँ को भ्रमित मत करो। इस बात पर सर्व अज्ञान रूपी नेत्रों के अन्धों ने लट्ठ उठा लिए कि हम तो झूठे, तूं एक सच्चा। आज वही स्थिति संत रामपाल जी महाराज के साथ है।

इस विवाद का निर्णय कैसे हो कि किस सन्त के विचार सही हैं किसके गलत हैं? मान लिजिए जैसे किसी अपराध के विषय में पाँच वकील अपना-अपना विचार व्यक्त कर रहे हैं। एक कहे कि इस अपराध पर संविधान की धारा 301 लगेगी, दूसरा कहे 302, तीसरा कहे 304, चैथा कहे 306 तथा पाँचवां वकील 307 को सही बताए।

ये पाँचों ठीक नहीं हो सकते। केवल एक ही ठीक हो सकता है यदि उसकी व्याख्या अपने देश के पवित्र संविधान से मिलती है। यदि उसकी व्याख्या भी संविधान के विपरीत है तो पाँचों वकील गलत हैं। इसका निर्णय देश का पवित्र संविधान करेगा जो सर्व को मान्य होता है। इसी प्रकार भिन्न-भिन्न विचार धाराओं में तथा साधनाओं में से कौन-सी शास्त्र अनुकूल है या कौन-सी शास्त्र विरुद्ध है? इसका निर्णय पवित्र सद्ग्रन्थ ही करेंगे, जो सर्व को मान्य होना चाहिए (यही प्रमाण पवित्र श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में) कि ‘‘जो शास्त्रविधि को त्यागकर मनमाना आचरण करते हैं उनको न तो सुख प्राप्त होता है न सिद्धी तथा न उनकी गति होती है अर्थात् व्यर्थ।

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