पतिव्रता के अंग का सरलार्थ
पतिव्रता का भावार्थ पूर्व में सारांश में बता दिया है।
वाणी नं. 1 से 10:-
गरीब, पतिब्रता तिन जानिये, नाहीं आंन उपाव। एके मन एके दिसा, छांडै़ भगति न भाव।।1।।
गरीब, पविव्रता सो जानिये, नाहीं आन उपाव। एकै मन एकै दिसा, दूजा नहीं लगाव।।2।।
गरीब, पतिब्रता सो जानिये, मानें पीव की आन। दूजे सें दावा नहीं, एकै दिसा धियान।।3।।
गरीब, पतिब्रता सो जानिये, मानें पीव की कांन। पीव भावै सोई करें, बिन अग्या नहिं खान।।4।।
गरीब, पतिब्रता सो जानिये, चरण कंवल में ध्यान। एक पलक भूले नहीं, आठौं वखत अमान।।5।।
गरीब, पतिब्रता सो जानिये, जानै अपना पीव। आंन ध्यान सै रहत होइ, चरण कमल में जीव।।6।।
गरीब, पतिब्रता सो जानिये, जानैं अपना कंत। आंन ध्यान सें रहत होइ, जो धार्या सो मंत।।7।।
गरीब, पतिब्रता सोई लखो, जानै अपना कंत। आंन ध्यान सै रहत होइ, गाहक मिलै अंनत।।8।।
गरीब, पतिब्रता कै बरत हैं, अपने पीव सूं हेत। आंन उपासी बौह मिलें, जिनसैं रहै संकेत।।9।।
गरीब, पतिब्रता सो जानिये, जाके दिल नहिं और। अपने पीव के चरण बिन, तीन लोक नहिं ठौर।।10।।
सरलार्थ:– वाणी नं. 10 का सरलार्थ पूर्व में कर दिया है। जैसे पतिव्रता स्त्री अपने पति के अतिरिक्त किसी पुरूष को पति (स्वामी) भाव से नहीं चाहती, चाहे वह कितना सुंदर हो, धनी हो या बड़ा अधिकारी हो, चाहे राजा भी क्यों न हो? उसे पतिव्रता कहते हैं।
कथा:- एक व्यक्ति राजा का नौकर था। उसको अपनी पत्नी पर पूर्ण विश्वास था कि वह पतिव्रता है जिसकी महिमा वह अपने साथियों में बार-बार करता था। एक दिन बात राज दरबार में पहुँच गई। नौकर हिन्दू था, राजा मुसलमान था। मुसलमान महामंत्री था। राजदरबार में राजा ने उस नौकर से पूछा कि आप यह कहते हैं कि आपकी पत्नी पतिव्रता है। आपको पूर्ण विश्वास है। नौकर ने कहा कि पूर्ण से भी आगे है। उसी समय महामंत्री बोला कि यदि मैं तेरी पत्नी का पतिव्रत धर्म खण्ड कर दूँ तो तुझे क्या सजा मिलनी चाहिए? नौकर ने कहा कि फाँसी दे देना। यदि पतिव्रत धर्म खण्ड नहीं कर पाया तो आपको क्या सजा मिलनी चाहिए? राजा ने कहा कि फाँसी की सजा। महामंत्री ने स्वीकार कर ली तथा नौकर से पूछा कि क्या वस्तु लाऊँ जिससे तू माने कि मैं सफल हुआ हूँ। नौकर ने कहा कि विवाह के समय एक पटका (परणा-तौलिए जैसा वस्त्रा) तथा कटार (छोटी तलवार डेढ़ फुट लंबी) दुल्हे को देते थे। वह पत्नी को संभलवा दी जाती थी। वह सुहाग की निशानी मानी जाती थी। नौकर ने कहा कि पटका और कटार ला देना, मैं मान लूँगा कि आपने मेरी पत्नी का धर्म नष्ट कर दिया है।
महामंत्री उस शहर में गया और एक दूती (जो औरतों तथा पुरूषों को भ्रमित करके ठगती थी तथा जो निंदा-चुगली करके आपस में लड़ाई करवाती थी। अपना स्वार्थ सिद्ध कर लेती थी। उसे दूती कहते थे।) को बुलाया। महामंत्री ने उस दूती से कहा कि इस नाम का व्यक्ति है। उससे मेरी शर्त लगी है। मेरा सम्पर्क उस स्त्री से करवा दे। जो धन चाहिए, बता दे। दूती ने कहा कि भाई! भूल जा। वह पतिव्रता स्त्री है, तेरी ओर थूकेगी भी नहीं, तेरी शक्ल भी नहीं देखेगी। उनके परिवार के व्यक्ति भी खूंखार हैं। तेरी खाल उतार देंगे। महामंत्री ने कहा कि उसके घर से पटका तथा कटार चुराकर ला दे तथा उसके गुप्तांग के पास यदि कोई चिन्ह हो तो वह भी देखकर मुझे बताना। उस नौकर के परिवार के लोग उस शहर से थोड़ी दूरी पर एक गाँव में रहते थे। नौकर शहर में रहता था। दूती नौकर के घर गई। उसकी पत्नी से बोली कि बेटी! मैं तेरे पति की बुआ हूँ। मैं कई वर्षों के पश्चात् आई हूँ। उस स्त्री ने कहा कि आओ बुआ जी! वह दूती दो दिन रूकी। जिस समय वह स्त्री स्नान करने लगी तो दूती उठकर कमर मलने लगी। बहुत मना करने पर भी नहीं मानी और कहने लगी कि मुझे तो बेटी से भी प्यारी लगती हो, मना मत कर। यह कहकर मुख पर हाथ फेरा। जांघों की ओर झुककर देखा। आँखों को धोने के बहाने पानी मार दिया और उस स्त्री की आँखें बंद हो गई। इस प्रकार गुप्तांग के पास जांघ में एक तिल था, वह देख लिया। बस काम बन गया। वह स्त्री स्नान करके रसोई में खाना बनाने गई तो दूती पटका तथा कटार लेकर चम्पत हो गई। दूती ने पटका तथा कटार महामंत्री को दे दिए और जांघ पर तिल की निशानी भी बता दी। महामंत्री ने राजा से कहा कि मैंने उसकी पत्नी के पास दो दिन बिताए हैं और यह पटका तथा कटार उसी के हाथों से लेकर आया हूँ। राजा ने दरबार लगाया। नौकर को बुलाया तथा महामंत्री ने सभा में पटका और कटार नौकर को दिखाई जो उसी की थी तथा उसकी पत्नी की जांघ पर तिल भी बताया तो नौकर मान गया। राजा ने फाँसी का दिन पंद्रह दिन बाद का रख दिया और नौकर से अंतिम इच्छा पूछी। नौकर ने कहा कि मैं अपनी पत्नी से अंतिम बार मिलना चाहता हूँ। राजा ने उसे आज्ञा दे दी। नौकर अपने घर गया और अपनी पत्नी से कहा कि आपने विश्वासघात किया। मैंने आपके विश्वास पर महामंत्री शेरखान से ऐसी शर्त लगाई थी। राजा के दरबार में राजा के सामने मैंने कहा था कि मेरी पत्नी का पतिव्रत धर्म कोई नष्ट कर दे तो मुझे फाँसी लगा देना। अब मुझे उस दिन फाँसी लगाई जाएगी। उसकी पत्नी ने सब बात बताई, परंतु दरबार में फैसला हो चुका था। वह नौकर वापिस राजा के दरबार में गया। उसे कैद में डाल दिया गया।
नौकर की पतिव्रता धर्मपत्नी ने परमात्मा को याद किया और राजा के दरबार में गई और राजा से नाच दिखाने की आज्ञा माँगी। स्त्री अति सुंदर थी। राजा लोग शौकीन होते हैं, आज्ञा दे दी। सभा लगी। सब मंत्री, महामंत्री, राजा उपस्थित थे। राजा को नाच अति सुंदर लगा और नृतका से कहा कि माँग! क्या माँगना चाहती है? स्त्री ने कहा कि आपकी सभा में मेरा चोर है जिसने मेरे रूपये लिए थे, वापिस नहीं दिए। उसे फाँसी की सजा दी जाए। राजा ने कहा कि ठीक है, बताओ कौन है चोर? स्त्री ने कहा कि आपका महामंत्री शेरखान है। शेरखान कुर्सी से उठा और कहा कि जहाँपनाह! हे परवरदिगार! खुदा की कसम मैंने इस औरत की शक्ल भी नहीं देखी है। यह सरेआम झूठ बोल रही है। तब स्त्री ने कहा कि राजन! यदि इसने मेरी शक्ल नहीं देखी है। यह मुझे जानता तक नहीं है तो वे पटका और कटार कहाँ से लाया था? मैं उस शूरवीर सैनिक की पत्नी हूँ जिसको तूने दूती भेजकर मेरे जांघ के तिल का पता लगाया और उसी ने ये पटका तथा कटार चोरी करके इसको लाकर दी थी। उसने अपने आपको मेरे पति की बुआ बताया था। मैं नई-नई इस घर में आई थी। मैं उसे जानती नहीं थी। वह दूती बुलाई गई। उसने राजा को सच्चाई बता दी। राजा ने उस नौकर को बरी कर दिया और महामंत्री बना दिया। महामंत्री शेरखान को फाँसी पर लटका दिया।
पतिव्रता स्त्री उसे कहा जाता है जो अपने पति के अतिरिक्त अन्य पुरूष से स्वेच्छा से संभोग (sex) ना करे चाहे स्वर्ण का बनकर खड़ा हो, चाहे देवता पृथ्वी पर उतर आए। यदि कोई बलात्कार करता है तो उस नीच को पाप लगेगा और राजा के द्वारा दंडित किया जाएगा, परंतु इस कुकृत्य से उस स्त्री या लड़की का पतिव्रत धर्म नष्ट नहीं होगा। दुष्ट शक्तिशाली व्यक्ति तो पुरूष से बलात धन छीन ले जाता है। एक शक्तिशाली दुष्ट व्यक्ति ने जरा-सी कहासुनी होने पर ही एक व्यक्ति की गुदा में डण्डा घुसा दिया। मरा तो नहीं, परंतु महीनों कष्ट रहा। इस प्रकार भक्त ने पतिव्रता स्त्री की तरह अपने ईष्टदेव पर समर्पित होना चाहिए। तब परमेश्वर प्रसन्न होगा और मोक्ष प्रदान करेगा।
वाणी नं. 1 से 10 का शब्दार्थ:- आंन = अन्य, उपाव = उपासना, पीव = पति, आन = शर्म यानि आन काण्य, दावा नहीं = अपना हक नहीं समझै, धियान = ध्यान। कांन = काण्य यानि लाज (शर्म), धार्या = पति धारण करना यानि पतिव्रता धर्म धारण कर लिया तो अटल रहती है। यह उसका मत (सिद्वांत) है। गाहक मिलो यानि स्त्रियों को लोभ-लालच देकर दुराचार करने वाले पतिव्रता को असंख्य मिलो, वह अपना सिद्धांत नहीं बदलती। टस से मस नहीं होती। हेत = प्रेम, आंन उपासी = अन्य देवताओं की उपासना करने वाली आत्माएँ बहुत मिलें, परंतु अपने ईष्ट देव को पतिव्रता नहीं त्यागती। सच्चा भक्त अपने मूल मालिक के स्थान पर अन्य देवी-देवताओं की पूजा कभी नहीं करता। संकेत माने सतर्क रहना।
वाणी नं. 10 का सरलार्थ सारांश में कर दिया है।
वाणी नं. 11 से 20:-
गरीब, पतिब्रता कै बरत में, कदे न परि है भंग। उनका दुनिया क्या करै, जिनके भगति उमंग।।11।।
गरीब, पतिब्रता परहेज है, आंन उपास अनीत। अपने पीव के चरण की, छाड़त ना परतीत।।12।।
गरीब, पतिब्रता कै ब्रत है, दूजा दोजिख दुंद। अपने पीव के नाम से, चरण कमल रहि बंध।।13।।
गरीब, पतिब्रता प्रसंग सुनि, जाका जासैं नेह। अपना पति छांड़ै नहीं, कोटि मिले जे देव।।14।।
गरीब, पतिब्रता प्रसंग सुनि, जाकी जासैं लाग। अपना पति छांडै़ नहीं, पूरबले बड़भाग।।15।।
गरीब, पतिब्रता प्रसंग सुनि, जाकी जासैं लाग। अपना पति छांडै़ नहीं, ज्यूं चकमक में आग।।16।।
गरीब, पतिब्रता पीव के चरण की, सिर पर रज लै डार। अड़सठि तीरथ सब किये, गंगा न्हान किदार।।17।।
गरीब, पतिब्रता पीव के चरण की, सिर पर रज लै राख। पतिब्रता का पति पारब्रह्म है,सतगुरु बोले साख।।18।।
गरीब, पतिब्रता पति प्रणाम करें, रहे पति कूं पूज। पतिब्रता पारब्रह्म पाव ही, सतगुरु कूं लै बूझ।।19।।
गरीब, पतिब्रता को प्रणाम करे, पतिब्रता कूं मिल धाय। पतिब्रता दीदार करि, चैरासी नहिं जाय।।20।।
सरलार्थ:– पतिव्रता स्त्री की तरह भक्त के एक परमात्मा की भक्ति के बरत यानि प्रतिज्ञा (परहेज) कभी भंग नहीं पड़ता यानि खंडित नहीं होता। जिनको परमात्मा की भक्ति की उमंग लगी है तो उन भक्तों को संसार के व्यक्ति कुछ हानि नहीं कर सकते। उनके भक्ति धर्म-कर्म को खण्डित नहीं करवा सकते। (11)
वह भक्त पतिव्रता की तरह अन्य उपासना से परहेज करता है। अपने पीव यानि पति परमेश्वर के चरणों की परतीत यानि विश्वास नहीं छोड़ता। (12)
दोजिख माने नरक, दुंद माने अंधकार। पतिव्रता के लिए अन्य पुरूष नरक का अंधेरा है यानि भक्त अपने ईष्ट के अतिरिक्त अन्य देव की पूजा नरकदायक मानता है। अपने पूर्ण परमेश्वर पर पूर्ण विश्वास रखता है। उसी के चरण कमलों में बंध चुका है। (13)
वाणी नं. 14 का सरलार्थ सारांश में कर दिया है।
पतिव्रता अपने पति की प्रशंसा सुनती है, अन्य की नहीं। इसी प्रकार भक्त केवल अपने ईष्ट पूर्ण परमात्मा की कथा प्रसंग सुनता है। पूर्व जन्म के बड़भाग से यानि पुण्य कर्मों के प्रभाव से भक्त एक ईष्ट पूर्ण परमात्मा पर दृढ़ होता है। अपने पति को यानि ईष्ट को ऐसे अभेद मानती है जैसे पत्थर में अग्नि समाई रहती है। (15-16)
पूर्ण परमात्मा की भक्ति में सर्व तीर्थों के भ्रमण तथा गंगा स्नान तथा केदारनाथ के दर्शन का फल भी मिल जाता है। यह विचार परम भक्त में सदा बने रहते हैं। (17)
वाणी नं. 18 का सरलार्थ सारांश में कर दिया है।
ईष्ट देव में भक्त की आस्था पतिव्रता की तरह है तो वह पारब्रह्म यानि परम अक्षर ब्रह्म (सतपुरूष) को प्राप्त होता है। (19-20)
वाणी नं. 21 से 45:-
गरीब, पतिब्रता चूके नहीं, कोटिक होंहि अचूक। और दुनी किस काम की, जैसा सिंभल रूख।।21।।
गरीब, पतिब्रता चूके नहीं, कोटिक मिलैं कुटिल। और दुनी किस काम की, जैसी पाहन सिल।।22।।
गरीब, पतिब्रता चूके नहीं, धर अंबर धसकंत। संत न छांड़े संतता, कोटिक मिलैं असंत।।23।।
गरीब, पतिब्रता चूके नहीं, साखी चंदर सूर। खेत चढे सें जानिये, को कायर को सूर।।24।।
गरीब, पतिब्रता चूके नहीं, साखी चंदर सूर। खेत चढे सें जानिये, किसके मुख पर नूर।।25।।
गरीब, पतिब्रता चूके नहीं, जाका यौंहि सुभाव। भगति हिरंबर उर धरें, भावै सरबस जाव।।26।।
गरीब, पतिब्रता चूके नहीं, तन मन धन सब जाव। नाम अभयपद उर धरै, छाड़ै भगति न भाव।।27।।
गरीब, पतिब्रता चूके नहीं, तन मन जावौं सीस। मोरध्वज अरपन किया, सिर साटे जगदीश।।28।।
गरीब, पतिब्रता प्रहलाद है, एैसी पतिब्रता होई। चैरासी कठिन तिरासना, सिर पर बीती लोइ।।29।।
गरीब, राम नाम छांड्या नहीं, अबिगत अगम अगाध। दाव न चुक्या चैपटे, पतिब्रता प्रहलाद।।30।।
गरीब, कौन कंवल अनभै उठें, कौन कंवल घर थीर। कौन कंवल में बोलिये, कौन कंवल जल नीर।।31।।
गरीब, मूल कंवल अनभै उठें, सहंस कमल घर थीर। कंठ कंवल में बोलिये, त्रिकुटि कंवल जल नीर।।32।।
गरीब, कहां बिंद की संधि है, कहां नाड़ी की नीम। कहां बजरी का द्वार है, कहां अमरी की सीम।।33।।
गरीब, त्रिकुटि बिंद की संधि है, नाभी नाड़ी नीम। गुदा कंवल बजरी कही, मूलिही अमरी सीम।।34।।
गरीब, कहां भँवर का बास है, कहा भँवर का बाग। कौन भँवर का रूप है, कौन भँवर का राग।।35।।
गरीब, हिरदे भँवर का बास है, सहंस कंवल दल बाग। उजल हिरंबर रूप है, अनहद अबिगत राग।।36।।
गरीब, निस वासरि कै जागनै, हासिल बड़ा नरेस। नाम बंदगी चित धरौ, हाजरि रहना पेस।।37।।
गरीब, सुरति सिंहासन लाईये, निरभय धूनी अखंड। चित्रगुप्त पूछें नहीं, जम का मिटि है दंड।।38।।
गरीब, ऐसा सुमरन कीजिये, रोम रोम धुनि ध्यान। आठ बखत अधिकार करि, पतिब्रता सो जान।।39।।
गरीब, तारक मंत्र चित्त धरौ, सूख्म मंत्र सार। अजपा जाप अनादि है, हंस उतरि है पार।।40।।
गरीब, अंजन मंजन कीजिये, कुल करनी करि दूर। साहेब सेती हिलमिलौ, रह्या सकल भरपूर।।41।।
गरीब, हरदम मुजरा कीजिये, यौंह तत्त बारंबार। कुबुधि कटे कांजी मिटे, घण नामी घनसार।।42।।
गरीब, अजब हजारा पुहुप है, निहगंधी गलतान। पांच तत्त नाहीं जहां, निरभय पद प्रवान।।43।।
गरीब, सत पुरूष साहेब धनी, है सो अकल अमान, पूर्ण ब्रह्म कबीर का पाया हम अस्थान।।44।।
गरीब, नेस निरंतर रमि रह्या, प्रगट क्या दिखलाइ। दास गरीब गलतान पद, सहजै रह्या समाइ।।45।।
सरलार्थ:– पतिव्रता चुकै नहीं, कोटिक होहिं अचूक यानि जैसे पतिव्रता के साथ जबरदस्ती हो जाती है तो भी वह अपने पति को हृदय से चाहती है। इसी प्रकार सत्य साधक एक परमेश्वर के उपासक को जबरदस्ती किसी अन्य देव स्थान पर कुल के लोग ले जाते हैं तो वह हृदय से अपने ईष्ट को याद करता रहता है। उस अन्य देव में कभी ईष्ट वाली श्रद्धा नहीं होती। अन्य देव तो ऐसा है जैसे सिम्भल का वृक्ष होता है जिसको डोडे लगते हैं। वे फल जैसे लगते हैं, परंतु उनमें खाद्य पदार्थ नहीं होता। रूई निकलती है। इसी प्रकार तत्त्वज्ञान प्राप्त भक्त को पूर्ण परमात्मा के अतिरिक्त अन्य प्रभु ऐसे व्यर्थ लगते हैं जैसे आम के वृक्ष की तुलना में सिम्भल का वृक्ष व्यर्थ लगता है। धर = धरती, अंबर = आकाश, धसकंत = नष्ट हो जाएँ, असन्त = नास्तिक। भक्त के लिए तो अन्य देव पाहन (पत्थर) की सिल (शिला) हैं अर्थात् व्यर्थ हैं। (21-22)
वाणी नं. 23-24 का सरलार्थ सारांश में पूर्व में कर दिया है।
वाणी सँख्या 25.26.27 का सरलार्थ ऊपर किया है, वही भावार्थ है। दृढ़ भक्त पतिव्रता की तरह एक ईष्ट की भक्ति का भाव नहीं त्यागता चाहे सर्वस नष्ट हो जाए। नूर = लाली यानि विजयी रहना, खेत चढ़ना = युद्ध के मैदान में डटकर खड़ा होना। भक्ति हिरंबर उर धरना = बहुमूल्य भक्ति हृदय में रखना, नाम उभय पद = सच्चे नाम को निर्भय होकर जपते हैं जो तत्त्वज्ञान को जान चुके हैं।
वाणी नं. 28 से 30 का सारांश में सरलार्थ कर दिया है।
वाणी नं. 31 से 49 का सरलार्थ पूर्व सारांश में कर दिया है।
राजा जनक स्वयं तो स्वर्ग गए ही, साथ में बारह (12) करोड़ जीवों को नरक से छुड़वाकर स्वर्ग ले गए। इसी प्रकार श्री गोरखनाथ जी दृढ़ता से भक्ति करके सफल हुए। (34-35)
{सुत्र = ऊँट, मूये = मरे हुए, कूँ = को।}
साखी पतिव्रता के अंग की वाणी नं. 9 से 20:-
गरीब, पतिब्रता के संग है, पारब्रह्म जगदीस। नरआकार निज निरमला, है सो बिसवे बीस।।9।।
गरीब, सकल समाना एक में, एक समाना एक। निहचै होइ तौ पाईये, कहा धरत है भेख।।10।।
गरीब, पारब्रह्म की परख के, नैंन निरंतरि नाल। उर अंतर प्रकासिया, देख्या अबिगत ख्याल।।11।।
गरीब, पारब्रह्म की जाति में, मिलती है सब जात। सुंन सरोवर बिमल जल, अरस अनूपम रात।।12।।
गरीब, आदि अनाहद अगम है, पतिब्रता के पास। सहस इकीसौं अष्टदल, थीर करों दम स्वास।।13।।
गरीब, कित पंछी का खोज है, कहां मीन का पैर। दिल दरिया में पैठि कर, देखो अबिगत लहर।।14।।
गरीब, अलल पंख के लोक कूं, जानत है नहिं कोइ। अललपंख का चीकला, घर पावैगा सोइ।।15।।
गरीब, सिकल बिकल संसार है, पतिब्रता दिल थीर। अचल अनाहद अरस धुनि, डोलै नहीं सरीर।।16।।
गरीब, लोहा कंचन हो गया, मिलि पारस सतसंग। यौह मन पलटत है नहीं, साधौ के प्रसंग।।17।।
गरीब, जुगन जुगन का कुटल है, जुगन जुगन का जिंद। पतिब्रता सो जानिये, रहै मनोरथ बंध।।18।।
गरीब, बारह बानी ब्रह्म है, सहस कला कल धूत। पतिब्रता सो जानिये, राखै मन संजूत।।19।।
गरीब, ज्यूं मंहदी के पान में, लाली रही समाय। यों साहब तन बीच है, खोज करो सत भाय।।20।।
सरलार्थ:– सरलार्थ पूर्व में किया गया है, वैसा ही है। भावार्थ है कि जो भक्त पूर्ण परमात्मा को सच्चे भाव से याद करता है यानि भक्ति करता है तो जगदीश उसके साथ रहता है। उसकी सहायता करता है। वास्तव में परमात्मा नराकार यानि मानव स्वरूप है। बिसवे बीस का अर्थ है पूर्ण रूप से। (बीस बिसवे का एक पक्का बीघा होता है। वह पूर्ण माना जाता है। यहाँ पर उसी उपमा से परमात्मा को समर्थ कहा है।) (9)
भेख धरना = दाढ़ी-जटा (सिर पर बाल केश) बढ़ाना, निहचै = विश्वास।
भावार्थ:- यदि मेरी बातों पर विश्वास है तो परमात्मा मिलेगा। यदि नहीं है तो साधु वेश बनाने का कोई लाभ नहीं है। (10)
निज = खास, निरमला = निर्मल, परमात्मा वास्तव में पाक साफ है। सुन्न सरोवर यानि आकाश में सतलोक रूपी सरोवर है। उसमें सुख रूपी जल है। उस अनुपम यानि अद्भुत अरस यानि आसमान में बने सतलोक में रात-दिन लगन लगा। (11-12)
एक पारब्रह्म यानि पूर्ण परमात्मा की जाति यानि लक्षण सब देवों से मिलते हैं, परंतु पूर्ण परमात्मा समर्थ हैं। जैसे नमक और बूरा के लक्षण मिलते-जुलते होते हैं, परंतु खाने पर पता चलता है।
आदि = सनातन, अगम = सर्वोपरि, अनाहद = शाश्वत यानि अविनाशी है। परमात्मा दृढ़ भक्त के साथ है।
संहस इक्कीसों यानि दिन-रात में मानव सामान्य विधि से इक्कीस हजार छः सौ श्वांस-उश्वांस (दम-श्वांस) लेता है। उन सबको परमात्मा के स्मरण में लगाएँ। थीर करो का अर्थ है श्वांस-उश्वांस से नाम पर दृढ़ता से मन लगाओ। (13)
कित = कहाँ, पंछी = पक्षी, मीन = मछली।
जैसे पक्षी उड़कर चलता है तो उसकी खोज किसी चिन्ह से नहीं हो सकती अर्थात् पक्षी अपने पीछे कोई निशान नहीं छोड़ता। जैसे मछली जल में कोई निशान बनाती हुई नहीं तैरती, इसी प्रकार प्रत्येक साधक भक्ति की शक्ति से उड़कर या जल की तरह चलकर सतलोक चला जाता है। अन्य व्यक्ति उसके मार्ग की खोज करके नहीं जा सकता। उसे भी भक्ति करके शक्ति रूपी पंख लगवाने पड़ेंगे। मन रूपी मछली को दिल रूपी दरिया में यानि हृदय से लगन लगा। भक्ति करके उस अविगत (अव्यक्त) परमात्मा की लहर यानि अनन्त सुख को देखो। (14)
अलल पंख की जानकारी गुरूदेव के अंग के सरलार्थ में वाणी नं. 1 के सरलार्थ में विस्तार से बताई है। चीकला माने पक्षी का नवजात बच्चा। भावार्थ है कि जो भक्त अंश है, वह भक्ति उस भाव से करता है जैसे अलल पक्षी का बच्चा अपना ध्यान आसपास मन में लगाए रहता है। उसकी आत्मा में यह समाया होता है कि तेरा परिवार ऊपर है। जब तक वह उड़ने योग्य नहीं होता तो अन्य पक्षियों के साथ रल-मिलकर रहता है, परंतु युवा होते ही उड़कर ऊपर अपने माता-पिता के पास चला जाता है। इसी प्रकार तत्त्वज्ञान प्राप्त भक्त को शत प्रतिशत विश्वास होता है कि अपना ठिकाना सतलोक में है। वही चीकला यानि भक्ति प्रारम्भ करने वाला भक्त भक्ति पूरी करके निर्बाध सतलोक वाले घर को प्राप्त करेगा। (15)
संसार सिकल-बिकल यानि चंचल है, कभी भक्ति करने लगता है, कभी छोड़ देता है, परंतु पूर्ण विश्वासी भक्त थीर यानि भक्ति पर दृढ़ रहता है। वह आकाश में परमात्मा में (निरंतर) धुनि-लगन, (थीर) टिकाकर लगाता है। (16)
लोहा पारस पत्थर के साथ मिलकर स्वर्ण (gold) हो जाता है परन्तु यह मन संतों के साथ रहकर भी गुण ग्रहण नहीं करता यानि साधु नहीं बनता। (17)
मन तो युगों-युगों का कुटिल दुष्ट है। जिन्द माने किसी गलत आदत से चिपक गया तो त्यागता नहीं। जिन्द एक प्रेत होता है जो किसी को चिपक जाता है तो पीछा नहीं छोड़ता, केवल पूर्ण संत से डरता है। यह मन तो उस जिन्द भूत से भी बुरा है। दृढ़ भक्त तो अपने मनोरथ यानि उद्देश्य पर (बंधा) दृढ़ रहता है। (18)
बारहबानी = पूर्ण रूपेण, ब्रह्म = प्रभु है यानि वास्तव परमात्मा तो पूर्ण ब्रह्म है। सहस = संहस्र यानि एक हजार, कला = कला (शक्ति) वाला, कल धूत यानि प्रभु तो काल है। दृढ़ भक्त हर समय अपने मन को संजूत यानि संयम करके पूर्ण परमात्मा में रखता है। (19)
जैसे मेंहदी का पत्ता हरे रंग का होता है, परन्तु जब उसे रगड़ कर हाथों पर लगाया जाता है तो लाल रंग कर देता है। इसी प्रकार यह शरीर हड्डियों और माँस का ढ़ांचा दिखाई देता है। जब इसको भक्ति में रगड़ोगे तो सत भाय यानि वास्तव में परमात्मा मिलेगा। उसकी सच में खोज करो यानि सही कह रहा हूँ कि भक्ति करके इस मानव शरीर में परमात्मा को खोजो। (20)
वाणी नं. 21 से 30:-
गरीब, बिन दरिया दादुर जहां, बिनही परबत मोर। बिना स्वाति मोती जहां, बिनही चन्द चकोर।।21।।
गरीब, बिन बादल बिजली जहां, बिन घन हर गरजंत। बिन बागों कोइल जहां, बिनही फाग बसंत।।22।।
गरीब, बिनही बेली पुहुप है, बिना केतकी भौंर। बिन चिसम्यौं दीदार है, बिना दस्त जहां चैंर।।23।।
गरीब, बिनही आसन बैठना, बिन पग का जहां पंथ। बिनही द्वारे बोलना, समुझे बिरला संत।।24।।
गरीब, बिन जिभ्या बानी पढे, बिनही अंग अनूप। बिन मंदिर जहां पौढना, अबिगत सत्त सरुप।।25।।
गरीब, बिन ही धरती देहरा, जामें अबिगत देव। दष्टि मुष्टि सें रहत है, जाकी करि लै सेव।। 26।।
गरीब, ज्यूं सुवा पिंजर बसै, खिड़की बंध लगाइ। दुरमति दिल अंदर रहै, मंजारी नहिं खाइ।।27।।
गरीब, मारंग बंक पिछान ले, उड़न गड़न दे छाड़। सुरति सबद के संग है, दुरमति दिल सै काड।।28।।
गरीब, कौन कंवल में काल है, कौन कंवल में राम। कौन कंवल में जीव है, कौन कंवल बिसराम।।29।।
गरीब, कंठ अरू संहस कंवल में काल है, संख कवंल दल राम। हिरदै कंवल में जीव है, अष्ट कंवल बिसराम।।30।।
सरलार्थ:- (बिन) बिना (दरिया) नदी के जहाँ पर (दादुर) मेंढ़क हैं तथा पर्वत के बिना मोर रहते हैं। मोती का निर्माण समुद्र में रहने वाले जीव सीप के अंदर स्वांति नक्षत्र की वर्षा की बूँद से होता है, परन्तु सतलोक में सतपुरूष की शक्ति से स्वतः मोती बन जाते हैं। चकोर पक्षी भी बिना चन्द्रमा के रहता है। भावार्थ है कि सतलोक में सर्व व्यवस्था परमेश्वर जी की कृपा से ही होती है जो आश्चर्य की बात है, परन्तु सतलोक में सामान्य बात है। (21)
सतलोक में बिन बाग के कोयल है यानि कोयल की आवाज अपने आप होती है। ऐसा नहीं है कि सतलोक में बाग नहीं हैं। परन्तु जहाँ बाग नहीं हैं, वहाँ भी कोयल जैसी सुरीली आवाज सुनने को मिलती है। बिजली जैसी चमक यानि आकाशीय बिजली चमकती है तो वह बादलों के टकराने से गरज के साथ चमकती है। सतलोक मे ऐसी झिलमिल-झिलमिल तथा बादल वाली गर्जना कुछ स्थानों पर सदैव होती रहती है। वह बिना बादलों के होती है। सतलोक में बसंत के सुहावने मौसम के लिए फाल्गुन महीने की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती। वहाँ सदैव बसंत जैसा सुहावना मौसम रहता है। यह परमेश्वरीय शक्ति का कमाल है। (22)
दस्त = हाथ, भौंर = भँवरा, जो काला भूंड जैसा होता है। फूलों पर बैठकर सुगंध लेता है। बेली = बेल यानि लता, पुहुप = पुष्प, फूल, पग = पैर, पंथ = मार्ग, चोंर = चंवर जो गाय की दुम जैसे बालों वाला होता है जो संतों तथा सद्ग्रंथों के ऊपर हाथ से चलाया जाता है। वह सतलोक में बिना हाथ के अपने आप चलता रहता है। आसन = बैठने के लिए कपड़ा, गद्दा या कुर्सी को आसन कहते हैं। सतलोक में बिना जीभ के भी बोल सकते हैं जैसे आकाशवाणी होती है। मंदिर = महल, देहरा = देवालय जिसमें परमेश्वर रहते हैं। इन वाणियों में सतलोक में अनहोनी लीलाओं का ज्ञान है। वैसे वहाँ पर स्थाई मकान हैं, बाग हैं, झरने बहते हैं। अंग = शरीर जो पाँच तत्त्व का है, वह नहीं है। वहाँ पर अनूप यानि विचित्र शरीर है। दृष्टि = नजर, मुष्टि = विशेष ध्यान से देखने की कोशिश, दृष्टि तो सामान्य नजर होती है। जो नजर गड़ाकर ध्यान से देखें, वह मुष्टि कही जाती है। रहत = बिना, सेव = पूजा। भावार्थ है कि उस परमात्मा को आत्मा की आँखों से देखा जाता है, चर्म दृष्टि से नहीं। दुरमति = बुरी नियत से किया गया विचार, मंजारी = बिल्ली, सुवा = तोता = शुक, पिंजर = पिंजरा। भावार्थ है कि तोता अपने पिंजरे में रहता है तो उसको बिल्ली नहीं खा सकती। दुरमति तो बिल्ली है, आत्मा तोता कहा है। यदि मर्यादा में रहकर भक्त चलता है तो उस पर किसी के दुर्विचारों का प्रभाव नहीं पड़ता। (23 से 27)
उड़न-गड़न यानि चंचलता को छोड़कर यथार्थ भक्ति मार्ग को पहचानकर उसी अनुसार साधना कर। अपने दिल से पूर्व के कुविचार (काड) निकाल कर सत्य भाव से सत्य साधना कर। अपने ध्यान (सुरति) को शब्द यानि नाम जाप पर लगाए रख। (28)
संत गरीब दास जी ने प्रश्न-उत्तर से ज्ञान समझाया है। प्रश्न किया है कि काल कौन से कमल चक्र मे है तथा जीव कौन से कमल में विश्राम करता है? (29)
उत्तर दिया है कि कण्ठ कमल तथा संहस्र कमल में दुर्गा जो काल की पत्नी है तथा काल ब्रह्म रहते हैं। दोनों का एक ही उद्देश्य है। इसलिए ये दोनों काल स्वरूप हैं जो जीव को फँसाए हुए हैं। हृदय कमल में यानि शिव के लोक का कार्यक्रम जिस कमल (चैनल) में दिखाई देता है, वह हृदय कमल है। उसी में परमेश्वर जी का मिनी सतलोक वाला कार्यक्रम एक कोने में दिखाई देता है, शंख कमल वहाँ दृष्टिगोचर होता है। उसी हृदय कमल में जीव रहता है। अष्ट कमल में जीव विश्राम करता है। अष्ट कमल का यहाँ भावार्थ है कि नाभि कमल जिसकी आठ पंखुड़ियाँ हैं, इसे भी अष्ट कमल दल कहते हैं। सोते समय जीव अष्ट कमल में रहता है। इस प्रकार प्रश्न-उत्तर में ज्ञान स्पष्ट किया है। (30)
वाणी नं. 31 से 45:-
गरीब, कौन कंवल अनभै उठें, कौन कंवल घर थीर। कौन कंवल में बोलिये, कौन कंवल जल नीर।।31।।
गरीब, मूल कंवल अनभै उठें, सहंस कमल घर थीर। कंठ कंवल में बोलिये, त्रिकुटि कंवल जल नीर।।32।।
गरीब, कहां बिंद की संधि है, कहां नाड़ी की नीम। कहां बजरी का द्वार है, कहां अमरी की सीम।।33।।
गरीब, त्रिकुटि बिंद की संधि है, नाभी नाड़ी नीम। गुदा कंवल बजरी कही, मूलिही अमरी सीम।।34।।
गरीब, कहां भँवर का बास है, कहा भँवर का बाग। कौन भँवर का रूप है, कौन भँवर का राग।।35।।
गरीब, हिरदे भँवर का बास है, सहंस कंवल दल बाग। उजल हिरंबर रूप है, अनहद अबिगत राग।।36।।
गरीब, निस वासरि कै जागनै, हासिल बड़ा नरेस। नाम बंदगी चित धरौ, हाजरि रहना पेस।।37।।
गरीब, सुरति सिंहासन लाईये, निरभय धूनी अखंड। चित्रगुप्त पूछें नहीं, जम का मिटि है दंड।।38।।
गरीब, ऐसा सुमरन कीजिये, रोम रोम धुनि ध्यान। आठ बखत अधिकार करि, पतिब्रता सो जान।।39।।
गरीब, तारक मंत्र चित्त धरौ, सूख्म मंत्र सार। अजपा जाप अनादि है, हंस उतरि है पार।।40।।
गरीब, अंजन मंजन कीजिये, कुल करनी करि दूर। साहेब सेती हिलमिलौ, रह्या सकल भरपूर।।41।।
गरीब, हरदम मुजरा कीजिये, यौंह तत्त बारंबार। कुबुधि कटे कांजी मिटे, घण नामी घनसार।।42।।
गरीब, अजब हजारा पुहुप है, निहगंधी गलतान। पांच तत्त नाहीं जहां, निरभय पद प्रवान।।43।।
गरीब, सत पुरूष साहेब धनी, है सो अकल अमान। पूर्ण ब्रह्म कबीर का पाया हम अस्थान।।44।।
गरीब, नेस निरंतर रमि रह्या, प्रगट क्या दिखलाइ। दास गरीब गलतान पद, सहजै रह्या समाइ।।45।।
सरलार्थ:– संत गरीब दास जी ने प्रश्न-उत्तर करके शरीर के अन्दर का भेद बताया है। मूल कमल से अनभै यानि अनुभव की वाणी निकल कर जीह्ना पर आती है। जब तक जीव परमेश्वर कबीर जी की शरण में नहीं आता, तब तक उसका अंतिम ठिकाना संहस्र कमल है यानि काल जाल में ही रहता है। वह उसी को थीर यानि स्थाई मानता है। कंठ कमल जीव को बोलने में सहयोग देता है। त्रिकुटी कमल से दुःख तथा प्रेम के आँसू निकलते हैं। बिन्द यानि बीज शक्ति (शुक्राणु) त्रिकुटी से नीचे स्वाद चक्र में आते हैं। फिर स्त्री के गर्भ में पुरूष द्वारा जाते हैं। उस शुक्राणु को स्वाद कमल में भेजने में नाड़ी सहयोगी है। वह नाभि कमल में जुड़ी है। गुदा कमल (स्वाद कमल) में बजरी यानि वीर्य है और मूल कमल में अमरी यानि सिद्धि शक्ति है। (31-34)
भंवर का यहाँ भाव जीव से है। वैसे भवंर = भवंरा होता है जो फूलों की सुगंध लेता फिरता है, (काले रंग का भूण्ड) परन्तु इस वाणी में उपमा अलंकार है। भंवर का भावार्थ जीव से ही है। बताया है कि जब तक जीव मुक्त नहीं होता, तब तक शरीर में हृदय कमल में जीव रहता है। जागृत अवस्था में आँखों में रहता है। उसका अंतिम ठिकाना काल ब्रह्म का सहस्र कमल ही है। वही उसका बाग है, उसी की वासना में अंधा होकर विषयों में डूबा रहता है। जीव जो भक्ति करता है, उसका रूप उज्ज्वल स्वर्ण की तरह होता है वह परमात्मा की भक्ति अनहद (निरंतर) करता है। यही उसका राग यानि विलाप रूप गीत है। (35-36)
निस (निशा = रात्रि) तथा वासर (दिन) जागते रहना चाहिए यानि भक्ति भजन में गफलत नहीं करना चाहिए। इससे भक्ति का नरेश यानि भक्त राज कहलाएगा। उसे यह हासिल यानि उपलब्धि होगी। ’’गरीब रूम-रूम धुन होत है छत्रपती है सोय’’ जो भक्त साधना करता है और रूम (शरीर के बाल) भी खड़े हो जाते हैं तो वह भक्त राज है। परमात्मा के नाम की बंदगी नम्रभाव से भक्ति हृदय में रखो। सदा मालिक के लिए समर्पित रहना। परमात्मा के दरबार में पेस (हाजिर) रहना। भावार्थ है कि परमात्मा के अतिरिक्त अन्य सब आसार लगे। (37)
संत गरीब दास जी ने कहा है कि हे भक्त! नाम जाप में ध्यान (सुरति) ऐसे लगा जैसे सिंहासन पर बैठकर शोभित होते हंै यानि राजा लोग सिंहासन पर बैठकर अपने को सर्वोपरि तथा निर्भय समझते हैं। ऐसे भक्त परमात्मा के नाम का जाप ध्यान यानि सुरति रूपी सिंहासन पर बैठकर करे। वह सर्वश्रेष्ठ भक्ति विधि है और निर्भय हो जा कि मैं सत्य भक्ति कर रहा हूँ, मुझे परमात्मा अवश्य मिलेगा। उस साधक का लेखा-जोखा चित्र तथा गुप्त फरिश्ते नहीं करते। उस भक्त का जम यानि यमदूतों द्वारा पाप कर्म का दिया जाने वाला दण्ड भी समाप्त हो जाता है। (38)
भक्त से कहा है कि ऐसा सुमरन (स्मरण) कर जिससे रोम-रोम में धुन हो यानि शरीर के बाल ऐसे खड़े हो जाएँ जैसे कि खुशी या भय के समय खड़े होते हैं। कहते हैं कि ऐसी दुर्घटना थी कि देखने वाले के रोंगटे (शरीर के बाल) खड़े हो जाते थे। अपने भजन पर आठ पहर (24 घण्टे) अधिकार रखे यानि स्मरण में लगा रहे। वह वास्तव में पतिव्रता यानि सच्चा भक्त है। (39)
तारक मंत्र (सत्य साधना के मंत्र) को चित्त धरो यानि ध्यान से स्मरण करो जो सूक्ष्म मंत्र (’’सोहं’’ नाम) सार है यानि मोक्ष मंत्रों में विशेष है। अजपा जाप जो स्वांस-उस्वांस से जाप किया जाता है, वह अनादि अर्थात् सनातन है। उसके जाप से हंस (निर्मल भक्त) पार उतर जाता है अर्थात् मोक्ष प्राप्त करता है। (40)
अंजन (माया) को मंजन (साफ) करो यानि नेक कमाई करो। कुल करनी यानि परम्परागत साधना जो शास्त्रा विरूद्ध है, उसे दूर करो (त्याग दो)। भावार्थ है कि सांसारिक सम्पत्ति से मन हटाकर साहेब (परमेश्वर) के साथ हिल मिलो यानि भक्ति में लगे रहो। उसकी निराकार शक्ति सब जगह परिपूर्ण (भरपूर) है। (41)
परमेश्वर का मुजरा (यहाँ स्तूति को मुजरा कहा है) हृदय से करो। यह तत यानि सार है, इसे बार-बार करते रहो। इस प्रकार परमात्मा की स्तूति व भक्ति से कुबुद्धि (दुर्मति) नष्ट हो जाती है। घण नामी घनसार का अर्थ है कि सुप्रसिद्ध भक्त हो जाएगा तथा भक्ति का धनी (घनसार) होकर सत्यलोक को चला जाएगा। (42)
{अजब = अनोखा, हजारा = हजारों पत्तियों वाला, पुहुप = फूल, निहगंधी = विशेष महक वाला है, गलतान = उसकी महक के प्रभाव से साधक गलतान यानि मस्त हो जाता है।} उस सतलोक में पाँच तत्त्व से निर्मित कोई वस्तु नहीं है। वह निर्भय पद है, प्रवान है यानि पूर्ण मोक्ष पद है जहाँ भक्त जन्म-मरण-जरा तथा कर्मदण्ड से मुक्त होकर निर्भय हो जाता है। (43)
पूर्ण परमात्मा सर्व का धनी (मालिक) है, उसको सतपुरूष कहते हैं वह अकल (निर्बन्ध) है तथा अमान (शांत) है। उस पूर्ण परमेश्वर कबीर जी का सतलोक स्थान हम को प्राप्त हुआ है। (44)
नेस का अर्थ इस वाणी में अदृश्य शक्ति है। नेस का अर्थ नष्ट करना भी होता है।
यह वाणी के बोलने के भाव पर निर्भर करता है। नेस यानि परमात्मा की निराकार शक्ति निरंतर कण-कण में समाई है। उसको प्रकट कैसे दिखाएँ? संत गरीब दास जी ने कहा है कि यह गलतान पद यानि सुख दायक स्थान है जहाँ साधक जाकर मस्त हो जाता है। वह सुख भक्त में सामान्य रूप से प्रवेश हो जाता है। उसको सिद्धियाँ आदि दिखाने की आवश्यकता नहीं है। (45)
स्वामी रामदेवानंद गुरू महाराज जी की असीम कृपा से “पतिव्रता के अंग” का सरलार्थ सम्पूर्ण हुआ।
।।सत साहेब।।