सतनाम का विशेष प्रमाण
उस भगवान (पूर्णब्रह्म) को पाने का मन्त्र सत्यनाम (स्वासों द्वारा किया जाने वाला अजपा जाप) व फिर सारनाम व सारशब्द की प्राप्ति पूर्णब्रह्म की सच्ची नाम साधना व उसका परिणाम समझो। देखें - कबीर पंथी शब्दावली पृष्ठ नं. 51, 52, 53, 55, 56, 57 इनमें स्पष्ट लिखा है कि कबीर साहेब ने धर्मदास जी को सत्यनाम (ओ3म-सोहं) दिया है। कहा - ‘‘ऊँ-सोहं भजो नर लोई‘‘ फिर कहा है - ‘‘सोहं शब्द अजपा जाप, साहेब कबीर सो आपै आप‘‘ ।
(प्रमाण के लिए सतगुरु की वाणी) (पृष्ठ नं. 51)
(कबीर पंथी शब्दावली से सहाभार)
चितगुण चित बिलास दास सो अंतर नाहीं। आदि अंत में मध्य गोसाई अगह गहन में नाहीं। गहनीगहिए सो कैसा, सोहं शब्दसमान आदिब्रह्म जैसेका तैसा।। कहें कबीर हम खेलैं सहज सुभावा, अकह अडोल अबोल सोहं समिता। तामो आन बसा एकरमिता।। वा रमता को लखे जो कोईं। ता को आवागमन न होई।।
ऊँं-सोऽहं, सोहं सोई ऊँ-सोऽहं भजो नर लोई।।
ऊँ कीलक सोहं वाला। ऊँं-सोहं बोले रिसाला।।
किलक, कमत, कंमोद, कंकवत, ये चारों गुरु पीर।।
धर्मदास को सत शब्द सुनायो, सतगुरु सत्य कबीर।।
बाजा नाद भया पर तीत। सतगुरु आये भौजल जीत।।
बाजबाज साहब का राज मारा कूटा दगाबाज।।
हाजिरको हजूर गाफिलको दूर, हिंदूका गुरु मुसलमानका पीर।।
‘सात द्वीपनौखंड में, सोहं सत्यकबीर‘‘।।
(पृष्ठ नं. 55)
पल जब पीव से लागा। धोखा तब दिलों का भागा।।
चेतावनी चित विलास। जबलग रहे पिंजर श्वास।।
सोहंशब्द अजपाजाप साहब कबीरसो आपहिं आप।।
जागृत रूपी रहत है, सतमत गहिर गंभीर।
अजरनाम बिनसे नहीं , सोऽहं सत्य कबीर।।
आरती चैंका
प्रथमहिं मंदिर चैक पुराये। उत्तम आसन श्वेत बिछाये।। धन्य संत जिन आरति साजा। दुख दारिद्र वाके घरसे भागा।। कहें कबीर सुनो धर्मदासा। ओहं-सोहं शब्द प्रगासा।।
आरती चैकें (प्रथम मंदिर चैं पुराये ---) में लिखा है ‘‘कहै कबीर सुनों धर्मदासा। ऊँ सोहं शब्द प्रगासा।।‘‘ यह सतनाम (ऊँ-सोहं) है।
(शब्द: ‘‘अवधू अविगत से चल आए’’)
अवधु अविगत से चल आया, कोई मेरा भेद मर्म नहीं पाया।।टेक।।
ना मेरा जन्म न गर्भ बसेरा, बालक ह्नै दिखलाया।
काशी नगर जल कमल पर डेरा, तहाँ जुलाहे ने पाया।।
माता-पिता मेरे कछु नहीं, ना मेरे घर दासी।
जुलहा को सुत आन कहाया, जगत करे मेरी है हांसी।।
पांच तत्व का धड़ नहीं मेरा, जानूं ज्ञान अपारा।
सत्य स्वरूपी नाम साहिब का, सो है नाम हमारा।।
अधर दीप (सतलोक) गगन गुफा में, तहां निज वस्तु सारा।
ज्योति स्वरूपी अलख निरंजन (ब्रह्म) भी, धरता ध्यान हमारा।।
हाड चाम लोहू नहीं मोरे, जाने सत्यनाम उपासी।
तारन तरन अभै पद दाता, मैं हूं कबीर अविनासी।।
(शब्दः ‘‘होत अनंद अनंद भजन में’’)
होत अनंद अनंद भजनमें, बरषत शब्द अमीकी बादर, भींजत हैं कोई संत।।
अग्रबास जहँ तत्त्वकी नदियां, मानो अठारा गंग।
कर अस्नान मगन ह्नै बैठे, चढत शब्दके रंग।।
पियत सुधारस लेत नामरस, चुवत अग्रके बुंद।
रोम रोम सब अमृत भीजे, पारस परसत अंग।।
श्वासा सार रचे मोरे साहब, जहां न माया मोहं।
कहें कबीर सुनो भाई साधू, जपो ओ3म-सोहं।।
साहेब कबीर ने कहा है कि शब्द (हम अविगत से चल आए -----) में ‘‘न मेरे हाड चाम न लोहु, जाने सतनाम उपासी। तारन तरन अभय पद दाता, कहैं कबीर अविनाशी‘‘ इसका अर्थ है कि कबीर साहेब कहते हैं कि सतनाम का जाप तारन-तरन (पार करने) वाला है। फिर प्रमाणित किया है कि (स्वांसा सार रचे मोरे साहेब, जहां न माया मोहं। कह कबीर सुनों भई साधो, जपो ऊँ सोहं) स्वांसों के द्वारा सत्यनाम ऊँ-सोहं का जाप करो। इससे काल द्वारा लगाए विकार माया मोह आदि भी समाप्त हो कर सार नाम प्राप्ति के योग्य हो जाओगे। यदि सारशब्द नहीं प्राप्त हुआ तो भी मुक्ति शेष रह जाती है। उपरोक्त सत्यनाम भी पूर्ण गुरु से प्राप्त करके जाप करने से लाभ होता है, अन्यथा कोई लाभ नहीं। जैसे कोई अपने आप नौकरी लगने वाला प्रमाण-पत्र (appointment letter) तैयार करके आप ही हस्ताक्षर कर लेगा। उसे कोई लाभ नहीं। ठीक इसी प्रकार भक्ति मार्ग पर विधिवत् चलना है, तभी सफलता मिलेगी।
(कबीर पंथी शब्दावली पृष्ठ नं. 425, 426, 427)
(शब्द)
तीन लोक जम जाल पसारा। नेम धर्म षटकर्म अचारा।।
आचारे सब दुनी भुलानी। सार शब्द कोउ विरले जानी।।1।।
सत्तपुरुषको जानै कोई। तीन लोक जाते पुनि होई।।
करम भरमतजिशब्दसमावे। इस्थिरज्ञानअमरपदपावे।।2।।
सत्यशब्द को करे विचारा। सो छूटे जमजाल अपारा।।
कहैकबीरजिन तत्त विचारा। सोहंशब्द है अगम अपारा।।3।।
नाम हमारा आदिका, सुनि मत जाहु सरख।
जो चाहे निज मुक्तिको, लीजो शब्दहिं परख।।4।।
उपरोक्त शब्द में कहा है (तीन लोक यम जाल पसारा ---। कोई शब्द सार निःअक्षर सोई में) सत्यनाम का अभ्यास भली प्रकार हो जाने पर पूरा गुरु आपको सार शब्द देवेगा। इस सार शब्द को प्राप्त करने योग्य बहुत कम भक्तजन होते हैं। प्रमाण है कि साहेब कबीर के चैसठ लाख शिष्यों में से केवल धर्मदास साहेब ही सारशब्द के अधिकारी हुए थे अन्य नहीं। जिस समय साहेब कबीर ने धर्मदास जी को सारशब्द प्राप्त कराया उस समय कहा था ‘‘धर्मदास तोहे लाख दुहाई, सार शब्द कहीं बाहर न जाई‘‘।सार शब्द पूरा (पूर्ण) गुरुदेवेगा।
(शब्द)
नाम अमल में रहे मतवाला। प्रेम अमीका पीवे प्याला।।
फिर (नाम अमल में रहै मतवाला -----) इसमें कहा है कि पूर्ण गुरु (कड़िहार) जो जीव को काल के लोक से निकाल कर सतलोक (सत्यनाम व सारनाम-सारशब्द के आधार) ले जाता है वह कड़िहार (काड़ने/निकालने वाला) कहलाता है। यदि सत्यनाम (ऊँ-सोहं) नहीं देता तथा फिर सारनाम नहीं देता वह काल का स्वरूप गुरु (कड़िहार) है अर्थात् काल साधना करवा कर नरक भिजवा देगा, वह काल का एैजेंट है। नाम देने का अधिकारी वही है जिसको गुरु जी ने आदेश दे रखा है तथा सत्यनाम व सारनाम साधना बताता है।
(शब्द)
सतगुरु सो सतनाम सुनावे। और गुरु कोइ काम न आवे।।
तीरथ सोई जो मोछै पापा। मित्र सोई जो हरै संतापा।।1।।
जोगी सो जो काया सोधे। बुद्धि सोई जो नाहि विरोधे।।
पण्डितसोईजोआगमजानै।भक्तसोईजोभयनहिंआनै।।2।।
दातै जो औगुन परहरई। ज्ञानी सोइ जीवता मरई।।
मुक्तासोईसतनामअराधे।श्रोतासोईजोसुरतिहिंसाधै।।3।।
सेवक सोई गहै विश्वासा। निसिदिन राखै संतन आसा।।
सतगुरुकालोपैनहि बाचा। कहैकबीरसोसेवकसांचा।।4।।
‘‘सतगुरु सो सतनाम सुनावै‘‘ इसमें कहा है कि वही सतगुरु है जो सत्यनाम देता है अन्य नाम देने वाला गुरु कोई काम नहीं आवेगा। उल्ट काल के मुख में ले जावेगा। वह शिष्य पार होएगा जो गुरु वचन को मान कर गुरु जी के अनुसार चलेगा।
(कबीर पंथी शब्दावली पृष्ठ नं. 353)
दुनिया अजब दिवानी, मोरी कही एक न मानी।।टेक।।
‘‘दुनियां अजब दिवानी ------‘‘ में कहा है कि भक्तजनों ने मेरे द्वारा बताई गई भक्ति की विधि नहीं मानी। गुरु रूपी प्रत्यक्ष परमात्मा को छोड़कर तीर्थ यात्र, पत्थर पूजा, पित्र पूजा आदि पूजन करते हैं। श्री मदभगवत गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15, 20 से 23 में स्पष्ट किया है कि तीनों गुणों (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु, तमगुण शिव) की उपासना करने वाले मूर्ख हैं वे राक्षस स्वभाव को धारण किए हुए मनुष्यों में नीच दुष्कर्म करने वाले हैं वे मेरी (गीता ज्ञान दाता ब्रह्म की) पूजा भी नहीं करते। फिर गीता अध्याय 7 श्लोक 18 में ब्रह्म साधना को अनुत्तम (अश्रेष्ठ) कहा है क्योंकि पूर्ण मोक्ष नहीं होता। इसलिए ऋषि-मुनि जन ब्रह्म साधना करके भी काल जाल में जन्म-मृत्यु में ही रह जाते है। इसलिए गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में कहा है कि पूर्ण मोक्ष के लिए उस पूर्ण परमात्मा की शरण ग्रहण करो। काल के दबाव में आकर सच्चाई को तो झूठ मानते हैं और झूठ को सच। सच्चाई बतावें तो मारने दौड़ते हैं। कबीर परमेश्वर जी स्वयं परमात्मा आए थे।
इसलिए कहा है कि मैं पूर्ण परमात्मा स्वयं सतगुरू भेष में कह रहा हूँ मेरी एक नहीं मानता अन्य भ्रमित करने वालों की बातें मान कर इधर-उधर भटकते रहते हैं। पूर्ण सतगुरू का मार्ग ग्रहण करने से मोक्ष सम्भव है परमात्मा कबीर जी का संकेत है कि जब भी पूर्ण सन्त सतगुरू प्रकट होता है उसके द्वारा बताए मार्ग पर लग कर मोक्ष प्राप्त करना ही बुद्धिमता है।
(कबीर पंथी शब्दावली के पृष्ठ नं. 271 से 275 तक)
स्वासा सुमिरण होत है, ताहि न लागै बार।
पल पल बन्दगी साधना, देखो दृष्टि पसार।।173।।
सत्य नामको खोजिले, जाते अग्नि बुझाय।
बिना सतनाम बांचे नहीं, धरमराय धरि खाय।।184।।
आदि नाम निज सार है, बूझि लेहु हो हंस।
जिन जाना निज नामको, अमर भयो स्यों बंस।।205।।
आदि नाम निज मूल है, और मंत्र सब डार।
कहै कबीर निज नाम बिन, बूडि मुआ संसार।।206।।
आदि नामको खोजहू, जो है मुक्ति को मूल।
ये जियरा जप लीजियो, भर्म मता मत भूल।।207।।
कहै कबीर निज नाम बिन, मिथ्या जन्म गवांय।
निर्भय मुक्ति निःअक्षरा, गुरु विन कबहुँ न पाय।।208।।
सबको नाम सुनावहू, जो आवे तव पास।
शब्द हमारो सत्य है, दृढ राखो विश्वास।।220।।
होय विवेकी शब्दका, जाय मिलै परिवार।
नाम गहै सो पहुँचिहैं, मानहु कहा हमार।।221।।
आदि नाम पारस (सारनाम) है, मन है मैला लोह।
परसतही कंचन भया, छूटा बंधन मोह।।222।।
सुरति समावे नामसे, जगसे रहै उदास।
कहै कबीर गुरु चरणमें, दृढ राखै विश्वास।।223।।
ज्ञान दीप प्रकाश करि, भीतर भवन जराय।
बैठे सुमरे पुरुषको, सहज समाधि लगाय।।229।।
अछय बृक्षकी डोर गहि, सो सतनाम समाय।
सत्य शब्द (सारशब्द) प्रमाण है,सत्यलोक महं जाय।।230।।
कोइ न यम सो बाचिया, नाम बिना धरिखाय।
जे जन बिरही नामके, ताको देखि डराय।।232।।
कर्म करै देही धरै, औ फिरि फिरि पछताय।
बिना नाम बांचे नहीं, जिव यमरा लै जाय।।233।।
(स्वांसा सुमरण होत है --------) इन दोहों में कहा है कि जो सत्यनाम (ऊँ-सोहं) स्वांसो द्वारा होता है उसकी खोज करो अर्थात् इस मन्त्र को देने वाला पूर्ण गुरु मिले उससे उपदेश लो तथा स्मरण करो। फिर पूर्ण गुरु आपको सारनाम देवेगा। यदि सारनाम नहीं मिला तो आपका जीवन निष्फल है। हाँ, सत्यनाम के आधार से आपको मनुष्य जन्म मिल जाएगा। परंतु सत्यलोक प्राप्ति नहीं।
इसलिए कहा है कि जो ज्ञान योगयुक्त होगा वही हमारे सारनाम को पाने की लग्न लगाएगा अन्यथा केवल सत्यनाम (ऊँ-सोहं) से भी जीव छुटकारा नहीं है।
इस स्थिति में गीता जी में कहा है कि मूढ (मूर्ख) जिन्हें सच्चाई का ज्ञान नहीं है, वे तो वैसे ही अनजानपने में सतमार्ग स्वीकार नहीं कर सकते। इसलिए उनको बार-2 कहना हानिकारक हो सकता है। कबीर साहेब कहते हैं:-- कबीर: सीख उसी को दीजिए, जाको सीख सुहाय। सीख दयी थी वानरा, बइयाँ का घर जाय।।
अर्थात् वे उल्टे गले पड़ जाएंगे। मरने मारने को तैयार हो जाएंगे। जैसे साहेब कबीर के पीछे काशी के पाण्डे व काजी मुल्ला पड़ गए थे लेकिन सच्चाई स्वीकार नहीं की।
जो ज्ञानी पुरुष है जो समझते भी हैं कि हम गलत साधना स्वयं कर रहे हैं तथा अनुयाईयों को भी गलत मार्ग दर्शन कर रहे हैं वे अपनी मान बड़ाई वश नहीं मानते। वे चातुर (चतुर) प्राणी कहे हैं। इसलिए दोनों ही भक्ति अधिकारी नहीं हैं।
यथार्थ साधना: जो सोहं का जाप दो हिस्से करके स्वांस-उस्वांस से करते हैं वे किसी उपास्य इष्ट की प्राप्ति या निर्गुण ब्रह्म की प्राप्ति के लिए करते हैं वह इसका अर्थ लगाता है कि सो - अहमं ख्वह (इष्ट-भगवान जिसके वे उपासक हैं मान कर जपते हैं), और सोचते हैं कि वह ईश्वर (अहम्) मैं ही हूँ। इसका ही दूसरा अर्थ लगाते हैं कि अहम् ब्रह्मास्मि। वे भक्त महिमा तो गाते हैं विष्णु भगवान की और नाम जपते हैं सोहं। यह साधना उन्हें स्वर्ग प्राप्ति करवा कर फिर चैरासी लाख योनियों में भरमाती है।
ऊँ और सोहं का इकट्ठा जाप ‘सत्यनाम‘ कहलाता है। यह स्वांसों द्वारा जपा जाता है। इसे ‘अजपा जाप‘ भी कहते हैं। इसी का प्रमाण कबीर साहेब की वाणी में है जिसमें धर्मदास को नाम दिया है। कबीर पंथी शब्दावली में पृष्ठ नं. 51 पर वाणी में लिखा है ‘‘ओ3म-सोहं भजो नर लोई‘‘, यही सत्यनाम है।
फिर कबीर पंथी शब्दावली के पृष्ठ नं. 52-53 पर लिखा है।
श्रोता वक्ता की अधिक महिमा, विचार कुण्ड नहाईए। सारशब्द निबेर लीजे, बहुरि न भवजल आईए।।
सर्वसाधु संत समाज मध्ये, भक्ति मुक्ति दृढाईए। सुमिरण कर सतलोक
पहुँचे, बहुरि न भवजल आईए।।
सोहं शब्द अजपा जाप, साहेब कबीर सो आपही आप।
सोहं शब्द से कर प्रीति, अनभय अखण्ड घर को जीत।।
तन की खबर कर भाई, जा में नाम रूसनाई।।
फिर ‘‘ज्ञानगुदरी‘‘ कबीर पंथी शब्दावली के पृष्ठ नं. 55 पर।
इसमें लिखा है:-- मन को मारने का साधन सत्यनाम (ऊँ-सोहं) है केवल ऊँ मन्त्रा नहीं। सत्यनाम स्वांसों से सुमरण होता है। ऊँ शब्द का जाप काल लोक पार करने के बाद अपने आप बन्द हो जाता है तथा सोहं का प्रारंभ रहता है। सार शब्द सत्यलोक में ले जाता है। परब्रह्म के लोक से पार होते ही भंवर गुफा है वहां तक सोहं मन्त्र ले जाता है।
निहचे धोति पवन जनेऊ, अजपा जाप जपे सो जाने भेऊ।।
इंगला, पिंगला के घर जाई, सुषमना नीर रहा ठहराई।।
ऊँ-सोहं तत्त्व विचारा, बंकनाल में किया संभारा।।
मनको मार गगन चढिजाई, मानसरोवर पैठ नहाई।।
इसी का प्रमाण महाराज गरीबदास साहेब जी (छुड़ानी, हरियाणा) ने अपनी वाणी में दिया है। सतग्रन्थ साहिब पृष्ठ नं. 425 पर ।
राम नाम जप कर थीर होई। ऊँ-सोहं मन्त्र दोई।।
कहा पढो भागवत गीता, मनजीता जिन त्रिभुवन जीता।
मनजीते बिन झूठा ज्ञाना, चार वेद और अठारा पुराना।।
इसका अर्थ है कि राम (ब्रह्म-अल्लाह-रब) का नाम जप कर निश्चल हो जाओ। भ्रमों भटको मत। वह राम का नाम ऊँ-सोहं है इसी से मन जीता जा सकता है। यदि यह सत्यनाम (ऊँ-सोहं) पूर्ण गुरु से प्राप्त नहीं हुआ चाहे आपको इस पुस्तक के पढ़ने से ज्ञान भी हो जाए कि सत्यनाम यह ‘ऊँ-सोहं‘ है तथा नाम जाप भी करने लग जाएँ तो भी कोई लाभ नहीं है। या नकली गुरु बन कर यह नाम देने लग जाए। वह पाखंडी स्वयं नरक में जाएगा तथा अनुयाईयों को भी डुबोएगा। वर्तमान में सत्यनाम व सारनाम दान करने का केवल मुझ दास (संत रामपाल दास) को आदेश मिला है। एक समय में एक ही तत्वदर्शी संत आता है, जो पूर्ण परमात्मा कबीर साहेब (कविर्देव) का कृप्या पात्र होता है। अन्य कोई उपरोक्त नामदान करता है तो उसे नकली जानों।
इसलिए इस सतनाम के जाप से मन जीता जा सकता है। इसके प्राप्त हुए बिना चाहे ब्रह्मा जैसा विद्वान हो वह भी मन के आधीन रहेगा। फिर सारनाम व सारशब्द पूरा गुरु प्रदान करके पार करेगा।
विशेष वर्णन:-- गरीबदास जी कृत सतग्रन्थ साहिब के पृष्ठ नं. 423 से 427 और 431 से 437 से सहाभार
सौ करोर दे यज्ञ आहूती, तौ जागै नहीं दुनिया सूती।
कर्म काण्ड उरले व्यवहारा, नाम लग्या सो गुरु हमारा।।
शंखौं गुणी मुनी महमंता, कोई न बूझै पदकी संथा।।
शंखौं मौनी मुद्रा धारी, पावत नांही अकल खुमारी।
शंखौं तपी जपी और जोगी, कोईन अमी महारस भोगी।।
गरीब, शालिग पूजि दुनिया मुई, प्रतिमा पानी लाग।
चेतन होय जड पूजहीं, फूटे जिनके भाग।।81।।
शंखौं नेमी नेम करांही, भक्ति भाव बिरलै उर आंही।
उस समर्थ का शरणा लैरे, चैदा भुवन कोटि जय जय रे।।
ऊपर की साखियों चैपाईयों में गरीबदास जी महाराज जो कबीर साहेब के शिष्य कह रहे हैं कि -
ज्ञानहीन प्राणी नहीं समझते कि सच्चे नाम व सच्चे (अविनाशी) भगवान (सत साहेब) के भजन व शरण बिना भावें करोंड़ों यज्ञ करो। संखों विद्वान (गुणी) महंत व ऋषि अपने स्वभाव वश सच्चाई (सत्य साधना) को स्वीकार नहीं करते। अपने मान वश शास्त्र विधि रहित पूजा (साधना) करते हैं तथा नरक के भागी होते हैं। गीता जी के अध्याय 16 के श्लोक 23-24 में यही प्रमाण है।
शंखों मौनी (मौन धारण करने वाले) तथा पाँचों मुद्रा प्राप्ति (चांचरी-भूचरी, खैंचरी-अगोचरी, ऊनमनी) किए हुए भी काल जाल में ही रहते हैं। शंखों जप (केवल ऊँ नाम का व ऊँ नमो भागवते वासुदेवाय नमः, ऊँ नमो शिवाय, राधा स्वामी नाम व पाँचों नाम-ओंकार, ज्योति निंरजन, रंरकार, सोहं, सतनाम जाप या अन्य नाम जो पवित्र गीता जी व पवित्र वेदों तथा परमेश्वर कबीर साहेब जी की अमृतवाणी व अन्य प्रभु प्राप्त संतों की अमृतवाणी से भिन्न हैं) करने वाले तथा तपस्वी व योगी भी पूर्ण मुक्त नहीं हैं। पूर्ण लाभ प्राप्त नहीं है। नाना प्रकार के भेष (वस्त्रा भिन्न गैरुवे वस्त्रा पहनना, जटा रखना या पत्थर पूजने वाले, मूंड मुंडवाना, नाना पंथों के अनुयायी बन जाना) भी व आचार-विचार कर्म काण्ड करने वाले, शंखों दानी दान करने वाले व गंगा-केदार नाथ गया आदि अड़सठ तीर्थ या चारों धामों की यात्र करने वाले भी परमात्मा का तत्वज्ञान न होने से ईश्वरीय आनन्द का लाभ प्राप्त नहीं कर सकते। पूर्ण मुक्त नहीं हो सकते। श्री गीता जी के अध्याय 11 के श्लोक 48 में स्पष्ट कहा है कि अर्जुन मेरे इस वास्तविक ब्रह्म (काल-विराट) रूप को कोई न तो पहले देख पाया न ही आगे देख सकेगा। चूंकि मेरा यह रूप (अर्थात् ब्रह्म-काल प्राप्ति) न तो यज्ञों से, न ही तप से, न ही दान से, न ही जप से, न ही वेद पढ़ने से, अर्थात् वेदों में वर्णित विधि से न ही क्रियाओं से देखा जा सकता अर्थात् परमात्माक्ष्जो यहाँ तीन लोक व इक्कीस ब्रह्मण्ड का भगवान (काल) हैद्व की प्राप्ति किसी भी साधना से नहीं हो सकती। पवित्र गीता जी में वर्णित पूजा (उपासना) विधि से सिद्धियाँ प्राप्ति, चार मुक्ति (जो स्वर्ग में रहने की अवधि भिन्न होती है तथा कुछ समय इष्ट देव के पास उसके लोक में रह कर फिर चैरासी लाख जूनियों में भ्रमणा-भटकणा बनी रहेगी)। जिसमें काल (ब्रह्म) भगवान कह रहा है कि मेरी शरण में आ जा। तुझे मुक्त कर दूंगा। वह काल (ब्रह्म) भजन के आधार पर कुछ अधिक समय स्वर्ग में रख कर फिर नरक में भेज देता है। क्योंकि पवित्र गीता जी में कहा है कि जैसे कर्म प्राणी करेगा (जैसे का भाव पुण्य भी तथा पाप भी दोनों भोग्य हैं) वे उसे भोगने पड़ेंगे। फिर कहते हैं कि कल्प के अंत में सर्व (ब्रह्मलोक पर्यान्त) लोकों के प्राणी नष्ट हो जाएंगे। उस समय स्वर्ग व नरक समाप्त हो जाएंगे तथा कहा है कि फिर सृष्टि रचूँगा। वे प्राणी फिर कर्माधार पर जन्मते मरते रहेंगे। फिर पूर्ण मुक्ति कहाँ? श्री गीता जी के अध्याय 9 का श्लोक 7 में प्रमाण है। इसमें साफ लिखा है कि प्रलय के समय सर्व भूत प्राणी नष्ट हो जाएंगे। फिर अर्जुन कहाँ बचेगा? इसलिए गरीबदास जी महाराज कहते हैं कि उस पूर्ण परमात्मा (समर्थ) पूर्ण ब्रह्म (कबीर साहेब) की शरण में जाओ जिसको प्राप्त कर फिर सदा के लिए जन्म-मरण मिट जाएगा। पूर्ण मुक्त हो जाओगे। इसी का प्रमाण श्री गीता जी देती है। अध्याय 18 श्लोक 46, 62, 66 और अध्याय 8 के श्लोक 8, 9, 10 और अध्याय 2 का श्लोक 17 में प्रमाण है।
सोहं मंत्र कल्प किदारा, अमर कछ होय पिंड तुमारा।।
ऊँ आदि अनादि लीला, या मंत्र मैं अजब करीला।
सोहं सुरति लगै सहनांना, टूटै चैदा लोक बंधाना।।
राम नाम जपि करि थिर होई, ऊँ सोहं मंत्र दोई।
दिव्य दृष्टिकूं दर्शन होई, चैदाह भुवन फिरौं क्यौं न कोई।
सतगुरु बिना सुरति नहीं लागै, जरै मरै कुल देही त्यागै।।
सतगुरु बतलावै ठौर ठिकाना, को मारै प्रबीन निशाना।।
सोहं सुरति निरति सैं सेवै, आप तरै औरनकूं खेवै।
परम हंस वीर्य बिस्तारा, ऊँ मंत्र कीन्ह उचारा।।
सोहं सुरति लगावै तारी, काल बलीसैं जाइ न टारी।।
गरीब, कालबली कलि खात है, संतौं कौं प्रणाम।
आदि अंत आदेश है, ताहि जपै निज नाम।।92।।
गिरिवर नदी निवासा, ठार भार बनमाला।
ऊँ सोहं श्वासा, कर्म कुसंगति काला।।11।।
सुख सागर आनंदा, सुमरथ शब्द सनेही।
मेटत है दुःख दुंदा, पूरण ब्रह्म विदेही।।13।।
ऊँ सोहं मूलं, मध्य सलहली सूतं।
बिनशत यौह अस्थूलं, न्यारा पद अनभूतं।।48।।
ऊँ सोहं दालं, अकंडा बीज अंकूरं।
ऊगै कला कत्र्तारं, नाद बिन्द सुर पूरं।।49।।
ऊँ सोहं सीपं, स्वांति बिना क्या होई।
निपजत है दिल दीपं, स्वाती बून्द परोई।।51।।
सुकच मीन होय संगी, मोती सिन्धु पठावै।
झूठी प्रीति इकंगी, सतगुरु शब्द मिलावै।।55।।
सत्य सुकृत संगाती, छाड़ि दिया निज नामा।
देवल धामौं जाती, भूलि गये औह धामा।।79।।
षट् शास्त्रा संगीता, पढे बनारस जाई।
पंडित ज्ञानी रीता, औह अक्षर इहां नांही।।86।।
कोटि ज्ञान बकि मूवा, ब्रह्म रंद्र नहीं जाना।
जैसे सिंभल सूंवा, शीश धुनि पछिताना।।87।।
कर्मकाण्ड व्यवहारा, दीन्हा होय सो पावै।
नहीं प्राण निस्तारा, भवसागर में आवै।।93।।
उस समर्थ (परमात्मा-परमेश्वर-पूर्ण ब्रह्म) को प्राप्ति की विधि सत्यनाम व सारनाम है। सत्यनाम (ऊँ-सोहं) का काम है, कि ऊँ मन्त्र स्वर्ग व महास्वर्ग तक की प्राप्ति करवा देता है, इस मन्त्रा की यह करामात है, साथ में सोहं मन्त्र का जाप चैदह लोकों के बन्धन से मुक्त कर देता है। फिर सार शब्द प्राप्ति कर पूर्ण मुक्त हो जाता है। ऊँ मन्त्र से काल का ऋण उतारना है तथा साथ में सोहं मन्त्रा के जाप को सारनाम में लौ लगा के जपै तो कालबलि (ब्रह्म) से रूक नहीं सकता। वह हंस पार हो जाएगा। सारनाम बिना केवल ॐ तथा सोहं मंत्र से भी लाभ नहीं है, जैसे ॐ तो सीप की काया जानों, सोहं सीप में जीव जानों, यदि सारनाम रूपी स्वांति नहीं मिली तो मुक्ति रूपी मोती नहीं बनेगा। सारनाम तो छोड़ दिया। छः शास्त्रों, गीता जी में, वेदों में सोहं का जाप नहीं है। इसलिए विद्वान (पंडित) ऋषि, मुनि सर्व पूर्ण मोक्ष से वंचित हैं पूर्ण मुक्त नहीं हैं।
निम्नलिखित वाणियाँ कबीर सागर के ज्ञान बोध से ली गई हैं।
ऐसा राम कबीर ने जाना - कबीर साहेब का शब्द
ऐसा राम कबीर ने जाना। धर्मदास सुनियो दै काना।।
सुन्न के परे पुरुष को धामा। तहँ साहब है आदि अनामा।।
ताहि धाम सब जीवका दाता। मैं सबसों कहता निज बाता।।
रहत अगोचर (अव्यक्त) सब के पारा। आदि अनादि पुरुष है न्यारा।।
आदि ब्रह्म इक पुरुष अकेला। ताके संग नहीं कोई चेला।।
ताहि न जाने यह संसारा। बिना नाम है जमके चारा।।
नाम बिना यह जग अरुझाना। नाम गहे सौ संतसुजाना।।
सच्चा साहेब भजु रे भाई। यहि जगसे तुम कहो चिताई।।
धोखा में जिव जन्म गँवाई। झूठी लगन लगाये भाई।।
ऐसा जग से कहु समझाई। धर्मदास जिव बोधो जाई।।
सज्जन जिव आवै तुम पासा। जिन्हें देवैं सतलोकहि बासा।
भ्रम गये वे भव जलमाहीं। आदि नाम को जानत नाहीं।।
पीतर पाथर पूजन लागे। आदि नाम घट ही से त्यागे।।
तीरथ बर्त करे संसारे। नेम धर्म असनान सकारे।।
भेष बनाय विभूति रमाये। घर घर भिक्षा मांगन आये।।
जग जीवन को दीक्षा देही। सत्तनाम बिन पुरुषहि द्रोही।।
ज्ञान हीन जो गुरु कहावै। आपन भूला जगत भूलावै।।
ऐसा ज्ञान चलाया भाई। सत साहबकी सुध बिसराई।।
यह दुनियां दोरंगी भाई।जिव गह शरण असुर (काल) कीजाई।।
तीरथ व्रत तप पुन्य कमाई। यह जम जाल तहाँ ठहराई।।
यहै जगत ऐसा अरुझाई। नाम बिना बूड़ी दुनियाई।।
जो कोई भक्त हमारा होई। जात वरण को त्यागै सोई।।
तीरथ व्रत सब देय बहाई। सतगुरु चरणसे ध्यान लगाई।।
मनहीं बांध स्थिर जो करही। सो हंसा भवसागर तरही।।
भक्त होय सतगुरुका पूरा। रहै पुरुष के नित्त हजूरा।।
यही जो रीति साधकी भाई। सार युक्ति मैं कहूँ गुहराई।।
सतनाम निज मूल है, यह कबीर समझाय।
दोई दीन खोजत फिरें, परम पुरुष नहिं पाय।।
गहै नाम सेवा करै, सतनाम गुण गावै।
सतगुरु पद विश्वास दृढ़, सहज परम पद पावै।।
अध्याय 15 के श्लोक 16
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरः च अक्षरः एव च। क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते।।
द्वौ, इमौं, पुरुषौ, लोके, क्षरः, च अक्षरः, एव, च, क्षरः, सर्वाणि, भूतानि, कूटस्थः, अक्षरः, उच्यते।।
अनुवाद: (लोके) इस संसारमें (द्वौ) दो प्रकारके (पुरुषौ) प्रभु हैं। (क्षरः) नाशवान् प्रभु अर्थात् ब्रह्म(च) और (अक्षरः) अविनाशी प्रभु अर्थात् परब्रह्म (एव) इसी प्रकार (इमौ) इन दोनों के लोक में (सर्वाणि) सम्पूर्ण (भूतानि) प्राणियोंके शरीर तो (क्षरः) नाशवान् (च) और (कूटस्थः) जीवात्मा (अक्षरः) अविनाशी (उच्यते) कहा जाता है।
अध्याय 15 के श्लोक 17
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः। यो लोकत्रयमाविश्य बिभत्र्यव्यय ईश्वरः।
उत्तमः, पुरुषः तु, अन्यः, परमात्मा, इति, उदाहृतः। यः लोकत्रयम्, आविश्य, बिभर्ति, अव्ययः, ईश्वरः।
अनुवाद: (उत्तम) उत्तम (पुरुषः) प्रभु (तु) तो उपरोक्त क्षर पुरूष अर्थात् ब्रह्म तथा अक्षर पुरूष अर्थात् परब्रह्म से (अन्यः) अन्य ही है (परमात्मा) परमात्मा (इति) इस प्रकार (उदाहृतः) कहा गया है (यः) जो (लोकत्रयम्) तीनों लोकोंमें (आविश्य) प्रवेश करके (बिभर्ति) सबका धारण-पोषण करता है एवं (अव्ययः) अविनाशी (ईश्वरः) उपरोक्त प्रभुओं से श्रेष्ठ प्रभु अर्थात् परमेश्वर है। अध्याय 15 के श्लोक 18
यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः। अतोऽअस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः।
यस्मात्, क्षरम् अतीतः, अहम्, अक्षरात् अपि च उत्तम। अतः अस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः।
अनुवाद: (यस्मात्) क्योंकि (अहम्) मैं काल - ब्रह्म(क्षरम्) नाशवान् स्थूल शरीर धारी प्राणियों से (अतीतः) श्रेष्ठ (च) और (अक्षरात्) अविनाशी जीवात्मासे (अपि) भी (उत्तमः) उत्तम हूँ (च) और (अतः) इसलिये (लोके, वेद) लोक वेद में अर्थात् कहे सुने ज्ञान के आधार से (पुरुषोत्तमः) श्रेष्ठ भगवान अर्थात् कुल मालिक नामसे (प्रथितः) प्रसिद्ध (अस्मि) हूँ। परन्तु वास्तव में कुल मालिक तो अन्य ही है।
वाणी:
ताहि न यह जग जाने भाई। तीन देव में ध्यान लगाई।।
तीन देव की करहीं भक्ति। जिनकी कभी न होवे मुक्ति।।
तीन देव का अजब खयाला। देवी-देव प्रपंची काला।।
इनमें मत भटको अज्ञानी। काल झपट पकड़ेगा प्राणी।।
तीन देव पुरुष गम्य न पाई। जग के जीव सब फिरे भुलाई।।
जो कोई सतनाम गहे भाई। जा कहैं देख डरे जमराई।।
ऐसा सबसे कहीयो भाई। जग जीवों का भरम नशाई।।
कह कबीर हम सत कर भाखा, हम हैं मूल शेष डार, तना रू शाखा।।
साखी:
रूप देख भरमो नहीं, कहैं कबीर विचार।
अलख पुरुष हृदये लखे, सोई उतरि है पार।।
इसमें परमेश्वर कबीर साहेब जी अपने परम शिष्य धर्मदास जी को कह रहे हैं कि ध्यान पूर्वक सुन वह पूर्ण ब्रह्म (परम अक्षर पुरुष) परमात्मा मैंने (कबीर साहेब ने) पाया(अपनी महिमा आप ही कहनी पड़ी क्योंकि सतपुरुष को कोई साधक नहीं जानता था। स्वयं कबीर साहेब ही भक्त तथा संत व परमात्मा की भूमिका निभा रहे हैं) उस परमात्मा (पूर्णब्रह्म) का सर्व ब्रह्मण्डों से पार स्थान है वहां पर वह आदि परमात्मा (सतपुरुष) रहता है। वही सर्व जीवों का दाता है (इसी का प्रमाण गीता जी के अध्याय 15 के श्लोक 17 में दिया है) जो उसी सतधाम में सबसे न्यारा रहता है (इसी का प्रमाण यजुर्वेद के अध्याय 5 के श्लोक 32 में भी है) उस परमात्मा(इसी का प्रमाण गीता जी के अध्याय 18 के श्लोक 46 व 61, 62, 66 में, अध्याय 8 के श्लोक 1, 3, 8, 9, 10 तथा 17 से 22 व अध्याय 2 के श्लोक 17 में पूर्ण प्रमाण है) को कोई नहीं जानता तथा उसकी प्राप्ति की विधि भी किसी शास्त्र में वर्णित नहीं है। इसलिए सतनाम व सारनाम के स्मरण के बिना काल साधना(केवल ऊँ मन्त्र जाप) करके काल का ही आहार बन जाते हैं।
सच्चा साहेब (अविनाशी परमात्मा) भजो। उसकी साधना सतनाम व सारनाम से होती है। इसका ज्ञान न होने से ऋषि व संतजन लगन भी खूब लगाते हैं। हजारों वर्ष वेदों में वर्णित साधना भी करते हैं परंतु व्यर्थ रहती है। पूर्ण मुक्त नहीं हो पाते। धर्मदास जी को साहेब कबीर कह रहे हैं कि जो सज्जन व्यक्ति आत्म कल्याण चाहने वाले अपनी गलत साधना त्याग कर आपके पास नाम लेने आएंगे। उनको सतनाम व सारनाम मन्त्र देना जिससे वे काल जाल से निकल कर सतलोक में चले जाएंगे। फिर जन्म-मरण रहित हो कर पूर्ण परमात्मा का आनन्द प्राप्त करेंगे। सही रास्ता (पूजा विधि) न मिलने के कारण नादान आत्मा पत्थर पूजने लग गई, व्रत, तीर्थ, मन्दिर, मस्जिद आदि में ईश्वर को तलाश रही हैं जो व्यर्थ है यह सब स्वार्थी अज्ञानियों व नकली गुरुओं द्वारा चलाई गई है। जो गुरु सतनाम व सारनाम नहीं देता वह सतपुरुष (कबीर साहेब) का दुश्मन है जो गलत साधना कर व करवा के स्वयं को भी तथा अनुयाईयों को भी नरक में ले जा रहा है। जो आप ही भूला है तथा नादान भोली-भाली आत्माओं को भी भुला रहा है।
वेदों व गीता जी में ऊँ नाम की महिमा बताई है कि यह भी मूल नाम नहीं है। सारनाम के बिना अधूरे नाम को अंश नाम कहा है जो पूर्ण मुक्ति का नहीं है। इसी के बारे में कहा है कि शाखा (ब्रह्मा-विष्णु-शिव व ब्रह्म-काल तथा माता की साधना कोशाखा कहा है) व पत्र (देवी-देवताओं की पूजा का ईशारा किया है) में जगत उलझा हुआ है। जो इनकी साधना करता है वह नरक में जाता है। इसी का प्रमाण गीता जी के अध्याय 14 के श्लोक 5 में तथा अध्याय 9 के श्लोक 25 में है तथा पवित्र गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15 तथा 20 से 23 तक है।
फिर पूर्ण परमात्मा को मूल कहा है कि उस परमात्मा तथा उसकी उपासना को कोई नहीं जानता। अज्ञानता वश ब्रह्मा-विष्णु-शिव और श्री राम व श्री कृष्ण जी को ही अविनाशी परमात्मा मानते हैं। ‘‘जीव अभागे मूल नहीं जाने, डार-शाखा को पुरुष बखाने‘‘ संसार के साधक वेद शास्त्रों को पढ़ते भी हैं परंतु समझ नहीं पाते। व्यर्थ में झगड़ा करते हैं। जबकि पवित्र वेद व गीता व पुराण भी यही कहते हैं कि अविनाशी परमात्मा कोई और ही है। प्रमाण के लिए गीता जी के अध्याय 15 के श्लोक 16-17 में पूर्ण वर्णन किया गया है। जो इन तीन देवों (ब्रह्मा, विष्णु, शिव) की भक्ति करते हैं उनकी मुक्ति कभी नहीं हो सकती। हे नादान प्राणियों! इनकी उपासना में मत भटको। पूर्ण परमात्मा की साधना करो। धर्मदास से साहेब कबीर कह रहे हैं कि यह सब जीवों को बताओ, उनका भ्रम मिटाओ तथा सतपुरुष की पूजा व महिमा का ज्ञान कराओ।