अथ बिरह चितावनी के अंग
अथ बिरह चितावनी के अंग का सारांश
सारांश:– संत गरीबदास जी ने मानव शरीर प्राप्त प्राणियों को काल ब्रह्म के लोक की भूल-भुलईया बताई है तथा मानव जन्म की सार्थकता किस कार्य में है? यह भी बताया है।
वाणी नं. 12 में कहा है कि:-
दृष्टि पड़े सो फना है, धर अम्बर कैलाश। कृत्रिम बाजी झूठ है, सुरति समोवो श्वांस।।
भावार्थ है कि जो कुछ आप देख रहे हो यानि खेत-खलिहान, बाग-बगीचे, पर्वत, झरने, वन, दरिया, गाँव-शहर, जीव-जंतु, राजा, मानव तथा चाँद, सूर्य, तारे, नक्षत्र, ग्रह आदि-आदि सब फना (नाशवान) है। शिव जी का घर कैलाश पर्वत पर है। वह कैलाश पर्वत भी नष्ट होगा। यह सब कृत्रिम संसार सब झूठ है। एक स्वपन के समान है। इसलिए श्वांस-उश्वांस से स्मरण (नाम जाप) करो। संसार को असार मानो। परमात्मा की भक्ति करो। अपना कल्याण करवाओ। (12)
वाणी नं. 21 में कहा है कि:-
चार पदार्थ एक कर, सुरति निरति मन पौन। असल फकीर जोग यौंह, गगन मंडल कूं गौन।।
भावार्थ:– स्मरण (नाम जाप) करते समय अपने मन को सुरति-निरति को तथा पवन (श्वांस) को एक करें। वास्तव में (फकीरी) सन्यासी होना तथा जोग (योग) अर्थात् भक्ति यह है। वन में जाने की अपेक्षा गगन मण्डल अर्थात् आकाश खण्ड में ध्यान रखो। सतलोक जाने की आशा रखो। शास्त्रा विरूद्ध साधना करने से कोई लाभ नहीं होता। (21)
वाणी नं. 7 में बताया है कि:-
गरीब, काशी करोंत लेत हैं, आन कटावें शीश। बन-बन भटका खात हैं, पावत ना जगदीश ।।7।।
भावार्थ:- शास्त्र विरूद्ध साधक नकली-स्वार्थी गुरूओं द्वारा भ्रमित होकर कोई जंगल में जाता है। कोई काशी शहर में करौंत से सिर कटवाने में मुक्ति मानता है। इस प्रकार की व्यर्थ साधना जो शास्त्रोक्त नहीं है, करने से कोई लाभ नहीं होता। (7)
वाणी नं. 3 में संत गरीबदास जी ने बताया है कि:-
गरीब, असन बसन सब तज गए, तज गए गाम अरू गेह। माहे संसा सूल है, दुर्लभ तजना येह।।
भावार्थ:– जब तक सतगुरू नहीं मिलता, तब तक भक्तजन भक्ति भी करते रहते हैं और शंका भी रहती है कि वह व्यक्ति यह साधना करता है, कहीं मेरी साधना सत्य न हो। इसलिए अपनी साधना के साथ-साथ दूसरे की साधना भी करने लगता है। जैसे एक साधक शनिदेव को मानता था। शनिवार को व्रत रखता था। दूसरे ने बताया कि मैं मंगलवार का व्रत करता हूँ और बाबा हनुमान की भक्ति करता हूँ। सालासर धाम (राजस्थान) में एक वर्ष में अवश्य जाता हूँ। मेरे को बहुत लाभ हो रहा है। उस शनिवार के पुजारी ने मंगलवार का व्रत भी प्रारम्भ कर दिया और वर्ष में सालासर भी जाने लगा। यह संसा सूल यानि शंका रूपी काँटा मन तब तक खटकता रहता है, जब तक तत्त्वदर्शी सतगुरू नहीं मिलता। (असन-बसन तज गए) घर-बार, राजपाट सब त्याग गए। जंगल में चले गए, परंतु अज्ञान के कारण शंका भी बनी है। इस शंका का निवारण दुर्लभ है। यदि कोई तत्त्वज्ञानी संत उनको समझाने की चेष्टा करता है तो वे शास्त्रविरूद्ध साधना त्यागते नहीं। इसलिए कहा है कि उसको त्यागना दुर्लभ है। उसके त्यागे बिना भक्ति की उपलब्धि नहीं होती। (3)
वाणी नं. 8 में कहा है कि:-
गरीब, संसा तो संसार है, तन पर धारै भेख। मरकब होंही कुम्हार कै, सन्यासी ओर सेख।।
भावार्थ:– भक्ति मार्ग किसका सही है? किसका गलत है? यह शंका पूरे संसार में है और भक्तजन अपने-अपने पंथों की पहचान बनाए रखने के लिए शरीर के ऊपर भिन्न-भिन्न पोषाक पहने हैं या कान चिराकर, जटा (सिर पर बाल) बढ़ाकर अपने-अपने भेषों (पंथों) की पहचान बनाकर साधना करते हैं। तत्त्वज्ञान के अभाव से शास्त्रा के विपरित साधना करके हिन्दू धर्म के सन्यासी तथा मुसलमान धर्म के शेख कुम्हार के घर गधे बनेंगे यानि मोक्ष तो होगा नहीं, पशु शरीर मिलेगा। (8)
वाणी नं. 5:-
गरीब, नित ही जामें नित मरैं, सांसे माही शरीर। जिनका सांसा मिट गया, सो पीरन सीर पीर ।।5।।
भावार्थ:– जब तक शंका का समाधान नहीं होता तो जीव कभी कोई साधना करता है तो कभी कोई। जन्म-मरण नित (सदा) बना रहता है। जिनको पूर्ण गुरू मिल गया, उनकी शंका समाप्त हो गई। वे पीरन (गुरूओं) के पीर (गुरू) हैं यानि वे ज्ञानी हैं। (5)
संसार में भक्त यह विचार करके रहे और भक्ति करे:
वाणी नं. 22:-
गरीब, पंछी घाल्या आलहणा, तरवर छायां देख। गर्भ जुनि के कारण, मन में किया विवेक ।।22।।
भावार्थ:- जैसे पक्षी ने गर्भ धारण किया तो विवेक (विचार) किया। वृक्ष की अच्छी छाया देखकर घोंसला बनाया। (शब्दार्थ:- आलहना = घोंसला, घाल्या = बनाया, डाला।) (22)
वाणी नं. 23:-
गरीब, जैसे पंछी बन रमया, संझा ले विश्राम। प्रातः समै उड़ जात है, सो कहिए निहकाम ।।23।।
भावार्थ:- जैसे पक्षी सारा दिन वन में रमता (घूमता) है। सूर्य अस्त होने के समय (शाम के समय) किसी भी वृक्ष पर बैठकर रात्रि व्यतीत करता है। प्रातः काल उड़कर चला जाता है। वह उस वृक्ष से लगाव नहीं रखता। इसी प्रकार तत्त्वज्ञान प्राप्त साधक ने संसार को समझना चाहिए। अपने आवास को सीमित (छोटा) बनाएँ यह उद्देश्य रखे कि सुबह (मृत्यु के समय) सब छोड़कर उठ जाना है। यह तो अस्थाई ठिकाना है। स्थाई ठिकाना सतलोक है, वहाँ जाना है। (23)
अथ बिरह चितावनी के अंग का सरलार्थ
वाणी नं. 1:-
गरीब, बैराग नाम है त्याग का, पाँच पचीसों मांही। जब लग सांसा सर्प है, तब लग त्यागी नाहीं।।1।।
भावार्थ:- पाँच तत्त्व तथा प्रत्येक पाँच-पाँच प्रकृति हैं जो कुल पच्चीस हैं जिनसे शरीर बना है तथा जीव प्रभावित रहता है। यानि इस शरीर में रहते-रहते वैराग्य करना है। बैराग त्याग का दूसरा नाम है। जिन भक्तों को तत्त्वज्ञान हो जाता है तो उनको वैराग्य हो जाता है। इसी को बिरह भी कहते हैं। जब तक शंका रूपी सर्प का विष चढ़ा है, वह परमात्मा के प्रति समर्पित नहीं हो सकता। तब तक त्यागी नहीं हो सकता।
भावार्थ है कि यदि घर त्यागकर वन में चले गए और भक्ति विधि संशय रहित नहीं है तो भक्ति व्यर्थ है तथा घर को क्लेश (झंझट) समझकर वन गए तो सत्य साधना के अभाव में पाँचों प्रकृतियों का प्रभाव प्राणी के क्लेश का कारण बना रहेगा। इसलिए सत्य भक्ति मिलने पर घर में रहकर विकार त्यागकर मन से भक्ति भी कर। निर्वाह के लिए कर्म भी कर। (1)
वाणी नं. 2:-
गरीब, बैराग नाम है त्याग का, पांच पचीसों संग। ऊपरकी कंचली तजी, अंतर विषै भुवंग।।2।।
सरलार्थ:– शरीर की पच्चीस प्रकृति अपना प्रभाव शरीर (पाँच तत्त्व के पूतले) पर जमाए रखती है। माता-पिता का स्वभाव भी शरीर में प्रभाव दिखाता है क्योंकि उन्हीं के पदार्थ (बीज) से अपना शरीर बना है। अच्छे स्वभाव के माता-पिता से शरीर बना है तो भक्ति में सहयोगी होता है। यदि शराबी-कवाबी, चोर, रिश्वतखोर, डाकू से शरीर मिला है (जन्म हुआ है) तो उसका प्रभाव भक्ति में बाधा करता है। उससे संघर्ष करते हुए तत्त्वज्ञान को आधार बनाकर बिरह (वैराग्य) को बनाए रखें। इसे कहा कि बैराग नाम है त्याग का, शरीर की प्रकृति से संघर्ष करते हुए इन्हीं पाँच-पच्चीस में रहते हुए इनसे प्रभावित न हो तथा भक्ति की भावना बनी रहे। यदि ऐसा नहीं है तो ऊपर की काँचली (सर्प की कैंचुली) की तरह शरीर के वस्त्रा बदल लेने मात्र से बैरागी नहीं बन जाता। अंदर सब विकार विद्यमान हैं। जैसे जनताजन अपने क्षेत्र में प्रचलित वस्त्रा धारण करते हैं। यदि कोई भक्ति के लिए किसी पंथ से जुड़ता है, साधु बनता है तो उसको सांसारिक वस्त्रा उतारने पड़ते हैं तथा उस पंथ वाले भगवा वस्त्र धारण करने पड़ते हैं। यदि उसको तत्त्वज्ञान नहीं है तो वह नकली त्यागी है। उसमें विकार (काम, क्रोध, अहंकार, लोभ, मोह) यथावत बने रहते हैं। उसके विषय में कहा है कि ऊपर की काँचली तजी (वस्त्रा बदलकर बाबा बन गया) अंदर विषय (विकार) रूपी भुवंग (भुजंग) यानि सर्प यथावत है। वह त्याग नहीं है। (2)
वाणी नं. 3:-
गरीब, असन बसन सब तज गए, तज गए गाम अरू गेह। माहे संसा सूल है, दुर्लभ तजना येह।।3।।
सरलार्थ:– जब तक सतगुरू नहीं मिलता, तब तक भक्तजन भक्ति भी करते रहते हैं और शंका भी रहती है कि वह व्यक्ति यह साधना भी करता है तथा शंका भी करता है कि कहीं मेरी साधना सत्य न हो। इसलिए अपनी साधना के साथ-साथ दूसरे की साधना भी करने लगता है। जैसे एक साधक शनिदेव को मानता था। शनिवार को व्रत रखता था। दूसरे ने बताया कि मैं मंगलवार का व्रत करता हूँ और बाबा हनुमान की भक्ति करता हूँ। सालासर धाम (राजस्थान) में एक वर्ष में अवश्य जाता हूँ। मेरे को बहुत लाभ हो रहा है। उस शनिवार के पुजारी ने मंगलवार का व्रत भी प्रारम्भ कर दिया और वर्ष में सालासर भी जाने लगा। यह संसा सूल यानि शंका रूपी काँटा मन में तब तक खटकता रहता है, जब तक तत्त्वदर्शी सतगुरू नहीं मिलता। (असन-बसन तज गए) घर-बार, राजपाट सब त्याग गए। जंगल में चले गए, परंतु अज्ञान के कारण शंका भी बनी है। इस शंका का निवारण दुर्लभ है। यदि कोई तत्त्वज्ञानी संत उनको समझाने की चेष्टा करता है तो वे शास्त्राविरूद्ध साधना त्यागते नहीं। इसलिए कहा है कि उसको त्यागना दुर्लभ है। उसके त्यागे बिना भक्ति की उपलब्धि नहीं होती। (3)
वाणी नं. 4:-
गरीब, बाज कुही गति ज्ञान की, गगन गिरज गरजंत। छूटें सुंन अकासतैं, सांसा सर्प भछंत।।4।।
सरलार्थ:- तत्त्वज्ञान की स्थिति बाज पक्षी जैसी है। जैसे बाज पक्षी अपने शिकार सर्प को आकाश में ऊँचा चढ़कर खोजकर एकदम ऐसे गिरता है जैसे आकाशीय बिजली गर्ज-गर्जकर गिरती है। ऐसे तत्त्वज्ञान, अज्ञान रूपी सर्प को भछंत (भखंत) यानि खा जाता है, समाप्त कर देता है। (4)
वाणी नं. 5 का सरलार्थ पहले सारांश में कर दिया है।
वाणी नं. 6:-
गरीब, ज्ञान ध्यान दो सार हैं, तीजें तत्त अनूप। चैथें मन लाग्या रहैं, सो भूपन सिर भूप।।6।।
सरलार्थ:– ज्ञान तथा ध्यान भक्ति का सार है अर्थात् तत्त्वज्ञान से परमात्मा में ध्यान दृढ़ होता है। ज्ञान बिना ध्यान विश्वास के साथ नहीं लगता। इसलिए परमात्मा प्राप्ति में ये दो मुख्य सहयोगी हैं। तीसरा तत् अनूप का अर्थ है कि परमात्मा पूर्ण है। चैथे मन भक्ति में निरंतर लगा रहे तो वह भक्त भक्ति धन का धनी यानि राजाओं का भी भूप (राजा) यानि भक्ति का महाराज है। (6)
परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि:-
कबीर, सब जग निर्धना, धनवन्ता (धनी) ना कोय। धनवन्ता सो जानियो, जापै राम नाम धन होय।।
वाणी नं. 7:-
गरीब, काशी करोंत लेत हैं, आन कटावें शीश। बन-बन भटका खात हैं, पावत ना जगदीश।।7।।
सरलार्थ:– शास्त्र विरूद्ध साधक नकली-स्वार्थी गुरूओं द्वारा भ्रमित होकर कोई जंगल में जाता है। कोई काशी शहर में करौंत से सिर कटवाने में मुक्ति मानता है। इस प्रकार की व्यर्थ साधना जो शास्त्रोक्त नहीं है, उसे करने से कोई लाभ नहीं होता यानि परमात्मा नहीं मिलता। (7)
वाणी नं. 8:-
गरीब, संसा तो संसार है, तन पर धारै भेख। मरकब होंही कुम्हार कै, सन्यासी ओर सेख।।8।।
सरलार्थ:- भक्ति मार्ग किसका सही है? किसका गलत है? यह शंका पूरे संसार में है और भक्तजन अपने-अपने पंथों की पहचान बनाए रखने के लिए शरीर के ऊपर भिन्न-भिन्न पोषाक पहने हैं या कान चिराकर, जटा (सिर पर बाल) बढ़ाकर अपने-अपने भेखों (पंथों) की पहचान बनाकर साधना करते हैं। तत्त्वज्ञान के अभाव से शास्त्रा के विपरित साधना करके हिन्दू धर्म के सन्यासी तथा मुसलमान धर्म के शेख आदि कुम्हार के घर गधे बनेंगे यानि मोक्ष तो होगा नहीं, पशु शरीर मिलेगा।(8)
वाणी नं. 9:-
गरीब, मन की झीनि ना तजी, दिलही मांहि दलाल। हरदम सौदा करत है, कर्म कुसंगति काल।।9।।
सरलार्थ:– तत्त्वज्ञान न होने के कारण मन का सूक्ष्म दोष समाप्त नहीं हुआ। दिल में मन रूपी दलाल बैठा है जो गलती करवाता है। वह प्राणी हर श्वांस में जो भक्ति करता है। उसके साथ धोखे का सौदा मन करता है। सत्य साधना से मुँह मोड़ता है। व्यर्थ साधना चाहे कितनी ही कठिन हो, उसे करता है। जैसे खड़ा होकर या बैठकर तप करना, विकट पहाड़ियों पर चढ़कर किसी मंदिर में धोक मारने जाना, कावड़ लाने के लिए पैदल चलना आदि-आदि महाकठिन साधना में कोई आलस नहीं करता। यह धोखे का सौदा मन करता है। यह गलत सत्संग का परिणाम है। (9)
वाणी नं. 10:-
गरीब, मन सेती खोटी घड़े, तन से सुमरन कीन। माला फेरे क्या हुवा, दूर कुटन बेदीन।।10।।
सरलार्थ:– ऐसे व्यक्ति साधु का स्वांग करके मन से खोटी घड़े (बुरे विचार करते हैं) यानि गंदी सोच रखते हैं। तन (शरीर) से स्मरण करते रहते हैं। ऐसे माला फिराने से कोई लाभ नहीं होता। दूर कुटन बेदीन यानि हे धर्महीन खोटे व्यक्ति! परमात्मा ऐसे व्यक्ति से दूर है। कभी नहीं मिलेगा।(10)
वाणी नं. 11:-
गरीब, तन मन एक अजूद करि, सुरति निरति लौ लाइ। बेड़ा पार समंद होइ, जे एक पलक ठहराइ।।11।।
सरलार्थ:– भक्ति की श्रेष्ठ स्थिति बताई है कि नाम जाप करते समय मन को विकारों से हटाकर स्मरण पर लगाएँ। तन-मन को एक करके सुरति तथा निरति से नाम में लौ (लगन) लगाएँ। एक पल (एक सैकिण्ड) भी ध्यान नाम पर लगेगा तो धीरे-धीरे अभ्यास हो जाएगा और संसार सागर से बेड़ा (जीव रूपी बेड़ा) पार हो जाएगा यानि मोक्ष प्राप्त करेगा। (11)
वाणी नं. 12:-
दृष्टि पड़े सो फना है, धर अम्बर कैलाश। कृत्रिम बाजी झूठ है, सुरति समोवो श्वांस।।12।।
सरलार्थ:– जो कुछ आप देख रहे हो यानि खेत-खलिहान, बाग-बगीचे, पर्वत, झरने, वन, दरिया, गाँव-शहर, जीव-जंतु, राजा, मानव, चाँद, सूर्य, तारे, ग्रह, नक्षत्र आदि-आदि सब फना (नाशवान) है। शिव जी का घर कैलाश पर्वत पर है। वह कैलाश पर्वत भी नष्ट होगा। यह सब कृत्रिम संसार सब झूठ है। एक स्वपन के समान है। इसलिए श्वांस-उश्वांस से स्मरण (नाम जाप) करो। संसार को असार मानो। परमात्मा की भक्ति करो। अपना कल्याण करवाओ। (12)
वाणी नं. 13:-
गरीब, सुरति स्वांस कूं एक कर, कुंजि किनारै लाई। जाका नाम बैराग है, पांच पचीसों खाई।।13।।
सरलार्थ:– श्वांस से नाम जाप करते समय सुरति (ध्यान) को उसी नाम स्मरण पर लगाना। यह श्वांस-सुरति एक करना है। कुंज कमल (अंतिम नौवें कमल) के निकट ध्यान को पहुँचाएँ। इसका नाम वैराग्य है जिसने शरीर की प्रकृति को अनुकूल कर लिया। ध्यान तब ही लगता है जब मन सांसारिक प्रेरणाओं से विचलित नहीं होता। (13)
वाणी नं. 14:-
गरीब, पांच पचीसों भून करि, बिरह अगनि तन जार। सो अविनासी ब्रह्म है, खेले अधर अधार।।14।।
सरलार्थ:– शरीर की प्रकृतियों को परमात्मा प्राप्ति की तड़फ रूपी अग्नि में जलाकर दृढ़ रहे, वह अमरत्व प्राप्त करता है। वह जीव ब्रह्म (पीव) के गुणों युक्त अमर हो जाता है। वह अधर-आधार यानि सर्वोपरि स्थान सतलोक में आनन्द से रहता है (खेलता है) यानि मौज-मस्ती करता है। (14)
इसी विषय में संत गरीबदास जी की वाणी है:-
गरीब, अनन्त कोटि ब्रह्मा आये, अनन्त कोटि भये ईश। साहिब तेरी बंदगी से, जीव होत जगदीश।।
वाणी नं. 15:-
गरीब, त्रिकुटी आगे झूलता, बिनहीं बांस बरत। अजर अमर आनंद पद, परखे सुरति निरत।।15।।
सरलार्थ:– परमात्मा अन्य वेश में त्रिकुटी कमल में रहता है। बिन ही बाँस बरत का भावार्थ बिना छत्र, मुकुट व सिंहासन के त्रिकुटी में परमेश्वर जी सतगुरू रूप में रहते हैं। वह परमेश्वर सुखदाई (आनन्द कन्द) है, अजर-अमर है। उसको सत्यनाम के जाप से सुरति-निरति से भक्त परख (जाँच) करता है। सत्यनाम के जाप से यदि सतगुरू रूप में विराजमान परमात्मा के चेहरे यानि स्वरूप में परिवर्तन नहीं होता है तो समझा जाता है कि वास्तविक सतगुरू कबीर जी ही हैं। यदि काल ब्रह्म ने सतगुरू का रूप बना रखा होता है तो सत्यनाम के जाप से उसका काल रूप प्रकट हो जाता है। सतगुरू का स्वांग नष्ट हो जाता है। झूलने का भावार्थ है कि जिधर देखें, उधर ही सतगुरू खड़ा दिखाई देता है। (15)
वाणी नं. 16:-
गरीब, यह महिमा कासे कहूँ, नैनों मांही नूर। पल पल में दीदार है, सुरति सिन्धु भरपूर।।16।।
सरलार्थ:– भक्त की साधना से भक्ति की कमाई की रेखाएँ आँखों के सामने दिखाई देती हैं जो अन्य को दिखाई नहीं देती। प्रत्येक भक्त को अपनी-अपनी रेखाएँ आँखों के सामने दिखाई देती हैं। पलकें बंद कर लेते हैं तो पलकों के अंदर दिखाई देती हैं। सूक्ष्म रूप बन जाती हैं। यदि किसी कार या बस के शीशे के बाहर दृष्टि दौड़ाते हैं तो शीशे को पार करके बाहर दिखाई देती हैं। एक भक्त की रेखाएँ (जिसे संत गरीबदास जी ने बंकड़ा साहेब भी कहा है) दूसरे भक्त को दिखाई नहीं देती। इसलिए कहा है कि यह महिमा किसको बताऊँ कि मेरे नैनों (आँखों) में परमेश्वर का नूर (नूरी झलक) दिखाई देता है। उसके मैं पल-पल (क्षण-क्षण में) दीदार (दर्शन) करता हूँ। मेरी सुरति-निरति इस नूरी शक्ति से भरी है। सुरति दूर की वस्तु को देखती है। निरति निरीक्षण (परख) करती है कि यह गाय है या भैंस। इसको सुरति तथा निरति स्पष्ट करती है। (16)
वाणी नं. 17:-
गरीब, झीना दरसें दास कूं, पौहप रूप प्रवान। बिनही बेली गहबरै, है सो अकल अमान।।17।।
शब्दार्थ:– झीना = सूक्ष्म, पतला। दरसें = दिखाई देता है। दास कूँ = भक्त को। पोहप = पुष्प। रूप = के आकार में। प्रवान = पूर्ण रूप से प्रमाणित। वह बंकड़ा साहेब रूपी फूल किसी बेल (लता) के नहीं लगा है। वह तो अकल (अविनाशी) है। अमान = शांत, आनंददायक। गहबरै = विकसित होता है।
सरलार्थ:– भक्तों को वह सूक्ष्म रूप बंकड़ा साहेब रूपी फूल दिखाई देता है। वह बिना लता (बेल) के विकसित होता है। जिस भक्त को वह भक्ति की कमाई रूपी रेखाएँ दिखाई देती हैं, वह मोक्ष का अधिकारी हो चुका है। यदि आजीवन मर्यादा में रहकर भक्ति करता रहेगा तो वह अमर होगा। आनन्द व चैन से सतलोक में रहेगा। (17)
वाणी नं. 18:-
गरीब, अकल अभूमी आदि है, जाका नाहीं अंत। दिलही अंदर देव है, निरमल निरगुन तंत।।18।।
सरलार्थ:– अकल (अविनाशी = जिसका काल न हो), भूमि = ऊपर के चारों लोक जो अमर धरती है, वह सनातन है। उसमें निवास करने वाला निर्मल निर्गुण (अव्यक्त) देव (परमेश्वर) जो तंत यानि सब देवों का सार प्रभु यानि कुल का मालिक है। वह हमारे दिल में बसा है। (18)
वाणी नं. 19:-
गरीब, तन मन सेती दूर है, मांहे मंझ मिलाप। तरबर छाया विरछ में, है सो आपे आप।।19।।
सरलार्थ:– वह परमेश्वर दूर सतलोक में है जिसे स्थूल शरीर तथा मन की कल्पनाओं से नहीं देख सकते। वैसे उस प्रभु का प्रभाव शरीर में भी है। इस प्रकार जीव से मिला भी है। जैसे तरवर (वृक्ष) की छाया वृक्ष का ही प्रतिबिंब होती है। ऐसे परमेश्वर तो सतलोक आदि-आदि ऊपर के लोकों में है। उसकी शक्ति वृक्ष की छाया की तरह सर्व ब्रह्माण्डों में फैली है। (19)
वाणी नं. 20:-
गरीब, नौ तत्त के तो पांच हैं, पांच तत्त के आठ। आठ तत्त का एक है, गुरु लखाई बाट।।20।।
सरलार्थ:– आँखों में जो नूरी रेखाएँ हैं, वे सँख्या में 14 हैं जिनमें से नौ तत यानि परमेश्वर की नौ सिद्धियों के प्रतीक तो पाँच हैं। पाँच तत (सिद्धियों) के प्रतीक आठ हैं तथा आठ तत (सिद्धियों) का प्रतीक एक है जो कुल मिलाकर (5़8़1) चैदह हैं जो भिन्न-शक्ति का ग्राफ है। यह बाट यानि मार्ग सतगुरू जी ने दिखाया है। (20)
वाणी नं. 21:-
गरीब, चार पदारथ एक करि, सुरति निरति मन पौन। असल फकीरी जोग यौंह, गगन मंडल कूं गौन।।21।।
सरलार्थ:– स्मरण (नाम जाप) करते समय अपने मन को, सुरति-निरति को पवन (श्वांस) पर टिकाकर रखें। वास्तव में (फकीरी) सन्यासी होना तथा जोग (योग) यानि भक्ति करना यह है। वन में जाने की अपेक्षा गगन मण्डल अर्थात् आकाश खण्ड में ध्यान रखो। सतलोक जाने की आशा रखो। शास्त्रा विरूद्ध साधना करने से कोई लाभ नहीं होता। (21)
वाणी नं. 22:-
गरीब, पंछी घाल्या आलना, तरबर छाया देख। गरभ जूंनि के कारणै, मन में किया बिबेक।।22।।
भावार्थ:– जैसे पक्षी ने गर्भ धारण किया तो विवेक (विचार) किया। वृक्ष की अच्छी छाया देखकर घोंसला बनाया। (शब्दार्थ:- आलहना = घोंसला, घाल्या = बनाया, डाला।) (22)
वाणी नं. 23:-
गरीब, जैसे पंछी बन रमया, संझा लै बिसराम। प्रातः समै उठि जात है, सो कहिये निहकाम।।23।।
भावार्थ:- जैसे पक्षी सारा दिन वन में रमता (घूमता) है। सूर्य अस्त होने के समय (शाम के समय) किसी भी वृक्ष पर बैठकर रात्रि व्यतीत करता है। प्रातः काल उड़कर चला जाता है। वह उस वृक्ष से लगाव नहीं रखता। इसी प्रकार तत्त्वज्ञान प्राप्त साधक को संसार समझना चाहिए। अपने आवास को सीमित (छोटा) बनाएँ यह उद्देश्य रखे कि सुबह (मृत्यु के समय) सब छोड़कर उठ जाना है। यह तो अस्थाई ठिकाना है। स्थाई ठिकाना सतलोक है, वहाँ जाना है। (23)
वाणी नं. 24:-
गरीब, जाके नाद न बिंद है, घट मठ नहीं मुकाम। गरीबदास सेवन करे, आदि अनादी राम।।24।।
सरलार्थ:– जिस परमेश्वर का शरीर पाँच तत्त्व से निर्मित नहीं है, उस परमेश्वर को वही प्राप्त कर सकता है जिसने नाद यानि वचन के शिष्य रूपी परिवार को तथा बिन्द यानि शरीर के परिवार को अपना न मानकर परमेश्वर के बच्चे माने हैं। उन पर अपना दावा नहीं करता। जिसको काल के लोक में अपना कोई ठिकाना दिखाई नहीं देता। संत गरीबदास जी कहते हैं कि आदि-अनादि यानि सर्व प्रथम (आदि सनातन) परमात्मा की सेवा यानि भक्ति वही करेगा, उसी को उसकी प्राप्ति होगी। (24)
स्वामी रामदेवानंद गुरू महाराज जी की असीम कृपा से “बिरह चितावनी के अंग” का सरलार्थ सम्पूर्ण हुआ। ।।सत साहेब।।